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सुसमाचार की योजना - जगत की सृष्टि से भी पूर्व
हम पिछले लेखों से देखते आ रहे हैं कि बालकों के समान अपरिपक्व मसीही विश्वासियों की एक पहचान यह भी है कि वे बहुत सरलता से भ्रामक शिक्षाओं द्वारा बहकाए तथा गलत बातों में भटकाए जाते हैं (इफिसियों 4:14)। इन भ्रामक शिक्षाओं को शैतान और उस के दूत झूठे प्रेरित, धर्म के सेवक, और ज्योतिर्मय स्वर्गदूतों का रूप धारण कर के बताते और सिखाते हैं (2 कुरिन्थियों 11:13-15)। ये लोग, और उनकी शिक्षाएं, दोनों ही बहुत आकर्षक, रोचक, और ज्ञानवान, यहाँ तक कि भक्तिपूर्ण और श्रद्धापूर्ण भी प्रतीत हो सकती हैं, किन्तु साथ ही उनमें अवश्य ही बाइबल की बातों के अतिरिक्त भी बातें डली हुई होती हैं। जैसा परमेश्वर पवित्र आत्मा ने प्रेरित पौलुस के द्वारा 2 कुरिन्थियों 11:4 में लिखवाया है, “यदि कोई तुम्हारे पास आकर, किसी दूसरे यीशु को प्रचार करे, जिस का प्रचार हम ने नहीं किया: या कोई और आत्मा तुम्हें मिले; जो पहिले न मिला था; या और कोई सुसमाचार जिसे तुम ने पहिले न माना था, तो तुम्हारा सहना ठीक होता”, इन भ्रामक शिक्षाओं और गलत उपदेशों के, मुख्यतः तीन विषय, होते हैं - प्रभु यीशु मसीह, पवित्र आत्मा, और सुसमाचार। साथ ही इस पद में सच्चाई को पहचानने और शैतान के झूठ से बचने के लिए एक बहुत महत्वपूर्ण बात भी दी गई है, कि इन तीनों विषयों के बारे में जो यथार्थ और सत्य हैं, वे सब वचन में पहले से ही बता और लिखवा दिए गए हैं। इसलिए बाइबल से देखने, जाँचने, तथा वचन के आधार पर शिक्षाओं को परखने के द्वारा सही और गलत की पहचान करना कठिन नहीं है।
पिछले लेखों में हमने इन गलत शिक्षा देने वाले लोगों के द्वारा, पहले तो प्रभु यीशु से संबंधित सिखाई जाने वाली गलत शिक्षाओं को देखा; फिर उसके बाद, परमेश्वर पवित्र आत्मा से संबंधित सामान्यतः बताई और सिखाई जाने वाली गलत शिक्षाओं की वास्तविकता को वचन की बातों से देखा; और पिछले लेख से हमने सुसमाचार से संबंधित गलत शिक्षाओं के बारे में देखना आरंभ किया है, और इन आरंभिक लेखों में हम सही सुसमाचार क्या है, यह देख और समझ रहे हैं, जिससे गलत या भ्रष्ट को पहचान सकें, स्वयं भी उस से बच कर रह सकें तथा औरों को भी बचा सकें। पिछले दो लेखों में हमने देखा है कि सुसमाचार संसार के प्रत्येक व्यक्ति के लिए है, चाहे उसका धर्म, धारणा, मान्यता कुछ भी हो; ईसाइयों या मसीहियों के लिए भी। सभी को उसके लिए व्यक्तिगत रीति से निर्णय लेना है। सुसमाचार कोई रीति, या परंपरा, या विधि नहीं है जिसके निर्वाह के द्वारा व्यक्ति इतना धर्मी बन जाता है कि परमेश्वर उसे स्वर्ग में स्वीकार करने के लिये बाध्य हो जाता है। सुसमाचार सारी मानव-जाति के लिये परमेश्वर द्वारा उपलब्ध करवाई गई जानकारी है कि प्रभु यीशु में होकर सभी के लिये, चाहे वह किसी भी धर्म, जाति, समुदाय, आयु, धरना, आदि का क्यों न हो, पापों से मुक्ति या उद्धार, सेंत-मेंत में उपलब्ध है। सुसमाचार का व्यक्ति के जीवन में कार्यकारी होना उसके सच्चे समर्पित मन से अपने पापों के लिए पश्चाताप और प्रभु यीशु से पापों के क्षमा माँगकर उसे समर्पित हो जाने से आरंभ होता है। आज हम इस सुसमाचार के विषय परमेश्वर की योजना के बारे में देखेंगे।
सुसमाचार - सृष्टि के आरंभ से भी पहले परमेश्वर द्वारा स्थापित
बहुधा लोगों की यह धारणा रहती है कि प्रभु यीशु में पापों की क्षमा और उद्धार तथा उससे संबंधित आशीषों का यह सुसमाचार नए नियम, या प्रभु यीशु के आगमन और सेवकाई के साथ आरंभ हुआ है। संसार के बहुत से लोग तो प्रभु यीशु के विषय यह धारणा भी रखते हैं कि वह एक भक्त यहूदी था, जिसके जीवन से उस समय के बहुत से लोग बहुत प्रभावित हुए थे, और उसके बाद, उसके अनुयायियों ने उसके नाम में कुछ शिक्षाओं और बातों को बना कर फैला दिया, जिनमें से एक यह उसके नाम में विश्वास द्वारा पापों से क्षमा और उद्धार की बात भी है। किन्तु बहुत कम लोगों को यह पता है कि इस सुसमाचार का उल्लेख पुराने नियम में भी है, और इसका आरंभ सृष्टि के पहले से है। परमेश्वर का वचन बाइबल हमें सुसमाचार में होकर परमेश्वर की इस उद्धार की योजना के विषय सामान्य धारणाओं और विचारों से बहुत भिन्न तथ्य प्रदान करती है। बाइबल के इन तथ्यों को देखना आरंभ हम सुसमाचार के संक्षिप्त रूप, उसके सार को परमेश्वर पवित्र आत्मा की अगुवाई में प्रेरित पौलुस द्वारा कुरिन्थुस की मण्डली को लिखी गई पहली पत्री में से देखने के साथ करते हैं: “हे भाइयों, मैं तुम्हें वही सुसमाचार बताता हूं जो पहिले सुना चुका हूं, जिसे तुम ने अंगीकार भी किया था और जिस में तुम स्थिर भी हो। उसी के द्वारा तुम्हारा उद्धार भी होता है, यदि उस सुसमाचार को जो मैं ने तुम्हें सुनाया था स्मरण रखते हो; नहीं तो तुम्हारा विश्वास करना व्यर्थ हुआ। इसी कारण मैं ने सब से पहिले तुम्हें वही बात पहुंचा दी, जो मुझे पहुंची थी, कि पवित्र शास्त्र के वचन के अनुसार यीशु मसीह हमारे पापों के लिये मर गया। ओर गाड़ा गया; और पवित्र शास्त्र के अनुसार तीसरे दिन जी भी उठा” (1 कुरिन्थियों 15:1-4)।
ये पद इस बात को स्पष्ट कर देते हैं कि उद्धार के सुसमाचार का मर्म, प्रभु यीशु मसीह का पृथ्वी पर आना, मानव-जाति के पापों के लिए मारा जाना, गाड़ा जाना, और तीसरे दिन जी उठना, इनमें से कोई भी बात आकस्मिक या अनपेक्षित नहीं थीं। वरन, ये सारी बातें जो हुईं, वे सभी “पवित्र शास्त्र के अनुसार” ही हुईं; अर्थात पवित्र शस्त्र में, जो उस समय वर्तमान का पुराना नियम था, पहले से ही लिखी हुई थीं, और उन्हीं भविष्यवाणी की बातों की पूर्ति प्रभु यीशु के जीवन के द्वारा हुई!
बाइबल में उद्धारकर्ता की पहली प्रतिज्ञा, आदम और हव्वा के पाप करने के साथ ही, परमेश्वर ने अदन की वाटिका में ही कर दी थी - “और मैं तेरे और इस स्त्री के बीच में, और तेरे वंश और इसके वंश के बीच में बैर उत्पन्न करूंगा, वह तेरे सिर को कुचल डालेगा, और तू उसकी एड़ी को डसेगा” (उत्पत्ति 3:15)। सामान्यतः किसी भी परिवार में, “वंश” पुरुष के द्वारा ज़ारी रखा माना जाता है, पुरुष का ही माना जाता है। किन्तु यहाँ परमेश्वर ने “स्त्री के वंश” की बात की, जो उस सर्प रूपी शैतान के सिर को कुचलने वाले उद्धारकर्ता, प्रभु यीशु मसीह के, बिना पुरुष के साथ मेल के कुँवारी स्त्री से जन्म लेने, और शैतान के कार्यों का तथा उसका नाश करके मानव जाति के उद्धार के कार्य को संपन्न करने की पहली भविष्यवाणी थी। और इसी भविष्यवाणी के अनुसार प्रभु यीशु के जन्म के समय मरियम को आश्वस्त किया गया, “स्वर्गदूत ने उस से कहा, हे मरियम; भयभीत न हो, क्योंकि परमेश्वर का अनुग्रह तुझ पर हुआ है। और देख, तू गर्भवती होगी, और तेरे एक पुत्र उत्पन्न होगा; तू उसका नाम यीशु रखना।” “मरियम ने स्वर्गदूत से कहा, यह क्योंकर होगा? मैं तो पुरुष को जानती ही नहीं। स्वर्गदूत ने उसको उत्तर दिया; कि पवित्र आत्मा तुझ पर उतरेगा, और परमप्रधान की सामर्थ्य तुझ पर छाया करेगी इसलिये वह पवित्र जो उत्पन्न होनेवाला है, परमेश्वर का पुत्र कहलाएगा।” (लूका 1:30-31, 34-35)
नए नियम में इब्रानियों की पत्री में, प्रभु यीशु मसीह के मनुष्य रूप में पृथ्वी पर आने के समय का वार्तालाप दर्ज किया गया है: “इसी कारण वह जगत में आते समय कहता है, कि बलिदान और भेंट तू ने न चाही, पर मेरे लिये एक देह तैयार किया। होम-बलियों और पाप-बलियों से तू प्रसन्न नहीं हुआ। तब मैं ने कहा, देख, मैं आ गया हूं, (पवित्र शास्त्र में मेरे विषय में लिखा हुआ है) ताकि हे परमेश्वर तेरी इच्छा पूरी करूं” (इब्रानियों 10:5-7)। ये पद भी हमारे लिए सुसमाचार के बारे में कुछ बहुत महत्वपूर्ण तथ्य रखते हैं -
जैसे परमेश्वर ने उत्पत्ति 3:15 में “स्त्री के वंश” की बात कही थी, उसकी के अनुसार, कुँवारी मरियम के गर्भ में पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से एक मानव देह तैयार कर के रखी गई जिसमें होकर परमेश्वर पुत्र - प्रभु यीशु ने जगत में, बिना किसी पुरुष के योगदान के, एक कुँवारी से जन्म लिया।
प्रभु का जगत में आना परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने के लिए था - अर्थात परमेश्वर पिता की यह इच्छा पहले से ही विद्यमान थी, जिसे पूरा करने के लिए परमेश्वर पुत्र ने स्वर्ग का वैभव, आदर, और महिमा छोड़कर, अपने आप को शून्य करके (फिलिप्पियों 2:5-8) पृथ्वी पर आना स्वीकार किया।
प्रभु यीशु के विषय यह सब पवित्र शास्त्र में पहले से ही लिखा हुआ था।
प्रभु यीशु मसीह ने अपने पुनरुत्थान के बाद, इम्माऊस के मार्ग पर जा रहे अपने दो शिष्यों के साथ हुई बातचीत में उन्हें स्मरण करवाया, “फिर उसने उन से कहा, ये मेरी वे बातें हैं, जो मैं ने तुम्हारे साथ रहते हुए, तुम से कही थीं, कि अवश्य है, कि जितनी बातें मूसा की व्यवस्था और भविष्यद्वक्ताओं और भजनों की पुस्तकों में, मेरे विषय में लिखी हैं, सब पूरी हों” (लूका 24:44)। प्रेरित पौलुस के जीवन-परिवर्तन के बाद, पुराने नियम के अपने ज्ञान के आधार पर उसने “और वह तुरन्त आराधनालयों में यीशु का प्रचार करने लगा, कि वह परमेश्वर का पुत्र है। परन्तु शाऊल और भी सामर्थी होता गया, और इस बात का प्रमाण दे देकर कि मसीह यही है, दमिश्क के रहने वाले यहूदियों का मुंह बन्द करता रहा” (प्रेरितों 9:20, 22)। इसी प्रकार अपुल्लोस भी, जो पवित्र शास्त्र का अच्छा गया रखता था, “अपुल्लोस नाम एक यहूदी जिस का जन्म सिकन्दिरया में हुआ था, जो विद्वान पुरुष था और पवित्र शास्त्र को अच्छी तरह से जानता था इफिसुस में आया। क्योंकि वह पवित्र शास्त्र से प्रमाण दे देकर, कि यीशु ही मसीह है; बड़ी प्रबलता से यहूदियों को सब के सामने निरुत्तर करता रहा” (प्रेरितों 18:24, 28)।
क्योंकि पवित्र शास्त्र, अर्थात वर्तमान के पुराने नियम में एक उद्धारकर्ता के जन्म और छुटकारे के कार्य के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई थी, इसीलिए प्रभु यीशु की सेवकाई के समय में लोगों को यह अंदेशा था कि उस उद्धारकर्ता के आने का समय हो गया है, वे उसकी बाट जोह रहे थे। इसी प्रत्याशा में यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने अपनी सेवकाई आरंभ की, और जब वह आया तो उसे पहचान लिया “दूसरे दिन उसने यीशु को अपनी ओर आते देखकर कहा, देखो, यह परमेश्वर का मेम्ना है, जो जगत के पाप उठा ले जाता है” (यूहन्ना 1:29)। यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले के शिष्य अन्द्रियास ने, यूहन्ना के कहने पर प्रभु यीशु को मसीह स्वीकार कर लिया, “उसने पहिले अपने सगे भाई शमौन से मिलकर उस से कहा, कि हम को ख्रिस्तुस अर्थात मसीह मिल गया” (यूहन्ना 1:41)। सामान्य लोगों में भी यही प्रत्याशा थी जैसा सामरी स्त्री ने प्रभु यीशु से कहा, “स्त्री ने उस से कहा, मैं जानती हूं कि मसीह जो ख्रीस्तुस कहलाता है, आने वाला है; जब वह आएगा, तो हमें सब बातें बता देगा। आओ, एक मनुष्य को देखो, जिसने सब कुछ जो मैं ने किया मुझे बता दिया: कहीं यह तो मसीह नहीं है?” (यूहन्ना 4:25, 29)।
यह सभी दिखाता है कि प्रभु यीशु मसीह में उद्धार का सुसमाचार नए नियम से भी पहले का है, पवित्र शास्त्र के अनुसार है, पुराने नियम के आरंभ में से ही उसके बारे में लिख दिया गया था, उसकी योजना बनाई जा चुकी थी। किन्तु अद्भुत बात यह है कि प्रभु यीशु मसीह का अपने बलिदान के द्वारा छुटकारे का, पापों से क्षमा और उद्धार का मार्ग प्रदान करने का कार्य जगत की उत्पत्ति से पहले ही स्थापित कर दिया गया था “उसका ज्ञान तो जगत की उत्पत्ति के पहिले ही से जाना गया था, पर अब इस अन्तिम युग में तुम्हारे लिये प्रगट हुआ” (1 पतरस 1:20), और वह घात या बलि जगत की उत्पत्ति के समय हुआ, “और पृथ्वी के वे सब रहने वाले जिन के नाम उस मेम्ने की जीवन की पुस्तक में लिखे नहीं गए, जो जगत की उत्पत्ति के समय से घात हुआ है, उस पशु की पूजा करेंगे” (प्रकाशितवाक्य 13:8)।
अर्थात, प्रभु यीशु मसीह में होकर पापों की क्षमा और उद्धार का यह सुसमाचार न तो मनुष्य के पाप करने के बाद, परिस्थिति के अनुसार, बाद में लिया गया निर्णय और किया गया कार्य है; और न ही मनुष्यों की कल्पनाओं और विचारों की गढ़ी हुई बात है। यह जगत की उत्पत्ति से पहले स्थापित हो गया था, और जगत की उत्पत्ति के समय, इससे पहले कि मनुष्य की सृष्टि भी होती और वो पाप में गिराया जाता, उसे पाप से छुड़ाने का प्रयोजन और क्रिया को परमेश्वर ने तैयार कर के रख लिया था। इसीलिए इसे “eternal salvation” या “सदा काल का उद्धार” कहा गया है (इब्रानियों 5:9)।
ये बातें सुसमाचार के महत्व, सिद्धता, शुद्धता और पवित्रता को दिखाती हैं; बताती हैं कि कैसे सुसमाचार से की गई थोड़ी से भी छेड़ा-खानी, परमेश्वर द्वारा बनाई और स्थापित की गई इस योजना में की गई कोई भी मिलावट, उसमें डाली गई कोई भी अतिरिक्त बात, उसे भ्रष्ट कर देगी, उसे अप्रभावी बना देगी। अगले लेख में हम देखेंगे के शैतान किन युक्तियों तथा ‘धार्मिक’ प्रतीत होने वाली बातों के द्वारा सुसमाचार को अप्रभावी बनाता है, और हमें अपनी चालाकियों और बहकावे की युक्तियों द्वारा उस भ्रष्ट सुसमाचार के चक्करों में फँसा कर, वास्तविक और सच्चे सुसमाचार को हमारे जीवनों में कार्यकारी एवं प्रभावी होने से रोक देता है, हमें अपने चंगुल में फंसाए रखता है। और हम यही सोचते रह जाते हैं, इसी भ्रम में पड़े रह जाते हैं, कि हम ने भी उद्धार पा लिया, और अब हम परमेश्वर के हाथों में सुरक्षित हो गए हैं, जबकि वास्तविकता में हम शैतान ही के हाथों में पड़े हुए होते हैं और उस स्थिति में हमारा भी वही अन्त होगा जो शैतान का होगा।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो आपके लिए यह जानना और समझना अति-आवश्यक है कि आप प्रभु परमेश्वर के सुसमाचार से संबंधित किसी गलत शिक्षाओं में न पड़े हों। यह सुनिश्चित कर लीजिए कि आप सच्चे पश्चाताप और समर्पण तथा सच्चे मन से प्रभु यीशु से पापों की क्षमा के द्वारा परमेश्वर के जन बने हैं। न खुद भरमाए जाएं, और न ही आपके द्वारा कोई और भरमाया जाए। लोगों द्वारा कही जाने वाली ही नहीं, वरन वचन में लिखी हुई बातों पर ध्यान दें, और लोगों की बातों को वचन की बातों से मिला कर जाँचें और परखें, यदि सही हों, तब ही उन्हें मानें, अन्यथा अस्वीकार कर दें।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
यहेजकेल 18-19
याकूब 4
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The Gospel - Established Even Before Creation
We have been seeing in the previous articles that one of the ways the childlike, immature Christian Believers can be identified is that they can very easily be deceived, beguiled and misled by wrong doctrines and false teachings. Satan and his followers bring in their wrong doctrines and misinterpretations of God’s Word through people who masquerade as apostles, ministers of righteousness, and angels of light (2 Corinthians 11:13-15). These deceptive people and their false messages, their teachings appear to be very attractive, interesting, knowledgeable, even very reverential and righteous; but there is always something or the other that is extra-Biblical or unBiblical mixed into them. These wrong teachings and false doctrines are mainly about three topics - the Lord Jesus Christ, the Holy Spirit, and the Gospel, as God the Holy Spirit got it written down through the Apostle Paul in 2 Corinthians 11:4 “For if he who comes preaches another Jesus whom we have not preached, or if you receive a different spirit which you have not received, or a different gospel which you have not accepted--you may well put up with it!” In this verse a very important way to identify the false and the correct, discern between them, and escape from being beguiled by Satan is also given - that which is the truth about these three topics has already been given and written in God’s Word. Therefore, by cross-checking every teaching and doctrine from the Bible, the true and the false can be discerned; that which is not already present in God’s Word is false, and their preacher is a preacher of satanic deceptions.
In the previous articles, after seeing some commonly preached and taught false things about the Lord Jesus, next we had seen the Biblical facts and teachings about the wrong things often taught and preached regarding the Holy Spirit. Now, we have started to take up the wrong teachings about the Gospel. For this we first need to know, learn, and understand the correct or Biblical things about the Gospel. In the Introduction to this topic, we had seen that the Gospel of the Lord Jesus is not about any earthly kingdom, wealth or prosperity, but about man being able to enter the kingdom of God. We had seen that the first step to man’s entering God’s kingdom is his repenting of sins, which is equally important and applicable for everybody, no matter what their religion, beliefs, notions, or community may be; even if your family has been “christian” for many generations and you may be considering yourself as “people of God.” In the last article we moved ahead from here, and saw what the Gospel is, what it means; that it is an information from God for entire mankind, irrespective of religion, caste, creed, age, belief etc. for being saved from sins freely through the Lord Jesus. It is not a tradition, ritual, or method, the fulfillment of which enables a person to reach a higher level of being “religious” or “righteous” so that God becomes compelled to give him an entrance into His kingdom. The Gospel becomes effective and working in a person’s life by his repenting of his sins, asking the Lord Jesus to forgive him, and surrendering his life to the Lord Jesus. Today we will see since when this plan of salvation for mankind had been prepared and put in place by God.
Gospel - Established by God since before the creation
Many people have this misconception that this gospel of forgiveness of sins and salvation along with its related blessings started with the New Testament, with the coming of the Lord Jesus and His ministry. Many people of the world also have this wrong notion that the Lord Jesus was actually a very devout Jew, and people were very impressed by His life at that time. After He was gone, His disciples added some things into His life-story, and then spread their concocted story; and one of the additions was that believing in His name will bring forgiveness of sins and salvation from God. But very few people know that the Gospel has been mentioned in the Old Testament as well, and its beginning is since before the creation. God’s Word the Bible provides to us a very different picture than what is commonly thought and believed by people regarding the gospel and salvation. Let us begin by looking into the Biblical facts about salvation from what the apostle Paul wrote in his first letter to the Corinthians Believers under the guidance of the Holy Spirit: “Moreover, brethren, I declare to you the gospel which I preached to you, which also you received and in which you stand, by which also you are saved, if you hold fast that word which I preached to you--unless you believed in vain. For I delivered to you first of all that which I also received: that Christ died for our sins according to the Scriptures, and that He was buried, and that He rose again the third day according to the Scriptures” (1 Corinthians 15:1-4).
These verses make it clear that the core of the gospel of salvation, the coming of the Lord Jesus Christ to earth, His sacrificing Himself for the sins of the entire mankind, His death, burial, and resurrection, none of these things were unforeseen, unexpected, or unplanned. Rather, all these things that happened, they were “according to the Scriptures” - all of them. They had all been written down in the then Scriptures, which is the present day “Old Testament” section of the Bible, these prophesies were fulfilled by the Lord Jesus in in His lifetime.
The first promise of the Saviour was given by God at the same time that Adam and Eve sinned - “And I will put enmity Between you and the woman, And between your seed and her Seed; He shall bruise your head, And you shall bruise His heel” (Genesis 3:15). Generally speaking, in any family, the “seed” or posterity is considered to be from the man; the man is considered to be the one responsible for carrying forward the genealogy of the family. But here, God spoke of “her Seed”, i.e., the woman’s seed, who will crush the head of the serpent, of Satan, and be the saviour of the world. That the Lord Jesus would be born of a woman without her conceiving and giving birth through natural process of conception through man, and then destroy Satan and his works, was the first prophesy of salvation. It was according to this prophesy that at the time of the Lord’s coming to earth, Mary was assured, “Then the angel said to her, "Do not be afraid, Mary, for you have found favor with God. And behold, you will conceive in your womb and bring forth a Son, and shall call His name Jesus. Then Mary said to the angel, "How can this be, since I do not know a man?" And the angel answered and said to her, "The Holy Spirit will come upon you, and the power of the Highest will overshadow you; therefore, also, that Holy One who is to be born will be called the Son of God” (Luke 1:30-31, 34-35).
In the New Testament, in the book of Hebrews, the Lord’s conversation with God the Father, at the time of His coming to earth is given: “Therefore, when He came into the world, He said: "Sacrifice and offering You did not desire, But a body You have prepared for Me. In burnt offerings and sacrifices for sin You had no pleasure. Then I said, 'Behold, I have come-- In the volume of the book it is written of Me-- To do Your will, O God.' "” (Hebrews 10:5-7). These verses too present some very pertinent facts about the Gospel before us -
In accordance with what the Lord God spoke of in Genesis 3:15, about “her seed”, in the womb of the virgin Mary, a human body was prepared, and placed in Mary’s womb by the Holy Spirit; and through that, the Son of God, was “conceived” in a woman, without any man, and was born into this world.
The Lord Jesus’s coming into this world was to fulfill the will of God; i.e., this will or desire was present in God the Father since beforehand. To fulfill this will, God the Son emptied Himself of the glory, honour, and majesty of heaven (Philippians 2:5-8), willingly accepted to come down and be born on earth as the only begotten Son of God.
This had already been written down about the Lord Jesus centuries before His birth.
After His resurrection, during His conversation with two of His disciples, on the way to Emmaus, He reminded them of this, “Then He said to them, "These are the words which I spoke to you while I was still with you, that all things must be fulfilled which were written in the Law of Moses and the Prophets and the Psalms concerning Me."” (Luke 24:44). The apostle Paul, after he was saved and his life was changed, on the basis of the Old Testament “Immediately he preached the Christ in the synagogues, that He is the Son of God. But Saul increased all the more in strength, and confounded the Jews who dwelt in Damascus, proving that this Jesus is the Christ” (Acts 9:20, 22). Similarly, Apollos as well, who had a good knowledge of the Scriptures, “Now a certain Jew named Apollos, born at Alexandria, an eloquent man and mighty in the Scriptures, came to Ephesus. for he vigorously refuted the Jews publicly, showing from the Scriptures that Jesus is the Christ” (Acts 18:24, 28).
Since in the Scriptures, i.e., the Old Testament, detailed knowledge is given about the deliverer, the saviour, and deliverance through him, therefore during the days of the Lord Jesus’s earthly ministry, the people had a strong anticipation that the time to fulfillment is complete, the saviour is about to be born, and they were all waiting for Him. John the Baptist too, begun his ministry with a similar anticipation, and recognized Him when he came to him “The next day John saw Jesus coming toward him, and said, "Behold! The Lamb of God who takes away the sin of the world!” (John 1:29). Andrew, the disciple of John the Baptist, on hearing this from John accepted Christ Jesus and also called his brother, Simon Peter to meet the Lord “He first found his own brother Simon, and said to him, "We have found the Messiah" (which is translated, the Christ)” (John 1:41). Even the general public had a similar anticipation about Him, as the Samaritan woman at the well said to the Lord Jesus “The woman said to Him, "I know that Messiah is coming" (who is called Christ). "When He comes, He will tell us all things. Come, see a Man who told me all things that I ever did. Could this be the Christ?"” (John 4:25, 29).
All of this shows that the news about salvation through the Lord Jesus, the gospel predates the New Testament, is according to the Scriptures, it had been written in the very beginning of the Old Testament, its plan had already been made. But the astounding and wonderful thing is that the way of forgiveness of sins and salvation through the sacrifice of the Lord Jesus Christ had already been established by God even before the creation of the world “He indeed was foreordained before the foundation of the world, but was manifest in these last times for you” (1 Peter 1:20); and the Lord had been sacrificed at the time of creation, “All who dwell on the earth will worship him, whose names have not been written in the Book of Life of the Lamb slain from the foundation of the world” (Revelation 13:8).
In other words, this good news of salvation, this gospel of the forgiveness of sins and salvation through the Lord Jesus was neither an afterthought after man sinned, nor was it thought of and brought about later according to an unexpected situation that happened to come about, nor is it a product of man’s imaginations and thinking. It had been put into place before the creation of the world, and at the time of creation, even before man was created and fell into sin, God had already prepared and put in place the way for deliverance of man from sin. Therefore, it has been called “eternal salvation” (Hebrews 5:9).
These things show to us the importance, perfection, purity, and holiness of the Gospel; they put before us that how even a little tampering with the Gospel, and admixture into it of any kind, anything added to what God has prepared and put in place, will not improve it, but will spoil and corrupt it, and render it ineffective. In the next article we will see how Satan brings in his tricks and devices and seemingly ‘religious’ thoughts, and thereby makes the Gospel ineffective; and then he entangles us in that corrupted, ineffective ‘gospel’ so that we remain in his clutches, while he makes us think and believe that we are ‘saved’ and safe in the hands of God, although we actually are very much in Satan’s hands and going to suffer the same fate that he will.
If you are a Christian Believer, then it is very essential for you to know and learn that you do not get beguiled and misled into wrong teachings and doctrines about the Holy Spirit; neither should you get deceived, nor should anyone else be deceived through you. Take note of the things written in God’s Word, not on things spoken by the people; always cross-check and verify all messages and teachings from the Word of God. If you have already been entangled in wrong teachings, then by cross-checking and verifying them from the Word of God, hold to only that which is the truth, follow it, and reject the rest.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Ezekiel 18-19
James 4