ई-मेल संपर्क / E-Mail Contact

इन संदेशों को ई-मेल से प्राप्त करने के लिए अपना ई-मेल पता इस ई-मेल पर भेजें / To Receive these messages by e-mail, please send your e-mail id to: rozkiroti@gmail.com

शनिवार, 10 फ़रवरी 2024

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 165 – Stewards of The Church / कलीसिया के भण्डारी – 47

Click Here for the English Translation


कलीसिया से बहिष्कृत करना – 3

 

    हम मसीही विश्वासी के उसे परमेश्वर द्वारा प्रदान किए गए प्रावधानों और विशेषाधिकारों तथा परमेश्वर द्वारा उसे अपनी कलीसिया का अंग बनाने तथा अपनी अन्य सन्तानों की सहभागिता में रखने का भला भण्डारी होने के बारे में सीख रहे हैं। जिस कलीसिया में तथा जिन अन्य विश्वासियों के साथ परमेश्वर ने उसे रखा है, विश्वासी को उनके मध्य, परमेश्वर की आज्ञाकारिता तथा पवित्र आत्मा की सहायता और मार्गदर्शन के द्वारा, इस तरह से काम करना है कि कलीसिया की बढ़ोतरी तथा विश्वासियों की आत्मिक उन्नति होने पाए। कलीसिया की बढ़ोतरी तथा विश्वासियों की आत्मिक उन्नति के लिए अनुशासन को बनाए रखना अनिवार्य है। ऐसे समय भी आते हैं जब अनुशासन को ज़ोर देकर लागू करना पड़ता है, कभी-कभी कुछ कठोर निर्णय भी लेने पड़ते हैं। एक कठोर अनुशासनात्मक कार्यवाही है ढिठाई और गलती करते रहने वाले विश्वासी को, उसके ढीठ और अनुचित रवैये के कारण, कलीसिया से बहिष्कृत और विश्वासियों से पृथक करना। प्रभु ने अपने वचन में इसके निर्देश दिए हैं कि यह कब और कैसे करना है।

    वर्तमान में हम किसी अन्य विश्वासी, अथवा पास्टर, या अगुवे के साथ व्यक्तिगत कलह और मतभेदों के कारण सहभागिता से पृथक या कलीसिया से बहिष्कृत किए जाने के बारे में देख रहे हैं, जो कि सामान्यतः कलीसियाओं में अलग किए जाने और वर्गीकरण होने के सबसे आम कारण हैं। बहुधा यही देखा जाता है कि जब लोगों में कलह और मतभेद होते हैं, तो वे मण्डली या समूह के रूप में साथ कार्य करने की बजाए, एक-दूसरे से अलग होकर रहने लगते हैं; और वे अपने साथ के अन्य लोगों पर भी यह प्रभाव डालते हैं कि उस व्यक्ति से जिसके साथ उनके मतभेद और कलह है, औरों को भी पृथक रखें, उसे अलग-थलग कर दें। ऐसे में पास्टर, अगुवे और कुछ वचन के प्रचारक एवं शिक्षक, इससे कुछ और आगे बढ़ जाते हैं और यह काम न केवल अपनी ही मण्डली के लोगों के मध्य में करवाते हैं, वरन, औरों को, अन्य कलीसियाओं या मण्डलियों में भी उस व्यक्ति को पृथक रखने के निर्देश दे देते है। इस प्रकार से गलती करने वाला विश्वासी, नेतृत्व करने वाले लोगों के इस व्यक्तिगत निर्णय और कार्यवाही के कारण पृथक तथा बहिष्कृत हो जाता है, न कि बाइबल के अनुसार किसी कार्यवाही के अंतर्गत और परमेश्वर द्वारा स्थापित प्रक्रिया के पालन के द्वारा। पिछले दो लेखों में हमने देखा है कि बाइबल के अनुसार ऐसी स्थिति में यह भरसक प्रयास होना चाहिए कि गलती करने वाले विश्वासी के साथ क्षमा और मेल-मिलाप का व्यवहार किया जाए; और इसके लिए प्रभु ने जिसके विरुद्ध गलती हुए है, जिसे दुःख उठाना पड़ा है, उसे ही पहल करने और यथासंभव मेल-मिलाप की प्रक्रिया को पूरा करने की ज़िम्मेदारी दी है। अभी तक हमने मत्ती 5:23-24 और मत्ती 18:15-17a से चार कदम देखे हैं जिनके अंतर्गत परमेश्वर के वचन में दी गई प्रक्रिया के अनुसार मतभेदों के समाधान, समस्या के निवारण, और मेल-मिलाप करने का प्रयास किया जाना चाहिए। आज हम पांचवें और अन्तिम कदम को देखेंगे, जब कोई और विकल्प न बचे और पृथक या बहिष्कृत करने के लिए कदम उठाने ही पड़ जाएँ।

    प्रभु यीशु ने, मत्ती 18:17b में, अन्तिम विकल्प के रूप में कहा है, “परन्तु यदि वह कलीसिया की भी न माने, तो तू उसे अन्य जाति और महसूल लेने वाले के ऐसा जान।” हम प्रभु के इस कथन से देखते हैं कि गलती करने वाले विश्वासी के विरुद्ध यह अन्तिम निर्णय, उसके अपनी गलतियों को न सुधारने और उनके लिए कलीसिया की भी न सुनने के बाद ही कार्यान्वित माना जाना है; ध्यान कीजिए प्रभु कह रहा है “के ऐसा जान”, न कि “उसके विरुद्ध अनुशासनात्मक कार्यवाही आरम्भ कर के उसे...”। इस प्रकार से, और यहाँ पर इस बात को समझना बहुत आवश्यक है कि यह किसी व्यक्ति अथवा समिति के द्वारा लिया जाने वाला निर्णय नहीं है, बल्कि बात को कलीसिया के सामने लाए जाने के बाद, कलीसिया के द्वारा निवारण का प्रयास किए जाने के बाद भी, कलीसिया द्वारा सामूहिक रीति से किए गए प्रयास का असफल होने का स्वचालित परिणाम है। साथ ही, यह पास्टर अथवा अगुवे के द्वारा औपचारिकता का निर्वाह करते हुए कलीसिया को जानकारी देकर गलती करने वाले को निकालने के निर्णय की घोषणा करना भी नहीं है। और न ही यहाँ पर प्रभु ने यह कहा है कि इस बात पर मतदान किया जाए और बहुमत के अनुसार निर्णय किया जाए, न ही कोई न्यूनतम मत सँख्या निर्धारित की जिसके होने पर ही यह निर्णय लिया जाए। यह तो सीधे से एक वैकल्पिक निर्णय है, दो उपलब्ध विकल्पों में से एक का स्वतः ही कार्यान्वित हो जाना। क्योंकि पहला विकल्प लागू नहीं हो सका, इसलिए स्वतः ही दूसरा विकल्प लागू हो गया, यहाँ पर उस गलती करने के वाले के लिए “...तू उसे अन्य जाति और महसूल लेने वाले के ऐसा जान” अपने आप ही लागू हो गया। क्योंकि उस गलती करने वाले विश्वासी ने अपनी ढिठाई में, परिस्थिति के समाधान के सभी अवसर गँवा दिए, सभी अवसर जो उसे उसके पक्ष में प्रदान किए गए, इसलिए अब उसे अपनी ढिठाई और मेल-मिलाप न करने, गलती नहीं सुधारने के परिणाम भुगतने ही पड़ेंगे। यहाँ पर ध्यान देने के लिए एक और बहुत महत्वपूर्ण बात भी है – जैसा कि पहले के लेखों में कहा गया था – किसी भी मनुष्य को, वह चाहे कोई भी क्यों हो, किसी को भी, प्रभु यीशु की देह और उसकी दुल्हन, अर्थात उसकी कलीसिया, के साथ कैसे भी ज़रा भी छेड़-छाड़ करने का कोई अधिकार नहीं है। केवल प्रभु, और केवल वही, यह निर्णय करता है कि उसकी कलीसिया में और उसके साथ क्या होना है, कोई भी मनुष्य यह अधिकार नहीं ले सकता है और उसके अंतर्गत कोई कार्य नहीं कर सकता है। यहाँ पर यह प्रभु के द्वारा दिया गया निर्देश है, और उसी का पालन होना है; इसलिए यह निर्णय लेना किसी भी मनुष्य की ज़िम्मेदारी नहीं है; सभी मनुष्यों को, समस्त मण्डली या कलीसिया की सभा को केवल प्रभु द्वारा कहे हुए का पालन करना है।

    यहाँ प्रभु द्वारा बताया गया तरीका दिया गया है कि इस स्थिति के आने पर, गलती करने वाले विश्वासी के साथ कैसे व्यवहार करना है – उस से अन्य जाति और महसूल लेने वाले के समान बर्ताव करना है। सामान्यतः, इस का अर्थ यही लिया जाता है कि प्रभु ऐसे विश्वासी से सभी रिश्ते, सभी संपर्क तोड़ लेने के लिए, और कलीसिया तथा मण्डली, यानि संगति से बाहर कर देने के लिए कह रहा है। यदि ऐसा है तो फिर यह परमेश्वर के वचन और निर्देशों में एक बहुत बड़ा विरोधाभास ले आता है, क्योंकि इसका तात्पर्य होगा उस विश्वासी का परमेश्वर की सन्तान होने से तिरस्कार कर दिया गया है, जिसका अर्थ है कि उद्धार खोया जा सकता है। ध्यान कीजिए, हर कोई परमेश्वर की कलीसिया का सदस्य तब ही बनता है, परमेश्वर की अन्य सन्तानों की सहभागिता में तब ही लाया जाता है जब उसका परमेश्वर के परिवार में नया-जन्म होता है; और परमेश्वर ही उसे अपनी कलीसिया तथा अपनी अन्य सन्तानों की सहभागिता में लाता है। मसीही विश्वास का एक आधारभूत और अटल सिद्धान्त है कि उद्धार कभी खोया नहीं जा सकता है, चाहे व्यक्ति कुछ भी क्यों न कर ले; और परमेश्वर का एक अपरिवर्तनीय गुण है कि वह सर्वज्ञानी है, सभी के बारे में सब कुछ जानता है, अन्त को आरम्भ से जानता है। इस बात से यह समझना कि कुछ गलत करने के कारण प्रभु उसे अपनी कलीसिया से निकाल दिए जाने के लिए कह रहा है, का अर्थ है उस व्यक्ति का परमेश्वर की सन्तान होने से हटा दिये जाने के लिए कह रहा है। जिसका अभिप्राय है उद्धार को खो देना, और तब इसका तात्पर्य होता है कि परमेश्वर सर्वज्ञानी नहीं है क्योंकि उसे पता नहीं था कि उद्धार पा लेने के बाद आने वाले दिनों में वह विश्वासी क्या कर देगा, और इसलिए उसे उद्धार देने के द्वारा परमेश्वर ने गलती कर दी, और साथ ही यह भी कि कुछ कर्मों के कारण उद्धार खोया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, या तो ये दोनों ही तर्क अस्वीकार्य और असमर्थनीय हैं, गलत और झूठे हैं; अन्यथा परमेश्वर सर्वज्ञानी नहीं है, उसकी बातों में गलतियाँ हो सकती हैं, उसका वचन अटल और अपरिवर्तनीय नहीं है, उस वचन में भी त्रुटियाँ हैं। देखिए और समझिए कि इस एक छोटी और साधारण सी लगने वाली बात के पीछे कैसे शैतान ने परमेश्वर के यथार्थ पर ही हमला बोला है; और इस शैतानी चाल में फँसकर विश्वासी कैसे परमेश्वर को ही नीचा दिखा देते हैं।

    इसलिए, प्रभु के कथन “...तू उसे अन्य जाति और महसूल लेने वाले के ऐसा जान” का यह अर्थ कदापि नहीं हो सकता है कि ऐसे विश्वासी के साथ सभी रिश्ते, सभी संपर्क तोड़ लें, और उसे कलीसिया तथा मण्डली, यानि संगति से बाहर कर दें। तो फिर यह कहने के द्वारा प्रभु का क्या अर्थ है? हम इसे अगले लेख में देखेंगे और समझेंगे। लेकिन अभी के लिए, जो लोग, विशेषकर के पास्टर, अगुवे, और वचन का प्रचार करने तथा शिक्षा देने वाले, जो व्यक्तिगत मतभेदों और कलह के कारण किसी को कलीसिया और संगति से बाहर कर देना अपना अधिकार समझते हैं, जो न केवल स्वयं यह अनुचित कार्य करते हैं, बल्कि औरों से भी करवाते हैं, दूसरों को भी अपने कहे के अनुसार करने के लिए कहते हैं, विचार कीजिए कि उन्होंने कितनी बड़ी गलती की है और औरों से भी करवाई है; और उन सभी को जब इस बात का हिसाब देना पड़ेगा, तो उनकी क्या दशा होगी; उन्होंने एक जघन्य पाप किया और उनका अनुसरण करते हुए उन पर अँध-विश्वास करने वालों ने भी वही जघन्य पाप दोहरा लिया। जब नेतृत्व करने वाले और उन पर विश्वास करके उनका अनुसरण करने वाले वे लोग अपने जीवन और सेवकाई का हिसाब देने और प्रतिफल पाने के लिए खड़े होंगे, तो अपनी अनन्तकालीन आशीषों की कितनी हानि होते हुए देखेंगे, क्योंकि उन सभी ने परमेश्वर और उसके वचन की नहीं, बल्कि परमेश्वर और उसके वचन के नाम में वास्तव में मनुष्यों की बातों का और मानवीय भावनाओं का पालन करने को चुना था।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

कृपया इस संदेश के लिंक को औरों को भी भेजें और साझा करें

******************************************************************

English Translation


Excommunication From the Church – 3

 

    We are learning about the Christian Believer’s responsibility to be a good steward of his God given provisions and privileges of being made a member of God’s Church and placed in fellowship with other children of God. Towards the Church and the fellowship that he has been placed in, the Believer should live and function to contribute to their growth and progress, in obedience to God, with the help and guidance of the Holy Spirit. For the growth and progress of the Church as well as of the spiritual life of Believers, maintaining discipline is essential. There are times when this discipline has to be enforced, and some harsh measures may also be required. One of the harsh disciplinary measures is excluding a stubborn and an errant Believer from the fellowship and excommunicating him from the Church because of his stubborn and unreasonable attitude. The Lord, in His Word, has given instructions about when and how this should be done.

    Presently, we are looking at exclusion or excommunication because of personal differences and conflicts between Believers. or having differences with the Pastor or Church Elders; which is by far the most commonly seen reason for separation and segregation in the Churches. Very often the people having differences just decide to stay away from each other in the congregational activities, and they may even influence their own group to stay away or not communicate with the person that they have their differences with. The Pastors, Elders and some preachers and teachers of God’s Word often go one step further, and not only get this separation and segregation done in their own congregation, but also convey for this to be done in other congregations as well. Thus, the errant Believer, because of these people in leadership positions is effectively excluded or excommunicated, because of a personal action and not any Biblical action, without the God given process being followed. In the previous two articles we have seen that Biblically, there should be an utmost attempt at forgiveness of the errant Believer and reconciliation with him; and for this the responsibility for initiating and carrying through the process of reconciliation has been assigned by the Lord to the person who has been wronged, who has suffered because of the other Believers wrong-doings. So far, from Matthew 5:23-24 and Matthew 18:15-17a, we have seen the four steps of trying to have the differences resolved, problems sorted out, and reconciliation effected through the process given in God’s Word. Today, we will consider the fifth and final step, how to go about it when except for exclusion or excommunication, no other way is left.

    The Lord Jesus in Matthew 18:17b, as a last resort, gives the permission to exclude from fellowship or excommunicate an errant Believer who has refused to listen to even the Church, but with a condition. The Lord has said, “But if he refuses even to hear the church, let him be to you like a heathen and a tax collector.” We see from the Lord’s statement that this final decision against the errant Believer, automatically follows his refusal to even listen to the Church and mend his ways; take note that the Lord has said “let him be to you” i.e., start seeing him that way, and not “start disciplinary proceedings against him to declare him…”. So, here, and this is very important to understand, that it is not a decision to be taken by any person or any committee, but it is stating the consequence of the failure of the collective effort of the Church, after the matter has been brought to the Church and the Church too has tried to have the matter solved; . Moreover, it is not a mere perfunctory informing of the Church by a Pastor or elder and then putting out the errant Believer; neither does the Lord say to put the matter to vote in the Church and go by the majority decision, nor does He specify the minimum vote percentage to have the action carried out. It is simply a de-facto action, where one of the two available options automatically gets activated; since the first part has not happened therefore, the second part automatically becomes operative; in this case, “...let him be to you like a heathen and a tax collector.” Since the errant Believer has refused to have the situation rectified despite all the opportunities given to him, and all given to him in a manner favorable to him, therefore now he will have to bear the consequences of being stubborn and non-conciliatory. There is something very important to note over here – as has been said in the earlier article, no man – none, whosoever, has the authority to meddle with the Body and Bride of the Lord Jesus, i.e., His Church, only He, and He alone decides what is to be done in and to His Church, no man can take this authority upon himself or act in accordingly. Here the Lord has given the order to be carried out; the Lord has not asked any man to take this decision on His behalf, therefore it is not any man’s responsibility to take this decision; all the people and the all of the Church congregation only have to obey and implement what the Lord has said.

    Here is the Lord specified manner in which the errant Believer is to be treated now, at this stage – as a heathen and a tax-collector. Very commonly, this is taken to imply that the Lord is saying cut off all relationship, all communication with such a person, and put him away from the Church and the congregation. If this were so, then it would bring in a gross contradiction in God’s Word and His instructions, since it would tantamount to such a Believer being rejected from being a child of God, implying that salvation can be lost. Remember, everyone becomes a member of God’s Church and is brought into fellowship with God’s other children on being Born-Again into the family of God; and it is God who places the person in His Church and fellowship with His other children. A basic infallible fact of the Christian Faith is that salvation is eternal, it can never be lost, no matter what a person may do; and another absolute characteristic of God is that He is omniscient, knowing everything about everything, knowing the end from the beginning. To interpret the Lord’s statement as meaning to cast such a person away from the Church for doing some wrong means that the Lord is asking to make him cease being a child of God because of doing wrong. This in turn means losing salvation, and implying that God is not omniscient since he did not know what this person is going to do in the days to come after being saved, and so, God made a mistake in saving him, and it also means that salvation can be lost because of certain works. In other words, either both of these are untenable and unacceptable arguments, they are wrong and false; or God is not omniscient and makes errors in judgement, His Word is not infallible and unalterable, there are errors in His Word. See and understand how through this seemingly small and ordinary appearing things, Satan has attacked the very truth and fact of God; and by falling for this satanic trap, how the Believers end up denigrating God.

    Therefore, the Lord’s statement of “let him be to you like a heathen and a tax collector” cannot mean cutting off all relationships and communication and putting him away from the Church and fellowship. So then, what does the Lord mean when He says this? We will consider and understand this in the next article. But for now, think of the magnitude of the transgression and accountability of those people, especially the Church Pastors, Elders, and the preachers and teachers of God’s Word, who take it upon themselves to separate away from the Church and fellowship some people with whom they have their differences, and even make other Believers follow their decisions to stay away from those persons – these Church leaders have fallen into this very serious transgression and sin, and have made their blind-followers to fall into it as well. Eventually when they stand before the Lord to given an account of their lives and ministries, both, the leader as well as their followers, will see so much loss of their eternal blessings because of following man and disobeying God; because in the garb of obeying God and His Word they actually chose to follow man’s sayings and their own human feelings.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

Please Share the Link & Pass This Message to Others as Well