पाप का समाधान - उद्धार - 7
पिछले लेख में हमने परमेश्वर
के वचन बाइबल में से एक उदाहरण देखा था कि धर्म का अगुवा, परमेश्वर
के वचन का विद्वान और शिक्षक होने, तथा समाज में उच्च स्थान
रखने के बावजूद, फरीसियों के सरदार नीकुदेमुस के मन में
परमेश्वर के सम्मुख अपने धर्मी स्वीकार होने के विषय संदेह था, जिसके निवारण के लिए वह प्रभु यीशु मसीह से मिलने आया था। यहूदियों के इस
धर्मी और संभ्रांत धार्मिक अगुवे से प्रभु यीशु मसीह ने तीन बार दो टूक कह दिया कि
उसे नया जन्म लेना अनिवार्य है, क्योंकि इसके बिना न तो कोई
परमेश्वर के राज्य में प्रवेश कर सकता है, और न ही उसे देख
सकता है। साथ ही उसे यह भी जता दिया कि यह प्रभु यीशु द्वारा दी जाने वाली कोई नई
शिक्षा नहीं है, वरन बाइबल के पुराने नियम खंड, जिसका नीकुदेमुस ज्ञाता और शिक्षक था, में परमेश्वर
द्वारा दी गई शिक्षाओं के अनुसार है - केवल शुद्ध मन वाले, न
कि धार्मिक क्रिया-कर्म करके भी सांसारिक बातों में लगे रहने वाले, परमेश्वर के साथ संगति करने पाएंगे (भजन 15; 51:6, 10; 73:1; आदि)।
आज इसी संदर्भ में बाइबल में से एक और उदाहरण देखेंगे, कि जैसे परमेश्वर के वचन
का ज्ञाता और उस की व्यवस्था का पालन करने के बावजूद नीकुदेमुस के मन में अपने
उद्धार के विषय शंका थी, वैसे ही एक अन्य धनी जवान सरदार
द्वारा व्यवस्था की बातों का पालन करने के बावजूद, उसके मन
में भी अनन्त जीवन का भागी होने के विषय संदेह था। इस धनी जवान सरदार का वृतांत
हमको पहले तीनों सुसमाचारों में मिलता है (मत्ती 19:16-29; मरकुस
10:17-30; लूका 18:18-27)। यहाँ पर हम
मरकुस रचित सुसमाचार के लेख को लेकर चलेंगे, किन्तु साथ ही
अन्य दोनों वृतांतों में से भी कुछ बातों को देखते जाएंगे। मरकुस रचित सुसमाचार का
वृतांत इस प्रकार है:
मरकुस 10:17 और जब वह निकलकर
मार्ग में जाता था, तो एक मनुष्य उसके पास दौड़ता हुआ
आया, और
उसके आगे घुटने टेककर उस से पूछा हे उत्तम गुरु, अनन्त जीवन
का अधिकारी होने के लिये मैं क्या करूं?
मरकुस 10:18 यीशु ने उस से
कहा, तू मुझे उत्तम क्यों कहता है? कोई
उत्तम नहीं, केवल एक अर्थात परमेश्वर।
मरकुस 10:19 तू आज्ञाओं को तो
जानता है; हत्या न करना, व्यभिचार न
करना, चोरी न करना, झूठी गवाही न देना,
छल न करना, अपने पिता और अपनी माता का आदर
करना।
मरकुस 10:20 उसने उस से कहा,
हे गुरु, इन सब को मैं लड़कपन से मानता आया
हूं।
मरकुस 10:21 यीशु ने उस पर
दृष्टि कर के उस से प्रेम किया, और उस से कहा, तुझ में एक बात की घटी है; जा, जो कुछ तेरा है, उसे बेच कर कंगालों को दे, और तुझे स्वर्ग में धन मिलेगा, और आकर मेरे पीछे हो
ले।
मरकुस 10:22 इस बात से उसके
चेहरे पर उदासी छा गई, और वह शोक करता हुआ चला गया, क्योंकि वह बहुत धनी था।
- पद 17 - लूका 18:18 से हम देखते हैं कि यह एक सरदार अर्थात, अधिकारी,
समाज में उच्च स्थान रखने वाला था; मत्ती
19:20 हमें बताता है कि वह जवान था; और मरकुस 10:22 बताता है कि वह बहुत धनी था।
फिर भी यह व्यक्ति सार्वजनिक मार्ग पर जा रहे प्रभु यीशु के पास दौड़ता हुआ
आया और उसे आदर मान देते हुए उसके सामने घुटने टेके, उसे
“उत्तम गुरु” कह कर संबोधित किया। उसने
प्रभु से अपने मन की व्यथा के विषय प्रश्न पूछा “अनन्त
जीवन का अधिकारी होने के लिये मैं क्या करूं?”; अर्थात
उसे अपने विषय आभास था कि वह अनत जीवन का अधिकारी नहीं है; अभी उसके जीवन में कुछ है जो उसे अनन्त जीवन का वारिस होने से रोक
रहा है, और उसका मन, उसका विवेक
उसे इसके विषय सचेत कर रहा है।
- पद 18 - प्रभु ने उसके प्रश्न का
उत्तर देने से पहले उसके मन के अंदर प्रभु के वास्तविक स्थान को उजागर कर
दिया। प्रभु ने पलट कर उससे प्रश्न किया, “तू मुझे
उत्तम क्यों कहता है? कोई उत्तम नहीं, केवल एक अर्थात परमेश्वर” अर्थात, “मुझे उत्तम गुरु कहकर संबोधित करने के द्वारा क्या तू स्वीकार करता
है कि मैं प्रभु परमेश्वर हूँ? प्रभु के प्रश्न के लिए
उस जवान के उत्तर पर बहुत कुछ निर्भर था; हम इसे कुछ
आगे, जहाँ उसका उत्तर है, वहाँ पर
फिर देखेंगे।
- पद 19 - प्रभु ने अपने बात को आगे
जारी रखते हुए उससे आज्ञाओं का पालन करने के विषय कहा। मत्ती 19:18 बताता है कि उस जवान ने प्रभु से प्रश्न किया, “कौन सी आज्ञाएँ?”, जो उसके अंदर विद्यमान उसकी
धार्मिकता के प्रति दंभ का सूचक है। उसके उत्तर में प्रभु ने जिन आज्ञाओं का
उल्लेख किया वे परमेश्वर द्वारा इस्राएलियों के लिए मूसा में होकर दी गई
“दस आज्ञाओं” का भाग हैं। प्रभु ने उन दस
आज्ञाओं में से पहली चार आज्ञाओं को, जो मनुष्य के
परमेश्वर के प्रति व्यवहार से संबंधित हैं, उससे नहीं
कहा; वरन बाद की छः आज्ञाएँ, जो
मनुष्य के मनुष्य के साथ व्यवहार से संबंध रखती हैं, केवल
उन्हें ही उसके सामने कहा।
- पद 20 - यहाँ दिया गया उस जवान
व्यक्ति का एक वाक्य का संक्षिप्त उत्तर, उसके विषय
बहुत कुछ प्रकट कर देता है। मत्ती 19:20 में लिखा है कि
उस जवान ने स्पष्ट यह भी कहा, “अब मुझ में किस बात
की घटी है?” अर्थात उसका विवेक गवाही दे रहा था कि
उसका लड़कपन से आज्ञाओं को जानने और मानने का दावा, उसकी
अपनी धार्मिकता उसे अनन्त जीवन का अधिकारी बनाने के लिए पर्याप्त नहीं है।
- प्रभु ने उससे कहा था कि उत्तम केवल परमेश्वर है, तू क्यों मुझे उत्तम कहता है?
उस जवान द्वारा इसके बाद भी प्रभु को उत्तम कह कर संबोधित
करना यह प्रकट कर देता कि वह प्रभु यीशु को परमेश्वर स्वीकार करता है।
किन्तु उसने यह नहीं किया; यहाँ पर अब वह उसे “उत्तम गुरु” नहीं, केवल
“हे गुरु” संबोधित करता है; अर्थात, उसके लिए प्रभु यीशु आदरणीय तो था,
आराध्य नहीं था। वह एक “गुरु” से “ज्ञान” प्राप्त करने
आया था, प्रभु से उद्धार का मार्ग सीखने नहीं। यदि वह
यीशु को प्रभु स्वीकार करता होता, तो आगे प्रभु द्वारा
उसे दिए गए समाधान के प्रति उसकी प्रतिक्रिया भिन्न होती।
- उसने यह तो तुरंत कह दिया कि मैं इन आज्ञाओं को लड़कपन से मानता आया
हूँ, किन्तु यह
नहीं कहा कि “प्रभु इन्हें ही नहीं, वरन पहली चार आज्ञाओं को भी लड़कपन से मानता आया हूँ।” उसका मन, जो उसे उद्धार के विषय बेचैन करता था,
यह जानता था कि वह मनुष्यों को दिखाने वाला व्यवहार तो ठीक से
निभा रहा है, किन्तु परमेश्वर के प्रति उसका व्यवहार
जैसा होना चाहिए, वैसा नहीं है।
- उसको लगा होगा कि “बच गया! यदि यीशु ने मुझसे पहली चार आज्ञाओं के लिए भी कहा होता,
तो मैं फंस जाता।” किन्तु प्रभु ने उसके
सामने एक दर्पण रख दिया था, जिसमें उसे अपनी सच्ची छवि
दिख रहे थी, कि वह परमेश्वर की दृष्टि में कैसा दिखता
है।
- पद 21 - उसके इस दिखावे के दोगले
जीवन के बावजूद, प्रभु ने उससे फिर भी प्रेम किया;
उसका तिरस्कार नहीं किया, वरन उसे उसकी
समस्या का समाधान और सिद्धता का मार्ग बता दिया। मत्ती 19:21 से हम देखते है कि प्रभु ने उसे सिद्ध होने के आह्वान के साथ उत्तर
दिया, “यीशु ने उस से कहा, यदि
तू सिद्ध होना चाहता है; तो जा, अपना
माल बेचकर कंगालों को दे; और तुझे स्वर्ग में धन मिलेगा;
और आकर मेरे पीछे हो ले”। अब आगे की
प्रतिक्रिया उस जवान के निर्णय पर, उसकी मनसा पर निर्भर
थी - वह किस धन को अधिक महत्व देता था, स्वर्गीय धन को
अथवा सांसारिक धन को।
- पद 22 - प्रभु द्वारा दिए गए समाधान,
सांसारिक संपत्ति के मोह से निकलकर, यीशु
को अपना प्रभु मानकर, उसके पीछे हो ले, को सुनकर वह उदास हो गया, उस समाधान को
अस्वीकार करके, वह शोक करता हुआ वापस लौट गया। उसके वचन
के ज्ञान, वचन के पालन, सारी
धार्मिकता, दिखाने को प्रभु के प्रति आदर, आदि के बाद भी उसकी वास्तविकता कुछ और ही थी। धर्म के निर्वाह ने
उसके मन को नहीं बदला था, उसका मन वास्तव में परमेश्वर
से बहुत दूर था। वह अनन्त जीवन के स्रोत के पास आकर भी, उस स्रोत से प्रेम, अनन्त जीवन का निमंत्रण एवं
मार्ग प्राप्त करने के बाद भी, अपने अपरिवर्तित मन के कारण
वापस नाशमान संसार और विनाश में लौट गया।
- यदि प्रभु उसके लिए वास्तव में “उत्तम गुरु” होता, तो
उसके लिए प्रभु की बात को स्वीकार करना अधिक सहज होता। किन्तु यीशु उसके लिए
प्रभु नहीं था; केवल एक “गुरु”
था।
- यदि उसकी धार्मिकता ने उसके मन को बदला होता तो वह परमेश्वर द्वारा
दी गई सभी आज्ञाओं का ईमानदारी से पालन कर रहा होता, वह इस बात को प्रकट भी करता,
और उसके मन की स्थिति दोष भावना वाली नहीं होती।
- वह एक बाहर से मनुष्यों को प्रसन्न करने वाला जीवन जी रहा था, किन्तु अंदर से परमेश्वर को
प्रसन्न नहीं कर पा रहा था, और इसीलिए वह प्रभु यीशु
के पास समाधान के लिए आया था।
- उसने प्रभु के प्रति भी बाहर से बहुत आदर दिखाया, किन्तु प्रभु ने उसके सामने
उसके मन की स्थिति खोल कर रख दी।
- उस सारी धार्मिकता, आज्ञाओं को जानने, उन्हें मानने का दावा करने,
स्वर्गीय अनन्त जीवन पाने की इच्छा रखने के बावजूद, मन में वह अभी भी संसार से बंधा हुआ था, और
संसार को छोड़ना नहीं चाहता था। उसके धर्म के निर्वाह और वचन के ज्ञान ने उसे
संसार के मोह से मुक्ति नहीं दी थी, उसके मन की बेचैनी
को शान्त नहीं किया था।
आज परमेश्वर की दृष्टि में, जिससे कोई बात छुपी नहीं
है, आपकी वास्तविक स्थिति क्या है? कहीं
आपकी दिखने वाली धार्मिकता और अच्छा सामाजिक व्यवहार एक बाहरी आवरण तो नहीं है,
जिसे आप अपने अंदर की परमेश्वर से दूरी को ढाँपने के लिए प्रयोग कर
रहे हैं? धर्म और धार्मिक बातों के पालन के बावजूद, परमेश्वर की आज्ञाओं को आदर देने और मानने का दावा करने के बावजूद,
वह जवान जानता था कि वह अनन्त जीवन से दूर है; उसके अंदर कमी है, जिसका समाधान आवश्यक है। कहीं आप
भी तो उस जवान के समान अपने धर्म, धार्मिकता और कर्मों के
द्वारा अपने आप को सही और अनन्त जीवन का अधिकारी समझने का प्रयास तो नहीं कर रहे
हैं? जैसे उस जवान के लिए, वैसे ही
आपके लिए भी ये सभी प्रयास व्यर्थ होंगे।
जैसे प्रभु ने उस जवान से उसकी प्रभु को परमेश्वर अस्वीकार
करने, उसके मन की दोगलेपन की स्थिति में भी प्रेम किया, वैसे ही वह आपकी
वास्तविकता जानने के बावजूद आज आप से भी प्रेम करता है, आपको
भी अनन्त जीवन का मार्ग, आपकी समस्या का समाधान देना चाहता
है, आपको सिद्धता का मार्ग दिखाना चाहता है। क्या आपने प्रभु
यीशु को वास्तव में अपना प्रभु, अपना स्वामी, अपना उद्धारकर्ता माना है? क्या आप उसके कहे के
अनुसार करने के लिए तैयार हैं? आप से भी उसका आह्वान है,
इस नश्वर संसार और संसार की नाशमान बातों, आकर्षण,
संपदा आदि के मोह से निकलकर, सच्चे और समर्पित
मन से, स्वेच्छा से यीशु को अपना प्रभु स्वीकार कर लें,
उसके पीछे हो लें। उसके पक्ष में लिए गए निर्णय के पल से लेकर
अनन्तकाल के लिए आपके दोनों लोक संवर जाएंगे, आप स्वर्गीय
सुरक्षा और आशीषों के भागी हो जाएंगे। स्वेच्छा से, सच्चे
पश्चाताप और समर्पण के साथ एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु
यीशु मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं पापी हूँ और आपकी अनाज्ञाकारिता करता रहता हूँ।
मैं स्वीकार करता हूँ कि आपने मेरे पापों को अपने ऊपर लेकर, मेरे
बदले में उनके दण्ड को कलवरी के क्रूस पर सहा, और मेरे लिए
अपने आप को बलिदान किया। आप मेरे लिए मारे गए, गाड़े गए,
और मेरे उद्धार के लिए तीसरे दिन जी उठे। कृपया मुझ पर दया करके
मेरे पापों को क्षमा कर दीजिए, मुझे अपनी शरण में ले लीजिए,
अपना आज्ञाकारी शिष्य बनाकर, अपने साथ कर
लीजिए।” सच्चे मन से की गई पश्चाताप और समर्पण की एक
प्रार्थना आपके जीवन को अभी से लेकर अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय जीवन बना देगी,
स्वर्गीय आशीषों का वारिस कर देगी।
बाइबल पाठ: भजन 15
भजन संहिता 15:1 हे परमेश्वर तेरे
तम्बू में कौन रहेगा? तेरे पवित्र पर्वत पर कौन बसने पाएगा?
भजन संहिता 15:2 वह जो खराई से चलता
और धर्म के काम करता है, और हृदय से सच बोलता है;
भजन संहिता 15:3 जो अपनी जीभ से
निन्दा नहीं करता, और न अपने मित्र की बुराई करता, और न अपने पड़ोसी की निन्दा सुनता है;
भजन संहिता 15:4 वह जिसकी दृष्टि में
निकम्मा मनुष्य तुच्छ है, और जो यहोवा के डरवैयों का आदर
करता है, जो शपथ खाकर बदलता नहीं चाहे हानि उठानी पड़े;
भजन संहिता 15:5 जो अपना रुपया ब्याज
पर नहीं देता, और निर्दोष की हानि करने के लिये घूस नहीं
लेता है। जो कोई ऐसी चाल चलता है वह कभी न डगमगाएगा।
एक साल में बाइबल:
· भजन 146-147
· 1 कुरिन्थियों 15:1-28