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पुनःअवलोकन – 5
एक आशीषित और सफल जीवन जीने से संबंधित जो बातें हमने अभी तक 1 राजाओं 2:2-4 से सीखीं हैं, उनके पुनःअवलोकन को ज़ारी रखते हुए, आज भी हम परमेश्वर द्वारा दिए गए प्रावधानों के योग्य भण्डारी होने से संबंधित बातों के पुनःअवलोकन को आगे देखेंगे। आज से हम परमेश्वर द्वारा नया-जन्म पाए हुए प्रत्येक मसीही विश्वासी को दिए गए दूसरे प्रावधान, परमेश्वर पवित्र आत्मा का भण्डारी होने के बारे में सीखी गई बातों के पुनःअवलोकन को आरंभ करेंगे। प्रभु यीशु मसीह ने, अपने क्रूस पर चढ़ाने के लिए पकड़वाए जाने से पहले शिष्यों के साथ हुई अंतिम वार्तालाप में उन से वायदा किया था कि परमेश्वर पिता से उनके लिए वह एक सहायक, पवित्र आत्मा को भेजेगा। हम यूहन्ना 14 से 16 अध्याय में पवित्र आत्मा के बारे में प्रभु द्वारा शिष्यों को दी गई शिक्षाओं को पाते हैं। और फिर हम 1 कुरिन्थियों 3:16; 6:19 से देखते हैं कि पवित्र आत्मा प्रत्येक नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी के अंदर निवास करता है।
प्रभु यीशु ने यूहन्ना 14:16 में कहा कि पवित्र आत्मा एक साथी के समान प्रत्येक विश्वासी के साथ हमेशा बना रहेगा, कि उसका सहायक हो। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं है कि वह, परमेश्वर द्वारा विश्वासी को दिए गए निर्देशों को, विश्वासी के स्थान पर पूरा कर देगा। क्योंकि परमेश्वर ने जीवन और भक्ति तथा सँसार की सड़ाहट से बचने से संबंधित जो कुछ चाहिए था वह पहले से ही विश्वासियों को दे दिया है (2 पतरस 1:3-4), इसलिए पवित्र आत्मा को अपने स्थान पर कार्य करने की हर प्रार्थना हमेशा बिना उत्तर की ही रहेगी। साथ ही, जब भी परमेश्वर अपने बच्चों से कुछ करने के लिए कहता है, तो उसे पता होता है कि वे क्या कर सकते हैं, और क्या नहीं; और वह उन से उन्हें उसके द्वारा प्रदान की गई क्षमताओं के अंतर्गत ही कुछ करने के लिए कहता है (1 कुरिन्थियों 10:13)। इसलिए विश्वासी का यह कहना कि मैं यह, जो परमेश्वर ने मुझे करने के लिए कहा है, नहीं कर सकता हूँ, परमेश्वर के सर्वज्ञानी होने और जो वह अपने बच्चों से करने के लिए कहता है उसमें उसके सच्चा होने पर प्रश्न चिह्न उठाता है। प्रत्येक विश्वासी को हमेशा इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि परमेश्वर पवित्र आत्मा हमेशा ही उसके साथ बना रहता है, वह जहाँ भी जाता है, जो भी करता है, अपने समय का जैसे भी उपयोग करता है, आदि, उन सभी बातों में। इसलिए मसीही विश्वासियों को कभी भी ऐसा कुछ भी नहीं कहना या करना चाहिए जो पवित्र आत्मा को किसी भी तरह से शोकित करे (इफिसियों 4:30)।
यूहन्ना 14:17 से हमने देखा था कि परमेश्वर पवित्र आत्मा सत्य का आत्मा है, और यही बात यूहन्ना 15:26 तथा यूहन्ना 16:13 में भी दोहराई गई है; जो पवित्र आत्मा के इस गुण के महत्व पर बल देता है। सीधे शब्दों में, परमेश्वर पवित्र आत्मा, कभी भी, किसी भी रीति से, तात्पर्यों में भी, ऐसी किसी भी बात के साथ जुड़ा हुआ नहीं होगा जो सत्य नहीं है। सभी आत्मिक बातों के लिए, जैसा कि प्रभु यीशु ने यूहन्ना 14:6 में कहा है, प्रभु ही सत्य है, अर्थात, प्रभु और उसका वचन ही एकमात्र सत्य हैं। आत्मिक बातों से संबंधित जो भी बाइबल में नहीं दिया गया है, वह सत्य नहीं है, और पवित्र आत्मा का उस बात के साथ कोई लेना-देना नहीं है। इसलिए ऐसी किसी भी बात के साथ जो सत्य नहीं है, अर्थात, बाइबल का तथ्य नहीं है, पवित्र आत्मा का कोई मार्गदर्शन होना संभव ही नहीं है। इसीलिए प्रेरितों 17:11 और 1 थिस्सलुनीकियों 5:11 के निर्देशों – किसी भी बात को यूँ ही नहीं स्वीकार कर लो, वरन पहले प्रचार की तथा सिखाई जाने वाली हर बात को वचन से जाँचो और परखो, और पुष्टि होने के बाद ही उसे स्वीकार करो, का निर्वाह करना अनिवार्य है।
एक बहुत सामान्य त्रुटि और गलतफहमी, जो बहुधा भक्ति में ही की जाती है, बाइबल के तथ्यों को उस तरह से उपयोग करने की है जैसे वे परमेश्वर के वचन में उपयोग नहीं किए गए हैं। लोग अकसर, यद्यपि श्रद्धा, भक्ति, और भली मनसा के साथ, किन्तु गलत रीति से बाइबल के कई वाक्यांशों और कथनों को उस प्रकार से उपयोग करते हैं, जैसा उनके विषय बाइबल में कहीं नहीं कहा अथवा दिया गया है, मानो वे कोई नए दर्शन या प्रकाशन हैं जो पहले नहीं दिए गए – जो होना संभव ही नहीं है, क्योंकि परमेश्वर के वचन में न तो कुछ जोड़ा जा सकता है, और न ही कुछ निकाला जा सकता है। विश्वासी ऐसा परमेश्वर को प्रसन्न करने, प्रार्थनाओं को और अधिक प्रभावी बनाने, और यह सुनिश्चित करने के लिए करते हैं कि उनकी प्रार्थनाएं पूरी हो जाएँ। दूसरे शब्दों में वे उन बातों को एक “मंत्र” के समान उपयोग करते हैं, जिनके द्वारा वे परमेश्वर को प्रार्थना में मांगी गई बात को पूरा करने के लिए मानो बाध्य कर रहे हों। थोड़ा विचार कीजिए, जो लोग इन शब्दों, बातों, और वाक्यांशों को नहीं बोलते हैं, परमेश्वर उनकी भी प्रार्थनाएं सुनता है, उनका उत्तर देता है; जबकि ऐसी बहुत सी प्रार्थनाएं हैं जो इन शब्दों, बातों, और वाक्यांशों को बारंबार और बल देकर बोलने पर भी बिना उत्तर मिले रह जाती हैं। तो फिर परमेश्वर से कुछ करवाने के लिए उन बातों और शब्दों का “मंत्र” के समान उपयोग करने का क्या औचित्य अथवा आवश्यकता है? यह करने से केवल व्यक्ति अनजाने में ही न केवल परमेश्वर के वचन में जोड़ने का दोषी बन जाता है, बल्कि असत्य का प्रचार करने, सिखाने, और पालन करने तथा करवाने का भी दोषी ठहरता है।
अगले लेख में हम यूहन्ना 14:17 से कुछ और बातों का पुनःअवलोकन करेंगे, और फिर पवित्र आत्मा से सीखने के बारे में पुनःअवलोकन पर जाएँगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Recapitulation – 5
Continuing with the recapitulation of what we have learnt so far regarding living a blessed and successful life from 1 Kings 2:2-4, we will recapitulate further about being stewards of God’s provisions. We will recapitulate what we have seen about the second provision of God given to every Born-Again Christian Believer, i.e., God the Holy Spirit, whose steward every Christian Believer is. The Lord Jesus Christ, in His last discourse with the disciples before His crucifixion, told them that He will ask the Father to send them a Helper, i.e., the Holy Spirit. In John chapters 14 to 16 He also taught them about the purposes of the Holy Spirit. And we see from 1 Corinthians 3:16; 6:19 that God the Holy Spirit dwells in every Born-Again Christian Believer.
The Lord Jesus, in John 14:16 said that the Holy Spirit will always stay alongside him as a companion to be the disciple’s Helper. But that does not mean that He will also function as the disciple’s substitute to fulfil his God given instructions for him. All such prayers, to use the Holy Spirit as our substitute will remain unanswered, since God has already given to every Believer everything that pertains to life and godliness and the way to escape the corruption of the world (2 Peter 1:3-4). Moreover, when God asks His children to do something, He knows what they can do and what they cannot, and asks them to do within the limits of the capabilities He has given to them (1 Corinthians 10:13). Therefore, to claim that we are incapable of doing something God has asked us to do is to raise questions on God being omniscient and true about what He asks His children to do for Him. Every Believer should also stay aware of the fact that God the Holy Spirit is always with him, wherever he goes, whatever he does, however he utilizes his time. Hence Christian Believers should not do anything that grieves the Holy Spirit (Ephesians 4:30) in any manner.
From John 14:17 we saw that God the Holy Spirit is the Spirit of Truth, and this has been repeated in John 15:26 and John 16:13 as well; which emphasizes on the importance of this attribute of the Holy Spirit. In simple terms, God the Holy Spirit will never in anyway, not even through implications, be associated with anything that is not the truth. For all spiritual matters, as the Lord Jesus has said in John 14:6, the Lord is the Truth, i.e., the Lord and His Word are the one and only Truth. Anything spiritual that is not given in the Bible, is not the truth, and the Holy Spirit will have nothing to do with it. We cannot have the guidance and power of the Holy Spirit, in anything that is not the truth, i.e., is not a Biblical fact. That is why the instructions of Acts 17:11 and 1 Thessalonians 5:21 - DO NOT ASSUME ANYTHING, but always first check and confirm each and everything being preached and taught from the Word of God, only then accept and believe.
A very common error and misunderstanding, often committed in piety, is to use Biblical facts in a manner they have not been taught or used in God's Word. People often, though reverentially, piously, and with good intentions, but erroneously use Biblical facts in many phrases and statements in a manner that is not given in the Bible about them, as new revelations, not given before, which is something that cannot be true since nothing can be added to or taken away from God’s Word. The Believers do this to try and please God, to seemingly make prayers more effective, and make sure that they are fulfilled. In other words, they use these statements like a "mantra" through which they try to compel God to do what they are asking Him to do in their prayers. Think it over, the prayers of those who do not use these phrases are also heard and answered by God, while many prayers where these phrases have emphatically and repeatedly been used, still go unanswered. So, what is the rational or necessity of using them like a "mantra" to get things done from God? This only makes the person inadvertently becoming guilty of not only adding to God’s Word, but also of preaching, teaching, and following an untruth?
In the next article we will recapitulate about some more things from John 14:17; and then go on to recapitulating about learning from God the Holy Spirit.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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