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आराधना के भौतिक लाभ (2)
पिछले लेख में हमने देखा था कि परमेश्वर की आराधना के न केवल आत्मिक लाभ हैं, बल्कि भौतिक लाभ भी हैं। किन्तु इसे परमेश्वर से अपनी इच्छा के अनुसार कुछ प्राप्त करने के लिए, अथवा बाइबल के प्रतिकूल और भ्रष्ट “सुसमाचार द्वारा संपन्नता” की धारणा का समर्थन करने के लिए प्रयोग नहीं किया जा सकता है। हमने इस आराधना को समझने की श्रृंखला के आरंभिक लेखों में देखा था कि आराधना परमेंश्वर को देना हैं और इसका एक स्वरूप परमेश्वर को भौतिक वस्तुएं अर्पित करना भी है। परमेश्वर का वचन हमें सिखाता है, “धोखा न खाओ, परमेश्वर ठट्ठों में नहीं उड़ाया जाता, क्योंकि मनुष्य जो कुछ बोता है, वही काटेगा” (गलातियों 6:7); और इसी बात को थोड़े से भिन्न रूप में, प्रभु के काम के लिए भौतिक वस्तुओं को देने के सन्दर्भ में इस प्रकार से कहा गया है “परन्तु बात तो यह है, कि जो थोड़ा बोता है वह थोड़ा काटेगा भी; और जो बहुत बोता है, वह बहुत काटेगा” (2 कुरिन्थियों 9:6)। दूसरे शब्दों में, चाहे आत्मिक लाभ हों या शारीरिक अथवा भौतिक लाभ, प्रभु से मिलने वाला परिणाम, हमारे द्वारा मात्रा एवं गुणवत्ता में प्रभु को दिए जाने पर ही निर्भर है।
जैसा हम पहले देख चुके हैं, प्रार्थना के द्वारा हम उतना ही प्राप्त करने की आशा रख सकते हैं, जितना हमारे विचारों और हमारी समझ के अनुसार हमारी आवश्यकताओं की सीमा है। किन्तु आराधना, अर्थात विभिन्न रीतियों से परमेश्वर को अपनी प्रेम और आदर अर्पित करना, हमें हमारी कल्पना की सीमाओं से परे आशीषित करता है (1 कुरिन्थियों 2:9)।
मैं यह अपने व्यक्तिगत अनुभव, तथा परमेश्वर के अनेकों अन्य लोगों के अनुभवों के आधार पर कहता हूँ - परमेश्वर को महिमा दीजिए, वह आपको महिमान्वित करवाएगा, उसे आदर दीजिए, वह आपका आदर करवाएगा, उसका ध्यान रखिए, वह आपका ध्यान रखवाएगा, उसे श्रद्धा और भक्ति दीजिए, वह आपके प्रति लोगों में सम्मान और श्रद्धा उत्पन्न करेगा, उसकी प्रशंसा और गुणानुवाद कीजिए, वह आपकी प्रशंसा करवाएगा, उसे अपना समय और योग्यताएँ दीजिए, वह आपको और अधिक समय और योग्यता देगा, उसे अपने जीवन में प्राथमिकता दीजिए, वह आपको प्राथमिकता देगा, आप उसके लिए कार्य कीजिए, वह आपके लिए कार्य करेगा, आप पृथ्वी पर उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति कीजिए, और वह पृथ्वी तथा स्वर्ग दोनों स्थानों पर आपकी आवश्यकताएँ पूरी करेगा। यह सभी कठिन और समझने से बाहर प्रतीत हो सकता है; किन्तु विश्वास के साथ आगे बढ़िए, करना आरंभ कीजिए, और परमेश्वर आपको कभी निराश नहीं करेगा; उसने स्वयं ही कहा है, “परखकर देखो कि यहोवा कैसा भला है! क्या ही धन्य है वह पुरुष जो उसकी शरण लेता है” (भजन 34:8)।
परमेश्वर द्वारा अपने लोगों के लिए हमेशा ही यह वायदा रहा है कि उनके सोचने-समझने से बढ़कर बहुतायत का प्रतिफल उनके लिए रखा हुआ है जो परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार उसके लिए करते हैं। जब परमेश्वर ने इस्राएलियों को अपनी व्यवस्था और निर्देश दिए थे, तो उस व्यवस्था का एक महत्वपूर्ण भाग परमेश्वर के समक्ष, उसके भवन में उसके लोगों के द्वारा उनके दशमांश और भौतिक समृद्धि के भाग को लाना, तथा निर्धनों की आवश्यकताओं को पूरा करना था; अर्थात परमेश्वर को देना, भौतिक वस्तुओं को अर्पित करने के द्वारा उसकी आराधना करना था।
इस्राएल का इतिहास इस बात का गवाह है तथा पर्याप्त प्रमाण प्रदान करता है कि परमेश्वर के लोगों ने जब-जब परमेश्वर की आज्ञाकारिता की है, अपनी संपन्नता में से परमेश्वर और उसके कार्यों के लिए दिया है, तो वे हमेशा ही उन्नति करते तथा और समृद्ध होते चले गए हैं। लेकिन उन्होंने जब भी ऐसा करने से हाथ पीछे खींचा है, तो हमेशा ही हानि उठाई है; और जिसे बचाने या रोक के रखने का प्रयास किया, वह भी उनके पास बचा नहीं रहा (नीतिवचन 11:24-25)।
राजा सुलैमान में होकर परमेश्वर पवित्र आत्मा ने यह लिखवाया है, “अपनी संपत्ति के द्वारा और अपनी भूमि की पहिली उपज दे देकर यहोवा की प्रतिष्ठा करना; इस प्रकार तेरे खत्ते भरे और पूरे रहेंगे, और तेरे रसकुण्डों से नया दाखमधु उमण्डता रहेगा” (नीतिवचन 3:9-10)।
यहाँ, वाक्यांश “...अपनी संपत्ति के द्वारा और अपनी भूमि की पहिली उपज दे देकर यहोवा की प्रतिष्ठा करना” पर ध्यान दीजिए; मसीही विश्वासियों को परमेश्वर की सन्तान होने के नाते इस बात का ध्यान रखना है, उसे मान कर चलना है कि उनके पास जो कुछ भी है वह परमेश्वर के अनुग्रह से उन्हें दिया गया है (व्यवस्थाविवरण 8:18)। हमारी संपत्ति, हमारी भौतिक अथवा शारीरिक संपन्नता, हमारा प्रत्येक गुण, कौशल, और योग्यता, हमारी बौद्धिक क्षमताएं, हमारे आत्मिक वरदान, आदि - अर्थात हमारे पास चाहे कुछ भी हो, वह सब हमें प्रभु परमेश्वर के अनुग्रह से प्राप्त हुआ है। ये सभी बातें हमें प्रभु द्वारा दिए गए “बीज” हैं, जो उसने हमें उसके “खेत”, अर्थात संसार के लोगों के मध्य में बोने के लिए दिये हैं। अब यह हम पर है कि हम इन बीजों को अपने लिए उपयोग कर के इन्हें ख़त्म कर देते हैं, या फिर उन्हें “खेत” में बो कर बहुतायत की फसल प्राप्त करते हैं, जो हमारे तथा दूसरों, दोनों के लिए आशीष होगी - सारपत की विधवा के समान, जिसने एल्लियाह के कहने पर अपने अंतिम भोजन का पहला भाग उसे दिया, और परिणामस्वरूप उसे इतनी आशीष मिली कि वह और उसका पुत्र उन आशीषों के सहारे आराम से रहे, जबकि सारा देश अकाल से त्रस्त था (1 राजाओं 17:9-16)।
चुनाव हमारा है। जब तक कि हम परमेश्वर को अपनी भौतिक संपन्नता और वस्तुओं में से देना नहीं सीखेंगे, उसने जो हमें दिया है, उसके द्वारा उसकी महिमा करना नहीं आरंभ करेंगे, परमेश्वर के “खेत” में जा कर अपने हाथ खोलकर परमेश्वर द्वारा दिये गए “बीज” को डालना आरंभ नहीं करेंगे, और अपनी नहीं, वरन परमेश्वर की महिमा के लिए कार्य करना आरंभ नहीं करेंगे, हम परमेश्वर की बहुतायत की आशीषों (नीतिवचन 10:22) को अनुभव करना भी आरंभ नहीं करेंगे। आने वाले लेखों में हम परमेश्वर के वचन में से आराधना के द्वारा भौतिक आशीषों के सिद्धांत को कार्यान्वित होते हुए दिखाने वाले उदाहरणों को देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
व्यवस्थाविवरण 32-34
मरकुस 15:26-47
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The Material Blessings of Worship (2)
In the last article we had seen that worshipping God not only has spiritual benefits, but also has material benefits as well. But this cannot be used to try to manipulate God into doing or providing certain things according to our fancy; nor is it to support the UnBiblical and corrupt concept generally known as “the prosperity gospel.” We had seen in the initial part of this series on Understanding Worship, that a form of worship, of giving to God, is through offering material things to God. God’s Word also teaches: “Do not be deceived, God is not mocked; for whatever a man sows, that he will also reap” (Galatians 6:7); and this is stated in a slightly different form, in context of giving out of material possessions for the Lord’s work as, “But this I say: He who sows sparingly will also reap sparingly, and he who sows bountifully will also reap bountifully” (2 Corinthians 9:6). In other words, whether spiritually or materially, our input for the Lord, in quantity as well as quality determines the output we will receive from the Lord.
As we have seen earlier, through prayer we will only get that which is within the limits of our thoughts and perceived needs; but worship, expressing in various ways our love and adoration for the Lord God, will enrich and bless us beyond the limits of our imagination (1 Corinthians 2:9).
I say this from personal experience, and on the basis of experiences of many other people of God - give glory to God, He will give glory back to you; give honor, get back honor; give respect, get back respect; give awe and reverence, get back awe and reverence; exalt Him, He will exalt you; give Him of your time and talents, He will give time and talents back into your lives; give Him priority, He will provide priority for you; work for Him, He will work for you; fulfill His needs on earth, He will fulfill your needs not only on earth but in heaven as well. All this may seem difficult and inexplicable; but step out in faith, start doing it, and God will not let you down; for He Himself has said “Oh, taste and see that the Lord is good; Blessed is the man who trusts in Him!” (Psalm 34:8).
An abundant-beyond-belief return on any investments made as per God’s instructions has always been an assurance from God for His people. When God gave His Law to the Israelites, a significant section of the law was on bringing tithes, offerings, first-fruits of produce and of material increase to the house of the Lord, and on meeting the needs of the poor; i.e., giving to God, worshipping God through material things.
The history of Israel through the ages is ample evidence that God’s people have always prospered when they obeyed God and gave from their possessions to Him and for His work. But when they did not do so, they always suffered; and what they tried to keep back and safe-guard, that too did not remain with them (Proverbs 11:24-25).
Through the wise king Solomon, the Holy Spirit of God had it recorded that: “Honor the Lord with your possessions, And with the first-fruits of all your increase; So your barns will be filled with plenty, And your vats will overflow with new wine” (Proverbs 3:9-10).
Take note of those words – “Honor the Lord with your possessions…”; as children of God, we need to realize and acknowledge that all that we have is because the Lord our God has graciously granted it to us (Deuteronomy 8:18). Our possessions, whether they are physical wealth and material riches; or some skills, talents, capabilities and intellectual abilities; or some spiritual gifts – whatever, they are all from the Lord because of His grace upon us. They all are the seeds that the Lord has given to us for sowing in His field – the people of the world. We can selfishly use up this seed for ourselves and finish it off, or sow it and reap a bountiful harvest that will bless us as well as bless others – like the widow of Zarephath, who following Elijah’s request, gave the first part of her last meal to him, and then was so abundantly blessed that she and her son lived off those blessings when the country was reeling under a severe drought (1 Kings 17:9-16).
The choice is ours. Unless we learn to give to God from our material possessions, to glorify Him with what He has given to us, to go out into God’s field, open our hands and sow the God given seed into God’s field, and work for bringing glory to God instead of ourselves; we will not get to experience the abundance of the Lord’s blessings (Proverbs 10:22). In the coming articles, we will look at examples from God’s Word of this principle of material blessings through worship at work.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Deuteronomy 32-34
Mark 15:26-47
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