पवित्र आत्मा परीक्षाओं में हमारी सहायता करता है – 1
मसीही विश्वासी का परमेश्वर पवित्र आत्मा के प्रति योग्य भण्डारी होने के विषय में देखते हुए, हम यूहन्ना 14:16 में दिए गए प्रभु यीशु मसीह के अपने शिष्यों से कहे गए कथन को देख रहे हैं, कि पवित्र आत्मा उन में, उनके सहायक, या साथी के रूप में निवास करेगा। मूल यूनानी भाषा में प्रयुक्त शब्द के अनुसार, यहाँ पर ‘साथी’ एक अधिक उपयुक्त अनुवाद है। कुछ मसीही विश्वासी पवित्र आत्मा को अपने साथी या सहायक के समान नहीं, अपने स्थान पर काम कर देने वाले सेवक के समान उपयोग करना चाहते हैं। अर्थात, वे बहुधा पवित्र आत्मा से वे कार्य करवाना चाहते हैं जो उन्हें करने में कठिन लगते हैं, या जिन्हें करने में वे कई बार असफल हो चुके हैं। वे यह इस मनसा के आधार पर चाहते हैं कि वे स्वयं उन्हें करने के लिए योग्य हैं, उस ज़िम्मेदारी को निभाने के लिए अक्षम हैं, और इसलिए परमेश्वर को ही उनके स्थान पर, उनके लिए उसे कर देना चाहिए। हम पिछले लेख में इस अनुचित धारणा, अर्थात परमेश्वर अपने बच्चों को उनकी क्षमताओं और योग्यताओं से बाहर परिस्थितियों में आ लेने देता है, के तात्पर्य को देख चुके हैं। हम ने यह भी देखा था कि किस प्रकार से यह शैतानी है, क्योंकि यह परमेश्वर को बहुत गलत दिखाता है, और उसके परमेश्वर होने के गुणों का ही इनकार करता है।
यदि हम इस गलत धारणा पर थोड़ा सा विचार करें तथा बाइबल के कुछ संबंधित लेख देखें, तो यह प्रकट हो जाता है कि यह धारणा कदापि बाइबल के अनुसार सही अथवा स्वीकार्य नहीं हो सकती है। हम पहले ही भजन 103:14 से देख चुके हैं कि परमेश्वर हमारी सृष्टि को भली-भांति जानता है, और उसे स्मरण रहता है कि हम बस मिट्टी ही हैं। अर्थात परमेश्वर हमारी सामर्थ्य और क्षमताओं से अच्छे से अवगत है, तथा उससे भी कि हम क्या कुछ और किस सीमा तक सहन कर सकते हैं। हम शैतान द्वारा अय्यूब की परीक्षा के उदाहरण से भी जानते हैं की शैतान उसे उसी सीमा तक छू सकता था जो परमेश्वर ने निर्धारित की थी, उस से आगे नहीं। इसलिए मसीही विश्वासी के जीवन में परमेश्वर द्वारा निर्धारित की गई सीमा से बाहर कुछ भी नहीं हो सकता है। इस की पुष्टि 1 कुरिन्थियों 10:13 से भी हो जाती है, जहाँ लिखा है, “तुम किसी ऐसी परीक्षा में नहीं पड़े, जो मनुष्य के सहने से बाहर है: और परमेश्वर सच्चा है: वह तुम्हें सामर्थ्य से बाहर परीक्षा में न पड़ने देगा, वरन परीक्षा के साथ निकास भी करेगा; कि तुम सह सको।” यहाँ पर जिस शब्द का अनुवाद ‘परीक्षा’ किया गया है, मूल यूनानी भाषा में उसके लिए प्रयुक्त शब्द का अर्थ परखे जाना, आँकलन करना, जांचे जाना, आदि भी होता है। दूसरे शब्दों में, शब्द ‘परीक्षा’ हमेशा नकारात्मक या हानिकारक अभिप्राय से ही उपयोग नहीं किया जाता है, वरन जीवन में आने वाली सभी परिस्थितियों के लिए भी लागू समझा जा सकता है। इस से हम समझ सकते हैं कि परमेश्वर न केवल उन सीमाओं को निर्धारित करता है जहाँ तक विश्वासी की परीक्षा की जा सकती है, बल्कि वह जिस भी बात की अनुमति देता है, वह विश्वासी की उन क्षमताओं और सामर्थ्य के अन्दर ही होती है, जिन्हें परमेश्वर ही ने उन में रखा है। और, उसके साथ ही परमेश्वर अपने बच्चों के लिए उन बातों से बच के निकलने के लिए मार्ग भी बना कर तैयार रखता है। इसलिए परमेश्वर की कोई भी संतान, कभी भी, खराई और ईमानदारी से यह नहीं कह सकती है कि वह परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गई किसी ज़िम्मेदारी के निर्वाह के लिए असमर्थ अथवा अक्षम है।
पौलुस, पवित्र आत्मा की अगुवाई में, फिलिप्पियों 4:13 में लिखता है, “जो मुझे सामर्थ्य देता है उस में मैं सब कुछ कर सकता हूं।” जब पौलुस ‘सब कुछ’ लिखता है, तो उसका अर्थ होता है ‘सब कुछ’। दूसरे शब्दों में ऐसा कुछ भी नहीं है जिस का सामना पौलुस अथवा अन्य किसी भी मसीही विश्वासी को करना पड़े, और प्रभु में होकर भी वह उसे करने न पाए। इसके साथ ही यहाँ पर यह आश्वासन भी दिया गया है कि परमेश्वर की अनुमति और इच्छा में आई उस परिस्थिति में, उस कार्य को करने अथवा ज़िम्मेदारी को निभाने के लिए, मसीह उस विश्वासी को सामर्थ्य भी प्रदान करेगा। इसलिए ऐसी कोई संभावना ही नहीं है कि परमेश्वर की कोई भी संतान कभी भी, ऐसी किसी भी परिस्थिति में लाई जाएगी जो उसकी सामर्थ्य के बाहर होगी। परमेश्वर द्वारा दी गई जिम्मेदारियों और कार्यों को न कर पाने के विचार रखना और उन्हें मानना शैतानी युक्तियाँ हैं, क्योंकि वे परमेश्वर के वचन और प्रतिज्ञाओं को झुठलाते हैं, और अनजाने में ही परमेश्वर को झूठा ठहराते हैं, क्योंकि उसने अपने बच्चों को आश्वासन तो कुछ दिया, किन्तु उनके जीवनों में होने कुछ और दिया।
साथ ही सम्पूर्ण पवित्र शास्त्र में यद्यपि ऐसे अनेकों उदाहरण हैं जिन में परमेश्वर के लोगों, नबियों, प्रेरितों, और अन्य को, परमेश्वर के कार्यों और उसके द्वारा दी गई जिम्मेदारियों के लिए बहुत कठिन परिस्थितियों, सताव, ताड़नाओं, आदि का सामना करना पड़ा, जान का भी जोखिम उठाना पड़ा। ऐसी सभी परिस्थितियों में परमेश्वर उनके साथ बना रहा, उन्हें सामर्थ्य देता रहा, उनका हौसला बढ़ाता रहा, उन्हें उस परिस्थिति से निकलने और ज़िम्मेदारी को पूरा करने के लिए उनकी सहायता करता रहा। लेकिन ऐसा एक भी उदाहरण नहीं है जब परमेश्वर ने उस परीक्षा या कठिन परिस्थिति से होकर निकल रहे उन में से किसी भी व्यक्ति से कभी कहा हो कि उस व्यक्ति के स्थान पर परमेश्वर स्वयं उनके लिए उस कार्य या ज़िम्मेदारी को पूरा कर देगा। जैसा हम आगे भी देखेंगे, परमेश्वर कभी भी अपने लिखित वचन से बाहर कुछ भी नहीं करता या कहता है। हमारी हर परिस्थिति में वह हमारी सहायता और मार्गदर्शन अवश्य ही करेगा; लेकिन कभी भी हमारी ज़िम्मेदारी को अपने ऊपर लेकर हमारे स्थान पर उस कार्य को नहीं करेगा। इसलिए किसी के लिए भी परमेश्वर द्वारा उसके लिए निर्धारित कार्य को उसके स्थान पर करने की याचना करना व्यर्थ है। ऐसी सभी प्रार्थनाएँ हमेशा ही अनुत्तरित ही रहेंगी, क्योंकि वे सर्वथा गलत, परमेश्वर को अस्वीकार्य, वरन परमेश्वर को अपमानित करने वाले आधार पर माँगी जा रही हैं।
अगले लेख में हम इसी विषय के बारे में कुछ और देखेंगे, कि परमेश्वर के लोग ऐसी प्रार्थनाएँ कब करते हैं, और परमेश्वर से उनके स्थान पर कार्य को कर देने की याचना करने के स्थान पर उन्हें क्या करना चाहिए।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Holy Spirit Helps in Our Tests – 1
In considering the Christian Believer’s stewardship of God the Holy Spirit, we have been looking at the Lord Jesus’s statement of John 14:16 to His disciples, that the Holy Spirit will be with them as their Helper, i.e., as their Companion, which is a more appropriate translation of the word used in the Greek language. Some Believer’s try to use the Holy Spirit as their substitute instead of a companion or helper; i.e., they often try to get the Holy Spirit do those things for them which they find difficult to do, or have often failed in doing themselves. They do this on the thinking that they are unable to do them, are incapable of fulfilling their responsibility; therefore, God should do it for them. We have seen in the previous article the implications of this erroneous line of thinking, i.e., that God allows His children to be brought into situations that are beyond their abilities. We also saw how this is satanic since it reflects very badly on God, and negates His very characteristics of being God.
If we ponder a bit over this erroneous thinking and consider some relevant Biblical texts, it becomes quite apparent that this line of thinking simply cannot be Biblical or acceptable. We have already seen earlier that in Psalm 103:14, God well knows our frame and that we are but dust; i.e., God is very well aware of our capabilities, what all and to what extent we can endure. We also know from the example of Job’s being tested by Satan, that Satan could test or touch Job only to the extent that was permitted by God, not beyond it. Therefore, in a Christian Believer’s life nothing can ever happen that is beyond the limits set by God for His child. This is further affirmed by 1 Corinthians 10:13, “No temptation has overtaken you except such as is common to man; but God is faithful, who will not allow you to be tempted beyond what you are able, but with the temptation will also make the way of escape, that you may be able to bear it.” The word translated here as temptation, in the original Greek language, is used to denote being tested, evaluated, examined etc. In other words, ‘temptation’ is not always in a negative or harmful sense, but stands for all kinds of situations one may have to face in life. In other words, God not only sets the limits to which the Believers can be tested or evaluated, and given responsibilities to handle, but also that whatever He permits to come in a Believer’s life, they are all well within the capabilities He has placed in them. And, along with that He also keeps available the way out of these situations, for His children. Hence, no child of God can honestly plead being incapable of doing something asked of him by God.
Paul, through the guidance of the Holy Spirit, says in Philippians 4:13, “I can do all things through Christ who strengthens me.” If Paul says ‘all things’, it means ‘all things.’ In other words, there is nothing that Paul, or any other Christian Believer will have to face, that cannot be accomplished through Christ. Added to this is the assurance, that Christ also strengthens the Believer in that situation, for fulfilling that responsibility, or doing that task assigned by God to His child. Therefore, there is simply no way that a child of God will ever be brought into a situation or a responsibility that is beyond his capabilities. Harboring and believing thoughts of being incapable of fulfilling God given responsibilities are satanic ploys, since they negate God’s Word and God’s promises, and inadvertently call God a liar, for assuring one thing and allowing another in the lives of His children.
Moreover, throughout the Scriptures, although there are numerous examples of God’s people, prophets, Apostles, and others who have suffered severe situations, tortures, and even threats to their life, so much so that their life became very harsh and difficult; all for the sake of God and fulfilling His given responsibilities. In all these situations, for all of these people of God, God was with them, strengthened them, encouraged them, helped them along to come out of their situation and fulfil their responsibility. But there is not even one example where God said that He will take over and do it instead of that person who was passing through those testing and difficult situations. As we will see in later as well, God never goes beyond His written Word. He will help and guide us through our all situations, but will never take over from us and do our job instead of us. So, it is utterly vain for anyone to pray and plead for God to do something that God has assigned for them to do. All such prayers will always go unanswered, since they are made on the wrong premises, on basis unacceptable to God, rather derogatory to God.
In the next article we will some more about this, about when do God’s children usually make this prayer, and what they should be doing instead of pleading before God to do their work for them.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
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