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मनुष्य की रचना
बाइबल में हर प्रकार की जानकारी परमेश्वर ने लिखवाई है। हम सृष्टि, अंतरिक्ष, पृथ्वी से संबंधित बातों को देख चुके हैं। बाइबल की प्रथम पुस्तक, उत्पत्ति का पहला अध्याय, परमेश्वर के द्वारा समस्त सृष्टि की रचना किए जाने का वृतांत है। उत्पत्ति के आरंभिक अध्यायों से हम देखते हैं कि मनुष्य परमेश्वर की सबसे उत्कृष्ट रचना है। अन्य सभी की सृष्टि परमेश्वर ने कहने के द्वारा, अपने शब्द या वचन की सामर्थ्य से की - परमेश्वर ने कहा और वह वैसा ही हो गया। किन्तु मनुष्य को परमेश्वर ने अपने हाथों से, अपने ही स्वरूप में सृजा; उसमें जीवन डालने के लिए परमेश्वर ने अपनी ही श्वास डाली, और उसके लिए ही अदन की वाटिका लगाई, जहाँ परमेश्वर उस के साथ संगति करता था, और फिर अपने ही हाथों से पहले मनुष्य आदम के लिए एक सहायक बनाया (उत्पत्ति 1:26-28; 2:8, 15, 18; 3:8)। परमेश्वर ने पृथक मनुष्य की नर और मादा स्वरूप में सृष्टि की, और उन्हें आशीष देकर कहा कि वे सारी पृथ्वी में फैल जाएं, उसे अपनी अधीनता में ले लें।
क्रमिक विकासवाद (Evolution) के पास इसका कोई उत्तर नहीं है कि क्यों और कैसे विभिन्न जीव-जंतुओं और वनस्पतियों आदि में प्रजनन और जाति को बढ़ाने के विभिन्न तरीके आए। जंतुओं और वनस्पतियों की विभिन्न प्रजातियों में ऐसे कितने ही उदाहरण हैं जिनमें नर और मादा का भेद नहीं है; वे अपने एक ही स्वरूप से अपने समान अगली पीढ़ी उत्पन्न करते हैं। कई पौधों की प्रजातियों में एक ही पौधे में नर और मादा फूल अलग-अलग होते हैं - एक ही डाली या एक ही पौधे में दोनों प्रकार के फूल, तथा अन्य प्रजातियों में एक ही फूल में दोनों नर और मादा अंश, और उनके बीज से फिर एक नया पौधा उत्पन्न हो जाता है। यदि प्रजाति का ज़ारी रहना बिना नर-मादा के भिन्न होने से संभव है, और हो रहा है, तो फिर यह नर और मादा स्वरूप क्यों और कैसे विकसित हुए? एक से दूसरे लिंग में क्रमिक परिवर्तन या विकास के दौरान, इन अधूरे लिंग वाली जीव-प्रजातियाँ किस प्रकार से अपनी अगली पीढ़ी कौत्पन्न करते रहे; क्योंकि आज हम जिन अधूरे विकसित लिंग वाले जीवों और मनुष्यों को देखते हैं उनमें प्रजनन की क्षमता नहीं होती है? यदि अधूरे विकसित लिंग वाली पीढ़ी, अगली को जन्म नहीं दे सकती थी, तो क्या उस जीव-प्रजाति का अन्त नहीं हो जाता? यदि वे अपूर्ण विकसित लिंग वाले जीव, उस अपूर्णता में भी अपनी प्रजाति को उत्पन्न कर सकते थे, तो फिर आज के अपूर्ण विकसित लिंग वाले जीव प्रजनन क्यों नहीं कर सकते हैं - क्रमिक विकासवाद के पास इसका कोई उत्तर नहीं है। किन्तु उपरोक्त बाइबल के हवाले स्पष्ट बताते हैं कि परमेश्वर ने आरंभ से ही मनुष्य को नर और मादा की भिन्नता के साथ, अलग-अलग दायित्वों के निर्वाह के लिए उत्पन्न किया (देखिए उत्पत्ति 2:24; मरकुस 10:6-8)।
विज्ञान ने मनुष्य के शरीर की रचना और कार्य विधि की जटिलता और उसके अद्भुत होने को अपने नए उपकरणों के द्वारा पहचानना आरंभ किया है; किन्तु परमेश्वर ने अपने भक्त राजा दाऊद, जिसका जन्म 1085 ईस्वी पूर्व में हुआ था, के द्वारा लिखे गए एक भजन में इस तथ्य को आज से लगभग 2800 से भी अधिक वर्ष पूर्व लिखवा दिया था, “मैं तेरा धन्यवाद करूंगा, इसलिये कि मैं भयानक और अद्भुत रीति से रचा गया हूं। तेरे काम तो आश्चर्य के हैं, और मैं इसे भली भांति जानता हूं” (भजन 139:14 )।
इसी प्रकार मनुष्य के जीवन और स्वास्थ्य के बारे में भी बहुत सी बातें हैं, जिन्हें विज्ञान ने अब पहचाना और माना है, किन्तु परमेश्वर ने अपने वचन बाइबल की पुस्तकों में उन्हें हजारों वर्षों से लिखवा रखा है। मनुष्य और मनुष्य के जीवन से संबंधित तथ्यों के कुछ उदाहरण देखते हैं:
आज से लगभग 2000 वर्ष पूर्व, पौलुस प्रेरित ने अपने एक सुसमाचार प्रचार में कहा था, “उसने एक ही मूल से मनुष्यों की सब जातियां सारी पृथ्वी पर रहने के लिये बनाईं हैं; और उन के ठहराए हुए समय, और निवास के सिवानों को इसलिये बान्धा है” (प्रेरितों 17:26); और उत्पत्ति की पुस्तक जो आज से लगभग 3400 वर्ष पूर्व लिखी गई, उसके 5 अध्याय में आदम और हव्वा से उत्पन्न होने वाली संतानों के नाम और उनकी संक्षिप्त वंशावली दी गई है - अर्थात सारी मानवजाति उस एक ही मूल, आदि पुरुष, आदम की संतान हैं। वैज्ञानिकों ने जब मनुष्य के डीएनए के अध्ययन किए, तो उन्हें मनुष्य की रचना और इतिहास के बारे में कई अद्भुत बातें पता चलीं। 1995 में 38 विभिन्न जातियों के वंशों के डीएनए के अध्ययन के द्वारा यह सामने आया कि चाहे वे आज विभिन्न और पृथक जातियाँ हैं, किन्तु मूल में वे सभी एक ही मूल पुरुष से निकलकर आए हैं! यह बात बाइबल में हजारों वर्ष पहले लिखी गई बात के पूर्णतः अनुरूप है।
वैज्ञानिकों में असमंजस है कि गर्भ-धारण होने से कितने समय बाद भ्रूण को जीवित कहा जा सकता है। किन्तु बाइबल बताती है कि भ्रूण के गर्भ में आने के समय, उसके आरंभ से ही वह एक जीवित प्राणी है, जिसके विषय परमेश्वर ने योजना बना रखी है, उद्देश्य निर्धारित किया हुआ है “गर्भ में रचने से पहिले ही मैं ने तुझ पर चित्त लगाया, और उत्पन्न होने से पहिले ही मैं ने तुझे अभिषेक किया; मैं ने तुझे जातियों का भविष्यद्वक्ता ठहराया” (यिर्मयाह 1:5); अर्थात परमेश्वर की दृष्टि में वह आरंभ से ही एक जीवित व्यक्ति है, जो कुछ समय के बाद मनुष्य के स्वरूप में दिखने लगेगा, जन्म लेगा, और फिर बड़ा होकर परमेश्वर के उद्देश्यों को पूरा करेगा। आज विज्ञान भी यह जानता और मानता है कि उस भ्रूण के गर्भ में स्थापित होने के समय, जब वह एक ही कोशिका (cell) दिखाई देता है, तब भी उस एक कोशिका में वही जीवन होता है जो उसके गर्भ से बाहर जन्म लेने के समय होता है, और उस एक कोशिका में विद्यमान डीएनए में वह संपूर्ण जानकारी विद्यमान होती है जिसके द्वारा वह भ्रूण एक कोशिका से बढ़कर मनुष्य रूप में जन्म लेता, और बढ़ता है, कार्य करता है।
जिस परमेश्वर ने आपको और मुझे अपने स्वरूप में, अद्भुत रीति से रचा है, अपनी श्वास से हमें जीवन दिया है, जो आज दिन तक हमारी देखभाल करता आ रहा है, और हमें अपनी पृथ्वी और प्रकृति के संसाधानों का प्रयोग खुले दिल से करने दे रहा है, वह हम में से प्रत्येक को, हमारे मनों की भावनाओं और विचारों को, हमारी भीतरी-बाहरी वास्तविक दशा को, हमारे मन, विचार, शरीर में किए गए हर पाप को जानता है। चाहे हम उसे स्वीकार करें या न करें; उसके आज्ञाकारी बनें अथवा न बनें; वह हम से बहुत प्रेम भी रखता है, हमारी चिंता भी करता है। वह चाहता है कि उसका रचा हुआ प्रत्येक जन, जिसभी दशा में वह है, वैसा ही उसके पास आ जाए, उस से मेल-मिलाप कर ले, जिससे परमेश्वर उसे पापों से स्वच्छ और शुद्ध करे, तथा शैतान द्वारा बहकाए जाकर अनन्त-विनाश में डाल देने से बचा सके। उसने इस मेल-मिलाप का मार्ग प्रभु यीशु मसीह में होकर तैयार किया और उपलब्ध करवाया है। वह अपेक्षा रखता है कि हम उसकी सृष्टि और अपनी रचना द्वारा उसके अस्तित्व को पहचानें और स्वेच्छा से समय रहते उसके पास आ जाएं, उसे समर्पित और उसकी आज्ञाकारिता का जीवन व्यतीत करें, और उसकी आशीषों की भरपूरी का आनन्द प्राप्त करें। सच्चे मन और स्वेच्छा से की गई आपकी एक छोटी सी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं स्वीकार करता हूँ कि मैं पापी हूँ, और आपने मेरे पापों के लिए क्रूस पर अपना बलिदान दिया है। कृपया मेरे पाप क्षमा करें, मुझे स्वीकार करें, अपनी शरण में लेकर मुझे अपना आज्ञाकारी जन बनाएं” आपको अनन्त विनाश से अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों में लाकर खड़ा कर देगी। क्या आप आज, अभी यह निर्णय लेंगे? आपको अद्भुत रीति से रचने वाला आपका सृष्टिकर्ता परमेश्वर उसके पक्ष में किए गए आपके निर्णय की लालसा रखे हुए प्रतीक्षा कर रहा है!
Bible and Creation of Man
God has had all kinds of information written in the Bible. We have seen things related to the universe, space, and earth. The first book of the Bible, the first chapter of Genesis, is the account of God's creation of the universe. From the opening chapters of Genesis, we see that man is God's greatest creation. All others were created by God by speaking, by the power of His Word - God said and it was so. But man was created by God with his own hands, in his own image. God breathed His own breath to put life into him, and God then set up the Garden of Eden for him, where God had fellowship with him, and then God, with His own hands, made a helper for the first man Adam (Genesis 1:26- 28; 2:8, 15, 18; 3:8). God created human beings in separate male and female form, and blessed them, said to them to spread all over the earth, taking it under their control.
Evolution does not have any answer as to how and why the different flora and fauna have come up with different methods of reproduction and propagation of their species. There are many such examples in different species of animals and plants in which there is no distinction of male and female. They produce their next generation, just like themselves from the same form. Many plant species have separate male and female flowers in the same plant - on the same branch, or both types of flowers in the same plant; and in other species both male and female parts in the same flower, and then from their seeds a similar new plant is born. If the continuation of a species is possible, and is happening, a complete male-female separation, in both the animal and plant kingdoms, then why and how these separate male and female forms ‘evolved’? How could there be intermediate genders as they ‘evolved’ from being unisexual or asexual to bi-sexual, and how could those intermediate genders have been functional; since the intermediate genders we know about today are unable to reproduce? Wouldn’t the species have come to an end if the ‘intermediate’ genders failed to reproduce and bring forth next the generation! - evolution has no answer. But the above-mentioned Bible quotes clearly state that from the very beginning God created man, with the distinction of male and female genders, to fulfill different responsibilities (see Genesis 2:24; Mark 10:6-8); and He similarly created each living being the way they are.
Science, through its new tools, has now begun to recognize the complex and amazingly intricate working of the human body. But the Lord in a Psalm written by His follower King David, who was born in 1085 B.C. had this fact written about more than 2800 years ago, "I will praise You, for I am fearfully and wonderfully made; Marvelous are Your works, And that my soul knows very well" (Psalm 139:14).
Similarly, there are many things about man's life and health, which have only now been recognized and accepted by science, but God had them written in His Word, in the books of the Bible thousands of years ago. Let's see some examples of facts related to man and man's life:
About 2000 years ago, the apostle Paul said in one of his gospel messages, said: “And He has made from one blood every nation of men to dwell on all the face of the earth, and has determined their pre-appointed times and the boundaries of their dwellings" (Acts 17:26); And in the book of Genesis, which was written about 3400 years ago, in its first 5 chapters, are given the names of the children born of Adam and Eve and their brief genealogy - i.e., all of mankind has come from the same original man, the children of Adam. When scientists studied human DNA, they came to know many amazing things about the creation and history of man. In 1995, a study of the DNA of the descendants of 38 different races revealed that although they are different and distinct races today, they all originally descended from the same original male! This is completely in line with what was written in the Bible thousands of years ago.
Scientists are confused about how long after conception can the embryo be called alive or living? But the Bible says that since the time of conception, from the very beginning, the fetus is a living being, for which God has made plans, and set some purposes Before I formed you in the womb I knew you; Before you were born I sanctified you; I ordained you a prophet to the nations” (Jeremiah 1:5); i.e., in the eyes of God, from the beginning, he is a living being who after some time will appear in the form of man, will be born, and then grow up to fulfill the purposes of God. Today science also knows and believes that at the time of being implanted in the womb of that embryo, when it appears to be a single cell, even then there is the same life in that one cell as it is, at the time of its birth outside the womb; and the DNA present in that one cell contains all the information by which that embryo grows from a single cell to be born in the human form, and function accordingly.
The God who has wonderfully created you and me in His image, has given us life with His breath, has been caring for us to this day, and allows us to use the resources of our earth and nature with an open heart. He knows each of us, the feelings and thoughts of our minds, our inner and outer real condition, every sin committed in our mind, thoughts, body. Whether we accept Him or not; are obedient to him or not; He still loves us very much and cares for us. He wishes that every one of His creations, in whatever condition they are, should come to Him, and be reconciled to Him, so that God may cleanse and purify him of his sins, and save him from being seduced by Satan into eternal-destruction. He has prepared and provided the way of this reconciliation through the Lord Jesus Christ. He expects that we realize and recognize His existence through His created universe and ourselves, and voluntarily come to Him, while we have the time and opportunity, live a life of submission and obedience to Him, and enjoy the abundance of His blessings. A short prayer from your heart said voluntarily and willingly, “Lord Jesus, I confess that I am a sinner, and You have sacrificed Yourself on the cross for my sins. Please forgive my sins, accept me, take me under your shelter and make me your obedient follower” will take you from eternal destruction to eternal life and heavenly blessings. Will you make this decision today, now? Your wonderful Creator God your Creator is eagerly awaiting your decision made in His favor!
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