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मंगलवार, 1 अगस्त 2023

The Law & Salvation / व्यवस्था और उद्धार – 19 – The Law’s Limitation / व्यवस्था की सीमा – 11

व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? – 11

क्योंकि मनुष्य शैतान के सामने असमर्थ है (भाग 9)

 

    पिछले लेख में हमने देखा था कि शैतान पहले, परमेश्वर के बाद सब से सामर्थी प्रधान स्वर्गदूत लूसिफर हुआ करता था, जो पाप के कारण गिराए जाने और स्वर्ग से निष्कासित किया गया था, (यशायाह 14:12-15; यहेजकेल 28:12-17)। उसे और उसके दूतों, के स्वर्ग से निकाले जाने के बाद भी, स्वर्ग में जाकर परमेश्वर से वार्तालाप करने के उसके अधिकार (अय्यूब 1:6-7, 12; 2:1-6), और उसकी सामर्थ्य को उससे वापस नहीं लिया गया। इसीलिए वह उसी सामर्थ्य के द्वारा जो स्वर्ग में उसके पास थी, परमेश्वर और उसके लोगों के विरुद्ध काम करता रहता है। अब जब बाइबल के इन तथ्यों तथा पहले कहे गए तीन निष्कर्षों को मनुष्यों के शैतान के साथ पारस्परिक व्यवहार पर लागू किया जाता है तो हमारे सामने कुछ महत्वपूर्ण बातें निकल कर आती हैं; और पिछले लेख में हमने इन में से चार को देखा था। आज हम शेष बातों को देखेंगे:

·        किन्तु उद्धार पाए हुए मनुष्य के अंदर परमेश्वर पवित्र आत्मा निवास करता है (1 कुरिन्थियों 3:16; 6:19), और प्रभु यीशु उसके साथ बना रहता है (मत्ती 28:20; यूहन्ना 14:18)। इसलिए उद्धार पाए हुए मनुष्य पर शैतान का कोई दाँव, कोई वार, कभी सफल नहीं हो सकता है। 

·        इसीलिए मनुष्य के पश्चाताप करके उद्धार पाते ही, उसी क्षण से परमेश्वर पवित्र आत्मा उसकी रक्षा के लिए तुरंत ही उसके अंदर आकर निवास करने लगता है (गलातियों 3: 2, 5, 14; इफिसियों 1:13-14)। यदि ऐसा न हो तो शैतान, उसके मुँह से छीने गए उसके शिकार का क्या हाल कर डालेगा, यह हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। इसीलिए उस आत्मिक नव-जात शिशु को अपने पिता परमेश्वर की तुरंत ही, उद्धार पाने के साथ ही, सुरक्षा और सहायता की आवश्यकता होती है, जो उसे परमेश्वर पवित्र आत्मा के उसमें आकर रहने के साथ उपलब्ध हो जाती है।

·        जब तक मनुष्य परमेश्वर और उसके वचन के अनुसार, उनकी आज्ञाकारिता में, पवित्र आत्मा के चलाए चलता रहता है, उस उद्धार पाए हुए मनुष्य की ईश्वरीय सुरक्षा का बाड़ा उसे बचाए रखता है। उद्धार पाया हुआ मनुष्य परमेश्वर पिता और प्रभु यीशु मसीह के हाथों में सुरक्षित बना रहता है; जो भेड़ें अपने प्रभु अपने चरवाहे का शब्द सुनती हैं और उसके पीछे चलती रहती हैं, वे कभी नाश नहीं हो सकती हैं (यूहन्ना 10:27-29)। 

·        किन्तु जैसे ही उद्धार पाया हुआ व्यक्ति, परमेश्वर और उसके वचन की ज़रा सी भी अनाज्ञाकारिता करता है, किसी भी प्रकार से परमेश्वर के निर्देशों और आज्ञाओं के स्थान पर अपनी मानवीय बुद्धि या संसार की सलाह के अनुसार कुछ करता है, या परमेश्वर पवित्र आत्मा के चलाए के अनुसार नहीं वरन संसार या अपने शरीर की भावनाओं और अभिलाषाओं के अनुसार चलने लगता है, वह परमेश्वर के सुरक्षा के बाड़े से बाहर आ जाता है। शैतान उसे परमेश्वर और प्रभु यीशु मसीह के हाथों से छीन कर तो नहीं ले जा सकता है, किन्तु उसके द्वारा सुरक्षा के बाड़े से बाहर निकाले हुए शरीर को डस अवश्य लेता है (सभोपदेशक 10:8), पाप का विष उसमें डालकर उसे हानि पहुँचा देता है।

·        इसीलिए स्वाभाविक, अपरिवर्तित, उद्धार नहीं पाया हुआ मनुष्य अपने किसी भी प्रयास, बुद्धिमत्ता, युक्ति, भक्ति, अथवा किसी भी अन्य बात के द्वारा कभी भी न तो शैतान पर जयवंत होने पाता है, और न ही उसके हाथों में से निकलने पाता है। और शैतान उसे उसकी बनाई हुए व्यर्थ “धार्मिकता” की बातों के चक्करों में फँसा कर, उसे भक्त, धर्मी, भला और परमेश्वर को स्वीकार्य होने के मिथ्या आश्वासन देकर, उसका मूर्ख बना कर, उसे पाप और विनाश की दशा में ही फंसाए रखता है, उद्धार के अनन्त जीवन से वंचित रखता है। 

·        इसीलिए व्यक्तिगत रीति से पापों के अंगीकार, उनके लिए पश्चाताप, और प्रभु यीशु से पापों की क्षमा माँगकर प्रभु यीशु को समर्पित जीवन जीने के अतिरिक्त मनुष्य के बचाए जाने और परमेश्वर को स्वीकार्य होने का अन्य कोई मार्ग है ही नहीं, और हो ही नहीं सकता है, क्योंकि ऐसा करने पर वह प्रभु परमेश्वर की सुरक्षा और देखभाल के अंतर्गत आ जाता है, प्रभु उसे शैतान से बचाता है; “इसलिये परमेश्वर अज्ञानता के समयों में आनाकानी कर के, अब हर जगह सब मनुष्यों को मन फिराने की आज्ञा देता है” (प्रेरितों 17:30)।   

 

    अगले लेख में, इन बातों के आधार पर हम देखेंगे और समझेंगे कि मनुष्यों के शैतान का सामना करने में असमर्थ होने और पाप में गिरते रहने पर भी, क्यों परमेश्वर प्रेरितों 17:30 में स्वाभाविक अपरिवर्तित मनुष्य द्वारा पाप करने को “अज्ञानता के समय” की बात कहकर उसे दण्ड देने में आनाकानी करता है, उसे दंड से बचने का अवसर देता है, और पश्चाताप करने के लिए कहता है। किन्तु अभी के लिए, यदि आप अपने आप को मसीही विश्वासी समझते हैं, किन्तु आपने अभी तक परमेश्वर के विलंब से कोप करने, धीरज धरने, सब को बच जाने का पूरा-पूरा अवसर देने (2 पतरस 3:9) की मनसा का लाभ उठाकर, व्यक्तिगत रीति से पापों का अंगीकार और उनके लिए पश्चाताप नहीं किया है, और प्रभु यीशु से अपने पापों की क्षमा माँगकर प्रभु यीशु को समर्पित जीवन जीने का, उसकी और उसके वचन की आज्ञाकारिता में चलते रहने का निर्णय नहीं लिया है, तो आप अपने किसी भी धर्म-कर्म-विधि-विधान के पालन के द्वारा न तो परमेश्वर को स्वीकार्य बनते हैं और न ही वास्तव में मसीही विश्वासी हो जाते हैं। इसलिए अभी समय रहते यह कर लीजिए, कहीं बाद में आपके हाथों से यह अवसर न निकल जाए और आप अनन्त काल के विनाश में न पहुँच जाएं।


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

 

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Why The Law Cannot Save Us – 11

Because Man is Incapable of Handling Satan (Part 9)

 

    In the previous article we had seen that Satan was Lucifer the archangel, the one most powerful after God, before he was cast down and expelled from heaven because of his sin and he turned to Satan (Isaiah 14:12-15; Ezekiel 28:12-17). Even after his and his angel’s expulsion from heaven, neither was his privilege to converse with God in heaven (Job 1:6-7, 12; 2:1-6), nor was his power taken away from him. Therefore, he continues to work against God and his people through this very power that he had when in heaven. Now, when we apply this Biblical fact regarding the origin of Satan, along with the three afore mentioned conclusions, to humans, we are brought to the realization of certain important facts regarding man vs. Satan and demons; and in the last article we had seen four of these facts. The remaining facts are:

·        But since God's Holy Spirit resides in the saved man (1 Corinthians 3:16; 6:19) and the Lord Jesus remains with him (Matthew 28:20; John 14:18), therefore, no device, no attack, of Satan and his angels can ever succeed against a saved man.

·        That is why as soon as man is Born-Again, is saved by repenting of sins, from that very moment God's Holy Spirit immediately comes and resides in him to protect him (Galatians 3: 2, 5, 14; Ephesians 1:13-14). If this were not so, we cannot even imagine what Satan will do to his victim who has been snatched from his jaws. That's why that spiritually new-born infant needs the immediate help, security, and protection of God the Father, along with salvation, which becomes available to him with the coming of God's Holy Spirit to reside in him always.

·        As long as man walks in obedience to God and according to His Word, led by the Holy Spirit, the cover of divine protection around that saved man keeps him safe. The saved man remains safe in the hands of God the Father and the Lord Jesus Christ. The sheep that listens and obeys the voice of their Lord, their Shepherd and follows Him can never perish (John 10:27-29).

·        But as soon as a saved person disobeys God and His Word in the slightest way, if in any way he ignores God's instructions and commandments and instead trusts his human wisdom or the advice of the world, or instead of walking according to God Holy Spirit, he walks according to his feelings and desires, or according to the ways of the world, he then exposes himself by breaching the enclosure of God's protection. While Satan cannot snatch him away from the hands of God and the Lord Jesus Christ, but he never misses the opportunity to bite what has been exposed by breaching God's protective enclosure (Ecclesiastes 10:8), and instil the poison of sin into him, and harms him.

·        That is why the natural, unregenerate, unsaved man is never able to overcome Satan, or escape from his hands, by any of his efforts, intelligence, tactics, devotion, or anything else. And Satan keeps him in his state of sin and destruction by deceiving him into observing and following the vain "righteousness" he has devised for himself; fooling him with false assurances that he is devout, righteous, good, and acceptable to God, while actually leading him astray from God’s ways and depriving him of eternal life of salvation.

·        That is why there neither is, nor ever can be, any other way for men to be saved and be accepted by God, except by personally confessing their sins, repenting for them, asking the Lord Jesus for forgiveness of sins, and living a life dedicated to the Lord Jesus, because then he comes under the safety and care of the Lord God and the Lord protects him from Satan; “Truly, these times of ignorance God overlooked, but now commands all men everywhere to repent” (Acts 17:30).

 

    In the next article, on the basis of these points, we will see and understand why God, in Acts 17:30, is willing to consider the sins of the natural, unregenerate man, as things done "in times of ignorance" and is reluctant to punish him; rather, He wants to give him opportunity to escape punishment, and asks him to repent. But for now, if you consider yourself a Christian, but you have so far never taken advantage of God's longsuffering, His patience, His willingness to give everyone the full opportunity to be saved (2 Peter 3:9); and have not personally confessed and repented of your sins, have never made the decision to live a life dedicated to the Lord Jesus, and of living in obedience to Him and His Word; but instead have been relying on your religion, good deeds, fulfilling the religious creeds and observances etc., to become acceptable to God and qualify being a true Christian, then you have been living in a very serious, dangerous, satanic deception. Therefore, repent and take the necessary step now, while you have the time and opportunity; lest in procrastination and/or by being careless, by ignoring, this opportunity is lost, and you end up in eternal destruction.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 


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