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प्रभु की मेज़ - अयोग्य रीति से भाग लेना
हमने पिछले लेखों में, 1 कुरिन्थियों 11:25-26 से देखा है कि प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों के लिए यह निर्धारित किया था कि वे उसकी यादगार के लिए प्रभु भोज में भाग लेंगे, और रोटी तथा प्याले को उनके तोड़ी गई उसकी देह था बहाए गए लहू के चिह्न ठहराया था। यहाँ पर पवित्र आत्मा पौलुस के द्वारा प्रभु यीशु को याद करने से संबंधित एक और तथ्य को भी उजागर करता है; प्रभु की मेज़ में भाग लेने में निहित है कि भाग लेने वाला, प्रभु के आने तक, उसकी मृत्यु का प्रचार भी करेगा। दूसरे शब्दों में, भाग लेने वाला जानता है, मानता है, और फिर से पुष्टि करता है कि वह प्रभु की मृत्यु और पुनरुत्थान का गवाह है, उसे औरों को यह गवाही देनी है, यह परमेश्वर के द्वारा उसे सौंपी गई ज़िम्मेदारी है, और जब वह प्रभु के सामने खड़ा होगा तब प्रभु को इसका हिसाब भी देगा। प्रभु की मेज़ के इस अभिप्राय के बारे में हम पिछले लेख में देख चुके हैं।
अपने पाठकों को इन बातों के बारे में याद दिलाने के बाद, पौलुस पवित्र आत्मा की अगुवाई में, 1 कुरिन्थियों 11:27 में, प्रभु की मेज़ से संबंधित एक बहुत गंभीर तथ्य को प्रस्तुत करता है। इस तथ्य के बारे में सामान्यतः कलीसियाओं में, विशेषकर डिनॉमिनेशन से संबंधित कलीसियाओं में, जहाँ पर लोग प्रभु भोज में भाग बारंबार दोहराई जाने वाली रीति के समान लेते हैं, शायद ही कभी बताया या सिखाया जाता है। ये लोग रीति के समान भाग लेने के द्वारा संतुष्ट और प्रसन्न हो जाते हैं कि यह कर लेने के द्वारा परमेश्वर के साथ उनके संबंध ठीक हो गए हैं, अब उन्होंने अपनी डिनॉमिनेशन की प्रथा को पूरा कर लिया है। इस पद में पौलुस गलती में पड़ी कलीसिया के सामने उनके प्रभु भोज में गलत रीति से भाग लेने और इस कारण से इसके लिए उनके प्रभु यीशु को उत्तरदायी होने के तथ्य को रखता है। ध्यान कीजिए कि पौलुस इसे एक संभावना के तौर पर नहीं लिखता है, वरन एक स्थापित सत्य के समान कहता है; न ही वह यह कहता है कि केवल कुछ ही लोग, जैसे कि वे जो बारंबार गलती करते हैं, या जिनके जीवनों में इसके अतिरिक्त भी कुछ अन्य गलतियाँ पाई जाती हैं, आदि, उन्हीं के लिए जवाबदेही होगी। वरन, पौलुस लिखता है, “जो कोई”, अर्थात, जिसने भी, कभी भी, चाहे एक बार या चाहे बारंबार, अनुचित रीति से भाग लिया है, वह प्रभु की देह और लहू का दोषी ठहर चुका है। प्रभु भोज में भाग लेने वालों ने यह अपने डिनॉमिनेशन, मत, या समूह की रीति के अनुसार किया होगा; किन्तु यदि उन्होंने परमेश्वर के वचन के अनुसार “अनुचित रीति से” भाग लिया है, तो चाहे वे अपनी रीति के अनुसार सही भी हों, फिर भी प्रभु की देह और लहू के दोषी हैं। यह हमारे सामने इस वाक्यांश “अनुचित रीति से” के अर्थ एवं अभिप्राय को समझने की अनिवार्यता को रखता है।
ध्यान कीजिए कि यहाँ पर पद 27 का आरंभ “इसलिए” के साथ होता है, जो यह दिखाता है कि आने वाली बात, इससे पहले की बात पर आधारित है। पद 27 के कथन से पहले, पवित्र आत्मा ने पौलुस के द्वारा, पद 25-26 में दो बातों पर जोर दिया है। पहली यह कि प्रभु की मेज़ में भाग लेना किसी भी अन्य उद्देश्य से नहीं वरन केवल प्रभु को याद करने ही के लिए हो, जैसा कि स्वयं प्रभु यीशु ही ने कहा था; और दूसरी बात, भाग लेना अपने आप में यह निश्चित करता है कि भाग लेने वाला प्रभु के आने तक प्रभु की मृत्यु का प्रचार करेगा, अर्थात उसका गवाह बनकर रहेगा। जिस शब्द का अनुवाद “अनुचित रीति से” किया गया है, मूल यूनानी भाषा में वह है “एनाक्सिऑस” और इसका शब्दार्थ होता है कसी बात या चीज़ को, जैसा उसका वास्तव में है, उससे भिन्न मूल्य या वज़न लगाना या बताना। इससे हम यह समझ सकते हैं कि प्रभु यीशु द्वारा प्रभु भोज को दिए गए अर्थ और अभिप्राय से भिन्न किसी भी अर्थ अथवा अभिप्राय के साथ उसमें भाग लेना, “अनुचित रीति से” भाग लेना है।
हम पद 25-26 में देखते हैं कि प्रभु की मेज़ का विषय या ध्यान पूर्णतः केवल प्रभु यीशु पर ही केंद्रित है। मेज़ में भाग लेना उसकी यादगार में होना है, उसकी देह के तोड़े जाने और लहू के बहाए जाने के उद्देश्य को ध्यान करते हुए होना है, प्रभु की मृत्यु के प्रचार के लिए होना है। इसमें किसी भी अन्य बात का न तो कोई उल्लेख है और न ही संभावना है, विशेषकर किसी मनुष्य से संबंधित किसी भी बात की तो बिल्कुल भी नहीं। इस पद के आरंभ के “इसलिए” के संदर्भ में, यदि कोई भी प्रभु यीशु को याद करने और उसकी मृत्यु का प्रचार करने, अर्थात उसका समर्पित और विश्वासयोग्य गवाह होने, के अतिरिक्त, किसी भी अन्य उद्देश्य से यदि भाग लेता है, तो वह “अनुचित रीति से” भाग लेना होगा। जो लोग इसमें प्रभु पर ध्यान केंद्रित करने की बजाए, अपने ऊपर ध्यान केंद्रित करते हुए, कि भाग लेने से वे धर्मी हो जाएंगे, या परमेश्वर को स्वीकार्य हो जाएंगे, या स्वर्ग में प्रवेश पाने के योग्य बन जाएंगे, या अपने मत अथवा डिनॉमिनेशन के धार्मिक अगुवों को प्रसन्न करने वाले बन जाएंगे, इत्यादि, बातों को मानते हुए भाग लेते हैं, वे प्रभु भोज पर अपने ही मन-गढ़ंत धारणाएं थोप रहे हैं, उसे ऐसे अर्थ और अभिप्राय दे रहे हैं जो प्रभु यीशु ने कभी नहीं कहे अथवा दिए; और प्रभु की देह और लहू के दोषी हैं। जो पाठक इन लेखों को पहले से पढ़ते आ रहे हैं, उन्हें ध्यान होगा कि पिछले लेखों में कितनी ही बार इस बात को जोर देकर कहा गया था कि सामान्य, विशेषकर डिनॉमिनेशन के अनुसार चलने वाली कलीसियाओं, की धारणाओं और मान्यताओं के विपरीत, प्रभु भोज का उद्देश्य भाग लेने वाले को धर्मी, या परमेश्वर को स्वीकार्य, या स्वर्ग में प्रवेश करने के योग्य बनाना कदापि नहीं है। आज के इस लेख से उन्हें और भी स्पष्ट हो जाना चाहिए कि किसी डिनॉमिनेशन अथवा मत या समुदाय द्वारा दी जाने वाली ऐसी कोई भी शिक्षा बाइबल के अनुसार सही नहीं है, बिल्कुल गलत है, और तुरन्त उसे पूर्णतः तिरस्कार कर देना चाहिए।
अगले लेख में हम उचित रीत से प्रभु भोज में भाग लेने के बारे में देखेंगे। यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
उत्पत्ति 23-24
मत्ती 7
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The Lord’s Table - Participating Unworthily
We have seen in the previous articles, from 1 Corinthians 11:25-26, that the Lord Jesus decreed partaking the Holy Communion for His disciples in remembrance of Him, called the bread and the cup symbols of His body broken for them and blood shed for them. The Holy Spirit, here, through Paul also brings out another fact to this remembrance of the Lord; inherent in participating in the Lord’s Table is fact that the participant is also proclaiming the death of the Lord till He comes. In other words, the participant knows, accepts, and affirms that he is to witness the Lord’s death and resurrection, it is his God given responsibility, and he will give an account of this to the Lord when he stands before Him. We have seen about this aspect of the Lord’s Table in the previous article.
After reminding his readers about these things, in 1 Corinthians 11:27, Paul under the guidance of the Holy Spirit presents a very serious aspect of the Lord’s Table; one that is hardly ever emphasized, or taught, in most Churches, especially where people participate in the Holy Communion as a recurring ritual, and feel satisfied that having done so now they are right with God, for now they have fulfilled their denominational requirement. In this verse Paul puts before the errant Church the fact of doing wrong about participating in the Holy Communion and therefore being accountable for it, to the Lord Jesus. Note that Paul does not state this as a possibility, but as an established fact; neither does he say that it will be only for certain people, e.g., those who do keep doing it over and over again, or those in whose lives certain other things besides this error are also seen. Paul says “whoever”, i.e., anyone, at any time, whether once or repetitively, participates in an unworthy manner, without any exception, becomes guilty of the body and blood of the Lord Jesus. The participants in the Holy Communion may have done it according to the teachings or practices of their denomination, sect, or group; but if they have done it in an “unworthy manner” according to the Word of God, despite being ritually and denominationally correct, they are guilty of the body and blood of the Lord Jesus. This places before us the necessity of understanding what the phrase “unworthy manner” means and denotes.
Note that here, verse 27 begins with “Therefore”, making it conditional that what follows, is a consequence or result of what has been stated before it. Before the statement of verse 27, in verses 25 and 26, the Holy Spirit through Paul has emphasized two things - first, the partaking in the Lord’s Table has to be done, for nothing else but in remembrance of the Lord, as the Lord Himself had said; and secondly, the partaking by itself mandatorily places upon the partaker the responsibility of proclaiming the Lord’s death till He comes, i.e., of witnessing for the Lord. The word translated as “unworthy manner” or “unworthily”, in the original Greek language is “anaxios”, which literally means to weigh or value something differently from what it actually is, i.e., ascribe a different value or meaning to the thing, than the actual value or meaning. So, we can see from this that participating in the Holy Communion in any manner, or with any purpose or intention, other than originally given or ascribed to it by the Lord Jesus, is participating in an unworthy manner, or unworthily.
From verses 25-26 we see that the focus of the Lord’s Table is not any man, but the Lord Jesus Himself. Participation has to be in His remembrance, to remember the purpose of His body being broken and blood being shed, and to proclaim the Lord’s death. There is no mention or scope of anything else, particularly anything related to any other person, for whatever else. In context of the “Therefore” at the beginning of the verse, anyone participating in it for any purpose other than remembering the Lord and proclaiming the death of the Lord, i.e., affirming being the Lord’s committed and faithful witness, till He comes, is participating unworthily. Those who participate in it with focus not on the Lord but on themselves, thinking it will make them righteous, or acceptable to God, or worthy of entering heaven, or pleasing in the eyes of their religious elders and leaders, etc. are concocting and ascribing their own contrived meanings to the Holy Communion; meanings not given to it by the Lord Jesus, and are guilty of the body and blood of the Lord. Those who have been reading these articles and following their contents, can recall that it has been said many times in these articles that contrary to the popular thinking and belief, particularly amongst the denominational Churches, the Lord’s Table is not meant to make the participants righteous, or acceptable to God, or worthy of entering heaven. This should now make it clear to them, why this has repeatedly been emphasized, and why any such denominational teaching is unBiblical, wrong, and to be discarded out-rightly.
In the next article we will see about participating worthily, or in the correct manner. If you are a Christian Believer and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Genesis 23-24
Matthew 7
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