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“बड़े से बड़े वरदानों की धुन में रहो” को समझना – 3
नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासियों के, परमेश्वर द्वारा उन्हें दिए गए प्रावधानों और विशेषाधिकारों का भण्डारी होने का अध्ययन करते हुए, वर्तमान में हम विश्वासियों के पवित्र आत्मा द्वारा उन्हें दिए गए वरदानों का भण्डारी होने के बारे में सीख रहे हैं। ये वरदान विश्वासियों को मसीही जीवन जीने और परमेश्वर द्वारा उन्हें सौंपी गई सेवकाइयों का उचित निर्वाह करने के लिए दिए गए हैं। हम देख चुके हैं कि परमेश्वर द्वारा सौंपी गई सभी सेवकाइयाँ और पवित्र आत्मा के सभी वरदान समान स्तर के ही हैं; कोई भी किसी भी अन्य से ‘छोटा’ नहीं है। परमेश्वर द्वारा दी गई सेवकाइयों और उन से सम्बन्धित पवित्र आत्मा के वरदानों को ‘कमतर’ या ‘बेहतर’ देखना अथवा समझना शैतान की एक ऐसी युक्ति में फँसना है जो परमेश्वर के चरित्र और गुणों पर ही हमला करती है। हम यह भी देख चुके हैं कि परमेश्वर पवित्र आत्मा ही, और केवल वह ही है जो यह निर्धारित करता है कि किसे कौन सा वरदान दिया जाना है। शैतान ने कुछ लोगों के द्वारा 1 कुरिन्थियों 12:31 की गलत व्याख्या और दुरुपयोग करवा के यह प्रचार और शिक्षा फैला रखी है कि ‘बड़े से बड़े’ वरदानों की भी एक श्रेणी है और विश्वासियों को उनकी लालसा करने और उन्हें प्राप्त करने में लगे रहना चाहिए। इसके द्वारा शैतान ने बहुतेरों को उनकी सेवकाई में लगे रहने के स्थान पर, व्यर्थ बातों में लगे रहने में फँसा दिया है। इस पद को उसके सन्दर्भ में देखने के द्वार हमने इस धारणा के गलत होने को समझा था; और हमने यह भी देखा था कि ‘बड़े’ वरदान से तात्पर्य उन वरदानों से है जो कलीसिया या विश्वासियों की मण्डली में सर्वाधिक उपयोग होते हैं, अर्थात, यह पद वास्तव में जो कह रहा है वह है कि विश्वासियों को वह लोग होने की लालसा करनी चाहिए जो कलीसिया और मण्डली के लोगों के मध्य सेवा के लिए सर्वाधिक उपयोग किए जाते हैं। आज हम इसी के बारे में और आगे देखेंगे, और ‘बड़े’ वरदानों की इस समझ की एक और पुष्टि उस के सन्दर्भ से सम्बन्धित एक अन्य पद के द्वारा देखेंगे।
आत्मिक वरदानों के प्रयोग से संबंधित इस अध्याय का एक और महत्वपूर्ण पद है “और परमेश्वर ने कलीसिया में अलग अलग व्यक्ति नियुक्त किए हैं; प्रथम प्रेरित, दूसरे भविष्यद्वक्ता, तीसरे शिक्षक, फिर सामर्थ्य के काम करने वाले, फिर चंगा करने वाले, और उपकार करने वाले, और प्रधान, और नाना प्रकार की भाषा बोलने वाले” (1 कुरिन्थियों 12:28), और यहाँ पर आत्मिक वरदानों का प्रयोग करने वालों को पवित्र आत्मा ने एक क्रम-संख्या के साथ, एक निर्धारित वरीयता-क्रम के अनुसार लिखवाया है। रोचक बात है कि पवित्र आत्मा के नाम से गलत शिक्षाएं देने वालों में सर्वाधिक प्रचलित और माँग किया जाने वाला वरदान - अन्य भाषा बोलना, यहाँ दिए गए क्रम में सबसे अंत में रखा गया है; अर्थात कलीसिया में इस वरदान का तुलनात्मक रीति से स्थान बहुत बाद में, अंत में आता है। यह नहीं कि यह वरदान कम महत्वपूर्ण है या छोटा अथवा गौण है, वरन इसलिए क्योंकि किसी भी स्थानीय मण्डली के कार्यों में इसकी उपयोग किया जाना अन्यों की तुलना में उतना अधिक नहीं है - क्योंकि इसका उपयोग तब ही होगा जब कोई ऐसा परदेशी प्रचारक, जो स्थानीय भाषा नहीं जानता है, आए और वचन की सेवकाई करे; तब ही उस भाषा को जानने वाला अनुवाद करने के लिए उपयोग में आएगा; किन्तु तब उस स्थिति में, जिसके पास उस भाषा का यह वरदान है उसका बहुत महत्व और उपयोगिता होगी। अन्यथा मण्डली के प्रतिदिन के सामान्य कार्यों के लिए इस वरदान की कोई आवश्यकता नहीं है।
इस वरदान से ठीक पहले, अर्थात वरदानों के क्रम में अंत की ओर, एक और ऐसा वरदान है, सामान्यतः मनुष्य जिसकी आज बहुत लालसा रखते हैं, जिसे प्राप्त करना चाहते हैं - “प्रधान” (अँग्रेज़ी में administrations) होना, अर्थात कलीसिया या मण्डली में, कार्यों को नियोजित करने और प्रबंधन करने का स्थान। आज इसे औरों पर अधिकार रखने और अधिकार दिखाने, अपने आप को ऊंचा और दूसरों को नियंत्रित कर सकने वाला दिखाने के लिए प्रयोग किया जाता है। किन्तु उपयोगिता के दृष्टिकोण से इस वरदान की वरीयता भी अन्य की तुलना में अंत की ओर ही है। ऐसा इसलिए क्योंकि उस आरंभिक मसीही मण्डली के समय में लोग प्रभु यीशु मसीह की शिक्षाओं को गंभीरता से लेते और उनका पालन करते थे। प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों से कहा था, “तब उसने बैठकर बारहों को बुलाया, और उन से कहा, यदि कोई बड़ा होना चाहे, तो सब से छोटा और सब का सेवक बने” (मरकुस 9:35)। इसलिए उस पहली कलीसिया के समय में “प्रधान” (या administrator) होने का तात्पर्य था वास्तव में सब से छोटा होना और सब का सेवक होना, जो इस वरदान और कार्य से संबंधित आज के व्यवहार के बिलकुल विपरीत है; इसलिए उस समय इसके लिए कोई होड़ भी नहीं रहती थी।
उपयोगिता के अनुसार दिए गए वरीयता के क्रम के मध्य में “सामर्थ्य के काम करने वाले, फिर चंगा करने वाले, और उपकार करने वाले” दिए गए हैं। किन्तु प्राथमिक स्थान वचन की सेवकाई से संबंधित काम करने वालों का है “प्रथम प्रेरित, दूसरे भविष्यद्वक्ता, तीसरे शिक्षक”; अर्थात, परमेश्वर के दृष्टिकोण से, मण्डली के कार्यों और सेवकाई के लिए, मण्डली की उन्नति के लिए सबसे अधिक उपयोगिता परमेश्वर के वचन की सेवकाई करने वालों, वचन को ठीक से सिखाने और समझाने वालों की है। यह 1 कुरिन्थियों 12:31 के प्रति एक और दृष्टिकोण प्रदान करता है, जिसका बहुधा ‘बड़े से बड़े वरदानों की लालसा करो’ सिखाने के लिए दुरुपयोग किया जाता है। हम पहले देख चुके हैं कि इसका वास्तविक अर्थ है कलीसिया या मण्डली में सर्वाधिक उपयोग होने वाले बनो। अब हम और बेहतर समझ सकते हैं कि ये ‘बड़े से बड़े वरदान’ ‘अन्य भाषा बोलना,’ या ‘आश्चर्यकर्म करना’ नहीं हैं, वरन परमेश्वर के वचन की सेवकाई से सम्बन्धित कार्यों में लगे रहना हैं। इन प्राथमिक महत्व की सेवकाइयों के वरदानों के उचित निर्वाह के लिए व्यक्ति को परमेश्वर के वचन के साथ और प्रार्थना में समय बिताना होता है, न कि दूसरों पर अधिकार जमाने और अधिकार दिखाने में लगे रहना होता है। प्रेरितों 6:1-7 में आरंभिक मण्डली की एक घटना दी गई है, जो मण्डली में विवाद और मतभेद का कारण बन रही थी। किन्तु प्रेरितों ने उसके कारण प्रार्थना और वचन की सेवा करने के महत्व के साथ कोई समझौता नहीं किया; उन्होंने कलीसिया के ‘प्रधान’ होने की ज़िम्मेदारी अपने ऊपर नहीं ले ली, वरन उसे औरों को दे दिया। नि:सन्देह, उन्होंने समस्या को सुलझाने के लिए समाधान बताया, किन्तु अपनी सेवकाई की थोड़े समय के लिए भी अनदेखी नहीं की, जिसके परिणामस्वरूप “परमेश्वर का वचन फैलता गया और यरूशलेम में चेलों की गिनती बहुत बढ़ती गई; और याजकों का एक बड़ा समाज इस मत के आधीन हो गया” (प्रेरितों 6:7)।
यदि आप मसीही विश्वासी हैं तो, आपकी प्राथमिकताएं क्या हैं? क्या परमेश्वर के वचन में दृढ़ और स्थापित होना, उसे दूसरों तक उसके सही स्वरूप में पहुँचाना आपकी इच्छा और प्राथमिकता है, या आप भी दिखने में बहुत प्रभावी किन्तु मण्डली के लिए उपयोगिता में कम वरीयता रखने वाली बातों के पीछे पड़े हैं? अपनी सेवकाई और अपने वरदान को पहचानिए; प्रभु के लिए उपयोगी बनिए।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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English Translation
Understanding Earnestly Desire the “Best Gifts” – 3
In studying are the stewardship of Born-Again Christian Believers towards their God given provisions and privileges, we are presently considering the Believer’s being stewards of the gifts of the Holy Spirit, given to them to live their Christian lives and worthily fulfill their God assigned ministries. We have seen that all the God given ministries and the gifts of the Holy Spirit are equal; none is lesser in any way from another. Looking upon God assigned ministries and their related gifts of the Holy Spirit as ‘lesser’ or ‘better’ than another is to fall into a satanic error that attacks the very characteristics and attributes of God. We have also seen that it is God the Holy Spirit, and He alone, who decides which gifts to give to whom; neither does any one person have every one of the spiritual gifts, nor has one particular gift been given to everyone. Through misinterpretation and misuse of 1 Corinthians 12:31, Satan has made some people preach and teach that there is a category of gifts referred to as ‘best gifts’ and the Believers should be engaged in desiring them and acquiring them. Through this, Satan has deviated many into vain efforts, instead of being engaged in fulfilling their ministries. Through looking at this verse in its context, we seen the fallacy of this notion; and we have seen that the ‘best gifts’ refers to gifts most often utilized in the Church and amongst Believers, therefore, what this verse is actually saying is the Believers should desire to be one of those who are utilized most often in the services and utilities of the Church amongst the congregation. Today we will further look at this and see another confirmation of this meaning of ‘best gifts’ through another contextual verse.
There is another important verse in this chapter, related to the utility and using of the Spiritual gifts: “And God has appointed these in the church: first apostles, second prophets, third teachers, after that miracles, then gifts of healings, helps, administrations, varieties of tongues” (1 Corinthians 12:28). In this verse, the Holy Spirit has sequentially written down the various ministries for utilizing the Spiritual gifts, with a serial number, placing them in a sequential order. It is interesting to note from this list of the Holy Spirit, the most popular gift, and the gift most in demand by those who spread wrong doctrines and false teachings about the Holy Spirit, i.e., speaking in ‘tongues,’ has been placed as the last gift. In other words, in a comparative manner, this gift is of the least utility in the Church. This is not to say that this gift is less important or lesser than the rest, but in order of frequency of its use, in its utility in any Church, it is not used as frequently as the others. This is because this gift will only be used when some outside preacher who does not know the local language comes, and is used for the Word Ministry; it will only be in such a situation that the one who has this gift of that language will be utilized, not otherwise; but then in that particular situation, the one with this gift will be very important and useful. Otherwise, in the day-to-day functioning of the local assembly or Church, this gift of ‘tongues’ has no use.
Another thing to note is that towards the end of this list of Spiritual gifts, as the second-last gift is another Spiritual gift that generally speaking most members of the Church often desire and want to have - the gift of “administrations”; i.e., the position and status in the Church or congregation to decide and manage the Church. Today, this is seen as something that enables a person to have control or authority over others, and is often used to show-off as being superior to others, as one who has charge over others. But from the point of view of utility or frequency of use, the sequential position of this gift is also towards the end, i.e., this Spiritual gift is also one of the least used ones. This is because in those initial Church congregations, the people took the teachings and instructions of the Lord Jesus very seriously, and diligently followed them. Their priority was not “administering” the Church, but preaching the Gospel to the ends of the earth at any cost (Acts 1:8; 8:4; 1 Thessalonians 1:6-10). The Lord Jesus had told His disciples, “And He sat down, called the twelve, and said to them, "If anyone desires to be first, he shall be last of all and servant of all"” (Mark 9:35). Therefore, in those initial Church congregations, to be an “administrator” meant to be least of all and a servant of others; which is absolutely the opposite of what this gift is seen and used as, and therefore so earnestly desired.
In the middle of this verse, in order of utility and use, the gifts mentioned are “miracles, then gifts of healings, helps.” But the first three positions, i.e., the gifts most in use in the Church are those related to the Word Ministry, “first apostles, second prophets, third teachers.” In other words, from God’s perspective, for the work and ministry of the Church, for the growth and benefit of the Church, the most useful, the best ministry is of those who can teach and preach the Word of God to the congregation. This also gives another perspective to 1 Corinthians 12:31, often misused for saying “desire the best gifts.” We have seen earlier that it is meant to say desire to have the gifts for the best utilization in the Church. Now we can better understand what those “best gifts” are - not the ‘speaking in tongues’, or the gift of doing miracles, but the gifts of being engaged in the ministry of God’s Word. To be diligent in ministering these primary gifts requires that a person be continually engaged in studying God’s Word and in prayers, instead of showing off to people and exercising authority over them. In Acts 6:1-7 an incident of the initial Church is recorded, which became a cause for contention in the congregation. But because of that, the Apostles did not compromise on their ministry of prayers and study of God’s Word, did not take up “administration” of the Church, but gave it to others. They did guide and show the way and the solution, but did not neglect their own ministry even for a short while. The result was that “Then the word of God spread, and the number of the disciples multiplied greatly in Jerusalem, and a great many of the priests were obedient to the faith” (Acts 6:7).
If you are a Christian Believer, then what are your priorities? Is being strong and established in the Word of God, taking God’s Word in its true form, with its correct interpretation to others, spreading the Gospel, your desire and priority? Or, you too are desirous of the seemingly impressive Spiritual gifts, that are actually very low down in their utility in the Church? Recognize your ministry and put to use your gift; become useful for the Lord God.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.