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पवित्र आत्मा से सीखना – 7
पिछले कुछ लेखों से हम यह सीखते आ रहे हैं कि क्यों मसीही विश्वासी सामान्यतः पवित्र आत्मा से सीखने में असफल रहते हैं। परमेश्वर ने अपना पवित्र आत्मा विश्वासियों में निवास करने के लिए उसी पल से उन्हें दे दिया है, जब से उन्होंने अपने पापों से पश्चाताप करके प्रभु यीशु मसीह को अपना उद्धारकर्ता ग्रहण करने के द्वारा परमेश्वर के राज्य में नया जन्म प्राप्त किया है। विश्वासी के पवित्र आत्मा प्राप्त करने के क्षण से ही वह पवित्र आत्मा का भण्डारी भी हो जाता है। पवित्र आत्मा को विश्वासी का सहायक, साथी, शिक्षक, और मार्गदर्शक होने के लिए दिया गया है, ताकि वह अपने मसीही जीवन, तथा उसे परमेश्वर के द्वारा सौंपी गई सेवकाई का निर्वाह कर सके। इसलिए यह प्रत्येक मसीही विश्वासी के लिए अनिवार्य है कि वह परमेश्वर के वचन में से पवित्र आत्मा के बारे में सीखे, जिस से कि उसकी सहायता को योग्य रीति से उपयोग कर सके।
यद्यपि पवित्र आत्मा प्रत्येक मसीही विश्वासी में निवास करता है, और उसे परमेश्वर का वचन सिखाएगा, फिर भी अधिकाँश मसीही विश्वासी पवित्र आत्मा से परमेश्वर का वचन नहीं सीखते हैं। हाल के लेखों में हम उन के ऐसा करने के कारणों को देख रहे हैं, और वर्तमान में विश्वासियों के पवित्र आत्मा की बजाए मनुष्यों और पुस्तकों से सीखने की प्रवृत्ति, और उनके आत्मिक जीवन पर इसके दुखद परिणामों पर विचार कर रहे हैं। उनका यह करना उनके परमेश्वर के वचन को ठीक से और सही सीखने में, और उनकी आत्मिक उन्नति होने में बाधा डालता है। जैसे बच्चों में अपने शिक्षकों को बहुत मान-सम्मान देने की प्रवृत्ति होती है, वैसे ही कई मसीहियों में कुछ प्रचारकों तथा शिक्षकों को बहुत आदर-मान देने की प्रवृत्ति होती है। परिणामस्वरूप, बजाए परमेश्वर के वचनों के सत्यों का पालन करने के, वे उन लोगों का और उनकी शिक्षाओं का - चाहे सही हों अथवा गलत, अनुसरण करने लगते हैं; बिना पहले परमेश्वर के वचन से उनकी पुष्टि किए हुए। आज हम इसे, पिछले लेख में हमने जहाँ पर इसे छोड़ा था, उस से और आगे देखेंगे।
यह सामान्यतः देखा जाता है कि मसीही, विश्वासी भी, बिना कोई प्रश्न पूछे अपनी कलीसिया के अगुवों, प्रचारकों, और शिक्षकों की हर बात को स्वीकार कर लेते हैं, उस पर अँध-विश्वास कर लेते हैं। और साथ ही वे उन अगुवों और प्रचारकों के शब्दों, वाक्यांशों और हाव-भाव को भी अपने जीवनों में अपना लेते हैं, उन लोगों की नकल करने लगते हैं। बहुधा उन अगुवों और प्रचारकों द्वारा बोले जाने वाले ये शब्द और वाक्यांश बाइबल से ही लिए हुए होते हैं। किन्तु ये लोग उन्हें अकसर जिस तरह से उपयोग करते हैं, सिखाते हैं, और बढ़ावा देते हैं, वैसे तथा उस अर्थ के साथ बाइबल में उनका उपयोग कहीं देखने को नहीं मिलता है। अर्थात, वे बाइबल की बातों का, अपनी ही समझ के अनुसार, बाइबल से भिन्न रीति से उपयोग करते हैं, तथा औरों को भी ऐसा ही करना सिखाते हैं। और कुछ मसीही लोगों का उन अगुवों और प्रचारकों के प्रति अँध-विश्वास, बाइबल से बाहर की इन बातों को भी उनके मनों में गहराई से बैठा देता है। यहाँ तक कि वे फिर अपने जीवनों को बाइबल के सत्यों के अनुरूप करने के लिए अपने में किसी भी बदलाव को लाने के प्रति अनिच्छुक और असहमत रहते हैं। यह तब भी बना रहता है, जब उन्हें वे गलतियाँ बाइबल से ही क्यों न दिखाई और स्पष्ट की जाएँ। यदि उन से जान-बूझकर उन गलतियों में बने रहने के कारण बारे में पूछा जाए, तो उनके पास केवल उस स्कूल के बच्चे के समान ही स्पष्टीकरण होता है - ‘क्योंकि मेरा शिक्षक यह कहता और करता है’, और/अथवा ‘क्योंकि मेरे कक्षा के अन्य लोग भी यही कहते और करते हैं।’
ये मसीही इन मनुष्यों की इन शिक्षाओं के इतने वशीभूत रहते हैं कि चाहे वे अपनी और अपने आदरणीय अगुवों और प्रचारकों की बातों के लिए बाइबल से कोई आधार अथवा स्पष्टीकरण न देने पाएँ, और न ही उसके लिए बाइबल से कोई उदाहरण अथवा प्रमाण देने पाएँ, लेकिन फिर भी वे मनुष्यों की बातों के द्वारा सिखाई गई गलतियों में बने रहना अधिक पसन्द करते हैं, बजाए अपने आप को परमेश्वर के वचन के सत्य के आधार पर सुधारने और सँवारने के। कुछ मसीही तो, आदत के अनुसार, अपनी प्रार्थनाओं और आराधना में, कुछ बाइबल से संबंधित अथवा धार्मिक प्रतीत होने वाले मन-पसन्द शब्दों और वाक्यांशों को, लगभग हर बोले गए वाक्य में बारंबार दोहराते रहते हैं, बिना अपने द्वारा बोले जाने वाले शब्दों पर कोई ध्यान दिए अथवा विचार किए। यदि उन से उनके द्वारा बारंबार और व्यर्थ में दोहराए और कहे जाने वाले शब्दों और वाक्यांशों के बारे कोई स्पष्टीकरण पूछे, तो उस पूछे जाने को वे अपमानजनक समझते हैं, अपने लिए भी और उस अगुवे या शिक्षक के लिए भी जिस से उन्होंने उन बातों को सीखा है।
तो फिर ऐसी मनसा रखने वाले लोगों को, जो अपनी ऐसी ढीठ प्रवृत्ति के द्वारा पवित्र आत्मा से सीखने की अवहेलना करके उस को निष्क्रिय कर देते हैं, उन्हें पवित्र आत्मा कैसे और क्या सिखा सकता है? यह एक प्रकार से उस गतिरोध के समान है जिसका प्रभु यीशु को अपने नगर में सामना करना पड़ा था। जिस पर प्रभु ने अचंभा भी किया, और जिसके कारण वह अपने नगर में कोई बड़ा आश्चर्यकर्म नहीं कर सका (मरकुस 6:1-16); और उस के समान भी है, जिसका सामना पौलुस को कुरिन्थुस में करना पड़ा था, यहूदियों ने उसका विरोध किया, निन्दा की, और प्रेरित पौलुस को आराधनालय के निकट के एक घर में जा कर अपनी सेवकाई को ज़ारी रखना पड़ा (प्रेरितों 18:1-7)। इसी प्रकार से विश्वासी में निवास करने वाले पवित्र आत्मा को भी, परमेश्वर के सत्यों के प्रति इस घोर प्रतिरोध के सामने खामोश होकर पीछे हट जाना पड़ता है; वह विश्वासी को छोड़ता या त्यागता तो नहीं है, बस शान्त हो जाता है।
हमारे लिए अद्भुत और बचा लेने वाली अनुग्रहपूर्ण बात यह है कि हमारा परमेश्वर बहुत सहनशील, और बहुत धैर्य रखने वाला परमेश्वर है, जो अपने बच्चों से वर्णन से बाहर प्रेम करता है। यद्यपि वे सीखने के लिए तैयार नहीं है, फिर भी वह उन्हें आत्मिक अकाल में पड़कर मुरझाने और सूख जाने से बचाए रखता है, कुछ आत्मिक पोषण प्रदान करता ही रहता है। जैसे प्रभु यीशु अपने नगर से कुछ किए बिना नहीं गया, चाहे वह थोड़े से बीमार लोगों को चँगा करना मात्र था (मरकुस 6:5); और जैसे पौलुस आराधनालय के निकट ही यहूदियों और अन्य जातियों को प्रचार करता और सिखाता रहा, और कुरिन्थुस की मण्डली बन गई (प्रेरितों 18:6-8); उसी प्रकार से पवित्र आत्मा भी इन ढीठ ‘मसीही शिशुओं’ को वह पोषण देता रहता है, जिसे वह पचा सकते हैं - मसीही शिक्षा की आरंभिक बातों का दूध। इसके बारे में हम अगले लेख में आगे देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Learning from the Holy Spirit – 7
For the past few articles, we have been learning about why the Christian Believers often fail to learn from the Holy Spirit, given to them by God to reside in them, from the very moment they are Born-Again into the Kingdom of God, by repenting from their sins and accepting the Lord Jesus as their savior. From the moment of receiving the Holy Spirit, the Believer becomes a steward of the Holy Spirit. The Holy Spirit is given to be the Believer’s Helper, Companion, Teacher, and Guide to live his Christian life and fulfil his God assigned ministry. Therefore, it is incumbent upon the Christian Believers to learn about the Holy Spirit from God’s Word, and learn God’s Word from Him to be able to utilize His help worthily.
Even though the Holy Spirit resides in the Christian Believer, and will teach him God’s Word, yet most Believers do not learn God’s Word from the Holy Spirit. In the recent articles we have been looking at the reasons for this failure, and presently have been considering the tendency of the Believers to learn from men and books, rather than from the Holy Spirit; and the sad effects this has on their spiritual life. Their doing this obstructs their properly and correctly learning God’s Word, and hampers their spiritual growth. As children have the tendency of holding their teachers in high esteem, similarly some Christians tend to hold certain preachers and teachers in high esteem. Consequently, instead of following the truths of God’s Word, they start emulating some people and their teachings – right or wrong, without first verifying them from God’s Word. Today we will consider this further, moving ahead from where we left at this point in the last article.
It is often seen that some Christians, even the Believers, blindly believe and accept everything their Church elders and teachers say, without asking any questions. They also adopt the words, phrases, and mannerisms etc. of those leaders and preachers into their own lives. Often these words and phrases commonly spoken by these leaders and preachers, are Biblical. But these words and phrases are used, taught, and promoted by those leaders and preachers to say and mean things quite different than what is given in the Bible. In other words, they use Biblical things, according to their own understanding, in a manner quite different from the way they are said and used in the Bible, and also teach others to do the same. But the blind faith of some Christians in these leaders and preachers, gets these extra-Biblical things very deeply ingrained into them. So much so that they are very reluctant and resistant to accept or consider making any changes in their lives to conform to the Biblical truth. This remains, even when the errors are pointed out and Biblical facts are made clear to them. If asked about their wilful persistence in their errors, the only justification they give is like that of the school-child - ‘because my teacher says so and does it like this’, and/or, ‘because others in my class also do it like this.’
These Christians are so carried away by these teachings of men, that though they may not be able to give any Biblical support, or any example from God’s Word for what they or their revered leaders and preachers say and do, but still, they would rather follow the errors of men, than correct themselves through the truth of God’s Word. Some Christians also develop a habit of using some Biblical or religious sounding pet words and phrases repetitively in practically every sentence they speak, in their prayers and worship, without putting their minds to it. If anyone asks for any clarifications about their habitually and needlessly repeating those words and phrases, they consider it as being disrespectful to them as well, as to their leader and teacher from whom they have learnt these things.
So, to those who ignore and tie Him down with such a stubborn mind-set; simply refusing to learn and follow the truth, how and what can the Holy Spirit teach? It is something like the resistance the Lord Jesus experienced and marvelled at, that kept Him from doing any mighty works in His hometown (Mark 6:1-6); and as, when the Jews in Corinth refused to listen to the gospel but opposed him and blasphemed, the Apostle Paul was compelled to leave the synagogue and move to a house adjacent to the synagogue to continue his ministry (Acts 18:1-7). Similarly, the Holy Spirit, residing in the Believer, does not abandon him but quietly steps back in the face of such obstinate resistance to the truths of God’s Words.
But the marvellous thing and saving grace for us is that our God is a very tolerant and very long-suffering God, one who loves His children with an indescribable love. Even though they are unwilling to learn, He does not leave them to spiritually wither off without receiving any spiritual nourishment. Just as the Lord Jesus did not leave without doing something, even if it was healing a few sick people (Mark 6:5); and Paul continued to preach and teach adjacent to the synagogue to the Jews and Gentiles, and the Church in Corinth was established (Acts 18:6-8); similarly the Holy Spirit continues to feed these stubborn ‘babes in Christ’ that which they can handle – the spiritual milk of elementary principles. We will see about this in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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