ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

मंगलवार, 31 मई 2022

बाइबल, पाप और उद्धार / The Bible, Sin, and Salvation – 18


Click Here for the English Translation

पाप का समाधान - उद्धार - 14

    मनुष्य की अनाज्ञाकारिता के कारण पाप के संसार में प्रवेश के समाधान के बारे में देखते हुए, अभी तक हम देख चुके हैं कि: 

  • क्योंकि पाप का प्रवेश मनुष्य के द्वारा हुआ, उसका समाधान भी मनुष्य में होकर ही होना था। 

  • पाप के कारण मृत्यु जगत में आई; पाप के समाधान के द्वारा मृत्यु का यह प्रभाव मिटाया जाकर मनुष्य को वापस उस स्थिति में लाया जाना था जो अदन की वाटिका में पाप से पहले उसकी थी। 

  • इसके लिए यह आवश्यक था कि कोई ऐसा निष्पाप, निष्कलंक, पवित्र, सिद्ध मनुष्य हो जो पाप के कारण आई मृत्यु को स्वयं सह ले, और मनुष्यों पर से मृत्यु की पकड़ को मिटा दे। यदि मृत्यु को सहने वाले मनुष्य में अपना कोई पाप, या पाप का कोई दोष अथवा अंश होता, तो फिर वह उस मृत्यु को केवल अपने ही लिए सह सकता था, दूसरों को उसके लाभ प्रदान नहीं कर सकता था। 

  • इस कारण पृथ्वी पर जन्म लेने वाले मनुष्यों की सामान्य प्रणाली के अनुसार जन्म लेने वाला प्रत्येक मनुष्य इसके अयोग्य ठहरता, क्योंकि सभी पाप-दोष के साथ जन्म लेते हैं। इस संदर्भ में हमने पिछले दो लेखों में देखा कि कैसे प्रभु यीशु मसीह ने मनुष्यों के जन्म की सामान्य प्रणाली के द्वारा नहीं, वरन एक विशेष रीति से मनुष्य की देह में जन्म लिया और कोख में आने से लेकर क्रूस पर उनकी मृत्यु के समय तक एक पूर्णतः निष्पाप, निष्कलंक, पवित्र, और सिद्ध जीवन बिताया। न उनके जीवन काल में, और न तब से लेकर अब दो हज़ार वर्षों से भी अधिक के अंतराल में, कोई उनके जीवन में कोई भी पाप नहीं दिखा सका, उनमें पाप का दोष होने को प्रमाणित नहीं कर सका। 

  • अदन की वाटिका में पाप और मृत्यु ने मनुष्य की अनाज्ञाकारिता के द्वारा प्रवेश किया; और इस अनाज्ञाकारिता का कारण था मनुष्य का परमेश्वर की उनके लिए भली मनसा और योजनाओं पर संदेह करना था। मनुष्य के जीवन से पाप और मृत्यु का मिटाया जाना इस अनाज्ञाकारिता की प्रक्रिया को उलट देने से होना था। साथ ही इस आज्ञाकारिता के लिए मनुष्य को अपने जीवन पर्यंत, बिना परमेश्वर की किसी भी बात के लिए उस पर संदेह अथवा अविश्वास किए, स्वेच्छा से तथा भली मनसा के साथ परमेश्वर की पूर्ण आज्ञाकारिता में जीवन व्यतीत करना था। 

    आज से हम प्रभु यीशु मसीह द्वारा इस पूर्ण आज्ञाकारिता की शर्त को पूरा करने के बारे में देखेंगे। ऐसा नहीं है कि क्योंकि प्रभु यीशु परमेश्वर के पुत्र थे, क्योंकि वे पूर्णतः परमेश्वर और पूर्णतः मनुष्य थे, इसलिए उनके लिए यह आज्ञाकारिता सहज एवं सरल थी। प्रभु यीशु को भी अपने मनुष्य रूप में आज्ञाकारिता के लिए बहुत दुख और कष्ट सहने पड़े, परीक्षाओं और कठिनाइयों से होकर निकलना पड़ा। प्रभु यीशु की इस आज्ञाकारिता के विषय परमेश्वर के वचन बाइबल में लिखा गया है, “उसने अपनी देह में रहने के दिनों में ऊंचे शब्द से पुकार पुकार कर, और आंसू बहा बहा कर उस से जो उसको मृत्यु से बचा सकता था, प्रार्थनाएं और बिनती की और भक्ति के कारण उस की सुनी गई। और पुत्र होने पर भी, उसने दुख उठा उठा कर आज्ञा माननी सीखी। और सिद्ध बन कर, अपने सब आज्ञा मानने वालों के लिये सदा काल के उद्धार का कारण हो गया” (इब्रानियों 5:7-9); और “...वरन वह सब बातों में हमारे समान परखा तो गया, तौभी निष्पाप निकला” (इब्रानियों 4:15)। 

    शैतान ने उनके जन्म से पहले से लेकर, उनकी मृत्यु के समय तक उनके द्वारा यह कार्य संपन्न होने से रोकने का प्रयास करने के लिए कोई कसर नहीं छोड़ी:

  • इसे समझने के लिए मत्ती 1:18-21 देखिए। जब प्रभु के सांसारिक पिता कहलाए जाने वाले व्यक्ति यूसुफ को पता चला कि उसकी मंगेतर मरियम, जिसमें होकर प्रभु यीशु ने जन्म लेना था, गर्भवती है, तो उसने उसे चुपके से छोड़ देने की योजना बनाई। उन दिनों में, मूसा द्वारा मिली व्यवस्था के अनुसार, व्यभिचार के दोषी को पत्थरवाह करके मार डाला जाता था (यूहन्ना 8:4, 5)। यदि यूसुफ मरियम को छोड़ देता, तो या तो उसके विवाह से पहले गर्भवती होने की बात खुल जाने पर मरियम को पत्थरवाह करके मार डाला जाता; या फिर मरियम त्यागी हुई स्त्री के समान अकेले ही समाज से तिरस्कृत जीवन जीने के लिए बाध्य हो जाती, और प्रभु भी जन्म के समय से ही तिरस्कृत और अपमानित, तथा समाज में अस्वीकार्य रहता; इस बात के लिए प्रभु को बाद में भी लोगों के ताने सुनने पड़े (यूहन्ना 8:41)। दोनों में से जो भी परिस्थिति कार्यान्वित होती, प्रभु का उद्धार का कार्य, आरंभ होने से पहले ही समाप्त हो जाता। किन्तु क्योंकि परमेश्वर के संदेश को सुन और मानकर यूसुफ ने मरियम को अपना लिया, शिशु यीशु को अपना नाम और परिवार दिया, इसलिए शैतान की यह योजना विफल हो गई। 

  • प्रभु के जन्म के बाद, हेरोदेस राजा ने दो वर्ष की आयु से कम के बच्चों को मरवाने की आज्ञा देकर प्रभु को शिशु-अवस्था में ही मरवा डालने का प्रयास किया, किन्तु असफल रहा (मत्ती 2:13-16)। 

  • प्रभु यीशु के वयस्क हो जाने और सेवकाई के आरंभ करने के समय वह लगातार चालीस दिन तक शैतान द्वारा परखा गया (लूका 4:1)। जब शैतान उसे पाप में नहीं गिरा सका, तो “कुछ समय के लिए” (लूका 4:13) उसके पास से चला गया, किन्तु उसकी सारी सेवकाई भर लोगों, विशेषकर धर्म के अगुवों और धर्म-गुरुओं को उसके विरुद्ध भड़काता रहा, उसकी सेवकाई में बाधाएं डालता रहा।

  • धर्म-गुरुओं के षड्यंत्र के अंतर्गत (यूहन्ना 11:47-50), अन्ततः यीशु को पकड़ कर, रोमी गवर्नर पिलातुस को बाध्य कर के, प्रभु यीशु को क्रूस पर मार डाला गया।

  • क्रूस की अवर्णनीय पीड़ा सहते हुए भी, वहाँ पर भी उसका ठट्ठा उड़ाया जाना ज़ारी रहा (मत्ती 27:41; लूका 23:36); किन्तु प्रभु ने कोई अपशब्द नहीं कहा, या दुर्भावना नहीं रखी, वरन अपने सताने वालों की क्षमा की प्रार्थना ही की; कोई पाप नहीं किया (लूका 23:34)। 

  • उसे क्रूस पर से उतर आने का प्रलोभन दिया गया, इस आश्वासन के साथ कि यदि वह ऐसा करेगा, तो वे लोग उस पर विश्वास कर लेंगे (मत्ती 27:40, 42)। यदि उनकी बात मानकर प्रभु क्रूस पर से उतर आता, तो बलिदान का कार्य अधूरा रह जाता, और असफल हो जाता। 

  • शैतान ने सोचा होगा कि अब यह प्रभु का अंत है; अब शैतान को रोकने वाला कोई नहीं रहा। किन्तु तीसरे दिन प्रभु यीशु के पुनरुत्थान ने उसकी सारी संतुष्टि और योजनाओं पर पानी फेर दिया। तब प्रभु के पुनरुत्थान के बाद भी शैतान ने प्रभु के पुनरुत्थान को ही झूठा ठहराने का षड्यंत्र कार्यान्वित कर दिया (मत्ती 28:13-15)। 

    किन्तु शैतान की हर चाल को प्रभु ने विफल किया, और दिखा दिया कि मानव-देह में शैतान की युक्तियों, प्रलोभनों, और परीक्षाओं का सामना करने, और उसे पराजित करने की क्षमता है। शैतान के इन सभी प्रयासों ने परमेश्वर के कार्य को बाधित करने के स्थान पर और अधिक प्रबल कर दिया। शैतान के ये प्रयास परमेश्वर के वचन में दी गई प्रभु यीशु से संबंधित भविष्यवाणियों को पूरा और प्रमाणित करने वाले तथ्य बन गए; प्रभु परमेश्वर की महिमा के, उसके सत्य के सदा जयवन्त रहने के उदाहरण बन गए। हम प्रभु द्वारा परमेश्वर की आज्ञाकारिता के विषय आगे अगले लेख में देखेंगे।

    जिस प्रभु ने मानव देह में होकर यह दिखा दिया कि मनुष्य परमेश्वर की आज्ञाकारिता में रहते हुए, परमेश्वर की सहायता से शैतान का सामना कर सकता है, उसे पराजित कर सकता है, वही प्रभु परमेश्वर अपने शिष्यों को अपने पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से भर देता है, परमेश्वर पवित्र आत्मा प्रभु यीशु के शिष्यों में उसी पल से आकर बस जाता है जब वे पापों से पश्चाताप करते हैं और अपने जीवन प्रभु को समर्पित कर देते हैं (इफिसियों 1:13-14)। प्रभु के साथ तथा पवित्र आत्मा की सहायता एवं मार्गदर्शन से हम मनुष्य भी शैतान पर जयवंत हो सकते हैं। क्या आपने प्रभु के इस अद्भुत उपहार को पा लिया है?  यदि आप ने अभी भी उद्धार नहीं पाया है, अपने पापों के लिए प्रभु यीशु से क्षमा नहीं मांगी है, तो अभी आपके पास अवसर है। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को स्वर्गीय जीवन बना देगा।


एक साल में बाइबल: 

  • 2 इतिहास 13-14
  • यूहन्ना 12:1-26

****************************************************************

English Translation

The Solution for Sin - Salvation - 13

    Looking at the entry of sin into the world because of man's disobedience, its effects, and the solution, so far, we have seen that:

  • Because sin entered through man, the solution was also to come through man. 
  • Death came into the world because of sin; therefore, the solution of sin had to eradicate this effect of sin, death; and man had to be brought back into the condition he was in before sinning, in the Garden of Eden.  
  • It required that there be a sinless, blameless, holy, perfect man who himself would suffer the death that had come upon mankind because of sin, and deliver man out the hold that death had over him. If the man who would suffer death had any sin, or even a minute guilt of sin, then he would suffer that death only for himself, and would not be able give any benefits to anyone. 
  • Every man born according to the general manner of human beings on earth, is disqualified from being the perfect sacrifice, because all humans are born with sin-nature that is present in them since their conception. In this context, we have seen in the last two articles how the Lord Jesus Christ was conceived; how He was brought into the world through a special body created for Him, which did not come into existence according to the general natural manner of human conception; but He was born like any other human being, and lived a completely sinless, spotless, holy, and perfect life, from the time of His coming into the womb until the time of his death on the cross. Neither during His lifetime, nor in the more than two thousand years since then, no one has been able to show any sin, nor could anyone ever prove the guilt of any sin in His life.  
  • Sin and death entered the Garden of Eden because of the disobedience of man; And the reason for this disobedience was man's doubting God's good intentions and plans for him. The effects of sin and death could only be reversed and removed out of man's life by reversing the reasons and process of man’s disobedience and giving entry to sin and death. Just as man willingly disobeyed God, similarly, to reverse the process, man had to willingly agree to live in complete obedience to God throughout his life, without doubting or disbelieving God for anything that God said or asked him to do. 

   

    From today we will see about the Lord Jesus Christ fulfilling this condition of complete obedience to God. It is not that since the Lord Jesus was the Son of God, since He was fully God and fully man, therefore living this life of obedience to God was easy and simple for Him. In His human form, the Lord Jesus also had to suffer a lot; He had to go through trials and hardships for being obedient. It is written in God's Word, the Bible, regarding the obedience of the Lord Jesus that, “who, in the days of His flesh, when He had offered up prayers and supplications, with vehement cries and tears to Him who was able to save Him from death, and was heard because of His godly fear, though He was a Son, yet He learned obedience by the things which He suffered. And having been perfected, He became the author of eternal salvation to all who obey Him” (Hebrews 5:7-9); and “...but was in all points tempted as we are, yet without sin” (Hebrews 4:15). 

    Satan left no stone unturned to try to prevent him from completing this work, even from before his birth until the time of his death:

  • See Matthew 1:18-21 to understand this. When Joseph, the man called the earthly father of the Lord, learned that his fiancée Mary, through whom the Lord Jesus was to be born, was pregnant, he planned to leave her quietly.  In those days, according to the Law given by Moses, the woman found guilty of adultery was stoned to death (John 8:4, 5).  If Joseph had left Mary, then either Mary would have been stoned to death when it would have become evident that she was pregnant before her marriage; or Mary would have been compelled to live a life being cast-away from society, all alone. Therefore, like His lonely and forsaken mother, the Lord would also have been despised and rejected from the time of His birth, and become unacceptable to the society. For this, even later on, the Lord had to listen to people's taunts (John 8:41). If any of these two conditions got implemented, the Lord's work of salvation of mankind would have ended before it even began. But because after hearing and obeying God's message Joseph accepted Mary, gave his name and family to the infant Jesus, Satan's ploy failed. 
  • After the Lord's birth, the King Herod attempted to kill the Lord in His infancy, by ordering the killing of all children under the age of two, but failed (Matthew 2:13-16).  
  • When the Lord Jesus' became an adult and was to begin His ministry, He was continually tested by Satan for forty days (Luke 4:1). When Satan could not make Him sin, he went away from Him, "until an opportune time" (Luke 4:13), but throughout His ministry continued to provoke people, especially the religious leaders and teachers, against him, attempting to obstruct His ministry, one way or another. 
  • Under the machination of the religious leaders (John 11:47-50), the Lord Jesus was caught and crucified, by forcing the Roman governor Pilate to order putting Him to death. 
  • Even though He was enduring the indescribable pain of the cross, He was further tormented by being mocked there too (Matthew 27:41; Luke 23:36); But the Lord did not utter any harsh words or profanity, nor did He have any ill-will against His tormentors, but He prayed for the forgiveness of those who persecuted Him; in that situation too, He committed no sin (Luke 23:34). 
  • He was tempted to come down from the cross, with the assurance that if He did, they would believe in Him (Matthew 27:40, 42). If the Lord had listened to them and come down from the cross, the work of His sacrifice would have remained incomplete, and would have failed.  
  • Satan must have thought that now this is the end of the Lord; There is no one to left stop him now. But on the third day, the resurrection of the Lord Jesus turned the tide on all His satisfaction and plans. Even after the Lord's resurrection, Satan immediately implemented a plot to falsify the Lord's resurrection (Matthew 28:13-15). 

But the Lord not only thwarted every move of Satan, but He also showed that the human body has the ability to withstand, and defeat, Satan's machinations, temptations, and trials. All of these efforts of Satan only made God's work more effective instead of hindering it. These efforts of Satan became facts fulfilling and attesting to the prophecies concerning the Lord Jesus given in God's Word; they became a means of bringing Glory to the Lord God, and became examples of the eventual and everlasting triumph of Truth. We will continue to look at this subject of the Lord's obedience to God in the next article too. 

The Lord Jesus in the human flesh has shown that man, by being obedient to God, can face and overcome Satan with the help of God. The same Lord God today fills His disciples with the power of His Holy Spirit. God the Holy Spirit comes and resides in the disciples of the Lord Jesus from the moment they repent of their sins and submit their lives to the Lord (Ephesians 1:13-14). With the presence of the Lord by our side, and with the help and guidance of the Holy Spirit living in us, we human beings can also conquer Satan, once we decide to become His disciples and live in obedience to Him. Have you asked for and received this wonderful gift of being His disciple from the Lord? If you have still not done so, if you are still not Born Again, have not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.


Through the Bible in a Year: 

  • 2 Chronicles 13-14
  • John 12:1-26



सोमवार, 30 मई 2022

बाइबल, पाप और उद्धार / The Bible, Sin, and Salvation – 17


Click Here for the English Translation

पाप का समाधान - उद्धार - 13


    हमने उद्धार से संबंधित तीसरे और सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न कि “इसके लिए यह इतना आवश्यक क्यों हुआ कि स्वयं परमेश्वर प्रभु यीशु को स्वर्ग छोड़कर सँसार में बलिदान होने के लिए आना पड़ा?” पर विचार करते हुए पिछले लेख में देखा है कि परमेश्वर द्वारा उपलब्ध करवाए गए समाधान के लिए जिस पवित्र और सिद्ध मनुष्य की आवश्यकता थी, वह मनुष्यों के जन्म और जीवन की प्रणाली के अनुसार पाया जाना असंभव था। उसका पृथ्वी पर आना और अस्तित्व अलौकिक विधि से ही संभव हो सकता था, और परमेश्वर ने ही यह प्रावधान करके दिया; उस प्रावधान के लिए आवश्यक सिद्ध मनुष्य के जन्म और जीवन से संबंधित सभी अनिवार्य गुण प्रभु यीशु मसीह में हैं। परमेश्वर का पुत्र, प्रभु यीशु मसीह, मनुष्यों के पापों के लिए बलिदान होने के लिए, अपने परमेश्वरत्व की सामर्थ्य, वैभव और महिमा को छोड़कर, एक साधारण और सामान्य मनुष्य बनकर इस संसार में आ गया “जैसा मसीह यीशु का स्वभाव था वैसा ही तुम्हारा भी स्वभाव हो। जिसने परमेश्वर के स्वरूप में हो कर भी परमेश्वर के तुल्य होने को अपने वश में रखने की वस्तु न समझा। वरन अपने आप को ऐसा शून्य कर दिया, और दास का स्वरूप धारण किया, और मनुष्य की समानता में हो गया। और मनुष्य के रूप में प्रगट हो कर अपने आप को दीन किया, और यहां तक आज्ञाकारी रहा, कि मृत्यु, हां, क्रूस की मृत्यु भी सह ली” (फिलिप्पियों 2:5-8)।

    यद्यपि प्रभु यीशु मसीह त्रिएक परमेश्वर का दूसरा व्यक्तित्व, परमेश्वर पुत्र है, किन्तु, जैसा उपरोक्त बाइबल खंड से प्रकट है, पृथ्वी पर मनुष्य बनकर जन्म लेने में उन्होंने अपने आप को ईश्वरीय नहीं वरन मानवीय स्वरूप एवं व्यवहार के अंतर्गत कर लिया, और एक साधारण मनुष्य समान ही जीवन व्यतीत किया:

  • उन्होंने एक सामान्य शिशु के समान जन्म लिया, और अन्य बच्चों के समान ही उनका पालन पोषण हुआ, वे बड़े हुए (लूका 2:6-7)। 

  • वे अपने सांसारिक माता-पिता की अधीनता में और उन के आज्ञाकारी रहे (लूका 2:51)। 

  • उनके इलाके के लोग उन्हें एक सामान्य मनुष्य, अपने सांसारिक पिता के समान एक बढ़ई का काम करने वाले के रूप में जानते थे (मरकुस 6:3)।

  • लोगों के अविश्वास से उन्हें अचंभा हुआ (मरकुस 6:6)

  • सभी मनुष्यों के समान, पैदल यात्रा से उन्हें भी थकान होती थी, भूख और प्यास लगती थी (यूहन्ना 4:6-8), वे भी भोजन करते थे (यूहन्ना 13:4; लूका 24:42-43)। 

  • सभी मनुष्यों के समान उनमें भी भावनाएं थीं:

    • वे बच्चों से प्रेम करते थे (मत्ती 19:14)

    • दुखियों और समाज के तिरस्कृत लोगों पर उन्हें तरस आता था (लूका 7:12-13; मत्ती 20:34)

    • वे प्रिय जनों के देहांत और उनके परिवार के दुख से दुखी होकर स्वयं भी रोए (यूहन्ना 11:35-36)

    • वे धार्मिकता और परमेश्वर के वचन के प्रति दोगलेपन के व्यवहार को सहन नहीं कर सकते थे (मत्ती 15:1-9; 23 अध्याय)

    • धार्मिकता के प्रति अनुचित ढिठाई के व्यवहार से उन्हें क्रोध आया (मरकुस 3:5)

    • अधर्मियों और अविश्वासियों पर आने वाले प्रकोप और विनाश से भी वे दुखी हुए और रोए (लूका 19:41-44; मत्ती 23:37)

  • सभी मनुष्यों के समान उन्हें भी नींद की आवश्यकता होती थी (लूका 8:23)

  • उन्हें भी लोगों के विरोध, बैर, और मार डाले जाने की बातों का सामना करना पड़ा (यूहन्ना 5:18, 41; 8:40-41,50, 59)

  • यह जानते हुए भी कि उनका शिष्य यहूदा इस्करियोती उन्हें मार डाले जाने के लिए पकड़वाने वाला है, प्रभु ने यहूदा के विरुद्ध एक भी बात नहीं की, कोई कटाक्ष नहीं किया, उसे औरों के सामने उजागर और अपमानित नहीं किया, वरन उसके प्रभु को छोड़ कर चले जाने तक प्रभु उससे प्रेम का ही व्यवहार करता रहा (यूहन्ना 13:21-30)। 

  • पकड़वाए जाने के समय भी प्रभु ने उन्हें पकड़ने आए हुए लोगों के विरुद्ध कुछ नहीं किया, जबकि उन्हें नाश कर देना उसकी सामर्थ्य में था; वरन वहाँ पर भी प्रभु ने अपना बुरा चाहने वाले को चंगाई दी (मत्ती 26:51-53; लूका 22:51)। 

  • पकड़वाए जाने के बाद से लेकर क्रूस पर उनकी मृत्यु तक, प्रभु को लगातार उपहास, अपमान, लांछन, यातनाओं और मिथ्या आरोपों का सामना करना पड़ा; किन्तु वे चुपचाप सब सहते रहे, किसी के विरुद्ध कुछ नहीं कहा, किसी को कोई अपशब्द नहीं कहा, कोई श्राप नहीं दिया। वरन उन्हें क्रूस पर चढ़ाने वालों के लिए भी उन्होंने क्षमा की प्रार्थना की, और उनकी निन्दा करने वाले डाकू ने जब पश्चाताप किया, तो उसे भी उन्होंने तुरंत क्षमा कर दिया, स्वर्ग में होने का आश्वासन दे दिया।  

   

    इन सभी बातों में से होकर निकलने पर भी, जो एक सामान्य मनुष्य से यदि शब्दों और कार्यों में नहीं, तो कम से कम मन या विचारों में पाप करवा सकती हैं, प्रभु यीशु ने कभी कोई पाप नहीं किया। इसीलिए इब्रानियों की पत्री का लेखक उनके लिए लिखता है, “सो जब हमारा ऐसा बड़ा महायाजक है, जो स्वर्गों से हो कर गया है, अर्थात परमेश्वर का पुत्र यीशु; तो आओ, हम अपने अंगीकार को दृढ़ता से थामें रहे। क्योंकि हमारा ऐसा महायाजक नहीं, जो हमारी निर्बलताओं में हमारे साथ दुखी न हो सके; वरन वह सब बातों में हमारे समान परखा तो गया, तौभी निष्पाप निकला” (इब्रानियों 4:14-15)। उनके शिष्य यूहन्ना ने, जो लगभग साढ़े तीन वर्ष उनके साथ रहा था, जिसने उन्हें और उनके कार्यों को निकटता से देखा था, उनकी बातों और शिक्षाओं को सुना था, और जो प्रभु से बहुत घनिष्ठ था (यूहन्ना 13:23; 21:7) अपनी पत्री में उनके लिए लिखा, “और तुम जानते हो, कि वह इसलिये प्रगट हुआ, कि पापों को हर ले जाए; और उसके स्वभाव में पाप नहीं” (1 यूहन्ना 3:5)। 

    प्रभु यीशु मसीह, हर बात में, हर रीति से पूर्णतः मनुष्य थे; साथ ही वे पूर्णतः परमेश्वर भी थे, जिन्होंने अपने परमेश्वरत्व को, अपनी सामर्थ्य को, पृथ्वी की उनकी सेवकाई के दिनों में केवल औरों की भलाई के लिए ही प्रयोग किया, कभी अपने लिए नहीं (प्रेरितों 10:38; मत्ती 4:1-11)। केवल वो ही वह एकमात्र ऐसे उपयुक्त व्यक्ति थे जो औरों के पापों को अपने ऊपर लेकर उनके लिए दण्ड सह सकते थे, क्योंकि उनमें कभी किसी प्रकार का कोई पाप नहीं था इसलिए उन्हें अपने पाप के विषय कुछ नहीं करना था, जो भी करना था औरों के पापों के लिए ही करना था। इस प्रेमी, अनुग्रहकारी, धीरजवंत प्रभु ने मेरे और आपके पापों के निवारण और पाप की समस्या का समाधान तैयार कर के सेंत-मेंत उपलब्ध करवा दिया है। क्या आप उसके इस समाधान को स्वीकार नहीं करेंगे? आपके प्रति उसके प्रेम और कृपा में ऐसी क्या कमी, क्या बात है जो आपको उसके प्रेम भरे आमंत्रण को स्वीकार करने से रोकती है? उसके निमंत्रण को स्वीकार करने के लिए आपको सच्चे और समर्पित मन से एक प्रार्थना ही तो करनी है, जो आपके मन और जीवन को बदल कर नया कर दे, परमेश्वर के साथ आपका मेल-मिलाप करवा दे।  

    यदि आप ने अभी भी नया जन्म, उद्धार नहीं पाया है, अपने पापों के लिए प्रभु यीशु से क्षमा नहीं मांगी है, तो अभी आपके पास अवसर है। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटे प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपको जगत के न्याय से बचाकर स्वर्ग की आशीषों का वारिस बना देगा। क्या आप आज, अभी यह निर्णय लेंगे?  

एक साल में बाइबल: 

  • 2 इतिहास 10-12
  • यूहन्ना 11:30-57

***************************************************************

English Translation

The Solution for Sin - Salvation - 13


       While considering the third and most important question about salvation, “Why was it so necessary for this that Lord God Jesus Christ Himself had to leave heaven, and come down to earth to be sacrificed?” we saw that the holy and perfect man required for the God given solution, was impossible to find among men born through the natural manner of human birth. The coming and living on earth of such a man could only have been possible by supernatural method, and again, it was God who made this provision too. All the qualities essential for the birth and life of the perfect man necessary for God’s provision are found in the Lord Jesus Christ. The Son of God, the Lord Jesus Christ, came into this world as an ordinary and normal man, leaving the power, splendor, and glory of His divinity, to be sacrificed for the sins of man. “Let this mind be in you which was also in Christ Jesus, who, being in the form of God, did not consider it robbery to be equal with God, but made Himself of no reputation, taking the form of a bondservant, and coming in the likeness of men. And being found in appearance as a man, He humbled Himself and became obedient to the point of death, even the death of the cross.” (Philippians 2:5-8).


    Although the Lord Jesus Christ is the Son of God, the second personality of the Triune God, but, as is apparent from the above Bible quotation, in being born as a man on earth, He kept himself not in the Godly nature, but in human nature and behavior, and lived like an ordinary man:

  • He was born like a normal infant, and was brought up just like any other child (Luke 2:6-7).

  • He was subject to and obedient to His earthly parents (Luke 2:51).

  • The people of his locality knew him as a normal man, a carpenter like his earthly father (Mark 6:3).

  • He was surprised by the unbelief of the people in Him (Mark 6:6).

  • Like all men, travel by walking made Him feel tired, hungry, and thirsty (John 4:6-8); He also required and ate food (John 13:4); Luke 24:42-43).

  • Like all humans, He also had feelings and emotions:

    •  He loved the children (Matthew 19:14)

    • He felt pity for the afflicted and the despised people of the society (Luke 7:12-13; Matthew 20:34)

    • He also wept, grieving at the death of His loved ones and the suffering of the families (John 11:35-36).

    • He could not tolerate misuse of, and hypocrisy toward God's Word (Matthew 15:1-9; & chapter 23).

    • He was angry by the stubborn, hard-hearted, unrighteous behavior of the religious leaders (Mark 3:5).

    • He was grieved about the impending doom of the unrighteous and non-believers, and wept because of it (Luke 19:41-44; Matthew 23:37).

  • Like all humans, He needed sleep (Luke 8:23).

  • He too faced people's opposition, hatred, and even attempts of eliminating Him (John 5:18, 41; 8:40-41, 50, 59).

  • Though knowing that His disciple Judas Iscariot was about to have Him caught to be killed, still, the Lord did not do or say anything against Judas, did not mock or ridicule him, did not expose and humiliate him before others. Instead, till the time he left Him, the Lord continued to treat him with love (John 13:21-30).  

  • Even at the time of being captured, the Lord did nothing against those who had come

  • to capture Him, though it was in His power to destroy them; and even there, the Lord came forward to heal the one who had come to harm Him (Matthew 26:51-53; Luke 22:51).

  • From being captured until his death on the cross, the Lord had to face constant ridicule, humiliation, many false accusations were hurled at Him, He was unjustly abused and tortured. But He suffered them all silently, said nothing against anyone, did not use any intemperate language, did not curse anyone. He even prayed for the forgiveness of those who crucified Him, and when the robber who initially blasphemed Him repented, He immediately forgave him, assuring him of being in heaven.   

    Even after going through all these things, which can provoke any normal man to sin, if not in words and deeds, then at least in mind or thoughts; yet the Lord Jesus never sinned. That is why the author of the Epistle of the Hebrews writes for Him, “Seeing then that we have a great High Priest who has passed through the heavens, Jesus the Son of God, let us hold fast our confession. For we do not have a High Priest who cannot sympathize with our weaknesses, but was in all points tempted as we are, yet without sin.” (Hebrews 4:14-15). His disciple John, who had been with Him for about three and a half years, and had closely observed Him in various situations, had witnessed His works, had heard His messages and teachings, and who himself was very close to the Lord (John 13:23; 21:7) wrote about Him in his letter that, “And you know that He was manifested to take away our sins, and in Him there is no sin.” (1 John 3:5).


    The Lord Jesus Christ was, in every way, fully human; At the same time, He was fully God, who used His divinity, His power, in the days of His ministry on the earth only for the good of others, never for Himself (Acts 10:38; Matthew 4:1-11).  He was the only suitable person who could bear the punishment for others by taking their sins upon Himself, because He had never sinned, so there was nothing He had to do about His own sin; whatever He had to do was for the sins of others. This loving, gracious, merciful, longsuffering Lord has prepared and freely made available the remedy of sins, the solution to the problem of sin, for you and me. Will you not you accept this solution? Is there anything lacking in His love and grace towards you that is keeping you from accepting his loving invitation? In order to accept His loving invitation, all you have to do is pray with a sincere and submissive heart, and that will change your mind and life, make you a new person, and will reconcile you with God for eternity.

    If you have still not been Born Again, not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart and with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.


Through the Bible in a Year: 

  • 2 Chronicles 10-12
  • John 11:30-57


रविवार, 29 मई 2022

बाइबल, पाप और उद्धार / The Bible, Sin, and Salvation – 16


Click Here for the English Translation


पाप का समाधान - उद्धार - 12

    हमने उद्धार से संबंधित तीसरे और सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न कि “इसके लिए यह इतना आवश्यक क्यों हुआ कि स्वयं परमेश्वर प्रभु यीशु को स्वर्ग छोड़कर सँसार में बलिदान होने के लिए आना पड़ा?” पर विचार आरंभ किया है। आदम और हव्वा के पापा के कारण उत्पन्न हुई इस विडंबना के लिए कि पाप को दण्डित भी किया जाए, किन्तु मनुष्य मृत्यु में, अर्थात, परमेश्वर की संगति से अनन्तकाल के लिए अलग भी न हो, परमेश्वर ने जो समाधान दिया, उसके लिए सभी मनुष्यों के लिए उनके पापों को अपने ऊपर उठा लेने और उन पापों के दण्ड को उनके स्थान पर सहन कर लेने वाले ऐसे मनुष्य की आवश्यकता थी, जो पृथ्वी पर ही जन्मा हो, जिसने अपने गर्भ में आने से लेकर अपनी मृत्यु तक अन्य मनुष्यों के समान ही हर परिस्थिति को सहन किया हो, और फिर भी उसने कभी कोई पाप नहीं किया हो। साथ ही इस मनुष्य में कुछ और विशेष गुण भी होने चाहिए थे; परमेश्वर को कोई ऐसा मनुष्य चाहिए था जिसका जीवन माता के गर्भ में आने के समय से ही पूर्णतः निष्पाप और निष्कलंक हो, इतना सामर्थी हो कि मृत्यु उसे वश में न रख सके, और इतना कृपालु हो कि मनुष्यों के पापों को स्वेच्छा से अपने ऊपर लेकर, उनके दण्ड को मनुष्यों के स्थान पर सह ले, और फिर प्रतिफल को मनुष्यों में सेंत-मेंत बाँट दे। केवल ऐसा मनुष्य ही पाप के दण्ड को सभी के लिए चुका सकता था, और मनुष्य को मृत्यु से स्वतंत्र कर के, उनका मेल-मिलाप परमेश्वर से करवा सकता था, अदन की वाटिका में खोई गई स्थिति को मनुष्यों के लिए वापस बहाल कर सकता था। अन्यथा, यदि उस मनुष्य में अपना स्वयं का कोई भी पाप होता, तो फिर वह जो भी बलिदान देता, जो भी कार्य करता, वह उसके अपने पाप के लिए ही होता; वह औरों के पाप के लिए अपना बलिदान नहीं दे सकता था। 

    किन्तु ऐसा पूर्णतः सिद्ध मनुष्य, पाप में पतित मनुष्यों में से आ पाना संभव नहीं था, क्योंकि आदम और हव्वा के पाप के बाद से प्रत्येक मनुष्य पाप के स्वभाव के साथ ही अपनी माता के गर्भ में आता है और शिशु अवस्था से ही पाप की प्रवृत्ति को प्रकट करता रहता है। इसलिए मनुष्यों की प्रणाली के अनुसार माता के गर्भ में पड़ने और जन्म लेने वाला कोई भी मनुष्य पूर्णतः निष्पाप, पवित्र, और निष्कलंक, इस बलिदान के लिए सिद्ध नहीं ठहर सकता। इसीलिए, उत्पत्ति 3:15 में परमेश्वर ने जब इस उद्धारकर्ता की भविष्यवाणी की, तो उसे “स्त्री के वंश” का बताया; अर्थात, वह मनुष्यों के प्रणाली के अनुसार, किसी पुरुष के कारण माता के गर्भ में नहीं आएगा, वरन केवल स्त्री से ही होगा। इसी लिए यह करने के लिए परमेश्वर ने एक कुँवारी, मरियम को चुना, और उसे बताया गया कि पवित्र आत्मा की सामर्थ्य के द्वारा परमेश्वर उसकी कोख में एक आश्चर्यकर्म करेगा; उसमें से सारे जगत का उद्धारकर्ता जन्म लेगा, और मरियम ने अपने आप को प्रभु परमेश्वर के कार्य के लिए समर्पित कर दिया (लूका 1:26-38)। मरियम की स्वीकृति के बाद, परमेश्वर ने इस महान कार्य के लिए तैयार की गई एक विशेष देह (इब्रानियों 10:5) को मरियम की कोख में डाला। वहाँ से मरियम की कोख में किसी भी अन्य मनुष्य के समान विकसित होकर, समय के अनुसार प्रभु यीशु मसीह ने एक शिशु के रूप में जन्म लिया। उनके गर्भ में आने के समय से लेकर के उनके पृथ्वी के जीवन पर्यंत वे निष्पाप, निष्कलंक, पवित्र, और सिद्ध रहे; उनकी देह में मनुष्य के किए गए पाप का प्रभाव नहीं था। 

    न केवल प्रभु यीशु के मनुष्य बनने की प्रक्रिया पाप के प्रभाव से अछूती थी, वरन उनका जीवन भी पूर्णतः पाप से अछूता था “और तुम जानते हो, कि वह इसलिये प्रगट हुआ, कि पापों को हर ले जाए; और उसके स्वभाव में पाप नहीं” (1 यूहन्ना 3:5); “न तो उसने पाप किया, और न उसके मुंह से छल की कोई बात निकली” (1 पतरस 2:22)। प्रभु यीशु ने अपनी आलोचना करने वालों को खुली चुनौती दी, “तुम में से कौन मुझे पापी ठहराता है? और यदि मैं सच बोलता हूं, तो तुम मेरी प्रतीति क्यों नहीं करते?” (यूहन्ना 8:46)। वह हमेशा, सभी का भला करता और परमेश्वर के राज्य की शिक्षा देता हुआ स्थान-स्थान पर जाता रहा, लोगों से मिलता रहा, “कि परमेश्वर ने किस रीति से यीशु नासरी को पवित्र आत्मा और सामर्थ्य से अभिषेक किया: वह भलाई करता, और सब को जो शैतान के सताए हुए थे, अच्छा करता फिरा; क्योंकि परमेश्वर उसके साथ था” (प्रेरितों 10:38)।

    उस समय के धर्म के अगुवे – फरीसी, शास्त्री, सदूकी, व्यवस्थापक, आदि, उसे पसंद नहीं करते थे, क्योंकि वह सत्यवादी एवं स्पष्टवादी था, और उनके दोगलेपन को तथा परमेश्वर के वचन के अपने स्वार्थ के लिए दुरुपयोग को खुलकर प्रकट कर देता था। किन्तु फिर भी वे उसके विषय जानते और समझते थे कि परमेश्वर उसके साथ है, और वह परमेश्वर की ओर से बोलता तथा कार्य करता है, और उसकी इस बात को स्वीकार करते थे: “फरीसियों में से नीकुदेमुस नाम एक मनुष्य था, जो यहूदियों का सरदार था। उसने रात को यीशु के पास आकर उस से कहा, हे रब्बी, हम जानते हैं, कि तू परमेश्वर की ओर से गुरु हो कर आया है; क्योंकि कोई इन चिन्हों को जो तू दिखाता है, यदि परमेश्वर उसके साथ न हो, तो नहीं दिखा सकता” (यूहन्ना 3:1-2); “सो उन्होंने अपने चेलों को हेरोदियों के साथ उसके पास यह कहने को भेजा, कि हे गुरु; हम जानते हैं, कि तू सच्चा है; और परमेश्वर का मार्ग सच्चाई से सिखाता है; और किसी की परवाह नहीं करता, क्योंकि तू मनुष्यों का मुंह देखकर बातें नहीं करता” (मत्ती 22:16)। किन्तु साथ ही, प्रभु यीशु के विषय यह जानते-मानते हुए भी वे उससे शत्रुता रखते थे, उसे पत्थरवाह करना चाहते थे “यहूदियों ने उसको उत्तर दिया, कि भले काम के लिये हम तुझे पत्थरवाह नहीं करते, परन्तु परमेश्वर की निन्दा के कारण और इसलिये कि तू मनुष्य हो कर अपने आप को परमेश्वर बनाता है” (यूहन्ना 10:33)। 

    उसकी सच्चाई को जानते हुए भी उन्होंने उसे मार डालने का षड्यंत्र बनाया, क्योंकि उसकी ख्याति के कारण उन्हें अपनी कुर्सी हिलती हुए दिखने लगी थी “इस पर महायाजकों और फरीसियों ने मुख्य सभा के लोगों को इकट्ठा कर के कहा, हम करते क्या हैं? यह मनुष्य तो बहुत चिन्ह दिखाता है। यदि हम उसे यों ही छोड़ दे, तो सब उस पर विश्वास ले आएंगे और रोमी आकर हमारी जगह और जाति दोनों पर अधिकार कर लेंगे। तब उन में से काइफा नाम एक व्यक्ति ने जो उस वर्ष का महायाजक था, उन से कहा, तुम कुछ नहीं जानते। और न यह सोचते हो, कि तुम्हारे लिये यह भला है, कि हमारे लोगों के लिये एक मनुष्य मरे, और न यह, कि सारी जाति नाश हो” (यूहन्ना 11:47-50)। 

    प्रभु यीशु का जन्म और जीवन, निष्पाप, निष्कलंक, पवित्र, और सिद्ध था; और वह अपने अनुयायियों को भी अपने इसी स्वरूप में ढालता चला जाता है “...तो प्रभु के द्वारा जो आत्मा है, हम उसी तेजस्वी रूप में अंश अंश कर के बदलते जाते हैं” (2 कुरिन्थियों 3:18); परमेश्वर पिता प्रभु यीशु के सभी शिष्यों, मसीही विश्वासियों को, अपने पुत्र, प्रभु यीशु के स्वरूप में देखना चाहता है, “क्योंकि जिन्हें उसने पहिले से जान लिया है उन्हें पहिले से ठहराया भी है कि उसके पुत्र के स्वरूप में हों ताकि वह बहुत भाइयों में पहलौठा ठहरे” (रोमियों 8:29)। प्रभु यीशु न तो कोई धर्म देने आया, न अपने शिष्यों से चाहा कि वे उसके नाम में कोई धर्म आरंभ करें, या लोगों का धर्म परिवर्तन करें। वह पापी मनुष्यों के मन और जीवन को बदलने, उन्हें अपने स्वर्गीय स्वरूप और स्वभाव में ढालने, और परमेश्वर के साथ रहने वाले बनाने के लिए आया। और यह किसी धार्मिक प्रक्रिया अथवा कर्म-कांड के द्वारा नहीं, प्रभु यीशु में विश्वास, पापों के लिए पश्चाताप, और प्रभु के प्रति समर्पण करने के द्वारा संभव है।

    यदि आप ने अभी भी नया जन्म, उद्धार नहीं पाया है, अपने पापों के लिए प्रभु यीशु से क्षमा नहीं मांगी है, तो अभी आपके पास अवसर है। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटे प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपको जगत के न्याय से बचाकर स्वर्ग की आशीषों का वारिस बना देगा। क्या आप आज, अभी यह निर्णय लेंगे? 


एक साल में बाइबल: 

  • 2 इतिहास 7-9

  • यूहन्ना 11:1-29

***************************************************************

English Translation

The Solution for Sin - Salvation - 12

    We have started to consider the third and most important question about salvation, “Why was it so necessary for this that Lord God Jesus Christ Himself had to leave heaven, and come down to earth to be sacrificed?” For the dilemma created by the sin of Adam and Eve for God, that sin should be punished, but that man should not be eternally separated from His fellowship, i.e., suffer death, the solution that God gave required a man, who is born on earth, has endured every circumstance as any other person from his conception to his death and yet has never sinned, and who would be willing to take the sins of all mankind upon himself, bear the punishment of those sins in their place. Besides, this man should have some other special qualities as well; God required a man who was completely sinless and spotless from the time he came into his mother's womb; so powerful that death cannot subdue him, and be so gracious that he would willingly take the sins of man upon himself, bear their punishment in the place of man and then freely distribute the rewards among men. Only such a man could bear the punishment of sin for all of mankind, free man from death, and reconcile them to God, thereby restoring back to man the state he lost in the Garden of Eden. If that man had any sin of his own, then whatever sacrifice he would have made, whatever work he would have done, it would have been only for his own sin; he could not have sacrificed himself for the sin of others.

    But it was not possible for such a perfect man to come from among men already impure because of sin. Since the sin of Adam and Eve, every man comes into his mother's womb with the sin nature and continues to manifest the tendency of sin from infancy till death.  Therefore, according to the manner of men, no man who is naturally conceived in a mother’s womb and is born can be perfect for this sacrifice, since he cannot ever be completely sinless, holy, and unblemished since conception. That is why, when God foretold this Savior in Genesis 3:15, he described him as "the seed of the woman”; i.e., he will only be born from the woman as all others are, but will not come into the womb of the mother because of a man, as is the natural manner of men. That is why God chose a virgin, Mary, to do this, and she was told that by the power of the Holy Spirit, God would do a miracle in her womb; through her the Savior of the whole world would be born, and Mary submitted herself to the work of the Lord God (Luke 1:26-38). After Mary's approval, God put a special body prepared for this great work into Mary's womb (Hebrews 10:5). From then onwards, developing like any other human being in Mary's womb, at the fulfillment of time, the Lord Jesus Christ was born as an infant. Since the time He came into her womb till he lived His life on earth, He remained sinless, spotless, holy, and perfect; His body was not influenced by the sin committed by man.

    Not only was the process of the Lord Jesus becoming man untouched by the influence of sin, but His life was also completely untouched by sin. “And you know that He was manifested to take away our sins, and in Him there is no sin.” (1 John 3:5); “Who committed no sin, Nor was deceit found in His mouth” (1 Peter 2:22). The Lord Jesus openly challenged those who criticized Him, “Which of you convicts Me of sin? And if I tell the truth, why do you not believe Me?” (John 8:46). He always did good to all, and went from place to place, meeting the people, teaching them about God's kingdom, “how God anointed Jesus of Nazareth with the Holy Spirit and with power, who went about doing good and healing all who were oppressed by the devil, for God was with Him” (Acts 10:38).

    The religious leaders of that time — the Pharisees, the Scribes, the Sadducees, the Lawyers, etc., did not like him, because he was honest and forthright, always spoke the truth and openly exposed their duplicity and their abuse of God's Word for their own selfish motives. But yet they well knew, accepted, and understood of Him that God was with Him, and that He spoke and worked on behalf of God: “There was a man of the Pharisees named Nicodemus, a ruler of the Jews. This man came to Jesus by night and said to Him, "Rabbi, we know that You are a teacher come from God; for no one can do these signs that You do unless God is with him” (John 3:1-2); “And they sent to Him their disciples with the Herodians, saying, "Teacher, we know that You are true, and teach the way of God in truth; nor do You care about anyone, for You do not regard the person of men” (Matthew 22:16)। Despite knowing and acknowledging this about the Lord Jesus, they hated Him, and wanted to stone Him. “The Jews answered Him, saying, "For a good work we do not stone You, but for blasphemy, and because You, being a Man, make Yourself God” (John 10:33).

    Although they knew the truth about Him, still they conspired to kill Him, because of His name and fame was shaking their thrones, “Then the chief priests and the Pharisees gathered a council and said, "What shall we do? For this Man works many signs. If we let Him alone like this, everyone will believe in Him, and the Romans will come and take away both our place and nation." And one of them, Caiaphas, being high priest that year, said to them, "You know nothing at all, nor do you consider that it is expedient for us that one man should die for the people, and not that the whole nation should perish."” (John 11:47-50).

    The conception, birth, and the life of the Lord Jesus, was sinless, spotless, holy, and perfect; and He transforms his disciples too into His likeness “...are being transformed into the same image from glory to glory, just as by the Spirit of the Lord.” (2 Corinthians 3:18); God the Father, wants to see all the disciples of the Lord Jesus, the Christian Believers, in the image of His Son, the Lord Jesus, “For whom He foreknew, He also predestined to be conformed to the image of His Son, that He might be the firstborn among many brethren” (Romans 8:29). Jesus did not come to give any religion, nor did he want His disciples to introduce a religion in His name, or to convert the religion of people. He came to change the minds and lives of sinful men, to convert them into His heavenly nature and behavior, and to change them into those who will live with God. And this is possible not through any religion, religious process or ritual, but through faith in the Lord Jesus, repentance for sins, and submission to the Lord.

    If you have still not been Born Again, not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart and with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible or not, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.

 

Through the Bible in a Year: 

  • 2 Chronicles 7-9

  • John 11:1-29