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प्रभु यीशु में जयवंत
हमने प्रभु यीशु मसीह की कलीसिया, अर्थात प्रभु यीशु के विश्वासी समर्पित शिष्यों के समूह या समुदाय विषय परमेश्वर के वचन बाइबल से, मत्ती 16:18 के साथ, जहाँ बाइबल में कलीसिया शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग किया गया है, सीखना आरंभ किया था। हमने कलीसिया शब्द के अर्थ को समझा, यह देखा कि आम धारणा के विपरीत प्रभु यीशु ने कलीसिया पतरस पर स्थापित नहीं की; और यह देखा कि क्यों ऐसा समझना इस पद की गलत व्याख्या करना है। हमने देखा कि प्रभु यीशु स्वयं ही अपनी कलीसिया का बनाने वाला और उसकी देख-भाल करने वाला है, उसने यह कार्य किसी अन्य अथवा किसी मनुष्य, या संस्था, यहाँ तक कि स्वर्गदूतो को भी नहीं सौंपा है। फिर हमने कलीसिया के लिए बाइबल में प्रयुक्त विभिन्न रूपकों (metaphors) के द्वारा कलीसिया के उद्देश्य और कार्यों को समझा था, और देखा था कि कोई भी मानवीय अथवा संस्थागत रीति अथवा विधि से बनाई गई ‘कलीसिया’ इन रूपकों पर खरी नहीं उतरती है, और केवल प्रभु यीशु मसीह द्वारा बनाई गई उसकी कलीसिया ही इन रूपकों के गुणों का निर्वाह कर सकती है; इसलिए कोई भी मनुष्य किसी भी रीति से प्रभु की कलीसिया को नहीं बना अथवा बनवा सकता है; और न ही स्वयं उसमें जुड़ सकता है न ही किसी अन्य को जोड़ सकता है।
फिर हमने प्रेरितों 2:38-42 में से उन सात बातों को देखा है, जो कलीसिया के आरंभ से ही सच्ची मसीही कलीसिया तथा उसके सदस्यों के जीवनों का अभिन्न अंग रही हैं। प्रेरितों 2:42 में उन सात में से चार ऐसी बातें दे गई हैं जिन्हें कलीसिया और मसीही जीवन के स्तंभ कहा जाता है, जो कलीसिया और मसीही जीवन की स्थिरता और दृढ़ता के लिए अनिवार्य हैं। किसी भी “कलीसिया” में इन सात बातों की उपस्थिति दिखाती एवं प्रमाणित करती है कि वह “कलीसिया” प्रभु की कलीसिया है। अन्यथा वह “कलीसिया” प्रभु की नहीं, वरन किसी मानवीय अथवा संस्थागत रीतियों के आधार पर मनुष्यों द्वारा बनाई गई ऐसी “कलीसिया” है जिसका प्रभु की सच्ची कलीसिया से कोई संबंध नहीं है; कलीसिया के लिए प्रभु की आशीषों और अनन्तकालीन योजनाओं तथा प्रतिफलों में जिसका कोई भाग नहीं है। वरन वह अनन्त विनाश के लिए रखे गए प्रभु के खेत में उगने वाले उन जंगली पौधों के समान है जो खेत में रहते हुए पलते, बढ़ते और पोषित तो होते रहे, किन्तु कटनी के समय पृथक कर के उन्हें उनके पूर्व-निर्धारित अनन्त विनाश के लिए फेंक दिया गया (मत्ती 13:24-30, 37-42)।
मत्ती 16:18 में प्रभु यीशु ने अपनी कलीसिया के एक और गुण को भी बताया है “... और अधोलोक के फाटक उस पर प्रबल न होंगे”; अर्थात प्रभु की कलीसिया प्रभु में रहने और प्रभु से प्राप्त सुरक्षा के कारण सदा जयवंत बनी रहेगी, शैतान की कोई योजना, कोई षड्यंत्र उसके विरुद्ध सफल नहीं होगा। प्रभु की कही इस बात के अभिप्राय को समझने के लिए प्रभु द्वारा यहाँ पर प्रयुक्त वाक्यांश अधोलोक के फाटक के इन शब्दों को समझना आवश्यक है। शब्द “अधोलोक” यूनानी भाषा के शब्द hades (हेडीस) का अनुवाद है और एक ऐसे पीड़ा के स्थान के लिए प्रयोग किया जाता है जहाँ पर पार्थिव जीवन में परमेश्वर के साथ अपने संबंधों को ठीक नहीं करने वालों की आत्माएं उनके अंतिम न्याय के लिए रखी गई हैं; जैसे कि प्रभु द्वारा लाजरस और धनी व्यक्ति के दृष्टांत (लूका 16:19-31) में दिखाया गया है, उस धनी व्यक्ति की आत्मा अधोलोक डाली गई (लूका 16:23)। अर्थात अधोलोक शैतानी आत्माओं और शक्तियों का स्थान है। बाइबल में, विशेषकर पुराने नियम में, किसी नगर या शहर का फाटक वह स्थान होता था जहाँ पर उस नगर अथवा शहर के मुख्य अधिकारी और न्यायी बैठा करते थे, और लोगों का न्याय करते थे (व्यवस्थाविवरण 16:18; व्यवस्थाविवरण 21:19-20; रूत 4:1-2; अय्यूब 29:7-10)। अर्थात किसी स्थान के फाटक का जन होने से तात्पर्य होता था उस स्थान का प्रमुख न्यायिक या प्रशासनिक अधिकारी। इसलिए मत्ती 16:18 में इन दोनों शब्दों को साथ देखने से अभिप्राय बनता है शैतानी स्थान की प्रमुख शक्तियां। और प्रभु यीशु मसीह ने दावा किया है कि उसकी कलीसिया के विरुद्ध शैतान की कोई शक्ति प्रबल नहीं हो सकेगी, उसे पराजित नहीं कर सकेगी।
प्रभु के इस दावे को हम आज वास्तविकता में कार्यान्वित होते हुए क्यों नहीं देखते हैं? ध्यान कीजिए कि, जैसा हम पहले देख चुके हैं, प्रभु की कलीसिया अभी निर्माणाधीन है; अभी अपने अंतिम स्वरूप में नहीं आई है। प्रभु अपने लोगों को तैयार कर के कलीसिया में उनके निर्धारित स्थान पर जोड़ता चला जा रहा है। प्रभु अभी अपनी कलीसिया को वचन के जल के स्नान के द्वारा बेदाग और बेझुर्री, पवित्र और निर्दोष बना रहा है (इफिसियों 5:26-27); यह प्रक्रिया चल रही है, पूरी नहीं हुई है। साथ ही एक बार फिर मत्ती 13:24-30 के प्रभु के दृष्टांत पर ध्यान कीजिए - प्रभु की कलीसिया में प्रभु के जनों के अतिरिक्त शैतान के ‘पौधे’ भी हैं - जो उनके अनन्त विनाश के लिए पहचान कर लिए गए हैं और कटनी के समय अलग कर दिए जाएंगे। इन कारणों से कलीसिया अभी इस पृथ्वी पर अपने उस तेजस्वी और जयवंत स्वरूप में देखने को नहीं मिलती है, जिसका वर्णन उसके विषय वचन में किया गया है। किन्तु प्रभु की कलीसिया में प्रभु के अनेकों समर्पित जन व्यक्तिगत रीति से, पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से, यह जयवंत जीवन जीते हुए देखे जा सकते हैं। प्रभु के दूसरे आगमन पर कलीसिया प्रभु के पास उठाई जाएगी, और फिर प्रभु की दुल्हन, आत्मिक यरूशलेम के रूप में प्रभु के साथ रहेगी (प्रकाशितवाक्य 21:2, 9-10)। प्रभु की इस कलीसिया, उसकी दुल्हन, उस आत्मिक यरूशलेम के लिए लिखा है, “और उस में कोई अपवित्र वस्तु या घृणित काम करने वाला, या झूठ का गढ़ने वाला, किसी रीति से प्रवेश न करेगा; पर केवल वे लोग जिन के नाम मेम्ने के जीवन की पुस्तक में लिखे हैं” (प्रकाशितवाक्य 21:27)।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो अभी आपके पास इस बात को जाँचने और परखने का समय है कि क्या आपका नाम वास्तव में मेमने की जीवन की पुस्तक में लिखा गया है कि नहीं? क्या आप प्रभु की कलीसिया के वास्तविक सदस्य हैं, या मनुष्यों के द्वारा बनाई गई किसी डिनोमिनेशन या मत या समूह के सदस्य मात्र हैं; अथवा, मत्ती 13:24-30 के प्रभु के दृष्टांत के जंगली बीजों के उस पौधे के समान तो नहीं हैं जो स्वामी की देखभाल, पालन-पोषण, और सुरक्षा के कारण अपने आप को उसके खलिहान में जाने के लिए निश्चिंत समझे हुए है, किन्तु कटनी के समय जो कटु सत्य सामने आएगा, उसके लिए तैयार नहीं है। वह जंगली बीज अपनी नियति नहीं बदल सकता था; किन्तु आपके पास अभी अपनी अनन्तकालीन नियति समझने और सुधारने के लिए समय और अवसर है। प्रभु द्वारा दिए गए इस समय और अवसर को व्यर्थ न जानें दें; उसका सदुपयोग करें और अपने अनन्तकाल को सुरक्षित एवं आशीषित कर लें।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
यशायाह 53-55
2 थिस्सलुनीकियों 1
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The Church Lord's - Victorious and Overcoming
We had started this series on the Church of the Lord Jesus, i.e., the called-out group of people who have believed in and surrendered their lives to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His word, with considering Matthew 16:18, where the word “Church” has been used for the first time. We had seen that contrary to common thinking and popular belief, the Lord did not establish His Church on Peter; and we also saw how and why having this concept is a misinterpretation and misuse of this verse. We saw that the Lord Jesus Himself is the one who builds, looks-after and maintains His Church, and He has not entrusted this work to any man, institution, or even angels. Then, through the various metaphors used in the Bible about the Church, we had seen and understood the purposes and works of the Church. These things had also made it apparent to us that no “church” established and functioning through any man devised methods, or man-made institutional rules and regulations, will ever be able to live according to the characteristics and qualities that are present in the Lord’s Church. Therefore, no man can ever make or maintain the Church of the Lord Jesus; no man can ever join himself or anyone else to the Lord’s Church.
Then from Acts 2:38-42 we saw the seven things which have always been an integral part of the Lord’s Church, since its inception. In Acts 2:42, four of those seven things are grouped together, which are also known as the “pillars of Christian life and the Church”, essential for stability and being firmly established. The presence of these seven things in any local Church demonstrates that the Church is the Lord’s Church. Else, that church is not the Lord’s but man-made and managed, and is a church which has no true relationship with the Lord God and His actual Church; such a man-made church and its members will have nothing to do with the eternal blessings and rewards that God has kept in place for His Church. Rather, they will be like the tares sown in God’s field, that were planted and grew, that were nurtured and looked after, along with the plants of the ‘good seed’ in the field; but since their being sown, they had been ear-marked and kept for being separated out and cast away into eternal destruction (Matthew 13:24-30, 37-42).
Matthew 16:18 also states another characteristic of the Church of the Lord Jesus, “... the gates of Hades shall not prevail against it”; meaning that the Church of the Lord, because of remaining in the Lord and His safety, will always remain overcoming and victorious against the wile and devices of the devil; none of Satan’s devious strategies against it will ever succeed. To understand this statement of the Lord, it is necessary to understand the phrase “the gates of Hades” used here by the Lord. The Greek word ‘hades’ is used for a place of terrible torment where the souls of the people who did not set their lives right with God while alive and living earth have been kept, awaiting their final judgement, as the Lord indicated in the parable of Lazarus and the Rich man (Luke 16:19-31), in which the soul of the Rich man was cast into hades (Luke 16:23). In other words, Hades is a place of satanic powers and spirits. In the Bible, particularly in the Old Testament, the gate of the city or town used to be the place where the elders and judges of that town or city used to sit and judge people, dispense justice for various matters (Deuteronomy 16:18; Deuteronomy 21:19-20; Ruth 4:1-2; Job 29:7-10). Therefore, to be a person belonging to the gate of a place implied being an elder, or an administrative officer, or a judge of that place. Therefore, by placing these meanings into the phrase of Matthew 16:18, we can infer it implies the prominent or ruling powers of that satanic place Hades. So, through this phrase, the Lord was assuring that no powers of Satan could ever prevail against His Church.
So, then, why do we not see this assurance given by the Lord practically before us today? Remember and recall, as we have seen earlier, the Church of the Lord is still “under-construction”; it has not yet reached its ultimate form and strength. The Lord is still adding His people into it; is still cleaning and purifying His Church by His Word to make it without spot or wrinkle (Ephesians 5:26-27); this process is still underway; it has not been completed as yet. Also, once again take a look at the parable of Matthew 13:24-30 - in God’s field, in the Church of the Lord, presently, the tares, earmarked for eternal destruction at the end time, are still present along with the ‘good seed.’ For these reasons, we do not get to see the Lord’s Church in that holy and glorious form that has been described in God’s Word, in which it is meant to be. But in the Church of the Lord, many of the Lord’s surrendered, obedient, and committed people can be seen living this overcoming and victorious life individually, through the power of the Holy Spirit residing in them. With the second coming of the Lord, the Church of the Lord will be caught up to be with the Lord, and then this Bride of Christ will live as the Spiritual Jerusalem with the Lord (Revelation 21:2, 9-10). For this Church of the Lord, His Bride, the Spiritual Jerusalem, it is written, “But there shall by no means enter it anything that defiles, or causes an abomination or a lie, but only those who are written in the Lamb's Book of Life” (Revelation 21:27).
If you are a Christian Believer, then you now have the time and opportunity to evaluate and ensure that your name is written in the Lamb’s Book of Life. Carefully examine and ascertain that you are a member of the actual Church of the Lord Jesus, and not just of any man-made sect, group, or denomination; or like the tares of Matthew 13:24-30, are resting contended because of the imputed care and security provided by the Master to His ‘good seed’ that they too are safe and secure, whereas they were actually earmarked for eternal destruction - a bitter, unpalatable truth that will come out at the end. Do not waste away this time and opportunity given to you by the Lord; make full use of it and secure your eternal future, blessings, and rewards with the Lord God.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Isaiah 53-55
2 Thessalonians 1