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आराधना – प्रार्थना को प्रभावी बनाने के लिए
परमेश्वर की आराधना करने से संबंधित हमारे इस अध्ययन में अभी तक हमने देखा है कि परमेश्वर की आराधना करने, अर्थात उसे हमारे होंठों के और हमारे जीवन के फलों को अर्पित करने के द्वारा हम अपने विश्वास में और अधिक बढ़ते हैं तथा हर परिस्थिति में और हर बात के लिए परमेश्वर पर भरोसा बनाए रखने में और अधिक दृढ़ होते जाते हैं। इससे हम अपने विश्वास में स्थिर और दृढ़ होकर खड़े रहने पाते हैं, जिससे शैतान की चालाकियों और युक्तियों में फंसने और गिरने से सुरक्षित बने रहते हैं। पिछले लेख में हमने देखा था कि आराधना किस प्रकार से हमारे विश्वास को दृढ़ करती है और शैतानी ताकतों के हमले के समय में हमारी सुरक्षा को बनाए रखती है। आज से हम, परमेश्वर के वचनों के उदाहरणों के द्वारा आराधना के कुछ व्यावहारिक प्रभावों और उपयोगिता के बारे में देखना आरंभ करेंगे। आज हम जो पहली बात देखेंगे, वह है “आराधना के द्वारा प्रार्थना का प्रभावी होना।”
हम पहले देख चुके हैं कि पवित्र आत्मा की अगुवाई में पौलुस ने फिलिप्पियों 4:6 में निर्देश दिए हैं कि परमेश्वर के समक्ष प्रार्थनाएँ धन्यवाद - जो आराधना का एक स्वरूप है, के साथ प्रस्तुत की जाएँ। हम पौलुस के लेखों से, उसकी पत्रियों से यह भी देखते हैं कि यह पौलुस का नियम था कि वह जिनके लिए प्रार्थना करता था, साथ ही उनके बारे में किसी-न-किसी बात के लिए धन्यवादी भी रहता था, उदाहरण के लिए देखिए फिलिप्पियों 1:3-4; कुलुस्सियों 1:3; 1 थिस्सलुनीकियों 1:2; 2 तिमुथियुस 1:3; फिल्मों 1:4; आदि - इन पदों के उदाहरण से हम सीखते हैं कि पौलुस के जीवन में धन्यवाद और प्रार्थना साथ-साथ चलते थे, जिनके लिए वह प्रार्थना करता था, उनके लिए वह परमेश्वर का धन्यवाद भी करता था। हम आराधना के द्वारा प्रार्थना के प्रभावी होने के दो उदाहरण देखेंगे एक नए नियम से और दूसरा पुराने नियम से।
नए नियम से हम प्रभु यीशु द्वारा मत्ती 6:9-13 में सिखाए गए प्रार्थना के नमूने को देखते हैं, जिसे सामान्यतः “प्रभु की प्रार्थना” कहा जाता है। आज, सभी डिनॉमिनेशंस के लोग इसे एक रीति या परंपरा के समान, एक रटी हुई प्रार्थना के रूप में हर अवसर पर बोल देते हैं, बिना इसके अर्थ अथवा उपयोगिता को जाने या समझे। जिस प्रकार से आज इसका उपयोग किया जा रहा है, वैसे उपयोग के लिए यह प्रार्थना कभी दी ही नहीं गई थी। यह तो प्रभु द्वारा शिष्यों के सिखाया गया प्रार्थना का एक नमूना, एक ढाँचा था, जिस पर आधारित होकर शिष्यों को व्यक्तिगत रीति से अपनी प्रार्थना को करना था। जब हम इसे बाइबल में पढ़ते हैं तो देखते हैं कि इसका आरंभ पद 9 और 10 में आराधना के साथ होता है - परमेश्वर के गुणानुवाद या गुणगान के साथ, परमेश्वर के राज्य और इच्छा की बड़ाई करते हुए, और इन्हें पृथ्वी पर भी स्थापित होते देखने की लालसा को व्यक्त करने के साथ। फिर पद 11 से लेकर 13 के आरंभिक भाग तक निवेदनों का खण्ड है; और प्रार्थना का अन्त फिर से पद 13 के दूसरे भाग में परमेश्वर के गुणानुवाद, उसकी आराधना के साथ होता है। इस प्रकार से हम सीधे प्रभु यीशु द्वारा शिष्यों को सिखाए गए प्रार्थना के नमूने से ही सीखते हैं कि प्रार्थना के साथ आराधना का क्या महत्व है; प्रार्थना का आरंभ और अन्त दोनों आराधना के साथ होना चाहिए।
पुराने नियम से 2 इतिहास 20:1-17 को पढ़िए, राजा यहोशापात की प्रार्थना, जो पद 6 से 12 में दी गई है, उसकी पृष्ठभूमि और उत्तर को समझने के लिए। यहोशापात एक परमेश्वर के भय में चलने तथा राज्य करने वाला राजा था (2 इतिहास 19:4-11)। अब परमेश्वर यहोशापात को आशीष देने जा रहा अता; किन्तु यह आशीष एक परेशानी के भेस में उसके पास आई; हम इसे आगे के एक लेख में कुछ और विस्तार से देखेंगे। जैसा हम 2 इतिहास 20:1 से देखते हैं, तीन सामर्थी राजा गठबंधन कर के यहोशापात पर आक्रमण करने के लिए निकले। जब यहोशापात को इस विनाशकारी स्थित का पता चला, यह जानते हुए कि उसमें इतनी सामर्थ्य नहीं है कि वह स्थिति का सामना कर सके, वह उन से छुटकारे के समाधान के लिए परमेश्वर के पास गया और अपनी प्रजा के लोगों को भी साथ ले गया (पद 3-4)। पद 5 से 12 में दी गई उसकी प्रार्थना पर ध्यान कीजिए; पद 6 से लेकर 11 तक केवल परमेश्वर की आराधना है - परमेश्वर का गुणानुवाद, उसके चरित्र और गुणों को याद करना, उसके किए कार्यों को दोहराना; अविश्वासी अन्य-जाति लोगों के प्रति भी, जो परमेश्वर के लोगों के विरुद्ध थे, परमेश्वर के व्यवहार को स्मरण करना। फिर इसके बाद, पद 11 में आकर प्रार्थना है, जिसमें वह पहले अपनी योग्यता और परिस्थिति का सामना करने में असमर्थ होने का अंगीकार करता है, और फिर परिस्थिति को परमेश्वर के हाथों में सौंप देता है। ध्यान कीजिए, यहोशापात कहीं पर भी परमेश्वर को कोई निर्देश नहीं देता है कि क्या करना चाहिए, कैसे करना चाहिए; वह केवल अपनी परिस्थिति परमेश्वर के सामने ब्यान कर के आगे उसके साथ क्या करना है, उसे परमेश्वर पर ही छोड़ देता है कि उसके लिए जो भी वह करना चाहे, जैसे भी वह करना चाहे। और फिर से पद 13 से 17 में उसकी आराधना और प्रार्थना के लिए परमेश्वर का उत्तर है; उसे विजयी होने, और परमेश्वर में होकर सुरक्षित बने रहने का आश्वासन मिलता है। इसकी तुलना में आज हमारी प्रार्थनाएँ कितनी भिन्न होती हैं; आज ऐसी किसी परिस्थिति में यदि हम हों तो हम अपना अधिकांश समय परमेश्वर से शिकायत करने, विलाप करने, कुड़कुड़ाने और खिसियाने में बिताते हैं, और साथ ही उसे यह भी बताते हैं कि उसे क्या करना है, कैसे करना है। लेकिन यहोशापात ने इस गंभीर परिस्थिति में पहले अपनी प्रजा को एकत्रित किया और उनके साथ परमेश्वर की आराधना की, उसका गुणानुवाद किया, और फिर परिस्थिति को उसके हाथों में सौंप कर शांत हो गया, परमेश्वर पर छोड़ दिया कि जो भी उसे उचित लगे वही करे।
हम इन उदाहरणों तथा परमेश्वर के वचन के अन्य पदों से देखते हैं कि आराधना हमें सही रीति से प्रार्थना करने में सहायता करती है, और उन प्रार्थनाओं को परमेश्वर की सामर्थ्य के द्वारा प्रभावी बनाती है। अगले लेख में हम नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी, परमेश्वर की संतान के जीवन में, आराधना से एक और भलाई, एक और व्यवहारिक उपयोग, देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
व्यवस्थाविवरण 20-22
मरकुस 13:21-37
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Worship - For Effective Prayers
In our study on worshipping God, we have seen so far, that worshipping God, i.e., giving to Him the fruits of our lips and of our lives make us grow strong in our faith and trust God even more in all circumstances and for all things, which then keeps us firmly established in our faith in God and helps prevent us from falling for the wiles of the devil that he keeps working against us. In the last article we had seen how worship strengthens our faith and ensures our safety when we face satanic attacks of various kinds. From today we will start considering some practical effects and applications of worshipping God, from the examples given in God’s Word the Bible. The first thing we will consider is that “Worship makes our prayers effective.”
We have seen earlier that Paul, through the Holy Spirit instructs in Philippians 4:6, to offer our prayers to God with Thanksgiving, which is a form of Worshipping God. We also see from Paul’s writings and letters that it was Paul’s habit to associate his prayers, with thanksgiving – a form of worship, for the subject of his prayers, e.g., Philippians 1:3-4; Colossians 1:3; 1 Thessalonians 1:2; 2 Timothy 1:3; Philemon 1:4; etc. - we see from these verses that in Paul’s life prayers and thanksgiving went hand-in-hand, he thanked God for those for whom he prayed. We will see two examples of prayer being made effective by worshipping, one from the New Testament, and the other from the Old Testament.
In the New Testament, let us consider the model prayer taught by the Lord, in Matthew 6:9-13; commonly called “The Lord’s Prayer”. Today, this prayer is repeated by rote, in all denominational Churches, on all occasions, and people just mumble it ritualistically, without any consideration of its meaning or application. This prayer was never meant to be used the way it is being used; it was given only to serve as a model, upon which the disciples of the Lord were to base and offer their personal prayers. When we read this prayer in the Bible, we see that it starts with Worship in verses. 9 & 10 – by exalting and praising God, extolling God’s kingdom and will, and desiring that they are present on earth as they are present in heaven. From verse 11 to 13a is the section of petitioning God; and the prayer then ends with Worship through exalting God in verse 13b. So, we have it directly from the Lord Jesus, in the model prayer that He taught to His disciples, the necessity and importance of worshipping God even when offering prayers to Him; prayers should begin and end with worship.
From the Old Testament, read 2 Chronicles 20:1-17, to understand the background and the result of King Jehoshaphat’s prayer which is given in verse 6 to 12. Jehoshaphat was a Godly king, ruling his kingdom in the fear of the Lord (2 Chronicles 19:4-11). God was now going to bless Jehoshaphat; we will take this up in some detail later under a separate heading; but this blessing came disguised as an adversity. As we see from 2 Chronicles 20:1, three mighty kings got together against him, to attack him. When Jehoshaphat heard of this impending disaster, being aware of his own inability to handle the situation, he went to God to provide to him the way out, and also took his people with him to petition God for their deliverance (verses 3-4). Study his prayer given in verse 5 to12; from verse 6 to 11 is pure worship - exalting God, recalling His character and deeds; God’s behavior even towards the ungodly gentiles who were unfavorable towards the people of God. Then finally in verse 11 is the actual prayer - he first acknowledges his inadequacy and inability to handle the situation, then simply turns the matter over into God’s hands. Jehoshaphat never instructs God what to do and how, he simply puts his need before God and leaves Him to do whatever He wants to do and however He wants to do. From verse 13 to 17 is God’s answer to his worship and prayer, an assurance of victory, of safety through God’s presence. This is so unlike the way we are used to praying today, where we spend most of the time complaining and lamenting before God and also telling Him what to do and how to do it. But Jehoshaphat, in the face of dire adversity first got his people together with him and worshipped God, exalted Him, and then simply placed the matter into God’s hands and stepped back; leaving it to God to whatever He thought was appropriate.
So, we see from these examples and other verses from God’s Word that worship helps us to pray worthily and makes our prayers more effective through the power of God. In the next article, we will look at another benefit, another practical effect and application of worship in the life of a Born-Again Christian Believer, a child of God.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Deuteronomy 20-22
Mark 13:21-37
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