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गुरुवार, 1 जून 2023

Miscellaneous Questions / कुछ प्रश्न - 24a - Pastors Asking for Worldly Things / पास्टरों द्वारा भौतिक वस्तुएँ माँगना (1)

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पास्टरों द्वारा कलीसिया के लोगों से सांसारिक वस्तुएँ लेना (1)

प्रश्न: 
    क्या चर्च के पादरी, या अगुवों और प्राचीनों का चर्च के लोगों से उत्तम वस्तुओं की माँग करना बाइबल के अनुसार उचित है?

 उत्तर:
           आज जिन्हें पास्टर, या अगुवे, या परमेश्वर के दास कहा जाता है, मूल यूनानी भाषा में उनके लिए नए नियम में प्रयुक्त शब्द का शब्दार्थ है “चरवाहा”, जिसे “रखवाला” भी कहा गया है। आरंभिक कलीसिया में इस सेवकाई, तथा कलीसिया के प्रबंधन से संबंधित अन्य दायित्वों के निर्वाह के लिए उपयुक्त लोगों को स्वयं परमेश्वर ही नियुक्त करके देता था (प्रेरितों 20:28; 1 कुरिन्थियों 12:28; इफिसियों 4:11)। उस समय न तो कोई बाइबल स्कूल अथवा कॉलेज थे, न ही थियोलोजी या धर्म-ज्ञान की कोई डिग्री की कोई आवशयकता थी, जिसके आधार पर कलीसिया के दायित्व सौंपे जाएँ। कलीसिया के कार्यों के लिए अगुवाई करने की नियुक्ति परमेश्वर अपने मानकों के आधार पर, और व्यक्ति के मसीही विश्वास में सत्यनिष्ठा और दृढ़ता तथा परमेश्वर के प्रति समर्पण के आधार पर करके देता था। परमेश्वर द्वारा कलीसिया की अगुवाई के लिए दायित्वों का यह निर्धारण किसी मनुष्य की किसी भी सांसारिक योग्यता, या उसके अध्ययन-स्तर, समाज में स्थान, उसकी आयु, वरिष्ठता और अनुभव, अथवा अन्य किसी सांसारिक आधार पर नहीं किया जाता था। जैसे-जैसे सुसमाचार का प्रचार और प्रसार हुआ तथा विश्वासी जन अपने मसीही विश्वास में परिपक्व तथा दृढ़ होते गए, तब परमेश्वर ने इन आरंभिक अगुवों को कुछ माप-दण्ड सौंप कर, उनके आधार पर कलीसिया के अगुवे नियुक्त करने के लिए कहा (प्रेरितों 14:23; तीतुस 1:5-9; 1 तिमुथियुस 3:1-7); ये अध्यक्ष, या अगुवे, कलीसिया की आवश्यकतानुसार, एक से अधिक भी हो सकते थे (फिलिप्पियों 1:1)। वर्तमान में देखी जाने वाली प्रवृत्तियां, एक तो यह कि किसी शैक्षिक योग्यता, सांसारिक हैसियत, या वोट प्राप्त कर लेने के आधार पर, कलीसिया का अगुवा बनना; तथा दूसरी यह, कि कलीसिया की उन्नति एवँ देखभाल करने को केवल कुछ ही लोगों का दायित्व समझना, ये न तो परमेश्वर से हैं और न ही बाइबल में दी गई विधि हैं, वरन यह भ्रष्ट मनुष्यों द्वारा परमेश्वर की विधियों में लाए गए बिगाड़ से आई हुई प्रथा है।

           साथ ही, एक अन्य बहुत महत्वपूर्ण पहलू है जिसका ध्यान रखना और उस पर गहन विचार करना अत्यंत आवश्यक है; वह है कलीसिया में कुछ लोगों की ज़िम्मेदार पदों पर नियुक्ति का अर्थ यह नहीं है कि मण्डली के शेष लोगों को कलीसिया और विश्वास से संबंधित दायित्वों में कोई रुचि लेने की आवश्यकता नहीं है। कलीसिया के आरंभ से ही सभी मसीही विश्वासियों को “राजपद धारी याजकों का समाज” माना गया है (1 पतरस 2:9), परमेश्वर के लिए निर्धारित “याजक” कहा गया है (प्रकाशितवाक्य 1:6), जो कि पुराने नियम से लिया गया विचार और ओहदा है, जिसके अन्तर्गत नियुक्त व्यक्ति परमेश्वर का सेवक और परमेश्वर की बातों को लोगों तक पहुँचाने वाला होता था। इससे यह प्रगट है कि परमेश्वर की कलीसिया में परमेश्वर का “याजक” होना और परमेश्वर के लिए कार्य करना केवल किसी नियुक्त अध्यक्ष या अगुवे ही का दायित्व नहीं है, वरन परमेश्वर की दृष्टि में उसका प्रत्येक नया जन्म पाया हुआ विश्वासी जन “याजक” है, और उसे वैसे ही कार्य भी करना है। और जैसे याजकों के लिए न केवल परमेश्वर के प्रति समर्पित होना अनिवार्य था, परन्तु उन्हें परमेश्वर के वचन में दृढ़ और स्थापित भी होना होता था, वैसे ही आज प्रत्येक मसीही विश्वासी को भी ऐसा ही होना है – ने केवल परमेश्वर के प्रति समर्पित परन्तु पमेश्वर के वचन में दृढ़ और स्थापित भी। वास्तविकता यही है कि यही परमेश्वर के प्रति उनके प्रेम और समर्पण की एकमात्र पहचान है (यूहन्ना 14:21, 23-24), इसके अतिरिक्त व्यक्ति के परमेश्वर के प्रति समर्पित होने की और कोई पहचान बाइबल में नहीं दी गई है (1 यूहन्ना 2:3-6)। इस बात पर थोड़ा रुक कर गंभीरता से विचार कीजिए, कि यदि परमेश्वर की प्रत्येक नया जन्म पाई हुई सन्तान परमेश्वर का “याजक” होने के नाते, परमेश्वर के वचन में दृढ़ और स्थापित होने के लिए सच्ची लगन के साथ परिश्रम और प्रयास करे, तो क्या कोई भी गलत और झूठी शिक्षा का देने वाला या गलत “अगुवा” अपने गलत शिक्षाओं और बातों के द्वारा परमेश्वर के लोगों को बहका या बरगला सकेगा, जैसा के आज इतना अधिकाई से हो रहा है? और यह भी सोचिए कि तब कलीसिया कितनी सामर्थी और प्रभावी हो जाएगी!

           क्योंकि सभी मसीही विश्वासी परमेश्वर के “याजक” भी हैं, इसीलिए, परमेश्वर ने अपने सभी “याजकों,” अर्थात मसीही विश्वासियों के लिए कोई न कोई सेवकाई भी निर्धारित की है (इफिसियों 2:10), जिससे न केवल वह विश्वासी वरन संपूर्ण मण्डली भी लाभान्वित हो सके। तथा उस सेवकाई  के द्वारा, कलीसिया में सभी के लाभ के लिए, परमेश्वर ने प्रत्येक मसीही विश्वासी को कुछ न कुछ गुण या वरदान भी दिए हैं (रोमियों 12:4-8; 1 कुरिन्थियों 12:4-11), जिनके सदुपयोग के द्वारा कलीसिया उन्नति करे, कलीसिया के लोग प्रभु के लिए एक प्रभावी गवाह बनें, और उद्धार के सुसमाचार का प्रसार हो। इसलिए कलीसिया की उन्नति, सुचारू कार्य, कलीसिया की बातों के उचित प्रबंधन, और कलीसिया की आवश्यकताओं और दायित्वों के सही निर्वाह के लिए, प्रत्येक “याजक” अर्थात प्रत्येक मसीही विश्वासी को भी कलीसिया में अवश्य ही सक्रीय एवँ संलग्न रहना चाहिए।

           आरंभिक कलीसिया में अगुवे कलीसिया पर शासन या अधिकार रखने के लिए नहीं, वरन कलीसिया की सेवा के लिए होते थे। पतरस ने अपनी पहली पत्री में, प्रभु यीशु मसीह को “प्रधान रखवाला” कहा है, और कलीसियाओं पर नियुक्त किए गए “रखवालों” को कलीसिया के लोगों की सेवा के लिए निर्देश दिए हैं: “तुम में जो प्राचीन हैंमैं उन की नाईं प्राचीन और मसीह के दुखों का गवाह और प्रगट होने वाली महिमा में सहभागी हो कर उन्हें यह समझाता हूं। कि परमेश्वर के उस झुंड कीजो तुम्हारे बीच में हैं रखवाली करोऔर यह दबाव से नहींपरन्तु परमेश्वर की इच्छा के अनुसार आनन्द सेऔर नीच-कमाई के लिये नहींपर मन लगा कर। और जो लोग तुम्हें सौंपे गए हैंउन पर अधिकार न जताओवरन झुंड के लिये आदर्श बनो। और जब प्रधान रखवाला प्रगट होगातो तुम्हें महिमा का मुकुट दिया जाएगाजो मुरझाने का नहीं” (1 पतरस 5:1-4)। इस खण्ड से स्पष्ट है कि अगुवों, या चरवाहों, या रखवालों को कलीसिया की सेवा करने वाला होना है, न कि कलीसिया से सेवा लेने वाला। अगुवे को कलीसिया के लोगों को परमेश्वर के वचन और आत्मिक जीवन की सही शिक्षा देनी है, उनके लिए आदर्श बनना है, उनकी सहायता एवं मार्गदर्शन करना है, उन पर अधिकार या रौब नहीं जताना है, और न ही उन्हें सांसारिक वस्तुओं की कमाई का माध्यम बनाना है। सच्चा अगुवा या रखवाला वही है जो परमेश्वर द्वारा दिए गए उपरोक्त निर्देशों को मानता है और प्रभु के भय में अपने झुण्ड की देखभाल और रखवाली करता है, अपने झुण्ड से सांसारिक वस्तुएँ कमाने के लिए नहीं वरन परमेश्वर द्वारा उसे सौंपे गए दाय्तिवों के निर्वाह के लिए, इस एहसास के साथ कि एक दिन उस झुण्ड की स्थिति और सलामती का सारा हिसाब-किताब उसे प्रभु को अवश्य ही देना होगा, क्योंकि प्रभु सभी से यह हिसाब बुलाकर लेगा (मत्ती 25:19), बचेगा कोई नहीं।

           कलीसिया के लोगों की भी ज़िम्मेदारी है कि जो लोग प्रभु की ओर से उनमें सेवकाई के लिए नियुक्त किए गए हैं, और उस सेवकाई का निर्वाह कर रहे हैं, उनकी बिना किसी संकोच या हिचकिचाहट के, ठीक से देखभाल करे और उनकी भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति का ध्यान रखे (1 कुरिन्थियों 9:1-14; गलातियों 6:6; 1 थिस्सलुनीकियों 5:12-13; 1 तिमुथियुस 5:17-18; इब्रानियों 13:7, 17)। यहाँ ध्यान की जाने वाली एक महत्वपूर्ण बात यह है कि बाइबल के इन सभी हवालों में यह बात व्यक्त अथवा निहित है कि पहला दायित्व सेवक द्वारा कलीसिया की उचित एवँ उपयुक्त देखभाल करने का है, जिसके प्रत्युत्तर में कलीसिया के लोगों को उस सेवक की देखभाल करने के लिए कहा गया है। अर्थात सेवक का पहला कर्तव्य है कलीसिया को देना – अपना समय, अपने गुण या योग्यताएँ, उसे प्रदान की गई वचन की समझ एवँ ज्ञान, कलीसिया के लोगों की सेवा, आदि। और फिर अपनी उसी सेवा के आधार पर ही वह कलीसिया के लोगों से अपनी भौतिक आव्श्यक्ताओं की पूर्ति करने की अपेक्षा रख तो सकता है। किन्तु लोगों से ऐसा करने की माँग करना या ऐसा करने के लिए कलीसिया के लोगों को बाध्य करना बाइबल में कहीं नहीं दिया गया है; पुराने नियम में भी नहीं।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
- क्रमशः
अगला लेख: पुराने नियम के याजकों का उदाहरण


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Pastors Seeking Worldly Things from Church Congregations (1)


Question: 
    Is it Biblical for Church Pastors, or Elders and Leaders to ask for worldly things from the Church members, and that too of a superior quality?

Answer:
           In the New Testament, for those who are known as Pastors, or Church Leaders, or Elders, or God's Servants today, the word used in the original Greek language, literally means "Shepherd", or "Care-taker". In the initial Church for this service, and for other responsibilities related to managing the functioning of the Church, it was God who appointed the appropriate persons (Acts 20:28; 1 Corinthians 12:28; Ephesians 4:11). In those days neither were there any Bible Schools or Colleges, nor was there any necessity of any Theological or Religious educational degree as pre-requisites for taking responsibilities in the Church. God used to raise up and appoint people for working in His Church according to His own standards, and based on the person's sincerity and commitment to the Christian faith. This entrusting of responsibility by God was not on the basis of the person's worldly status, educational qualifications, standing in the society, age or seniority and experience, or any other worldly considerations. As the Gospel spread and the Christian Believers continued to mature and grow in faith, God too then passed on the responsibility of appointing the Church Leaders or Care-takers to those faithful and committed persons whom He had initially appointed as leaders; but they were to do so based upon the standards and criteria that God had provided to them for this purpose, (Acts 14:23; Titus 1:5-9; 1 Timothy 3:1-7). Depending upon the needs of the given Church, these Elders or Leaders, could be one or more than one (Philippians 1:1). The current trends, firstly of becoming a leader or an Elder in the Church by virtue of some educational qualification, worldly status, or through garnering votes in an election, and secondly the belief that looking after the Church and working for its progress is the responsibility of only a few individuals, are neither from God nor Biblical; rather they are a corruption of God’s ways that has been brought in by unregenerate men.

           Moreover, another very important aspect to be noted and seriously pondered upon is that the appointment of certain people to positions of responsibility in the Church does not mean the exclusion of the rest of the congregation from being involved in Church and Faith related responsibilities. From the very beginning, all Christian Believers have been called "a Royal Priesthood" (1 Peter 2:9), and "Priests" to God (Revelation 1:6), drawing upon the Old Testament terminology and office of being appointed to serve God and convey God’s Word and instructions to people in general. Therefore it is evident that to be a "Priest" of God in the Church of God is not just the responsibility of an Elder or Pastor; rather, in God's eyes, each and every one of His Born Again children is a "Priest" and has to function so. And just as for the Old Testament priests it was essential not only to be committed to God, but also to be rooted and established in God's Word, similarly today each Christian Believer too should not only be committed to the Lord but also be rooted and established in God's Word. Actually speaking, being rooted and established in God's Word, i.e. loving God’s Word, is the one and only sign of a person’s being committed to the Lord and of loving Him, as stated by the Lord Jesus (John 14:21, 23-24); other than this no other sign of recognizing a person’s commitment to the Lord has been given in the Bible (1 John 2:3-6)Give it a thought, if every child of God diligently spent time and effort in learning and being rooted in God’s Word as a “Priest” to God, would any false teacher or “leader” be able to beguile and mislead God’s people through false teachings and wrong doctrines, as is so often happening today? And, how strong and effective would the Church then become!

           Since all Christian Believers are also God’s Priests, therefore, God has kept some service or the other for each and every one of His 'Priests', i.e. the Christian Believers (Ephesians 2:10); so that through that service not only the Believer but also the whole Church may get benefited. To enable every Believer to carry out and fulfill his appointed service, every Christian Believer has been given some talent or gift by God (Romans 12:4-8; 1 Corinthians 12:4-11), so that by putting that gift to good use the Church may progress, the people of the Church may be effective witnesses for the Lord, and the Gospel may spread. Hence for the growth, functioning, managing of Church affairs, and fulfilling the various needs and responsibilities in the Church, every “Priest” i.e. every Christian Believer should be actively involved in the Church.

           In the early Church the Elders and Leaders of the Church were not placed there for ruling over the Church or for using the Church for personal gains, instead they were there to serve the Church. Peter in his first letter, has called the Lord Jesus the "Chief Shepherd", and has instructed those appointed as "shepherds" over the Church to serve the people: “The elders who are among you I exhort, I who am a fellow elder and a witness of the sufferings of Christ, and also a partaker of the glory that will be revealed: Shepherd the flock of God which is among you, serving as overseers, not by compulsion but willingly, not for dishonest gain but eagerly; nor as being lords over those entrusted to you, but being examples to the flock; and when the Chief Shepherd appears, you will receive the crown of glory that does not fade away” (1 Peter 5:1-4). It is evident from this section that the Elders or shepherds of the Church were to be those who served the people of the Church, not those who received services from the people of the Church. The Elderor Care-takers in the Church ought to give the people of the Church true and factual teachings about God's Word and spiritual living, they should be a model for the people to emulate, they have to help and guide the people in learning and following the truth. The Elders or Leaders should neither exercise authority over the congregation, nor domineer over them for personal gains and benefits, nor use them as a means of acquiring worldly possessions. A true Elder or Care-taker is one who follows the instructions given by the Lord and takes care of his flock in the fear of the Lord; not to earn worldly possessions through them but to fulfill his God given responsibilities, with the realization that one day he surely will have to give an answer to the Lord about the state and welfare of his flock, because the Lord will summon everyone to receive an account (Matthew 25:19), no one will escape their accountability.

           It is the responsibility of the people of the Church as well to ensure that those who have been appointed for Church related services over them, and are also fulfilling their responsibilities, are properly looked after and their needs are met without any reluctance or hesitation by the congregation (1 Corinthians 9:1-14; Galatians 6:6; 1 Thessalonians 5:12-13; 1 Timothy 5:17-18; Hebrews 13:7, 17). An important point to be noted in each of these references from the Bible is that it is either stated or implied here that the first responsibility is of the Care-taker to provide an appropriate and proper fulfilling of his responsibilities towards the Church; and in response to that service, the people of the Church have been asked to look after that Care-taker and meet his needsIn other words, it is first the responsibility of the Elder or Leader to give to the Church – his time, his utilization of God given talents and abilities, the understanding and knowledge of God's Word granted to him, etc. to serve the people. Only then, in accordance with his services rendered should he expect the people of the Church to look after him and meet his needs. But at no place in the Bible, not even in the Old Testament, has it been stated or shown that the Care-taker can make demands on the people, or can compel the people of the Church to do something for him.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

- To Be Continued
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