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सुसमाचार से संबंधित शिक्षाएँ – 18
पिछले लेख में हमने देखा था कि चारों सुसमाचारों के लेखों में शब्द “मसीही” कहीं भी नहीं उपयोग किया गया है; न तो प्रभु यीशु के द्वारा, न उसके शिष्यों के द्वारा; और न ही जन-साधारण के द्वारा उनके लिए जो प्रभु यीशु के साथ किसी प्रकार से जुड़े हुए थे या उसका अनुसरण कर रहे थे। प्रभु की पृथ्वी की सेवकाई के समय में, उसके साथ लोगों की भीड़ और कुछ शिष्य रहा करते थे; और उसने उन शिष्यों में से बारह को चुनकर उन्हें प्रेरित कहा था। हमने देखा था कि प्रभु ने कुछ लोगों को व्यक्तिगत रीति से उसके पीछे हो लेने के लिए बुलाया था; किन्तु किसी एक व्यक्ति के बुलाए जाने से उसके परिवार के शेष सदस्य स्वतः ही प्रभु के शिष्य नहीं बन जाते थे; हर किसी को व्यक्तिगत रीति से प्रभु के पास आना होता था। किसी के प्रभु का शिष्य बन जाने से, सामान्य लोगों के लिए उसका परिवार कुछ विशिष्ट नहीं हो जाता था; और स्वयं प्रभु यीशु ने भी अपने परिवार के लोगों को, उनके उसके साथ सम्बन्धित होने के नाते, कोई विशेष स्तर अथवा स्थान नहीं दिया। यह इस बात पर ज़ोर देता है कि जो प्रभु के पीछे चलना चाहते हैं, उन्हें इसके लिए अपना व्यक्तिगत निर्णय लेना है, और व्यक्तिगत रीति से उसका निर्वाह करना है; यह किसी पारिवारिक सम्बन्धों अथवा वंशावली के कारण नहीं होता है। आज हम देखेंगे और सीखेंगे कि आरंभिक कलीसिया में लोग किस प्रकार से प्रभु यीशु के साथ जुड़े और उसके अनुयायी बने।
नए नियम में, चारों सुसमाचारों के ठीक बाद, प्रेरितों के काम पुस्तक है; यह पहली कलीसिया का इतिहास है; अर्थात प्रभु यीशु के आरंभिक अनुयायियों की गतिविधियों का वृतान्त है। प्रभु यीशु के इन अनुयायियों ने प्रभु के बारे में प्रेरितों तथा प्रभु यीशु के शिष्यों, जिन्होंने पिन्तेकुस्त के दिन पवित्र आत्मा से सामर्थ्य प्राप्त की थी (प्रेरितों 2:1-4), की सेवकाई के द्वारा जाना था। पिन्तेकुस्त के दिन पहला प्रचार पतरस के द्वारा किया गया था, और लगभग तीन हज़ार लोगों ने उसके सन्देश को ग्रहण किया, पापों से पश्चाताप किया, बपतिस्मा लिया और उसी दिन शिष्यों के साथ जुड़ गए (प्रेरितों 2:38-41)। उसके बाद से प्रभु के अनुयायियों की सेवकाई बढ़ती और फलती-फूलती गई, और प्रतिदिन लोग उनमें जोड़े जाते थे (प्रेरितों 2:42-47)।
यहाँ, प्रेरितों 2:47 में कुछ बहुत महत्वपूर्ण लिखा गया है; वहाँ लिखा है “...जो उद्धार पाते थे, उन को प्रभु प्रति दिन उन में मिला देता था।” यहाँ पर प्रथम कलीसिया की बढ़ोतरी से सम्बन्धित ध्यान देने के लिए दो बहुत महत्वपूर्ण बातें हैं: पहली, प्रभु ही अपनी कलीसिया में लोगों को मिलाता था; न तो कोई प्रेरित, न प्रभु का कोई शिष्य, और न ही कोई व्यक्ति जो जुड़ना चाहता था, यह कर सकता था। जो भी मिलाया जाता था, वह प्रभु ही के द्वारा मिलाया जाता था, किसी मनुष्य के द्वारा नहीं। दूसरी बात, प्रभु केवल उन्हें ही कलीसिया में मिलाता था “जो उद्धार पाते थे।” यह उसके समान था जो यूहन्ना बपतिस्मा देने वाला किया करता था, वह केवल उन्हीं को बपतिस्मा देता था जो पापों से पश्चाताप करते थे, और उन्हें मना कर देता था जो केवल एक रस्म के समान यह करना चाहते थे (मत्ती 3:5-8)। इस तथ्य को, कि केवल प्रभु ही कलीसिया में लोगों को मिलाता था, प्रेरितों 5:12-14 में भी दोहराया गया है और पुष्टि की गई है कि केवल जो विश्वास करते थे उन्हें ही कलीसिया में जोड़ा जाता था। बाइबल के इस तथ्य के आधार पर, आज की कलीसिया के अगुवों को बहुत गंभीरता से इस बात को जाँचना चाहिए, कि वे जिन लोगों को, और जिस आधार पर कलीसिया का “सदस्य” बना देते हैं, और फिर उन लोगों के कारण कलीसिया पर जो ऊँगलियाँ उठाई जाती हैं, क्या इस सब के लिए वे प्रभु के सामने खड़े होकर जवाब दे सकेंगे; उसके प्रकोप को झेल सकेंगे?
यद्यपि प्रेरितों के द्वारा बहुत से अद्भुत काम, चिह्न और चंगाइयां होते थे, किन्तु न तो वे, और न ही कोई अन्य व्यक्ति प्रभु की कलीसिया में किसी को जोड़ सकता था। साथ ही इस बात पर भी ध्यान कीजिए कि जिन्होंने इन अद्भुत कामों, चंगाइयों, चिह्नों आदि को अनुभव किया था, जिन पर ये किये गए थे, उन्हें कभी भी, कहीं भी, “उद्धार पाए हुए” या “विश्वासी” या “प्रभु के शिष्य” नहीं कहा गया है; अर्थात, प्रभु के नाम में और प्रभु की सामर्थ्य से इन आश्चर्यकर्मों, अलौकिक कार्यों को अनुभव करना और प्राप्त करना, उद्धार पाने, या विश्वासी के रूप में स्वीकार किये जाने, या प्रभु की कलीसिया में सम्मिलित किये जाने का गुण अथवा आधार नहीं था।
इन बातों से हम सीखते हैं कि किसी भी मनुष्य को, चाहे वह प्रभु का प्रेरित हो या शिष्य, प्रभु की कलीसिया में लोगों को जोड़ने की अनुमति या अधिकार नहीं दिया गया है। वे लोग भी जो प्रभु की कलीसिया का अंग बनना चाहते हैं, अपने आप से ऐसा नहीं कर सकते हैं। प्रभु ने मत्ती 16:18 में कहा है कि अपनी कलीसिया वह ही बनाएगा, और प्रभु की कलीसिया में केवल उन्हीं को स्थान दिया जाता है जिन्हें प्रभु ने चुना और जिनका अनुमोदन किया है; और किसी को नहीं। ध्यान देने योग्य एक और महत्वपूर्ण बात है कि केवल वही जो उद्धार पाए हुए, अर्थात विश्वासी थे, (प्रेरितों 2:37; 5:14), अर्थात जिन्होंने पापों से पश्चाताप किया और व्यक्तिगत रीति से यीशु को अपना प्रभु और उद्धारकर्ता ग्रहण किया (प्रेरितों 2:38), प्रभु ने केवल उन्हें ही अपनी कलीसिया में जोड़ा है। साथ ही, प्रभु यीशु द्वारा उसकी कलीसिया में जोड़े जाने की जो प्राथमिक आवश्यकता है, उद्धार पाया हुआ अर्थात विश्वासी होना, उससे यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि यह व्यक्ति द्वारा अपने पापों और उनके लिए पश्चाताप करने से सम्बन्धित जानते-बूझते हुए, सोच-विचार कर के लिया गया निर्णय है; और इन पदों में वाक्य की रचना भी इसी ओर संकेत करती है कि उद्धार पाना, विश्वासी होना, और प्रभु के द्वारा कलीसिया में जोड़ा जाना व्यक्तिगत निर्णय का कार्य था। इसलिए, यह स्वतः ही उन लोगों के कलीसिया का भाग होने को अस्वीकार कर देता है जिन्होंने पापों से पश्चाताप करने, उद्धार पाने, विश्वासी होने का व्यक्तिगत निर्णय नहीं लिया है। दूसरे शब्दों में, किसी व्यक्ति का अपना निर्णय, उसके परिवार पर लागू नहीं होता है; और न ही किसी परिवार के मुख्या अथवा किसी अन्य सदस्य द्वारा लिया गया निर्णय परिवार के अन्य सदस्यों पर मान्य हो जाता है। ऐसा नहीं होता है कि कोई एक जन ने उद्धार पाया, विश्वासी बना, और फिर उसके कारण उसके परिवार के अन्य लोगों को भी प्रभु के अनुयायी मान लिया गया और उन्हें भी कलीसिया में जोड़ दिया गया। एक अन्य ध्यान में रखने योग्य महत्वपूर्ण बात है कि क्योंकि किसी व्यक्ति ने अद्भुत काम, चंगाइयों, और चिह्नों को अनुभव किया है, इसलिए यह मान्य नहीं है कि वह उद्धार पाया हुआ विश्वासी, और प्रभु यीशु की कलीसिया का एक अंग भी हो गया है।
अभी तक हमने देखा है कि इतना कुछ हो रहा है, बहुतेरे पुरुष और स्त्रियाँ विश्वासी बन रहे हैं, प्रभु द्वारा कलीसिया में जोड़े जा रहे हैं, लेकिन फिर भी अभी तक किसी को भी “मसीही” नहीं कहा गया है; लेकिन परमेश्वर के वचन में उन्हें एक ऐसे अद्भुत नाम से संबोधित किया जाने लगा है, जिसे हम अगले लेख में, यहाँ से आगे बढ़ते हुए देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Teachings Related to the Gospel – 18
In the previous article we have seen that in the four Gospel accounts, the word “Christian” has never been used; neither by the Lord Jesus, nor by His disciples, nor by the general public, for anyone associated with, or following the Lord Jesus. During the time of the Lord’s earthly ministry, the crowds and His disciples were with Him; and out of those disciples He chose twelve and called them Apostles. We saw that the Lord had called people to follow Him individually; but calling one person did not automatically make his other family members the Lord’s disciples; each one had to come to the Lord individually. Being a disciple of the Lord did not make the family of that disciple special for the public; and even the Lord Jesus did not treat His own family as anyone special because of their relationship with Him. This emphasizes that those who want to follow the Lord, must come to a personal decision to follow Him, and do it as an individual; it is not done because of familial relationships and lineage. Today we will see and learn from how people came to be associated with the Lord Jesus and became His followers in the initial Church.
In the New Testament, immediately after the four Gospel accounts is the book of Acts; it is the history of the first Church, i.e., the account of the activities of the initial followers of the Lord Jesus Christ. These followers of the Lord Jesus learnt about the Lord through the ministry of the Apostles and the disciples of the Lord Jesus, who were empowered on the day of Pentecost by the Holy Spirit (Acts 2:1-4). The first preaching was done on the day of Pentecost by Peter, and about three thousand people accepted his message, repented of their sins, were baptized, and were added to the disciples that day (Acts 2:38-41). From then on, the ministry of the Lord’s followers flourished, and people were added to them daily (Acts 2:42-47).
Here, in Acts 2:47, there is something very important mentioned; it says, “… And the Lord added to the church daily those who were being saved.” There are two important things to note in this statement about the growth of the first Church: firstly, it was the Lord who added people to His Church; no Apostle, no disciple of the Lord did this, and neither did any individual do it on his own. Whoever was added, was added by the Lord, not any man. Secondly, the Lord added only “those who were being saved.” This is like what John the Baptist did; he baptized only those who repented of their sins and refused to baptize those who wanted to get it done as a ritual (Matthew 3:5-8). This fact, of only the Lord adding to the Church, and adding only the “Believers,” is reiterated and affirmed in Acts 5:12-14. On the basis of this Biblical fact, the present day Church elders and leaders should very seriously introspect and examine that the kind of people, and the reasons according to which they are making people “members” of the Church, and then because of those “members” the fingers that are pointed at the Church, for all this will they be able to stand before the Lord and give an account of what they did; will they be able to withstand His wrath?
Though miracles, signs, wonders, healings, etc. were being done through the Apostles, but neither they, nor any other person could add anyone to the Lord’s Church. Also note that those who experienced these miracles, signs, wonders, healings, etc., have not been called “saved,” or “Believers,” or “followers of the Lord;” i.e., experiencing and receiving these supernatural phenomena, through and in the name of the Lord, is no indicator or criteria of having being saved, or being accepted as a Believer, nor of being a part of the Church of the Lord Jesus Christ.
The lessons we draw from this are that no man, be it the Lord’s Apostle or a disciple, had the authority to add anyone to the Lord’s Church. Even those desiring to be a part of the Church could not do it on their own. The Lord had said in Matthew 16:18 that He would build His Church, and In the Lord’s Church only those chosen and approved by the Lord find a place; no one else. Another important thing to note is that only those who were saved or those who were Believers (Acts 2:37; 5:14), i.e., those who had repented of their sins and personally had accepted the Lord Jesus as their savior and Lord (Acts 2:38), were added to the Church by the Lord Jesus. Moreover, the precondition of being saved, being a Believer, for being added to the Church by the Lord Jesus, clearly implies an adult taking a conscious, deliberate decision as an individual about his sins and his repentance; as the construction and sense of the sentences in these verses make it apparent, this being saved or being a Believer and then being added to the Church by the Lord, was being done on an individual basis. Therefore, this automatically rules out their becoming a part of the Church of the Lord, those who have not taken the decision to repent, be saved and be a Believer. In other words, an individual’s decision, did not automatically carry over to the family, nor did the family elder’s or some family member’s decision automatically apply to the other members of the family. It was not that someone got saved, or became a Believer, and because of that his family too was considered followers of the Lord and added to the Church by the Lord. Another important thing to take note of is that because a person has experienced miracles, signs, wonders, healings, etc. does not imply that he has been saved, has become a Believer, and is a part of the Church of the Lord Jesus Christ.
So far we have seen that all this is happening, multitudes of both men and women are becoming Believers, are being saved, are being added to the Church by the Lord, yet they have not been called “Christians” as yet, in God’s Word, but they have been given a peculiar name by the people. We will take it up from here in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.