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प्रभु की मेज़ - प्रभु द्वारा निर्धारित विधि से भाग लेने के लिए
प्रभु भोज के प्ररूप, परमेश्वर द्वारा निर्धारित फसह में होकर हमारे इस विषय के अध्ययन में हमने देखा है कि कैसे फसह का बलि का मेमना और परमेश्वर के बलि के मेमने, प्रभु यीशु मसीह, में समानताएँ हैं, और किस प्रकार से वह प्रथम फसह में भाग लेना, प्रभु यीशु द्वारा सारे संसार के सभी लोगों के समस्त पापों के लिए प्रभु यीशु के बलिदान और समाधान का प्ररूप है। इन सब में होकर हमने फसह तथा प्रभु की मेज़ के अर्थ, महत्व, और मनाने के बारे में बहुत सी बातों को देखा और सीखा है। हमने अपने पहले खण्ड, निर्गमन 12:1-14 के अंत पर आकर देखा है कि परमेश्वर ने उस एक बार के छुटकारे की घटना को हमेशा के लिए उसकी यादगार में मनाए जाने वाले उत्सव में परिवर्तित कर दिया है - इस्राएलियों के लिए एक सालाना पर्व तथा प्रभु यीशु के शिष्यों के लिए, उसके तथा परमेश्वर के राज्य के आने तक (लूका 22:18; 1 कुरिन्थियों 11:26), उसकी मेज़ में भाग लेते रहने के लिए।
प्रभु भोज के बारे में सीखने से संबंधित हमारे दूसरे खण्ड निर्गमन 12:15-20 में प्रभु परमेश्वर ने इस यादगार के उत्सव, फसह तथा प्रभु भोज, को मनाने के लिए निर्देश दिए हैं। यह एक बार फिर से इस बात पर बल देता है कि परमेश्वर अपनी आराधना, तथा महिमा और बड़ाई किए जाने से संबंधित बातों को पापमय मनुष्य, जो शैतान द्वारा बड़ी सरलता से चतुराई में फँसाया जा सकता है, के हाथों में किसी भी प्रकार से नहीं छोड़ता है। क्योंकि मनुष्य को पता भी नहीं चलेगा कि कब शैतान बड़े हल्के में और चालाकी से उससे भक्ति और धार्मिकता के भेष में, कुछ ऐसा करवा देगा जो अन्ततः परमेश्वर और उसकी आराधना को भ्रष्ट करेगा, उनका निरादर कर देगा। हम निर्गमन में देखते हैं कि इस्राएलियों के मिस्र के दासत्व से छुड़ाए जाने के पश्चात, परमेश्वर ने उन्हें अपनी दस आज्ञाएँ दीं, उनका मार्गदर्शन करने के लिए, उनके जीवन और संबंधों को निर्देशित करने - परमेश्वर के साथ भी, तथा परस्पर एक-दूसरे के साथ भी। उसने उन्हें परमेश्वर की आराधना करने के लिए मिलाप वाले तंबू से संबंधित बातों का विवरण भी दिया - उससे संबंधित सभी बातों का - उसका आकार, उसकी लंबाई, चौड़ाई, ऊंचाई और उसका नक्शा, उसमें लगने और उपयोग होने वाले सामान का विवरण, उसे कैसे खड़ा करना है, कैसे लपेटना है, कैसे उपयोग करना है, आदि, सब कुछ परमेश्वर ने ही निश्चित और निर्धारित किया, मनुष्य को केवल उसके निर्देशों का पालन करना था। और निर्गमन की पुस्तक के दूसरे अर्ध-भाग में, परमेश्वर ने मूसा को बारंबार इसके लिए सचेत किया कि वह इस बात का ध्यान रखे कि सब कुछ वैसे ही किया जाए जैसा उसे बताया और दिखाया गया है, उसमें ज़रा सा भी कोई परिवर्तन नहीं होना चाहिए। फिर लैव्यव्यवस्था और गिनती की पुस्तकों में परमेश्वर ने अपनी व्यवस्था दी, जिसके अनुसार उसके लोगों को चलना था, और उसकी उपासना, आराधना करनी थी; कोई भी बात किसी भी मनुष्य की कल्पना, पसन्द-नापसंद पर नहीं छोड़ी गई थी। फिर वाचा के देश, कनान में प्रवेश करने से पहले, व्यवस्थाविवरण की पुस्तक में, परमेश्वर ने मूसा के द्वारा इन सारी बातों को उन लोगों के सामने दोहराया; तथा लिखवा भी दिया कि उसके निर्देशों में से किसी भी बात में न तो कुछ जोड़ा जाएगा, और न उस में से कुछ घटाया जाएगा (व्यवस्थाविवरण 4:2; 12:32); और इसी बात को अपने वचन बाइबल में दो बार और दोहरा दिया, एक बार मध्य में, नीतिवचन 30:5-6 में, और फिर अंत में प्रकाशितवाक्य 22:18-19 में।
जब मिलाप वाले तंबू के स्थान पर परमेश्वर के मंदिर को बनाने का समय आया, तब परमेश्वर ने एक मनुष्य, राजा दाऊद को, इसके विषय इच्छा पूरी करने नहीं दी; जबकि परमेश्वर का नबी नातान उससे सहमत था, दाऊद परमेश्वर के मन के अनुसार व्यक्ति था (प्रेरितों 13:22) और परमेश्वर के निकट था, हम आज भी उसके द्वारा लिखे गए भजनों का अध्ययन करते हैं, परमेश्वर की स्तुति और आराधना के लिए उपयोग करते हैं। किन्तु परमेश्वर ने उनकी इच्छा को पूरा नहीं होने दिया, परन्तु राजा सुलैमान को चुना कि वह मंदिर को बनवाए (1 राजाओं 8:15-20)। एक बार फिर से परमेश्वर ने मंदिर के बारे में किसी भी बात को मनुष्यों के हाथों में, उनकी इच्छा पर नहीं छोड़ा। परमेश्वर ने मंदिर का सारा विवरण, याजकों और लेवियों की सेवा सहित, दाऊद को लिखवाया; और सुलैमान ने परमेश्वर द्वारा दाऊद को दिए गए उस विवरण, तथा सामग्री के द्वारा मंदिर का निर्माण करवाया (1 इतिहास 28:11-19)। फिर हम देखते हैं कि अपने पहाड़ी उपदेश के अंत की ओर, प्रभु यीशु ने भी इसी बात पर बल दिया कि परमेश्वर की सेवा उसकी इच्छा के अनुसार और उसकी आज्ञाकारिता में की जानी चाहिए; न कि परमेश्वर के नाम में कुछ भी कर लें और यह मान लें कि वह परमेश्वर को स्वीकार्य होगा, वह उसका अनुमोदन करेगा, और उसके लिए प्रतिफल देगा (मत्ती 7:21-23), जबकि इसके लिए प्रतिफल नहीं तिरस्कार और ताड़ना मिलेगी। अब फसह तथा उस पर आधारित प्रभु की मेज़ के लिए भी परमेश्वर ने हमेशा के लिए इस यादगार उत्सव को निर्धारित करते हुए, अपने इसी सिद्धांत को लागू किया है। इस उत्सव को मनाने का परमेश्वर द्वारा दिया गया एक तरीका है, और जब तक कि यह उस विधि के अनुसार नहीं मनाया जाएगा, वह व्यर्थ, निष्फल, और परमेश्वर को अस्वीकार्य है, उसमें भाग लेने वालों के लिए किसी महत्व अथवा प्रतिफल का नहीं है।
जैसा कि इस विषय पर पिछले सभी लेखों में बारंबार बल देकर कहा गया है, शैतान अपनी इस कुटिलता में, परमेश्वर के निर्देशों को भ्रष्ट और महत्वहीन करने में केवल इसीलिए सफल होने पाया है क्योंकि परमेश्वर के लोगों ने परमेश्वर के वचन को “खाना”, उसका व्यक्तिगत अध्ययन करना बंद कर दिया है। वरन, अब वे केवल इसी से संतुष्ट हैं कि परमेश्वर के नाम में पुल्पिट से उन्हें जो भी कह और सिखा दिया जाए, बिना बाइबल से उसकी जाँच-परख और पुष्टि किए, उसे स्वीकार कर लें, उसका पालन कर लें। क्योंकि अब शायद ही कोई होता है जो शैतान की बातों को चुनौती दे, उसकी भ्रष्ट शिक्षाओं का सामना करे इसलिए वह बड़ी चतुराई और हल्के में, आसानी से परमेश्वर के निर्देशों को बदल लेने, उनके अर्थ बदल लेने पाया है। ऐसा कर के उसने परमेश्वर के लोगों के लिए जो आशीषें और सामर्थ्य इन बातों के द्वारा आनी चाहिए थी, उसे चुरा लिया है, और उन लोगों को अनन्त विनाश के पथ पर डाल दिया है। जबकि लोग बिना सोचे-समझे, इसी गलती में पड़े हुए हैं कि वे परमेश्वर की सेवा कर रहे हैं, स्वर्ग के मार्ग पर हैं - कृपया यशायाह 5:13 और होशे 4:6 पढ़ें और विचार करें।
जैसा कि हम पहले देख चुके हैं, प्रभु भोज में भाग लेना एक धार्मिक रीति या औपचारिकता नहीं है, और न ही यह भाग लेने वालों के लिए परमेश्वर को स्वीकार्य तथा स्वर्ग जाने के योग्य होने के लिए है। किन्तु यह उनके लिए है जिन्होंने स्वेच्छा से प्रभु के योग्य जीवन बिताने उसकी आज्ञाकारिता में चलने का निर्णय लिया है, और इसके लिए कीमत चुकाने के लिए भी तैयार हैं। यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
ओबद्याह 1
प्रकाशितवाक्य 9
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The Lord’s Table - The Necessity of Obedience
In our study of the Holy Communion, through its antecedent, the Passover, ordained by God, we have seen how the sacrificial lamb of the Passover, and the Lord Jesus, the sacrificial Lamb of God corelate, and how the manner of partaking in that first Passover, foreshadows the redemptive work of the Lord Jesus through His sacrifice for all of the sins of the entire mankind. Through this all, we have learnt many things about the meaning, significance, and observance of the Passover and the Holy Communion. At the conclusion of our first section of Exodus 12:1-14, we have seen that God has turned that one-time event of deliverance, into a memorial feast for all times - as annual Passover Feast for the Israelites, and as the perpetual participation in the Lord’s Table for His disciples, till He and God’s Kingdom come (Luke 22:18; 1 Corinthians 11:26).
Our second section for learning about the Holy Communion through the Passover is Exodus 12:15-20, where the Lord God has given the instructions about the Lord’s people celebrating this Passover Feast, and the Holy Communion. This again emphasizes that God never leaves it to sinful man, prone to succumb to the wiles of the devil, to plan and do anything for worshipping and exalting God! Since, without even man’s realizing it, Satan will very subtly and cunningly bring in something in a seemingly very pious and godly manner, that eventually will corrupt and dishonor God’s worship and stature. In Exodus we see that after the deliverance of the Israelites, God gave them His Ten Commandments to guide them about their life and relationships - with God as well as mutually. He gave them the details of the Tabernacle, where they had to worship God - everything about it - the size, the shape and design, the things, the materials to be used, the way it was to be set-up, taken-down, transported, the way it was to be utilized, etc., - everything was decided and detailed by God, man was only to follow His instructions; and throughout the second half of Exodus, about everything, God repeatedly cautioned Moses to make sure that he did everything as was told and shown to him, there was to be absolutely no change, no variation in it. Then in the books of Leviticus and Numbers, God gave them His Law, according to which His people had to conduct themselves and worship Him; nothing was left to the imaginations, likes, and preferences of any man; and then God had it all repeated to Israel, through Moses on the edge of Canaan, before they entered the Promised Land of Canaan, in the Book of Deuteronomy. God also emphasized that nothing from what He had given was to be altered; nothing added to it, and nothing taken away from it (Deuteronomy 4:2; 12:32); and He has repeated and re-emphasized this instruction towards the middle, and then at the end of His Word, the Bible, in Proverbs 30:5-6, and Revelation 22:18-19.
When the time came for the Tabernacle to be replaced by God’s Temple, God did not allow a man, King David, to do it, even though God’s prophet Nathan agreed with David about it, and David was a man after God’s own heart (Acts 13:22), was very near to God, and we still use and study Psalms written by him in praise of God. But God over-ruled them and chose King Solomon to build that Temple (1 Kings 815-20). Once again, God did not leave it to any man to decide anything about the Temple, but gave all the details to David, including the services of the Priest and Levites; and Solomon built according to those God given plans, and with the materials provided by God through David (1 Chronicles 28:11-19). Then again, towards the end of His Sermon on the Mount, the Lord Jesus too emphasized upon serving God according to His will and in obedience to Him, instead of doing things in the name of God and assuming that they will be accepted, acknowledged, and rewarded by Him (Matthew 7:21-23). Now, for the Passover, and the Lord’s Table, based on the Passover, while ordaining it to be a perpetual feast for His people, we again see God’s same principle stated and recorded - there is a God given manner of doing it, and unless done in that manner, it is vain, unacceptable to God, and inconsequential for the participants.
As has repeatedly been emphasized in all the previous articles related to the first section, Satan has been successful in this subversion and corruption of God’s instructions for one reason, because God’s people have stopped feeding themselves on God’s Word; stopped studying it for themselves. Rather they are content with accepting and following, without cross-checking and verifying from God’s Word, whatever is told to them in the name of God. Since there is hardly anyone to stand up to him and challenge his corruption, therefore, Satan has cunningly and subtly been able to alter and modify God’s instructions, thereby has stolen way the blessings and power of God that was to come upon His people through them, and has put the people on the path to eternal destruction, while they glibly and very erroneously think that they are serving God and are on the way to heaven - see and ponder over Isaiah 5:13 and Hosea 4:6.
As we have seen earlier, participating in the Holy Communion is not a religious ritual or formality to be carried out perfunctorily, nor is it meant to make the participants the people of God and worthy of going to heaven. But it is for those who willingly have chosen to be committed disciples of the Lord, to live in obedience to His Word, and are even willing to pay a price for doing so. If you are a Christian Believer, and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Obadiah 1
Revelation 9
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