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मंगलवार, 12 जुलाई 2022

मसीही विश्वास एवं शिष्यता / Christian Faith and Discipleship – 24


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मसीही विश्वासी - आश्चर्यकर्मों के लिए अधिकार

मरकुस 3:14-15 में अपने शिष्यों के लिए प्रभु के तीन प्रयोजनों में से दो को, कि शिष्य प्रभु के साथ रहें, और जब तथा जहाँ भी प्रभु उन्हें भेजे, वहाँ जाकर वह प्रचार करें जो प्रभु उन्हें करने को कहे हम देख चुके हैं। प्रभावी और सफल सेवकाई के लिए ये तीनों प्रयोजन बहुत महत्वपूर्ण, वरन अनिवार्य हैं। पहला प्रयोजन प्रभु के साथ रहकर उससे सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए है; दूसरा उसकी आज्ञाकारिता और उसके प्रति समर्पण में होकर, अपनी नहीं वरन उसकी इच्छा पूरी करने से संबंधित है। और आज हम तीसरे प्रयोजन उस अधिकार के बारे में देखेंगे, जो अपने साथ रहने वाले, और अपने आज्ञाकारी शिष्यों को प्रभु देता है।


तीसरा प्रयोजन है “और दुष्टात्माओं के निकालने का अधिकार रखें” (मरकुस 3:15)। प्रभु ने अपने शिष्यों को संसार में अपने प्रतिनिधि होने के लिए बुलाया और चुना था, और प्रभु की पृथ्वी की सेवकाई के पश्चात, उन्हें ही प्रभु के कार्य को आगे बढ़ाना था, सारे संसार में पहुँचाना था। जो संसार के सामने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के प्रतिनिधि होंगे, उन प्रतिनिधियों में उन्हें यह अधिकार देने वाले के समान कुछ गुण भी अवश्य होंगे। इसीलिए हम देखते हैं कि प्रभु ने अपने आज्ञाकारी और समर्पित शिष्यों को एक ऐसा अधिकार भी दिया, जो संसार का कोई व्यक्ति, कोई सामर्थ्य उन्हें नहीं दे सकती थी - वे दुष्टात्माओं पर अधिकार रखें। मत्ती यह भी बताता है कि प्रभु ने न केवल दुष्टात्माओं को निकालने का अधिकार दिया, वरन बीमारियों और दुर्बलताओं को दूर करने का भी अधिकार दिया “फिर उसने अपने बारह चेलों को पास बुलाकर, उन्हें अशुद्ध आत्माओं पर अधिकार दिया, कि उन्हें निकालें और सब प्रकार की बीमारियों और सब प्रकार की दुर्बलताओं को दूर करें” (मत्ती 10:1)। और जब प्रभु ने उन्हें प्रचार के लिए भेजा, तो उन्होंने यह सब किया भी “और उन्होंने जा कर प्रचार किया, कि मन फिराओ। और बहुतेरे दुष्टात्माओं को निकाला, और बहुत बीमारों पर तेल मलकर उन्हें चंगा किया” (मरकुस 6:12-13)। किन्तु मरकुस 9:14-29 (तथा मत्ती 17:14-20, और लूका 9:37-42) में एक और घटना भी है जब यही शिष्य एक लड़के में से एक दुष्टात्मा को नहीं निकाल सके। और प्रभु ने उनकी असफलता का कारण उनका अविश्वास और प्रार्थना की कमी को बताया। संभवतः शिष्यों में प्रभु की बजाए अपने आप पर, अपनी सामर्थ्य पर भरोसा आ गया था; वे प्रभु पर विश्वास के साथ नहीं, अपने ऊपर रखे गए विश्वास द्वारा यह करना चाह रहे थे, और जब असफल रहे तो संदेह में भी आ गए।

 

प्रभु द्वारा शिष्यों के प्रयोजनों के लिए दिया गया क्रम और अभिप्राय आज भी उतने ही महत्वपूर्ण और कार्यकारी हैं। जो प्रार्थना और वचन के अध्ययन के द्वारा प्रभु के साथ बने रहते हैं; जो प्रभु के आज्ञाकारी रहते हैं, तब ही और वही कहते और करते हैं जब और जो प्रभु कहता है; और हर बात के लिए प्रभु पर निर्भर तथा उस पर विश्वास रखने वाले रहते हैं, वे फिर प्रभु के लिए अपनी सेवकाई के दौरान प्रभु से आश्चर्यकर्म भी करने की सामर्थ्य पाते हैं और उन कार्यों को सेवकाई की आवश्यकता के अनुसार प्रभु की महिमा के लिए करते भी हैं। प्रभु यीशु ने अपनी पृथ्वी की सेवकाई के अंत में, अपने स्वर्गारोहण के समय, शिष्यों को संसार में सुसमाचार प्रचार के लिए जाने से पहले फिर से यह अधिकार दिए थे (मरकुस 16:17-18)। किन्तु ध्यान कीजिए, यहाँ पर प्रभु ने इस सामर्थ्य और इस अधिकार को सुसमाचार प्रचार के साथ जोड़ा है, उसके अतिरिक्त प्रदान नहीं किया है; और साथ ही प्राथमिकता फिर भी “विश्वास करने” ही की थी - जो विश्वास में स्थिर और दृढ़ होगा, और इस सामर्थ्य तथा अधिकार का प्रयोग प्रभु यीशु में विश्वास के द्वारा उद्धार के सुसमाचार के प्रचार के लिए करेगा, उसी में ये बातें भी कार्यकारी होंगी।


आज बहुत से लोग प्रभु यीशु के नाम में चमत्कार और अद्भुत कामों के द्वारा लोगों को लुभाने में लगे हुए हैं, और प्रभु ने बता भी दिया था कि ऐसे लोग होंगे, किन्तु प्रभु उन्हें स्वीकार नहीं करेगा; क्योंकि उन्होंने परमेश्वर की आज्ञाकारिता में नहीं, अपनी ही इच्छा में होकर यह सब किया (मत्ती 7:21-23)। अंत के दिनों के लिए, जिनमें हम आज हैं, यह भविष्यवाणी है कि बहुत से लोग चिह्नों और चमत्कारों के द्वारा बहकाए जाएंगे (2 थिस्सलुनीकियों 2:9-12)। साथ ही 2 कुरिन्थियों 11:13-15 में भी चेतावनी दी गई है कि शैतान के दूत प्रभु के लोगों का भेष धरकर और उनके समान बातें करने के द्वारा लोगों को बहका और भटका देते हैं। किन्तु मरकुस 3:14-15 हमें इस धोखे में पड़ने और बहकाए जाने से बचे रहने का तरीका बताता है। जो भी अपने आप को प्रभु का शिष्य, उसका अभिषिक्त कहे, उसके जीवन में उपरोक्त तीनों प्रयोजन उसी क्रम में विद्यमान होने चाहिएं जिसमें प्रभु ने शिष्यों के लिए निर्धारित करे हैं, कहे हैं। यदि ऐसा नहीं है, तो सचेत हो जाने और उस जन को वचन की कसौटी पर बारीकी से परखने, और खरा पाए जाने के बाद ही उसकी बातों पर विश्वास करने की आवश्यकता है।


प्रभु के सच्चे शिष्यों की प्राथमिकता प्रभु के साथ बने रहना और उसकी आज्ञाकारिता में रहना है, न कि चिह्न और चमत्कार दिखाकर लोगों को प्रभावित तथा आकर्षित करने, और उनसे भौतिक लाभ कमाने की प्रवृत्ति रखना। प्रभु ने कभी भी अपने शिष्यों से यह नहीं कहा कि वे इन चिह्नों और चमत्कारों को करने की सामर्थ्य को भौतिक लाभ अर्जित करने का माध्यम बना लें; जो ऐसा करते हैं वे प्रभु की इच्छा का नहीं अपनी इच्छा का पालन करते हैं। इसीलिए प्रभु का निर्देश है “सब बातों को परखो: जो अच्छी है उसे पकड़े रहो” (1 थिस्स्लुनीकियों 5:21)। यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो सचेत होकर, प्रभु के वचन के अनुसार अच्छे से जाँच-परखकर ही इन विलक्षण और अद्भुत लगने वाली बातों और उनके करने वालों पर भरोसा करें। धोखे में पड़ने से स्वयं भी बचें, तथा औरों को भी बचाकर रखें।


जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • भजन 4-6 

  • प्रेरितों 17:16-34

     

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English Translation 

Christian Disciple – Authority for Miraculous Works

    We have been seeing the three purposes that the Lord Jesus Christ had stated for His disciples in Mark 3:14-15. For a successful and effective ministry of Christian Believers, the presence of these three in his life is not just something very important, they actually are mandatory. Of these three we have seen the first two, i.e., the disciple should remain with the Lord at all times and should always be ready and prepared to go and preach whenever and wherever the Lord asks him to go. The first purpose is to be with the Lord to obtain His power; the second is to be surrendered in obedience and commitment to Him, to fulfill not one’s own, but the Lord’s will. Today we will look into the third purpose, which is about the authority the Lord grants to those who always remain with Him and are ever obedient to Him.


The third purpose is “and to have power to heal sicknesses and to cast out demons” (Mark 3:15). The Lord has called His disciples to be His representatives on earth; and after the time of Lord’s ministry on earth, they were to carry on with the Lord’s work and take it to the ends of the earth. Those who will be the representatives of the Almighty God before the people of the world, those representatives will also have some of the characteristics of the one who has chosen them and given them the authority. That is why we see that the Lord has given to His obedient and committed disciples an authority, which no person of the world can ever give to them - “have power to heal sicknesses and to cast out demons.” The Lord had given them this power earlier also, when He sent them out for preaching, while He was on earth with them, “And when He had called His twelve disciples to Him, He gave them power over unclean spirits, to cast them out, and to heal all kinds of sickness and all kinds of disease” (Matthew 10:1), and they could exercise this power when they were sent out by the Lord for preaching, “So they went out and preached that people should repent. And they cast out many demons, and anointed with oil many who were sick, and healed them” (Mark 6:12-13). But we also see in Mark 9:14-29 (also given in Matthew 17:14-20 and Luke 9:37-42), an incident when these very disciples could not cast out a demon from a boy. The Lord said that the reason for their being unsuccessful was their lack of faith and prayers. Quite likely, they had started to depend not upon the Lord but upon themselves and the power they had been given; and when they attempted to cast out the demon believing in their own ability, were unsuccessful, they might have started to doubt the authority of the Lord as well.


The sequence of these purposes given by the Lord is just as important today, as it was at that time. Those who constantly remain with the Lord through an attitude of prayer and in steadfastly studying God’s Word the Bible; those who remain obedient to the Lord, do only what the Lord instructs them to do, when He asks them to do; and remain dependent upon the Lord, always believing on Him for all things, they then during their ministry for the Lord, also receive the power and  do miraculous things as and when required for the ministry, and for the glory of the Lord. The Lord Jesus, at the end of His earthly ministry, at the time of His ascension, had given these powers and the authority for these things to His disciples before they went out into the world for their gospel preaching ministry (Mark 16:17-18). But note, these powers and this authority was associated by the Lord with the preaching of the gospel, not otherwise; and the primary thing was still having faith, these powers were for “those who believe” - those who are firm and established in faith in Him, and use this authority to spread the gospel of salvation by faith in the Lord Jesus Christ.


Today many people are in the business of enticing people by wondrous and miraculous works in the name of the Lord Jesus; and the Lord had already clearly told that such people will come and will do these things, but the Lord will not accept them. Because they have done these things not in the will of God, not in obedience to the Lord, but in their own will (Matthew 7:21-23). It has been prophesied for the days of the end times, the days we are living in now, that many people will be led astray by signs and wonders (2 Thessalonians 2:9-12). We have also been warned in 2 Corinthians 11:13-15 that Satan’s angels will masquerade as people of the Lord and beguile many through their preaching and works. But Mark 3:14-15 gives us the remedy to being led astray, the way of staying safe from being beguiled into utter destruction by such satanic forces. Whosoever calls himself a disciple of the Lord, these three purposes, in the same sequence as given by the Lord for His disciples, should also be seen in his life. If this is not true in the person’s life, then beware and thoroughly check that person’s life, preaching and works through the Word of God, before believing in anything he says or does.


Where there is the obedience and submission to the Lord, where His Word is honored and obeyed, His security and blessings are also there. If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Psalms 4-6 

  • Acts 17:16-34