व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? (8)
परमेश्वर की माँग - व्यवस्था का पालन नहीं, पश्चाताप (3)
पिछले लेख में हमने देखा था कि परमेश्वर सच्चा और खरा न्यायी है, वह किसी का पक्षपात नहीं करता है। चाहे कोई उसे स्वीकार करता हो अथवा नहीं, उसका आज्ञाकारी रहता हो या नहीं; किन्तु सभी के लिए परमेश्वर के न्याय का माप-दण्ड एक ही है, समान है, बदलता नहीं है। वह उन्हें भी, जो उसे स्वीकार नहीं करते हैं, उसकी नहीं मानते हैं, उसका विरोध भी करते हैं, पाप के दण्ड से बचने का पर्याप्त अवसर देता है और इसीलिए उन्हें भी पापों के लिए पश्चाताप करने के लिए कहता है। परमेश्वर कभी बुराई से किसी की परीक्षा नहीं करता है (याकूब 1:13), मनुष्य को कभी उसकी सामर्थ्य से बाहर किसी परीक्षा में नहीं आने देता है, और परीक्षा के साथ, उससे निकालने का मार्ग भी प्रदान करता है (1 कुरिन्थियों 10:13)। किन्तु शैतान ने मनुष्य से अधिक सामर्थी और बुद्धिमान होने के कारण, अपनी इस स्थिति का लाभ उठाते हुए, अपनी कुटिलता में अनुचित रीति से मनुष्य को पाप में फँसाया और गिराया। क्योंकि शैतान ने मनुष्य के साथ जो किया वह परमेश्वर के मानकों के अनुसार अस्वीकार्य और अनुचित था। इसीलिए एक खरा और पक्षपात रहित न्यायी होने के कारण, जैसा प्रेरितों 17:30 में लिखा है, परमेश्वर उन लोगों के पापों को भी अज्ञानता के समय में किए गए पाप मानता है। वह उनके लिए तुरंत दण्ड देने के स्थान पर, दण्ड देने में आनाकानी करता है, और पाप करने वालों को पापों के प्रति सचेत कर के, उनके लिए पश्चाताप करने और दण्ड से बच निकालने का अवसर प्रदान करता है। साथ ही यहाँ पर ध्यान देने योग्य एक बहुत महत्वपूर्ण बात देखने को मिलती है; उनके पापों के निवारण और दण्ड से बचने के लिए परमेश्वर लोगों को अपनी व्यवस्था का पालन करने के लिए नहीं कहता है। वरन वह उन्हें पापों के लिए पश्चाताप करने के लिए कहता है। प्रकट है कि पापों के समाधान और उनके दण्ड से बचने का मार्ग परमेश्वर की व्यवस्था का पालन नहीं, वरन पापों के लिए पश्चाताप करके, प्रभु यीशु को अपना उद्धारकर्ता स्वीकार करना, उसे अपना जीवन समर्पित करना है।
आज हम इसी से संबंधित एक और महत्वपूर्ण बात पर विचार करेंगे - यदि पापों की क्षमा और उद्धार पाया हुआ मसीही विश्वासी पाप करे, तो उसके लिए परमेश्वर का क्या समाधान है? यह एक प्रकट तथ्य है कि मसीही विश्वासी भी पाप करते हैं। जैसा हमने पहले के लेखों में देखा है, जब भी वे अपनी किसी अनाज्ञाकारिता, सांसारिक लालसा, शैतान के लालच या बहकावे में आकर बाड़ा तोड़ते हैं, तो शैतान उन्हें डस लेता है (सभोपदेशक 10:8), और पाप का विष उनमें डाल देता है। परमेश्वर भी इस बात को जानता है, और परमेश्वर के लोगों ने भी अपने जीवनों के उदाहरणों से इस बात को स्वीकार किया है, जिसे परमेश्वर पवित्र आत्मा ने पवित्र शास्त्र बाइबल में लिखवाया भी है। प्रभु यीशु का भाई याकूब अपनी पत्री में स्वीकार करता है कि वह भी, और उसके साथ के अन्य उपदेशक भी, सभी वचन के पालन में कभी-कभी नहीं, वरन बहुत बार चूक जाते हैं (याकूब 3:2)। इसी प्रकार से प्रेरित पौलुस भी पाप के साथ अपने निरंतर संघर्ष को, जिसमें कई बार पाप जयवंत होकर उससे अनुचित करवा देता है, स्वीकार करता है और मान लेता है कि अभी भी पाप उसमें बसा हुआ है (रोमियों 7:15-20)। प्रेरित यूहन्ना, 1 यूहन्ना 1:8-10 में, “हम” का प्रयोग करके यह स्वीकार कर रहा है कि उद्धार पाने के बाद भी पाप करने वालों में वह भी सम्मिलित है। यूहन्ना तो यहाँ तक कहता है कि जो इस बात को अस्वीकार करता है वह न केवल अपने आप को धोखा देता है, वरन परमेश्वर को भी झूठा ठहराता है।
शैतान, पहले तो अपने मनुष्य से अधिक सामर्थी और चतुर होने का अनुचित लाभ उठाकर मनुष्यों को, उद्धार पाए हुए प्रभु के लोगों को भी, पाप में गिराता और फँसाता है, और फिर उसके बाद, परमेश्वर के सामने उन पर दोष लगाता है, उन्हें भी दण्ड के योग्य प्रमाणित करने का दिन-रात प्रयास करता है (प्रकाशितवाक्य 12:10)। किन्तु शैतान की इस चाल का दोहरा समाधान प्रभु परमेश्वर ने हम उद्धार पाए हुए लोगों के लिए करके दे रखा है। पहला है कि उसके इस दोष लगाने को व्यर्थ करने के लिए हमारा उद्धारकर्ता प्रभु यीशु, हमारा सहायक बन कर परमेश्वर के सामने हमारी पैरवी करता रहता है (1 यूहन्ना 2:1-2), और शैतान द्वारा लगाए जा रहे इन अवैध दोषों से हमें बरी करता रहता है। दूसरा समाधान है परमेश्वर द्वारा हमें दिया गया आश्वासन, “यदि हम अपने पापों को मान लें, तो वह हमारे पापों को क्षमा करने, और हमें सब अधर्म से शुद्ध करने में विश्वासयोग्य और धर्मी है” (1 यूहन्ना 1:9), और प्रभु यीशु मसीह, पिता परमेश्वर के सम्मुख हमारा सहायक बन कर हमारी सहायता करता है।
इसका यह अर्थ नहीं है कि उद्धार पाए हुए व्यक्ति को परमेश्वर ने पाप करते रहने का लाइसेंस दे दिया है, जैसा बहुत से लोग इस बात को लेकर कहते हैं। यह हमारा विषय नहीं है, बहुत संक्षेप में, बाइबल स्पष्ट सिखाती है कि यद्यपि पाप करने से उद्धार तो नहीं जाता है, किन्तु पाप करने के लिए ताड़ना अवश्य होती है (इब्रानियों 12:5-10)। साथ ही, पाप हमारे अनन्तकाल के प्रतिफलों की भी हानि करता है; ऐसे बहुत से लोग होंगे जो अनन्तकाल में प्रवेश तो करेंगे, किन्तु खाली हाथ, और खाली हाथ ही रहेंगे (1 कुरिन्थियों 3:13-15)। इसलिए उद्धार पाने के बाद लापरवाही करना और पाप करना कोई हल्की बात नहीं है, उसका बहुत भारी दुष्परिणाम है; उद्धार पाया हुआ व्यक्ति पाप करके हल्के में नहीं छूट जाता है।
इसलिए यह प्रकट है कि हम उद्धार पाए हुए लोगों के लिए भी पापों के समाधान, उनके दुष्परिणामों से बचने का वही मार्ग है, जो उद्धार न पाए हुए लोगों के लिए है - पापों का अंगीकार करके, उनके लिए पश्चाताप करना। ध्यान दीजिए, एक बार फिर, यहाँ पर भी परमेश्वर ने इस समाधान के लिए अपनी व्यवस्था का पालन करने की कोई बात नहीं कही; और न ही शैतान ने प्रभु के लोगों पर व्यवस्था का उल्लंघन या पालन न करने का दोष लगाया। अर्थ स्पष्ट है, चाहे उद्धार पाया हुआ व्यक्ति हो, अथवा उद्धार नहीं पाया हुआ हो, परमेश्वर के मानक, कार्यविधि, समाधान बदलते नहीं हैं; सभी के लिए एक ही हैं, सभी के लिए समान ही हैं। और परमेश्वर दोनों के प्रति धैर्य रखता है, पर्याप्त समय देता है, क्रोध और न्याय करने में यथासंभव विलंब करता है (2 पतरस 3:9)।
यह देखने और समझने के बाद कि संसार के हर मनुष्य के लिए, चाहे वह स्वाभाविक और अपरिवर्तित हो, या उद्धार पाया हुआ हो, उसके पापों का समाधान केवल और केवल उसके द्वारा अपने पापों के पश्चाताप के द्वारा है, व्यवस्था के पालन के द्वारा नहीं, अब हमारे लिए प्रेरितों 17:30 के दूसरे भाग “... अब हर जगह सब मनुष्यों को मन फिराने की आज्ञा देता है” को समझना आसान हो जाता है। जब पश्चाताप करने और मन फिराने के अलावा और कोई मार्ग है ही नहीं तो परमेश्वर, जो कभी झूठ नहीं बोलता है, धोखा नहीं देता है (गिनती 23:19) किसी से क्यों कुछ और करने को कहेगा? वह क्यों किसी को भी उसके पापों के निवारण के लिए व्यवस्था के पालन के लिए कहेगा, चाहे वह व्यवस्था परमेश्वर की दी हुई हो अथवा भी किसी धर्म, मत, या डिनॉमिनेशन के द्वारा बनाई और दी हुई हो? क्योंकि हर व्यवस्था, मनुष्य को पापों से बचाने के लिए व्यर्थ और अयोग्य है, इसीलिए खरा और सच्चा परमेश्वर मनुष्यों को वही करने की आज्ञा देता है जो उचित और योग्य है - मन फिराव। यदि फिर भी मनुष्य परमेश्वर की कही बात को अस्वीकार करके, अपनी ही करना चाहेगा, तो फिर परिणामों के लिए स्वयं ही ज़िम्मेदार होगा, परमेश्वर को ज़िम्मेदार नहीं ठहरा सकेगा।
अगले लेख में हम देखेंगे कि यदि व्यवस्था पापों का समाधान देने के लिए असमर्थ है, अयोग्य है, तो परमेश्वर ने उसे दिया क्यों? और फिर यह क्यों कहा कि इसके पालन के द्वारा मनुष्य को जीवन मिलेगा? किन्तु अभी के लिए, यदि आप मसीही हैं, और अभी भी व्यवस्था, या नियमों, विधियों, रीतियों आदि के पालन के द्वारा परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी ठहरने में विश्वास रखते हैं, तो आपके लिए अभी समय और अवसर है कि अपनी इस गलत धारणा को सुधार लें, और परमेश्वर की आज्ञा के अनुसार पश्चाताप और मन-फिराव के द्वारा परमेश्वर के साथ अपने संबंधों को ठीक कर लें।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
यहोशू 22-24
लूका 3
Why can't the law save us? (8)
God's demand - not obeying the law, repenting (3)
In the previous article we saw that God is an honest and upright Judge, He does not show any partiality. Whether one accepts him or not, remains obedient to him or not; but the standards of God's justice is one and the same for all, it never changes. Even to those who do not accept him, do not believe him, oppose him, He gives ample opportunity to escape the punishment of their sins and hence asks them to repent for their sins. God neither tempts anyone with evil (James 1:13), nor allows man to be tempted beyond his capabilities; also along with the temptation, provides a way out for him (1 Corinthians 10:13). But Satan, being more powerful and wiser than man, took advantage of this superiority, and through wickedness enticed man into falling in sin. Since what Satan did to man was unacceptable and unfair by God's standards, therefore, in His propriety as an upright and unbiased Judge, God considers the sins of those people to be sins committed in times of ignorance, as it is written in Acts 17:30. Hence instead of immediately punishing them for those sins, He shows a reluctance, and cautions the sinners regarding their sins and consequences, and also provides an opportunity for them to repent and escape the punishment. There is also a very important thing to note here; God, for the redressal of their sins and to be delivered from the punishment, does not ask the people to obey His Law. Rather, He tells them to repent of their sins. This makes it amply evident that the way to resolve the problem of sins and of being delivered from their punishment is not following God's Law of the Old Testament, but to repent of sins, and accept the Lord Jesus as Savior, and submit your lives to Him.
Today we will consider another important point related to this - if a Born Again Christian, one who has received forgiveness of sins, is saved; if he commits a sin, what is God's solution for him? It is an evident fact that even the saved and Born Again Christians do sin. As we've seen in earlier articles, whenever they breach the boundary set by God because of their disobedience, or worldly and physical lusts, material greed or Satan's delusions, Satan bites them (Ecclesiastes 10:8), and injects the poison of sin into them. God also knows this, and God's people have also acknowledged this as is seen from the examples of their lives, which God's Holy Spirit has written down in the Holy Scripture, the Bible. James, the brother of the Lord Jesus, acknowledges in his letter that he, and the others with him fail to keep the Word, not sometimes, but oftentimes (James 3:2). Similarly, the apostle Paul accepted his constant struggle with sin, in which sin sometimes overpowered him and made him do something wrong, and he also accepted that sin still resides in him (Romans 7:15-20). The apostle John, in 1 John 1:8-10, is using "we" to acknowledge that he is among those who sin even after being saved. John even goes so far as to say that the one who denies this not only deceives himself, but calls God a liar.
Satan, first taking undue advantage of being more powerful and smarter than man, makes him fall and commit sins, even the saved people of the Lord, and then, he accuses them day and night before God of committing sin, trying to prove them worthy of punishment (Revelation 12:10). But the Lord God has provided a double solution for His saved people to escape this satanic attack. The first is that our Savior, the Lord Jesus, continues to defend us before God as our helper and advocate (1 John 2:1-2), to nullify his accusations, and save us from his illegitimate accusations. The second is God's assurance to us, “If we confess our sins, He is faithful and just to forgive us our sins and to cleanse us from all unrighteousness" (1 John 1:9), while the Lord Jesus Christ helps us by being our helper before God the Father.
This does not mean that God has given the saved person an open license to continue to sin, as many people assume about this. This is not our topic of discussion, but in short, the Bible clearly teaches that although committing sinning does not cause losing salvation, but committing sin does result in chastisement (Hebrews 12:5-10). At the same time, sin also causes loss to our eternal rewards. There will be many people who will enter eternity, but will be empty-handed, and remain empty-handed for all eternity (1 Corinthians 3:13-15). Therefore, being careless and sinning after being saved is not a light thing, it has very heavy consequences. A saved person cannot take this casually since he is not let off lightly after committing a sin.
So now it is clear that for us saved Christians, the way of resolving sins, escaping their consequences, is just the same as for the unsaved people - by confessing sins, and repenting for them. Once again, notice that even here God did not ask to follow His Law to resolve this situation. Nor did Satan, while accusing the people before the Lord, accuse them of violating, or not following the Law. The implication is clear: whether the person is saved, or is not saved, God's standards, method of working, and solutions do not change; they always remain the same for all. And God is always sufficiently patient with both, giving enough time, as long as He possibly can to delay His retribution and judgment (2 Peter 3:9).
So, after seeing and understanding that for every person in the world, whether natural and unregenerate, or saved, the solution of his sins is only and only through his repenting of his sins, and not by keeping the Law, it is now easier for us to understand the second part of Acts 17:30 "... now commands all men everywhere to repent." Why would God, who never lies, never deceives (Numbers 23:19), ask anyone to do anything else, when there simply is no other way but to repent? Why would He ask anyone to obey the Law for the remission of his sins, whether that Law was given by God or, even created and given by any religion, creed, or denomination? Because every law is futile and inapplicable to save man from sin. Therefore, the upright and true God commands men to do only what is correct and worthy— to repent. If still man would like to do his own thing, rejecting what God said, then he himself will be responsible for the consequences, and will not be able to hold God responsible for them.
In the next article we will see that if the Law is incapable, inapplicable, to provide a solution for sins, then why did God give it? And then why is it said that by following it man will get life? But for now, if you are a Christian, and still believe in being justified in the sight of God by observing the Law, or rules, ordinances, customs, etc., now is the time and opportunity for you to come out of this misconception, repent, and mend your relationship with God through obeying God's command.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. By asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily submit yourself sincerely and with a committed heart to his Lordship in your life - this is the only way to salvation and heavenly life. You have to say only a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ, willingly and meaningfully, while simultaneously completely committing your life to Him. You can say this prayer of repentance and submission in a manner something like this, “Lord Jesus, I thank you for taking my sins upon yourself for their forgiveness and because of them you died on the cross in my place, were buried, you rose again on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God. Please forgive my sins, take me under your shelter, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and submissive heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
Read the Bible in a Year:
Joshua 22-24
Luke 3