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बुधवार, 23 मार्च 2022

व्यवस्था और मसीही जीवन / The Law and the Christian Life – 10

    

व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? (5)

 शारीरिक मनुष्य शैतान के सामने असमर्थ क्यों है? (4)


पिछले लेखों में हम देखते आ रहे हैं कि मनुष्य अपनी शक्ति और बुद्धि से शैतान का सफलतापूर्वक सामना कर पाने में पूर्णतः असमर्थ है, चाहे वह स्वाभाविक और अपरिवर्तित दशा में हो अथवा उद्धार पाया हुआ हो। उद्धार पाया हुआ मनुष्य परमेश्वर की सहायता और आज्ञाकारिता में रहते हुए तो शैतान का सामना कर सकता है, और उसकी युक्तियों पर जयवंत हो सकता है। किन्तु जैसे ही वह अपनी किसी भी बात या अनाज्ञाकारिता के कारण परमेश्वर द्वारा निर्धारित सीमाओं से ज़रा सा भी बाहर आता है, तो शैतान उसे डस लेता है (सभोपदेशक 10:8), पाप में फँसा लेता है। परमेश्वर की व्यवस्था के उसके पास होते हुए भी, मनुष्य क्यों उसका पालन करने में, और शैतान का सामना करने में असमर्थ है, इसके तथा अन्य संबंधित बातों के कारणों का विश्लेषण करते हुए हमने तीन बातों को देखना आरंभ किया था, इस उद्देश्य से कि उनके निष्कर्षों तथा वचन की कुछ अन्य बातों के परस्पर समावेश से हम इन प्रश्नों के उत्तर तक पहुँचने पाएंगे। जिन तीन बातों पर हमने विचार करना आरंभ किया था, वे हैं:

(i) परमेश्वर और उसकी बातों का अपरिवर्तनीय तथा अटल और सर्वदा लागू रहना; 

(ii) मनुष्यों की तुलना में स्‍वर्गदूतों के कुछ गुण; 

(iii) मनुष्य और स्‍वर्गदूतों का तुलनात्मक स्तर या स्थान।


इन बातों पर परमेश्वर के वचन बाइबल में से विचार करने के बाद, अब इन तीन बातों के निष्कर्ष हमारे सामने हैं। ये निष्कर्ष हैं : 

(i) परमेश्वर की बात, उसका वचन, उसके द्वारा दिए गए अधिकार और वरदान अपरिवर्तनीय हैं, अटल हैं, और वह उन्हें वापस नहीं लेता है।

(ii) अपनी रचना में ही मनुष्य स्‍वर्गदूतों से कम सामर्थी है। 

(iii) सृष्टि के वरीयता क्रम में मनुष्य स्वाभाविक रीति से स्‍वर्गदूतों से निचले क्रम का है। उद्धार पाने के बाद, उसका यह क्रम, आज्ञाकारी स्‍वर्गदूतों के संदर्भ में बदल दिया जाता है, और वह स्‍वर्गदूतों से उच्च स्तर का बना दिया जाता है। किन्तु शेष सभी मनुष्य स्‍वर्गदूतों से निचले स्तर के ही रहते हैं।


आज हम इन निष्कर्षों को अन्य बातों के साथ मिलाकर इनके व्यावहारिक अर्थ और अभिप्राय को देखेंगे। हम पहले के, 21 मार्च के लेख में देख चुके हैं कि पाप के कारण गिराए जाने और शैतान बन जाने से पहले लूसिफर प्रधान स्वर्गदूत था, परमेश्वर के बाद वही सबसे सामर्थी था (यशायाह 14:12-15; यहेजकेल 28:12-17)। उसके स्वर्ग से निकाले जाने के बाद भी न तो उसका स्वर्ग में जाकर परमेश्वर के साथ वार्तालाप करने का विशेषाधिकार वापस लिया गया (अय्यूब 1:6-7, 12; 2:1-6), और न उससे उसकी सामर्थ्य वापस ली गई; वह अपनी इसी सामर्थ्य के द्वारा परमेश्वर और उसके लोगों के विरुद्ध कार्य करता रहता है। अब, जब हम शैतान के उद्गम से संबंधित बाइबल के इस तथ्य को, उपरोक्त तीनों बातों और उनके निष्कर्षों के साथ मनुष्यों के संदर्भ में लागू करते हैं, तो हमारे सामने जो बातें उभरकर आती हैं, वह कुछ इस प्रकार से है: 

  • मनुष्य शैतान और उसके दूतों के सामने असमर्थ है क्योंकि वह अपनी रचना में, सृष्टि के समय से ही स्वर्गदूतों से कुछ कम स्तर का बनाया गया, और यह वरीयता क्रम कभी बदला नहीं गया। 

  • शैतान पहले सबसे प्रधान स्वर्गदूत था, परमेश्वर के बाद सामर्थ्य और बुद्धि में वही था। उसके तथा उसके साथी स्वर्गदूतों के स्वर्ग से गिराए जाने के बाद भी उन से, उन के ये विशेषाधिकार, सामर्थ्य, और बुद्धि वापस नहीं ली गई है। 

  • यद्यपि उद्धार पाने के बाद स्वर्गदूतों को मनुष्यों की सेवा-टहल करने वाली आत्माएं बना दिया गया है, किन्तु यह बात केवल परमेश्वर के आज्ञाकारी स्वर्गदूतों के संदर्भ में ही सत्य एवं लागू है; परमेश्वर के अनाज्ञाकारी शैतान के दूतों के विषय नहीं। 

  • इसीलिए, शैतान और उसके दूत हमेशा ही हर बात में, न केवल किसी भी स्वाभाविक, अपरिवर्तित, उद्धार न पाए हुए मनुष्य से; वरन उद्धार पाए हुए मनुष्य से भी सदा ही अधिक सामर्थी और बुद्धिमान है। 

  • किन्तु उद्धार पाए हुए मनुष्य के अंदर परमेश्वर पवित्र आत्मा निवास करता है, और प्रभु यीशु उसके साथ बना रहता है। इसलिए उद्धार पाए हुए मनुष्य पर शैतान का कोई दाँव, कोई वार, कभी सफल नहीं हो सकता है। 

  • इसीलिए मनुष्य के पश्चाताप करके उद्धार पाते ही, उसी क्षण से परमेश्वर पवित्र आत्मा उसकी रक्षा के लिए तुरंत ही उसके अंदर आकर निवास करने लगता है। यदि ऐसा न हो तो शैतान, उसके मुँह से छीने गए उसके शिकार का क्या हाल कर डालेगा, यह हम कल्पना भी नहीं कर सकते हैं। इसीलिए उस आत्मिक नाव-जात शिशु को अपने पिता परमेश्वर की तुरंत ही, उद्धार पाने के साथ ही, सुरक्षा और सहायता की आवश्यकता होती है, जो उसे परमेश्वर पवित्र आत्मा के उसमें आकर रहने के साथ उपलब्ध हो जाती है।

  • जब तक मनुष्य परमेश्वर और उसके वचन के अनुसार, उनकी आज्ञाकारिता में, पवित्र आत्मा के चलाए चलता रहता है, उस उद्धार पाए हुए मनुष्य की ईश्वरीय सुरक्षा का बाड़ा उसे बचाए रखता है। उद्धार पाया हुआ मनुष्य परमेश्वर पिता और प्रभु यीशु मसीह के हाथों में सुरक्षित बना रहता है; जो भेड़ें अपने प्रभु अपने चरवाहे का शब्द सुनती हैं और उसके पीछे चलती रहती हैं, वे कभी नाश नहीं हो सकती हैं (यूहन्ना 10:27-29)। 

  • किन्तु जैसे ही उद्धार पाया हुआ व्यक्ति, परमेश्वर और उसके वचन की ज़रा सी भी अनाज्ञाकारिता करता है, किसी भी प्रकार से परमेश्वर के निर्देशों और आज्ञाओं के स्थान पर अपनी मानवीय बुद्धि या संसार की सलाह के अनुसार कुछ करता है, या परमेश्वर पवित्र आत्मा के चलाए के अनुसार नहीं वरन संसार या अपने शरीर की भावनाओं और अभिलाषाओं के अनुसार चलने लगता है, वह परमेश्वर के सुरक्षा के बाड़े से बाहर आ जाता है। शैतान उसे परमेश्वर और प्रभु यीशु मसीह के हाथों से छीन कर तो नहीं ले जा सकता है, किन्तु उसके द्वारा सुरक्षा के बाड़े से बाहर निकाले हुए शरीर को डस अवश्य लेता है (सभोपदेशक 10:8), पाप का विष उसमें डालकर उसे हानि पहुँचा देता है।

  • इसीलिए स्वाभाविक, अपरिवर्तित, उद्धार नहीं पाया हुआ मनुष्य अपने किसी भी प्रयास, बुद्धिमत्ता, युक्ति, भक्ति, अथवा किसी भी अन्य बात के द्वारा कभी भी न तो शैतान पर जयवंत होने पाता है, और न ही उसके हाथों में से निकलने पाता है। और शैतान उसे उसकी बनाई हुए व्यर्थ “धार्मिकता” की बातों के चक्करों में फँसा कर, उसे भक्त, धर्मी, भला और परमेश्वर को स्वीकार्य होने के मिथ्या आश्वासन देकर, उसका मूर्ख बना कर, उसे पाप और विनाश की दशा में ही फंसाए रखता है, उद्धार के अनन्त जीवन से वंचित रखता है। 

  • इसीलिए व्यक्तिगत रीति से पापों के अंगीकार, उनके लिए पश्चाताप, और प्रभु यीशु से पापों की क्षमा माँगकर प्रभु यीशु को समर्पित जीवन जीने के अतिरिक्त मनुष्य के बचाए जाने और परमेश्वर को स्वीकार्य होने का अन्य कोई मार्ग है ही नहीं, और हो ही नहीं सकता है; “इसलिये परमेश्वर अज्ञानता के समयों में आनाकानी कर के, अब हर जगह सब मनुष्यों को मन फिराने की आज्ञा देता है” (प्रेरितों 17:30)।   


अगले लेख में, इन बातों के आधार पर हम देखेंगे और समझेंगे कि मनुष्यों के शैतान का सामना करने में असमर्थ होने और पाप में गिरते रहने पर भी, क्यों परमेश्वर प्रेरितों 17:30 में स्वाभाविक अपरिवर्तित मनुष्य द्वारा पाप करने को “अज्ञानता के समय” की बात कहकर उसे दण्ड देने में आनाकानी करता है, उसे दंड से बचने का अवसर देता है, और पश्चाताप करने के लिए कहता है। किन्तु अभी के लिए, यदि आप अपने आप को मसीही विश्वासी समझते हैं, किन्तु आपने अभी तक परमेश्वर के विलंब से कोप करने, धीरज धरने, सब को बच जाने का पूरा-पूरा अवसर देने (2 पतरस 3:9) की मनसा का लाभ उठाकर, व्यक्तिगत रीति से पापों का अंगीकार और उनके लिए पश्चाताप नहीं किया है, और प्रभु यीशु से अपने पापों की क्षमा माँगकर प्रभु यीशु को समर्पित जीवन जीने का, उसकी और उसके वचन की आज्ञाकारिता में चलते रहने का निर्णय नहीं लिया है, तो आप अपने किसी भी धर्म-कर्म-विधि-विधान के पालन के द्वारा न तो परमेश्वर को स्वीकार्य बनते हैं और न ही वास्तव में मसीही विश्वासी हो जाते हैं। इसलिए अभी समय रहते यह कर लीजिए, कहीं बाद में आपके हाथों से यह अवसर न निकल जाए और आप अनन्त काल के विनाश में न पहुँच जाएं।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

  

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • यहोशू 13-15  

  • लूका 1:57-80     


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Why Can't the Law save us? (5)

 Why is Man incapable of confronting Satan? (4)

 

    In the previous articles, we have been seeing that man is absolutely incapable of successfully confronting Satan in his own strength and intelligence, whether in his natural and unregenerate state, or even after being saved. A saved man can face Satan’s tactics, and overcome him, with God's help, so long as he is obedient to God. But as soon as he transgresses the limits set by God, through any of his own words or behavior, through any kind of disobedience, Satan bites him (Ecclesiastes 10:8), ensnaring him in sin. In analyzing the reasons for why man is unable to face Satan, and unable to obey God's Law despite having it in his hands, and other related issues, in the earlier article we had begun to look at three things; since their conclusions, and considering them along with some other points of Scripture will help us to reach the answers to the above questions. These three are:

(i) God and His Word are unchanging and what He grants always remains irrevocable and in effect;

(ii) Some characteristics of angels as compared to humans;

(iii) The comparative level or place of humans and angels.

 

    Having considered the above from God's Word, the Bible, we came to the conclusions that:

(i) Whatever God has said, His Word, the rights, privileges, and gifts given by Him are irrevocable, unchanging, and He does not take them back.

(ii) Man since his creation is less powerful than the angels.

(iii) Human beings, in their natural state, are lower than the angels in the hierarchy of created beings. After he is saved, this order changes for the saved man, in context of God’s obedient angels, and the saved man is elevated to a higher status than angels. But all the rest of the human beings remain at a lower level than the angels.

        

    Today we will look at the meaning, practical application, and implications of these, along with some other things. We saw in an earlier article of March 21, that Lucifer was the archangel, the most powerful after God, before he was cast down because of sin and turned to Satan (Isaiah 14:12-15; Ezekiel 28:12-17). Even after his expulsion from heaven, neither was his privilege to converse with God in heaven (Job 1:6-7, 12; 2:1-6), nor was his power taken away from him. Therefore, he continues to work against God and his people through this very power that he had when in heaven. Now, when we apply this Biblical fact regarding the origin of Satan, along with the three afore mentioned conclusions, to humans, what comes up before us is something like this:

  • Man is incapable of confronting Satan and his angels because in his creation, he has been made of a level lower than the angels from the time of creation, and this hierarchy has never changed.

  • Satan was the chief archangel, second only to God in strength and wisdom. Even after he and his fellow angels were thrown out of heaven, the privileges, powers, and wisdom have not been taken back from them.

  • Although angels have been made serving spirits to those who are saved, this is true and applicable only in the context of angels obedient to God; and not for the angels of Satan who are disobedient to God.

  • Therefore, Satan and his angels are always and in everything more powerful and wiser than man; not just the natural, unregenerate, unsaved man; but the saved ones as well.

  • But since God's Holy Spirit resides in the saved man, and the Lord Jesus remains with him, therefore, no device, no attack, of Satan and his angels can ever succeed against a saved man.

  • That is why as soon as man is Born-Again, is saved by repenting of sins, from that very moment God's Holy Spirit immediately comes and resides in him to protect him. If this were not so, we cannot even imagine what Satan will do to his victim who has been snatched from his jaws. That's why that spiritually new-born infant needs the immediate help, security, and protection of God the Father, along with salvation, which becomes available to him with the coming of God's Holy Spirit to reside in him always.

  • As long as man walks in obedience to God and according to His Word, led by the Holy Spirit, the cover of divine protection around that saved man keeps him safe. The saved man remains safe in the hands of God the Father and the Lord Jesus Christ. The sheep that listens and obeys the voice of their Lord, their Shepherd and follows Him can never perish (John 10:27-29).

  • But as soon as a saved person disobeys God and His Word in the slightest way, if in any way he ignores God's instructions and commandments and instead trusts his human wisdom or the advice of the world, or instead of walking according to God Holy Spirit, he walks according to his feelings and desires, or according to the ways of the world, he then exposes himself by breaching the enclosure of God's protection. While Satan cannot snatch him away from the hands of God and the Lord Jesus Christ, but he never misses the opportunity to bite what has been exposed by breaching God's protective enclosure (Ecclesiastes 10:8), and instil the poison of sin into him, and harms him.

  • That is why the natural, unregenerate, unsaved man is never able to overcome Satan, or escape from his hands, by any of his efforts, intelligence, tactics, devotion, or anything else. And Satan keeps him in his state of sin and destruction by deceiving him into observing and following the vain "righteousness" he has devised for himself; fooling him with false assurances that he is devout, righteous, good, and acceptable to God, while actually leading him astray from God’s ways and depriving him of eternal life of salvation.

  • That is why there neither is, nor ever can be, any other way for men to be saved and be accepted by God, except by personally confessing their sins, repenting for them, asking the Lord Jesus for forgiveness of sins, and living a life dedicated to the Lord Jesus “Truly, these times of ignorance God overlooked, but now commands all men everywhere to repent” (Acts 17:30).

        

    In the next article, on the basis of these points, we will see and understand why God, in Acts 17:30, is willing to consider the sins of the natural, unregenerate man, as things done "in times of ignorance" and is reluctant to punish him; rather, He wants to give him opportunity to escape punishment, and asks him to repent. But for now, if you consider yourself a Christian, but you have so far never taken advantage of God's longsuffering, His patience, His willingness to give everyone the full opportunity to be saved (2 Peter 3:9); and have not personally confessed and repented of your sins, have never made the decision to live a life dedicated to the Lord Jesus, and of living in obedience to Him and His Word; but instead have been relying on your religion, good deeds, fulfilling the religious creeds and observances etc., to become acceptable to God and qualify being a true Christian, then you have been living in a very serious, dangerous, satanic deception. Therefore, repent and take the necessary step now, while you have the time and opportunity; lest in procrastination and/or by being careless, by ignoring, this opportunity is lost, and you end up in eternal destruction.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. By asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily submit yourself sincerely and with a committed heart to his Lordship in your life - this is the only way to salvation and heavenly life. You have to say only a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ, willingly and meaningfully, while simultaneously completely committing your life to Him. You can say this prayer of repentance and submission in a manner something like this, “Lord Jesus, I thank you for taking my sins upon yourself for their forgiveness and because of them you died on the cross in my place, were buried, you rose again on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God. Please forgive my sins, take me under your shelter, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and submissive heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

 

Read the Bible in a Year:

·        Joshua 13-15

·        Luke 1:57-80