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पुनःअवलोकन – 4
दाऊद ने हाल ही में इस्राएल का राजा बनाए गए अपने पुत्र सुलैमान को 1 राजाओं 2:2-4 में, परमेश्वर की आज्ञाकारिता और मार्गदर्शन में एक सफल और आशीषित जीवन जीने के लिए, जो निर्देश दिए उनसे हमने अभी तक जो सीखा है, हम उसका पुनःअवलोकन कर रहे हैं। पिछले लेख में हमने देखा है कि शैतान किस तरह से परमेश्वर के वचन में मिलावट करता है कि वचन को अप्रभावी बना सके। वह यह काम अपने दूतों के द्वारा तथा परमेश्वर के समर्पित विश्वासियों को बहकाने और भरमाने के द्वारा भी करता है, जबकि वे इसी गलतफहमी में होते हैं कि वे श्रद्धा और आदर के साथ परमेश्वर की सेवा कर रहे हैं। आज हम बाइबल में से शैतान द्वारा परमेश्वर के लोगों को बहकाने और भरमाने के उदाहरणों का पुनःअवलोकन करेंगे, और एक ऐसे उदाहरण को भी देखेंगे कि कैसे शैतान परमेश्वर के वचन के लेख को बनाए रखते हुए भी, उस में ऐसे अर्थ और अभिप्राय जो न तो लेख में दिए गए और न ही जिनके लाए जाने का कोई संकेत किया गया, जोड़ने के द्वारा वचन का दुरुपयोग करता है। और वह आज भी इस युक्ति का बहुत सफलता से मण्डलियों में ऐसे ही उपयोग कर रहा है। हम कुछ उदाहरणों को देखते हैं:
विश्वासियों को यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि न केवल परमेश्वर के विरुद्ध कही गई बातें, बल्कि वे बातें जो कहीं तो परमेश्वर के पक्ष में गई हैं, किन्तु उस के सत्यों तथा बाइबल के तथ्यों और उनके अभिप्रायों के अनुसार नहीं हैं, वे भी परमेश्वर को स्वीकार्य नहीं हैं, और उसके न्याय को न्यौता देती हैं। इस प्रकार से परमेश्वर के प्रति खरे और श्रद्धापूर्ण होते हुए भी गलत तथा परमेश्वर को अस्वीकार्य होने का एक अच्छा उदाहरण है अय्यूब के मित्र। उन मित्रों ने अय्यूब की सम्पूर्ण पुस्तक में अय्यूब से परमेश्वर के पक्ष में होकर बात की, किन्तु परमेश्वर से संबंधित उनके कथनों और अभिप्रायों में गलतियाँ थीं, जिस कारण परमेश्वर उन से क्रोधित हुआ। यद्यपि परमेश्वर उन्हें दण्ड देना चाहता था, किन्तु उसने यह अय्यूब, जिस पर वे परमेश्वर के नाम में दोष लगा रहे थे, पर छोड़ दिया कि उनकी नियति का निर्णय करे। अय्यूब उनके लिए प्रार्थना करता है, और उन्हें उनके दण्ड से बचा लेता है (अय्यूब 42:7-10)।
इसी प्रकार से पौलुस, अपने परिवर्तन से पहले एक बहुत पढ़ा-लिखा और उत्साही फरीसी था, लेकिन उसने जो पवित्र शास्त्र से सीखा था उसकी गलत समझ रखने तथा परमेश्वर के प्रति एक गलतफहमी के साथ उत्साही होने के कारण, यह समझते हुए कि वह परमेश्वर की दृष्टि में सही है, परमेश्वर ही के अनुयायियों को सता रहा था (प्रेरितों 26:9-10)। उसके उद्देश्यों में कुछ गलत नहीं था – वह परमेश्वर से प्रेम करता था, उसके लिए कार्य करने के प्रति बहुत उत्साही था, और जितना उस से हो सकता था वह करने के लिए अथक परिश्रम करता था। इसीलिए, वह उन सभी लोगों को दण्ड देना चाहता था जो उसकी समझ के अनुसार परमेश्वर तथा उसके वचन के विमुख चलते थे। लेकिन दोष उसके परमेश्वर के वचन की समझ, और व्याख्या करने में था, जिसके कारण उसका रवैया और उसका व्यवहार गलत था। वह परमेश्वर के प्रति खरा और प्रतिबद्ध तो था, किन्तु गलत भी था। बाद में, जैसे कि पौलुस ने रोमियों 7:14-24 में अंगीकार किया है, हमें पता चलता है कि पौलुस एक महान प्रचारक और शिक्षक होने के बावजूद, पाप से संघर्ष करता था, ऐसी बातें भी कर जाता था जिन्हें वह नहीं करना चाहता था।
पतरस ने भी प्रभु के प्रति अपने प्रेम और श्रद्धा में होकर, जब प्रभु ने अपने पकड़वाए जाने, सताए जाने, और मारे जाने की बात की, तो प्रभु को ही डाँट दिया (मत्ती 16:21-23); और उस से पहले, रूपांतरण के पहाड़ पर भी पतरस ने बिना समझे-बूझे व्यर्थ बातें बोली थीं (मरकुस 9:5-6)। दोनों ही स्थानों पर पतरस के उद्देश्य गलत नहीं थे; वह प्रभु के प्रति अपने प्रेम को व्यक्त कर रहा था, उसे आदर देना चाह रहा था; किन्तु वह जो कह और कर रहा था, वह परमेश्वर के वचन और इच्छा के अनुसार नहीं था, इसलिए तिरस्कार किया गया और उसके लिए प्रभु ने पतरस को डाँटा। बाद में, जैसा कि हम गलतियों 2:11-14 में देखते हैं, पतरस फिर से मनुष्यों को प्रसन्न करने के लिए दोगलेपन के व्यवहार में गिर गया; और पौलुस ने उसे इसके लिए उसे सब के सामने डाँटा था।
प्रेरित यूहन्ना ने भी यह माना है कि वह भी पाप में गिरता रहता था – 1 यूहन्ना 1:8-10 में उसके द्वारा “हम, हमारे” शब्दों के उपयोग पर ध्यान कीजिए, जिन के द्वारा वह दिखा रहा है कि पाप करने वालों में वह स्वयं भी सम्मिलित है। उसने तो यहाँ तक कहा है कि यदि कोई यह दावा करता है कि वह पाप नहीं करता है, तो उसमें सत्य नहीं है, और वह परमेश्वर को भी झूठा ठहरा रहा है। इसका अर्थ यही है कि उसके वार्तालाप, प्रचार, शिक्षा, व्यवहार आदि में, कभी न कभी, कहीं न कहीं, गलतियाँ होती रहती थीं, जिनका अंगीकार करना, पश्चाताप करना, और जिन्हें सुधारना आवश्यक होता है।
शैतान भी प्रभु के वचन के लेख में बिना कोई बदलाव किए उस का दुरुपयोग करता है। प्रभु यीशु के बपतिस्मे के तुरंत बाद, और सेवकाई आरंभ करने से पहले हुई परीक्षाओं (मत्ती 4:1-11; लूका 4:1-13) में, तीन बार शैतान ने परमेश्वर के वचन का दुरुपयोग किया और प्रयास किया कि किसी तरह से प्रभु से वचन का उल्लंघन करवा दे। शैतान ने किसी भी समय परमेश्वर के वचन में न तो कुछ जोड़ा, और न ही उस में से कुछ निकाला। लेकिन उस ने जानबूझकर उसे इस तरह से और ऐसे गलत अर्थ के साथ प्रस्तुत किया, ऐसे अभिप्राय के साथ, जो वचन में न तो थे, और न ही जिन्हें वहाँ कभी होना था। शैतान यही बात आज परमेश्वर के समर्पित विश्वासियों द्वारा भी करवाता है; उनसे भी इसी प्रकार से वचन का दुरुपयोग करवाता है। शैतान बड़ी चालाकी और चुपके से विश्वासियों को बहका और भरमा कर इस धोखे में डाल देता है जिस से कि वे परमेश्वर के वचन की बातों को ऐसे अर्थों और अभिप्रायों के साथ सोचने, मानने, प्रचार करने, और सिखाने लगते हैं, जो वचन में उनके संबंध में दिए ही नहीं गए हैं, और न ही उनका कभी वैसा अर्थ अथवा उपयोग होना है। उन से यह करवाते समय शैतान उन्हें इसी भ्रम में बनाए रखता है कि वे परमेश्वर के प्रति बहुत श्रद्धा तथा आदर का व्यवहार कर और सिखा रहे हैं, और जो वे कह तथा करवा रहें हैं वह परमेश्वर की महिमा के लिए है। किन्तु वास्तव में, जैसा हमने अय्यूब के मित्रों, पौलुस, पतरस, और यूहन्ना के उदाहरणों से देखा है, उसने उन्हें अनजाने में परमेश्वर के प्रतिकूल बातों को कहने और करने में डाल दिया है। इस तरह से वह मानवीय विचार और बुद्धि की उपज की बातों को वचन में मिला कर उसे अप्रभावी कर देता है।
तो, कोई भी, जीवन के किसी भी समय पर, प्रभु की सेवकाई के किसी भी स्तर पर सिद्ध नहीं होता है, गलती करने से बचा हुआ नहीं होता है। इसलिए यह अनिवार्य है कि प्रत्येक विश्वासी हमेशा प्रेरितों 17:11 और 1 थिस्सलुनीकियों 5:21 का पालन करे; अर्थात, पहले पवित्र शास्त्र से हर बात को जाँचे और परखे, सुनिश्चित करे कि वह बात सही है कि नहीं, और उसके बाद ही उसे स्वीकार करे और उसका पालन करे। पिछले लेख में हमने उन तीन आधारों को देखा है जिनके द्वारा यह पहचान की जा सकती है कि क्या परमेश्वर से है और क्या नहीं है। किन्तु दुर्भाग्य की बात है कि विश्वासियों का सामान्य व्यवहार अँध-विश्वास करने का ही होता है। विश्वासी किसी विख्यात और आदरणीय प्रचारक एवं शिक्षक के लिए, अपनी गलत धारणा के अन्तर्गत यही मान कर चलते हैं कि उस व्यक्ति के जैसा भक्त जन कभी कोई गलती भला कैसे कर सकता है; और इसी गलतफहमी में उसकी कही हर बात को हमेशा ही सत्य मान लेते हैं, चाहे वह सत्य न भी हो, चाहे अनजाने में ही वह व्यक्ति भी उपरोक्त उदाहरणों के समान शैतान द्वारा किसी गलती में डाल दिया गया हो। इसीलिए किसी भी शिक्षा या बात को स्वीकार करने और व्यवहार में लाने से पहले इस प्रकार से जाँचने परखने को मण्डलियों के अगुवों के लिए वचन में अनिवार्य बनाया गया है (1 कुरिन्थियों 144:29)।
हम अगले लेख से जो हमने परमेश्वर पवित्र आत्मा के बारे में सीखा है, उसका पुनःअवलोकन आरंभ करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Recapitulation – 4
We are recapitulating what we have learnt so far from David’s instructions given in 1 Kings 2:2-4 to his son Solomon, recently crowned King of Israel, for living a successful and blessed life under the guidance and obedience of God. In the last article we have recapitulated about how Satan adulterates God’s Word to render it ineffective, through his agents as well as by misleading God’s committed Believers into errors, while they assume that they are serving God reverentially. Today we will recapitulate some examples of how Satan misleads God’s people, and also see an example of how Satan misuses God’s Word by retaining the text, but ascribing meanings to that which were neither given nor intended in God’s Word; and he is using this ploy quite successfully in the assemblies these days. Let us consider these examples:
The Believers must never forget that not only things said contrary to God, but even things said in favor of God, but not in accordance with His truth and with the actual implications of Biblical facts, is unacceptable to God and brings judgment from Him. A good example of being sincere and reverent towards God, yet being wrong and unacceptable to God, are Job's friends. Throughout the Book of Job, they spoke to Job in favor of God, but their statements and the implications related to God were incorrect, and that angered God against them. Though God wanted to punish them, but He left it to Job, whom they were accusing in the name of God, to decide their fate. Job prays for them and delivers them from their punishment (Job 42:7-10).
Similarly, Paul was a very learned and zealous Pharisee before his conversion, but because of his misunderstanding of the Scriptures he had learnt, and his misplaced zeal for God, he used to persecute the followers of the very Lord God whom he thought he was serving (Acts 26:9-10). There was nothing wrong in his intentions – he did love the Lord and was zealous for him, wanting to serve Him as best as he could. Therefore, he punished those he thought were contrary to God and His Word. But his learning, understanding, and interpretation of God's Word was faulty, which gave him this wrong attitude and activity. He was sincere towards God, but still was wrong. Later, as Paul confesses in Romans 7:14-24, we learn that he was still struggling with sin in his life, and would do things that he did not want to do, despite being the eminent preacher and teacher of God’s word that he was.
Peter too, in his love and reverence for the Lord Jesus, rebuked Him for talking about His impending arrest, torture, and death (Matthew 16:21-23); and on an earlier occasion had talked vainly at the Mount of Transfiguration (Mark 9:5-6) without knowing what he was saying. At both places Peter’s intentions were not at fault, he wanted to honor the Lord, show his love for the Lord; but what he was doing and saying was not according to the Word and will of God, and therefore, was rejected and Peter was rebuked by the Lord. Later, as we see in Galatians 2:11-14, Peter trying to be a man-pleaser, fell into hypocrisy, and Paul openly rebuked him for it.
The Apostle John too has confessed that he kept falling in sin – take note of his using words like “we, us, ourselves” in 1 John 1:8-10, thereby including himself in those who sinned. He went on to say that anyone claiming not to sin is not speaking the truth and is making God a liar. This implies that in conversing, preaching, teaching, behavior, etc. at some point or the other he did commit mistakes, which needed to be confessed, repented of, and rectified.
Satan too, can deliberately misuse God’s Word, without altering it in any way. In the temptations of the Lord Jesus, immediately after His baptism, and before His beginning His ministry (Matthew 4:1-11; Luke 4:1-13), thrice Satan misused God’s Word to try to make the Lord act contrary to the Word. On none of the occasions, did Satan add anything or take anything away from God’s Word. But he deliberately misinterpreted it and presented it in such a manner, with meanings and implications that were never there in the Word of God, nor were ever intended to be there. Satan does this even today, through God’s committed Believers; getting them to misuse things written in God’s Word. Satan very subtly deceives the Believers into making them think, believe, preach, and teach others some things from God’s Word with meanings and implications that are not there in the Word of God about them. Satan does this while making them believe that they are being very reverential and God honoring, that what they are saying and teachings is for the glory of God. But actually, as we have seen from the examples of Job’s friends, Paul, Peter, and John, Satan has beguiled them into inadvertently doing things unacceptable to God. In this manner he brings in false teachings to adulterate God’s Word with human thoughts and things of man’s wisdom, and renders it ineffective.
So, no one, at any stage in life and service for the Lord is ever perfect, is ever immune from making mistakes. Therefore, it is imperative that every Believer follows Acts 17:11 and 1 Thessalonians 5:21; i.e., first cross-checks everything from the Scriptures, makes sure that it is correct, and only then accepts and follows it. In the previous article we have also seen three criteria which guide us in discerning what is from God and what is not. Unfortunately, the commonly followed routine is to trust and believe anything and everything any eminent man of God preaches and teaches, and blindly start following whatever he says and does, under the false assumption that one as godly as he is, will never make any mistakes; and under this misconception people accept everything that person says as the truth, even when it is not the truth. Therefore, this cross-checking by the elders of every assembly, of every teaching or preaching before acceptance and practice by the assembly, has been made necessary (1 Corinthians 14:29).
We will carry on and recapitulate what we have learnt about God the Holy Spirit from the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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