वचन की आज्ञाकारिता की अनिवार्यता
पिछले लेख में हमने देखा था कि प्रभु यीशु की कलीसिया अभी निर्माणाधीन
है, प्रभु यीशु द्वारा बनाई
जा रही है, उसमें अभी प्रभु के प्रति समर्पित लोग, प्रभु
द्वारा जोड़े जा रहे हैं, और अभी कलीसिया को अपने वचन के
स्नान के द्वारा प्रभु पवित्र, निर्दोष, बेदाग़, बेझुर्री कर रहा है। कलीसिया की इस गतिमान (dynamic)
स्थिति में उसके विभिन्न कार्यों और दायित्वों के निर्वाह के लिए,
प्रभु ने कलीसिया के सदस्यों में से कुछ लोगों को विशेष
ज़िम्मेदारियों के साथ नियुक्त किया है। इफिसियों 4:11 में हम
प्रभु द्वारा की गई इन नियुक्तियों और नियुक्त लोगों की सेवकाइयों के बारे में
पढ़ते हैं। ये कार्यकर्ता हैं प्रेरित, भविष्यद्वक्ता,
सुसमाचार प्रचारक, रखवाले, और उपदेशक। मूल यूनानी भाषा में, ये पाँचों सेवकाइयां
परमेश्वर के वचन की सेवकाई से संबंध रखती हैं। अर्थात, किसी
भी स्थानीय कलीसिया की उन्नति और स्थिरता के लिए, उसके शैतान
द्वारा बिगाड़े जाने से सुरक्षित रहने के लिए इफिसियों 4:11 की,
परमेश्वर के वचन से संबंधित पाँच प्रकार की सेवकाइयां, तथा प्रेरितों 2:38-42 की वे सात बातें जिन्हें हम
अभी देख कर चुके हैं, अनिवार्य हैं। इन सभी बातों की उपस्थिति, पालन, और निर्वाह ही कलीसिया के प्रभु में दृढ़ और स्थिर बने रहने का आधार है। प्रेरित यूहन्ना के
द्वारा, प्रभु यीशु प्रकाशितवाक्य 2 और 3 अध्याय में अपनी सात कलीसियाओं को दिए गए संदेशों में, सात में से पाँच
कलीसियाओं को कड़े दण्ड की चेतावनियाँ देता है, क्योंकि वे
उसके वचन और आज्ञाकारिता में बने नहीं रहे। ध्यान दीजिए कि प्रभु इन सातों
कलीसियाओं को “कलीसिया” कहकर ही
संबोधित करता है, कुछ बातों के लिए उनकी प्रशंसा और सराहना
भी करता है, किन्तु उनमें से पाँच कलीसियाएं ऐसी थीं जिनमें पाई जाने वाली कुछ
बातें और कार्य प्रभु के वचन, उसकी
आज्ञाकारिता, और प्रभु की इच्छा के अनुसार नहीं थे। प्रभु ने उन्हें इन बातों और कार्यों के बारे में चिताया, और उसकी इस चेतावनी की
बात को न मानने के भारी दण्ड के बारे में भी बताया। और आज हम उन सातों कलीसियाओं
को केवल इतिहास की पुस्तकों में या फिर परमेश्वर के वचन में ही पाते हैं, अन्ततः वे कलीसियाएं पृथ्वी के अपने अस्तित्व में, प्रभु
में स्थिर और दृढ़ तथा स्थापित नहीं रह सकीं, पृथ्वी से मिट
गईं। प्रभु के वचन के साथ समझौता, उसमें सांसारिक बातों की
मिलावट, और प्रभु की अनाज्ञाकारिता हमेशा ही व्यक्तिगत तथा कलीसिया के
जीवन के लिए हानिकारक एवं विनाशक रहे हैं।
आरंभिक कलीसिया का इतिहास इस बात का
प्रमाण और सूचक है कि मसीही विश्वासियों के व्यक्तिगत जीवन की, तथा कलीसिया की उन्नति,
उनके व्यक्तिगत जीवनों में तथा मंडली के जीवन में वचन की सही सेवकाई के साथ जुड़ी
रही है। जहाँ प्रभु के वचन को आदर और आज्ञाकारिता मिली है, वहाँ
उन्नति भी हुई है, अन्यथा जहाँ भी वचन का निरादर, वचन में मिलावट, वचन की अनाज्ञाकारिता आई, वहीं पतन और विनाश भी शीघ्र ही आ गए। इसलिए इसमें कोई अचरज की बात नहीं है
कि प्रेरितों 2:42 में दी गई चार बातों, जिन में उस प्रथम मण्डली के लोग लौलीन रहते थे, उन
में से पहली थी “प्रेरितों से शिक्षा पाने”; और प्रभु यीशु द्वारा अपने स्वर्गारोहण से ठीक पहले शिष्यों को दी गई
सुसमाचार प्रचार की महान आज्ञा में भी लोगों को प्रभु की बातें सिखाने के लिए कहा
गया है। बाइबल में आरंभिक कलीसिया की उन्नति के, प्रभु तथा
उसके वचन की आज्ञाकारिता के साथ जुड़े होने से संबंधित प्रेरितों के काम से कुछ
पदों को देखिए, और यह बात स्वतः ही प्रकट एवं स्पष्ट हो
जाएगी:
- प्रेरितों
4:4 “परन्तु
वचन के सुनने वालों में से बहुतों ने विश्वास किया, और
उन की गिनती पांच हजार पुरुषों के लगभग हो गई।”
- प्रेरितों
5:14 “और
विश्वास करने वाले बहुतेरे पुरुष और स्त्रियां प्रभु की कलीसिया में और भी
अधिक आकर मिलते रहे।”
- प्रेरितों
6:7 “और
परमेश्वर का वचन फैलता गया और यरूशलेम में चेलों की गिनती बहुत बढ़ती गई;
और याजकों का एक बड़ा समाज इस मत के आधीन हो गया।”
- प्रेरितों
9:31 “सो
सारे यहूदिया, और गलील, और सामरिया
में कलीसिया को चैन मिला, और उसकी उन्नति होती गई;
और वह प्रभु के भय और पवित्र आत्मा की शान्ति में चलती और
बढ़ती जाती थी।”
- प्रेरितों
11:20-21 “परन्तु
उन में से कितने कुप्रुसी और कुरेनी थे, जो अन्ताकिया
में आकर युनानियों को भी प्रभु यीशु का सुसमाचार की बातें सुनाने लगे। और
प्रभु का हाथ उन पर था, और बहुत लोग विश्वास कर के
प्रभु की ओर फिरे।”
- प्रेरितों
12:24 “परन्तु
परमेश्वर का वचन बढ़ता और फैलता गया।”
- प्रेरितों
13:48-49 “यह
सुनकर अन्यजाति आनन्दित हुए, और परमेश्वर के वचन की
बड़ाई करने लगे: और जितने अनन्त जीवन के लिये ठहराए गए थे, उन्होंने विश्वास किया। तब प्रभु का वचन उस सारे देश में फैलने लगा।”
- प्रेरितों
16:4-5 “और
नगर नगर जाते हुए वे उन विधियों को जो यरूशलेम के प्रेरितों और प्राचीनों ने
ठहराई थीं, मानने के लिये उन्हें पहुंचाते जाते थे। इस
प्रकार कलीसिया विश्वास में स्थिर होती गई और गिनती में प्रति दिन बढ़ती गई।”
- प्रेरितों
19:20 “यों
प्रभु का वचन बल पूर्वक फैलता गया और प्रबल होता गया।”
इनके अतिरिक्त रोमियों 16:25, कुलुस्सियों 2:6,
1 थिस्सलुनीकियों 3:2, 2 तीमुथियुस 3:16-17,
इब्रानियों 13:20-21, 2 पतरस 1:12, आदि पद भी इस बात को दिखाते और प्रमाणित करते हैं।
प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को, उन प्रेरितों को जिसने
उसने नियुक्त किया था (लूका 6:13) को जगत के छोर तक उसके
सुसमाचार के प्रचार का दायित्व सौंपा (प्रेरितों 1:8), और
अपनी प्रथम मण्डली को अपने शिष्यों से, प्रेरितों से उसके
वचन की शिक्षा पाने के निर्देश दिए (प्रेरितों 2:42)। तब से
लेकर आज तक, संसार भर में, मसीही
मंडलियों और मसीही विश्वासियों का इतिहास इस बात का गवाह रहा है कि जो मसीही
विश्वासी और मण्डली प्रभु के वचन और उसकी आज्ञाकारिता में बनी रहे, बढ़ती रही, वह उन्नत होती गई, और
स्थिर बनी रही। जो प्रभु के वचन से हटकर, औपचारिकताओं और
रीतियों-रस्मों-परंपराओं के निर्वाह में चले गए, वे प्रभु से
भी दूर चले गए, उसके जन नहीं रहे, चाहे
बाहरी स्वरूप में वे प्रभु के साथ बने रहने के जितने भी प्रयास करते रहे हों। प्रभु यीशु के संसार में प्रथम आगमन के
समय, यरूशलेम में मंदिर भी था,
मंदिर में याजक और लेवी भी थे, सारे पर्व मनाए
जाते थे और बलिदान चढ़ाए जाते थे, बहुत बड़ी संख्या में भक्त लोग नियमित वहाँ आया
करते थे, और व्यवस्था तथा पुराने नियम की बातों का कड़ाई से पालन करने और करवाने वाला
फरीसियों, शास्त्रियों,
सदूकियों का बड़ा और अति-प्रभावी समुदाय भी वहीं पर था। किन्तु इन सभी ने मिलकर परमेश्वर के वचन को भ्रष्ट कर दिया था, उसे औपचारिकताओं और
रीतियों-रस्मों-परंपराओं के निर्वाह में बदल दिया था। इसीलिए, जब वह वचन देहधारी होकर उनके सामने आया, तो उन्होंने
उसे नहीं पहचाना, उसका अनादर और निन्दा की, और उसे क्रूस पर मरवा दिया, फिर उसके अनुयायियों को
भी सताने और मरवाने पर उतारू हो गए। आज न वह मंदिर बचा, न वे
याजक, लेवी, फरीसी, शास्त्री, सदूकी बचे; किन्तु
प्रभु का वचन और प्रभु के लोग सारे संसार में फैल गए, स्थापित हो गए, और बढ़ते जा रहे हैं।
अगले लेख से हम इन पाँचों सेवकाइयों और
सेवकों के बारे में देखना आरंभ करेंगे। किन्तु यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो यह आपके लिए अपने आप
को जाँचने-परखने का अवसर और समय है कि प्रभु यीशु मसीह और उसके वचन एवं उसकी
आज्ञाकारिता के प्रति आपका रवैया क्या है? कहीं आपका
“मसीही विश्वास” किसी मत या डिनॉमिनेशन के नियमों,
रीतियों, परंपराओं आदि की औपचारिकता के
निर्वाह पर आधारित और वहीं तक सीमित तो नहीं है? क्योंकि यदि
ऐसा है, तो आप एक बहुत बड़े भ्रम में हैं, और आपको मसीही विश्वास की वास्तविकता को पहचान कर, उसके
पालन एवं निर्वाह में आना अनिवार्य है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक
स्वीकार नहीं किया है, तो
अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के
पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की
आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए
- उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से
प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही
अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार
से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ
कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े
गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें।
मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और
समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए
स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
- निर्गमन
27-28
- मत्ती 21:1-2