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रविवार, 31 अक्तूबर 2021

मसीही विश्वास एवं शिष्यता - 31


मसीही विश्वासी के गुण (7) - प्रभु के समान प्रेम रखता है

सुसमाचारों में दिए गए प्रभु यीशु मसीह के शिष्य के गुणों में से यह सातवाँ गुण है कि मसीही विश्वासी, जैसा प्रभु यीशु ने औरों से रखा वैसे ही वह भी प्रेम रखता है। प्रभु यीशु ने क्रूस पर मारे जाने के लिए अपने पकड़वाए जाने से ठीक पहले, शिष्यों के साथ फसह का भोज खाते हुए, उन शिष्यों से कहा, “मैं तुम्हें एक नई आज्ञा देता हूं, कि एक दूसरे से प्रेम रखो: जैसा मैं ने तुम से प्रेम रखा है, वैसा ही तुम भी एक दूसरे से प्रेम रखो। यदि आपस में प्रेम रखोगे तो इसी से सब जानेंगे, कि तुम मेरे चेले हो” (यूहन्ना 13:34-35)। आगे चलकर प्रेरित यूहन्ना ने पवित्र आत्मा की अगुवाई में अपनी पहली पत्री में लिखा, “जो प्रेम नहीं रखता, वह परमेश्वर को नहीं जानता है, क्योंकि परमेश्वर प्रेम है” (1 यूहन्ना 4:8); “और जो प्रेम परमेश्वर हम से रखता है, उसको हम जान गए, और हमें उस की प्रतीति है; परमेश्वर प्रेम है: जो प्रेम में बना रहता है, वह परमेश्वर में बना रहता है; और परमेश्वर उस में बना रहता है” (1 यूहन्ना 4:16)

प्रभु यीशु मसीह ने न केवल अपने शिष्यों से वरन समस्त संसार के सभी लोगों से निःस्वार्थ, और अपने आप को बलिदान कर देने वाला प्रेम किया। प्रभु ने अपने इस प्रेम का उदाहरण यहूदा इस्करियोती को भी अपने साथ साढ़े तीन वर्ष रखने और उसे वही सब सामर्थ्य एवं अधिकार जो प्रभु ने अन्य शिष्यों को दिए थे देने के द्वारा, तथा क्रूस पर से उन्हें यातना देने वालों को भी क्षमा कर देने (लूका 23:34) के द्वारा दिखाया। अपनी पृथ्वी की संपूर्ण सेवकाई के दौरानकि परमेश्वर ने किस रीति से यीशु नासरी को पवित्र आत्मा और सामर्थ्य से अभिषेक किया: वह भलाई करता, और सब को जो शैतान के सताए हुए थे, अच्छा करता फिरा; क्योंकि परमेश्वर उसके साथ था” (प्रेरितों 10:38)

आज हमारे लिए भी परमेश्वर पिता ने यही निःस्वार्थ प्रेम दिखाया है, “प्रेम इस में नहीं कि हम ने परमेश्वर ने प्रेम किया; पर इस में है, कि उसने हम से प्रेम किया; और हमारे पापों के प्रायश्चित्त के लिये अपने पुत्र को भेजा” (1 यूहन्ना 4:10)। और प्रभु यीशु ने भी यही निःस्वार्थ, बलिदान वाला प्रेम दिखाया हैपरन्तु परमेश्वर हम पर अपने प्रेम की भलाई इस रीति से प्रगट करता है, कि जब हम पापी ही थे तभी मसीह हमारे लिये मरा” (रोमियों 5:8)

प्रभु चाहता है कि उसके शिष्य भी आपस में तथा संसार के लोगों से ऐसा ही प्रेम रखें; यही संसार के सामने उसके शिष्य होने की पहचान होगी:

  • यदि आपस में प्रेम रखोगे तो इसी से सब जानेंगे, कि तुम मेरे चेले हो” (यूहन्ना 13:35)
  • सो मैं जो प्रभु में बन्‍धुआ हूं तुम से बिनती करता हूं, कि जिस बुलाहट से तुम बुलाए गए थे, उसके योग्य चाल चलो। अर्थात सारी दीनता और नम्रता सहित, और धीरज धरकर प्रेम से एक दूसरे की सह लो” (इफिसियों 4:1-2)
  • और यदि किसी को किसी पर दोष देने को कोई कारण हो, तो एक दूसरे की सह लो, और एक दूसरे के अपराध क्षमा करो: जैसे प्रभु ने तुम्हारे अपराध क्षमा किए, वैसे ही तुम भी करो” (कुलुस्सियों 3:13) 

       यह कर पाना तब तक संभव नहीं है जब तक शिष्य छठे गुण की बात, अपने आप का इनकार करना, और पहले गुण की बात, पूर्ण समर्पण और आज्ञाकारिता के साथ प्रभु यीशु के लिए कार्यकारी एवं उपयोगी होने के लिए प्रतिबद्ध न हो। जब तक किसी में भी किसी भी बात के लिए जरा भीअहंहै, तब तक व निःस्वार्थ और बलिदान वाला प्रेम नहीं कर सकता है। 

       किसी भी मनुष्य के लिए, अपनी ही सामर्थ्य और योग्यता से, अथवा इच्छा के द्वारा, प्रभु द्वारा कहे गए सातों गुणों में से एक का भी निर्वाह कर पाना संभव नहीं है। किन्तु हम मसीही विश्वासियों के अंदर निवास करने वाला परमेश्वर पवित्र आत्मा हमें सामर्थ्य देता है, हमारा मार्गदर्शन करता है, कि हम अंश-अंश करके अपने प्रभु यीशु की समानता में ढलते चले जाएं (2 कुरिन्थियों 3:18), उसके समान सोचने, रहने, और व्यवहार करने वाले बनते चले जाएं। संसार के दृष्टिकोण से ये सभी गुण दुर्बलता और असफलता के चिह्न हो सकते हैं, किन्तु प्रभु ने इन्हीं गुणों को पहले जी कर दिखाया, तब ही शिष्यों से करने के लिए कहा; और हम जानते हैं किइस कारण परमेश्वर ने उसको अति महान भी किया, और उसको वह नाम दिया जो सब नामों में श्रेष्ठ है” (फिलिप्पियों 2:9)। आज इन्हीं गुणों के कारण प्रभु यीशु का नाम वह सर्वश्रेष्ठ तथा सर्वोच्च नाम हैकि जो स्वर्ग में और पृथ्वी पर और जो पृथ्वी के नीचे है; वे सब यीशु के नाम पर घुटना टेकें। और परमेश्वर पिता की महिमा के लिये हर एक जीभ अंगीकार कर ले कि यीशु मसीह ही प्रभु है” (फिलिप्पियों 2:10-11) 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।      

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • यिर्मयाह 22-23
  • तीतुस 1

शनिवार, 30 अक्तूबर 2021

मसीही विश्वास एवं शिष्यता - 30


मसीही विश्वासी के गुण (6) - क्रूस उठाकर चलने के लिए तैयार रहता है 

सुसमाचारों में दिए गए प्रभु यीशु मसीह के शिष्य के गुणों में से यह छठा गुण है कि मसीही विश्वासी, प्रभु यीशु के कहे के अनुसार, अपना इनकार करते हुए प्रतिदिन अपना क्रूस उठाकर चलने को तैयार रहता है। प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों से कहा है:

लूका 9:23 उसने सब से कहा, यदि कोई मेरे पीछे आना चाहे, तो अपने आप से इनकार करे और प्रति दिन अपना क्रूस उठाए हुए मेरे पीछे हो ले

       लूका 14:27 और जो कोई अपना क्रूस न उठाए; और मेरे पीछे न आए; वह भी मेरा चेला नहीं हो सकता

       आजक्रूस उठाकर चलनाएक मुहावरा बन कर रह गया है, और इससे उसका महत्व बहुत कम हो गया है। लोग किसी भी व्यक्तिगत कठिनाई, संकट, परेशानी, को अपना क्रूस बताने लगे हैं, और कठिनाइयों को झेलने को क्रूस उठाना कहने लगे हैं। किन्तु इसका वास्तविक और सही तात्पर्य बिल्कुल भिन्न है। वाक्यांशक्रूस उठाकर चलनाके वास्तविक अर्थ को समझने के लिए इसके ऐतिहासिक अभिप्राय एवं प्रयोग को देखना होगा। प्रभु यीशु मसीह की पृथ्वी की सेवकाई के दिनों में क्रूस समाज के सबसे निकृष्ट और जघन्य अपराधियों को एक बहुत क्रूर और पीड़ादायक मृत्यु देने का तरीका था, जिसमें अपराधी बहुत धीरे-धीरे किन्तु अत्यधिक पीड़ा के साथ क्रूस पर टंगे-टंगे मरता था, कई बार उसे मरने में एक दिन से भी अधिक का समय लग जाता। क्रूस पर चढ़ाए जाने से पहले उस अपराधी को कोड़े मारने, पीटने, आदि के द्वारा सैनिक यातनाएं देते थे, फिर उस घायल अवस्था में उसी से उसका काठ का बना भारी क्रूस उठवाकर उसे मारे जाने के सार्वजनिक स्थान पर ले जाते थे, जहाँ पर फिर उसे नंगा कर के उसके हाथों और पैरों को काठ पर ठोक कर, उसे धीरे-धीरे मरने के लिए छोड़ दिया जाता था, और मरने के समय तक उसका उपहास, और उसे यातना देना चलता रहता था। 

इसलिए उस समय के समाज में जब लोग किसी को क्रूस उठाए जाते हुए देखते थे, तो उनके लिए उसमें कुछ बातें निहित और स्पष्ट होती थीं। देखने वाले जानते और समझते थे कि:

  • वह व्यक्ति कोई बहुत जघन्य अपराधी है 
  • उसने कुछ बहुत घृणित और निंदनीय कार्य किए हैं 
  • इस कारण वह निन्दा, उपहास, और मृत्यु दण्ड के योग्य है 
  • जहाँ वह व्यक्ति जा रहा है, वहाँ से अब वह जीवित वापस नहीं आएगा, केवल उसकी लाश ही लाई जाएगी। 

प्रभु यीशु मसीह पर इनमें में से कोई भी बात लागू नहीं होती थी, फिर भी प्रभु ने अपनी ईश्वरीय महिमा, अपने स्वर्गीय वैभव, अपने परमेश्वरत्व के स्तर एवं सम्मान को छोड़ कर, यह सब, मेरे, आपके, और समस्त संसार के सभी लोगों के उद्धार का मार्ग बनाने के लिए, स्वेच्छा से, परमेश्वर पिता की आज्ञाकारिता में (इब्रानियों 10:5-7; यूहन्ना 4:34; 6:38), सहना स्वीकार कर लिया, और सह लिया।

उपरोक्त तथ्यों के आधार पर हम निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि जब प्रभु ने अपने शिष्यों से कहा कि उनके पीछे आने के लिए वे प्रतिदिन अपना क्रूस उठाकर उनके पीछे चलने के लिए तैयार रहें, तो उनका क्या अर्थ रहा होगा। प्रकट है कि प्रभु का अर्थ किसी व्यक्ति के द्वारा अपनी किसी व्यक्तिगत समस्या के लिए कठिनाई अथवा परेशानी का सामना करना नहीं था। स्वाभाविक अर्थ है कि जो भी प्रभु यीशु का शिष्य बनना चाहे, उनका अनुसरण करना चाहे, जैसे परमेश्वर की आज्ञाकारिता में प्रभु ने संसार और समाज से अनुचित और अकारण उपहास, निन्दा और अत्यधिक यातनाएं सहीं, उसी प्रकार वह शिष्य भी, मत्ती 10:16-20 तथा रोमियों 8:17-18 के अनुसार, प्रभु के अनुसरण, परमेश्वर के वचन की आज्ञाकारिता, और सुसमाचार प्रचार  के लिए, प्रतिदिन:

  • अकारण अपमानित होने और निन्दा सहने के लिए तैयार रहे
  • लोगों के हाथों मारे-पीटे, यातनाएं दिए जाने, और दुख उठाने के लिए तैयार रहे 
  • अपने प्राणों तक को बलिदान करने के लिए तैयार रहे (यूहन्ना 16:1-2)

अर्थात, जब प्रभु यीशु का शिष्य प्रभु की सेवकाई के लिए, प्रभु की आज्ञाकारिता में, घर से बाहर निकले तो किसी भी दुर्दशा, अथवा मृतक अवस्था में वापस लौटने के विचार के साथ निकले; और यह उसके लिए एक-दो दिन, अथवा यदा-कदा की नहीं, वरन प्रतिदिन की बात हो। साथ ही उसके अन्दर अपने लिए कोई महत्वाकांक्षा, किसी आदर-सम्मान को पाने, लोगों में कुछ स्तर रखने, अपने आप को किसी योग्य अथवा कुछ समझने की भावना न हो।  

 यदि आप प्रभु यीशु मसीह के शिष्य हैं, तो प्रभु यीशु की शिष्यता की इस कसौटी पर आज अपने आप को कहाँ खड़ा हुआ पाते हैं? क्या आप वास्तव में प्रभु यीशु के पीछे चलने में उसके लिए, उसके वास्तविक अर्थ में, अपना क्रूस उठाने के लिए तैयार हैं; या यह आपके लिए केवल एक वाक्यांश है, जिसका निर्वाह आपको संभव नहीं लगता है? क्या अपने आप को प्रभु यीशु का शिष्य कहना आप के लिए एक औपचारिकता निभाना है, या आप सच्चे मन से उसके समर्पित और आज्ञाकारी शिष्य हैं

और यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • यिर्मयाह 20-21
  • 2 तिमुथियुस

शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2021

मसीही विश्वास एवं शिष्यता - 29


मसीही विश्वासी के गुण (5) - प्रभु के लिए सब कुछ छोड़ने के लिए तैयार होता है 

सुसमाचारों में दिए गए प्रभु यीशु मसीह के शिष्य के गुणों में से यह पाँचवाँ गुण, पहले कहे गए दूसरे गुण के समान, शिष्य, अर्थात मसीही विश्वासी में एक अलगाव की माँग करता है। प्रभु यीशु ने कहा, “इसी रीति से तुम में से जो कोई अपना सब कुछ त्याग न दे, तो वह मेरा चेला नहीं हो सकता” (लूका 14:33)। मसीही विश्वासी का दूसरा गुण पारिवारिक संबंधों में अलगाव की माँग करता है, और यह पाँचवाँ गुण, प्रभु यीशु के पक्ष में शिष्य द्वारा भौतिक, या सांसारिक और नश्वर वस्तुओं से अलगाव से की माँग करता है। इसी गुण के एक दूसरा स्वरूप पर नए नियम में काफी ज़ोर दिया गया है, पत्रियों में उसे बहुधा दोहराया गया है - अपने आप को संसार में परदेशी और यात्री जानकर संसार की बातों के मोह में पड़ने से बचे रहना (इब्रानियों 11:13; 1 पतरस 2:11)। यूहन्ना और याकूब ने तो पवित्र आत्मा की अगुवाई में यहाँ तक लिखा है कि भौतिक या सांसारिक बातों से प्रेम रखना , स्वतः और अनिवार्यतः व्यक्ति में परमेश्वर के प्रति प्रेम न होने का सूचक है, उसको परमेश्वर का बैरी बना देता है; उनके द्वारा लिखे पदों को देखें:

 “तुम न तो संसार से और न संसार में की वस्तुओं से प्रेम रखो: यदि कोई संसार से प्रेम रखता है, तो उस में पिता का प्रेम नहीं है। क्योंकि जो कुछ संसार में है, अर्थात शरीर की अभिलाषा, और आंखों की अभिलाषा और जीविका का घमण्ड, वह पिता की ओर से नहीं, परन्तु संसार ही की ओर से है। और संसार और उस की अभिलाषाएं दोनों मिटते जाते हैं, पर जो परमेश्वर की इच्छा पर चलता है, वह सर्वदा बना रहेगा” (1 यूहन्ना 2:15-17)

हे व्यभिचारिणयों, क्या तुम नहीं जानतीं, कि संसार से मित्रता करनी परमेश्वर से बैर करना है सो जो कोई संसार का मित्र होना चाहता है, वह अपने आप को परमेश्वर का बैरी बनाता है” (याकूब 4:4)

जब प्रभु ने अपने आरंभिक शिष्यों को बुलाया, तो वे अपने व्यवसाय, अपने परिवार आदि को छोड़ कर प्रभु के पीछे हो लिए:वे तुरन्त नाव और अपने पिता को छोड़कर उसके पीछे हो लिए” (मत्ती 4:22); “और व नावों को किनारे पर ले आए और सब कुछ छोड़कर उसके पीछे हो लिए” (लूका 5:11); “वहां से आगे बढ़कर यीशु ने मत्ती नाम एक मनुष्य को महसूल की चौकी पर बैठे देखा, और उस से कहा, मेरे पीछे हो ले। वह उठ कर उसके पीछे हो लिया” (मत्ती 9:9)। जब एक व्यक्ति ने प्रभु से उसका शिष्य बनने की इच्छा व्यक्त की, “जब वे मार्ग में चले जाते थे, तो किसी न उस से कहा, जहां जहां तू जाएगा, मैं तेरे पीछे हो लूंगा। यीशु ने उस से कहा, लोमडिय़ों के भट और आकाश के पक्षियों के बसेरे होते हैं, पर मनुष्य के पुत्र को सिर धरने की भी जगह नहीं” (लूका 9:57-58) - अर्थात प्रभु के पीछे चलने के लिए इस अनिश्चितता को स्वीकार करके चलना होगा कि यह आवश्यक नहीं है कि इस सेवकाई में रहने के लिए स्थान और खाने के लिए भोजन मिलेगा। जब, जो, जैसा मिल जाए, उसे ही स्वीकार करके प्रभु द्वारा दिए गए कार्य में लगे ही रहना है। पौलुस ने तिमुथियुस को लिखा, “पर तू सब बातों में सावधान रह, दुख उठा, सुसमाचार प्रचार का काम कर और अपनी सेवा को पूरा कर” (2 तीमुथियुस 4:5)। लेकिन जो यह सब जानते हुए, इन बातों को स्वीकार करते हुए, प्रभु के पीछे चल निकले थे, अपने उन शिष्यों को प्रभु यीशु ने प्रतिज्ञा दी, “यीशु ने कहा, मैं तुम से सच कहता हूं, कि ऐसा कोई नहीं, जिसने मेरे और सुसमाचार के लिये घर या भाइयों या बहिनों या माता या पिता या लड़के-बालों या खेतों को छोड़ दिया हो। और अब इस समय सौ गुणा न पाए, घरों और भाइयों और बहिनों और माताओं और लड़के-बालों और खेतों को पर उपद्रव के साथ और परलोक में अनन्त जीवन” (मरकुस 10:29-30)

प्रभु यीशु द्वारा दिए गए बीज बोने वाले के दृष्टांत को स्मरण करें (मत्ती 13:3-9)। यहाँ पर तीसरी प्रकार की भूमि, झाड़ियों के स्थान, पर गिरने और उगने वाला बीज वह है जो उगा और बढ़ा, किन्तु संसार की बातों और धन के धोखे ने उसे दबा कर निष्फल कर दियाजो झाड़ियों में बोया गया, यह वह है, जो वचन को सुनता है, पर इस संसार की चिन्ता और धन का धोखा वचन को दबाता है, और वह फल नहीं लाता” (मत्ती 13:22)। जो धनी जवान व्यक्ति (मत्ती 19:16-24) प्रभु के पास अनन्त जीवन का मार्ग प्राप्त करने के लिए आया था, वह निराश और असफल इसलिए लौट गया, क्योंकि वह अपने धन और सांसारिक वस्तुओं से अपने आप को अलग नहीं करने पाया था; वह प्रभु की शिष्यता की यह कीमत नहीं चुकाना चाहता था, और जीवन के जल के सोते के पास आकर भी प्यासा और बिना अनन्त जीवन पाए चला गया। 

यदि आप प्रभु यीशु मसीह के शिष्य हैं, तो क्या आपने अपने आप को भौतिक, नश्वर सांसारिक बातों के मोह से पृथक किया है? इसका यह अभिप्राय नहीं है कि प्रभु के शिष्य को सन्यासी बनकर विरक्ति का जीवन जीना चाहिए। अभिप्राय यह है कि प्रभु का शिष्य अपने जीवन में प्राथमिक स्थान प्रभु और उसके वचन की आज्ञाकारिता को देता है, न कि सांसारिक उपलब्धियों और महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति में लगे रहने को। प्रभु यीशु की शिष्यता की इस कसौटी पर आज अपने आप को कहाँ खड़ा हुआ पाते हैं? क्या अपने आप को प्रभु यीशु का शिष्य कहना आप के लिए एक औपचारिकता निभाना है, या आप सच्चे मन से उसके समर्पित और आज्ञाकारी शिष्य हैं

और यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • यिर्मयाह 18-19
  • 2 तिमुथियुस 3 

गुरुवार, 28 अक्तूबर 2021

मसीही विश्वास एवं शिष्यता - 28

 

मसीही विश्वासी के गुण (4) - प्रभु के लिए फलवंत बहुतायत से होता है 

       सुसमाचारों में, प्रभु द्वारा बताए गए अपने शिष्यों के गुणों में से चौथा है कि वह अपने प्रभु और उद्धारकर्ता, प्रभु यीशु मसीह के लिए फल लाता है, “मेरे पिता की महिमा इसी से होती है, कि तुम बहुत सा फल लाओ, तब ही तुम मेरे चेले ठहरोगे” (यूहन्ना 15:8)। यह पद हमें बताता है कि प्रभु के लिए फल लाना न केवल शिष्य का एक गुण है, वरन फल लाने से परमेश्वर पिता की भी महिमा होती है। किसी भी पौधे या वृक्ष के द्वारा फल लाने का एक ही प्रमुख कारण होता है - उस फल से उसके समान और पौधे या वृक्ष उत्पन्न हों; अर्थात उस प्रजाति का विस्तार हो। वह फल भोजन, या औषधि, या अन्य किसी रूप में भी प्रयोग किया जा सकता है; किन्तु यह सब उसके प्राथमिक उपयोग नहीं हैं। प्राकृतिक रीति से पेड़-पौधे फल अपनी जाति के विस्तार के लिए ही उत्पन्न करते हैं; चाहे उनके फल और किसी काम में आएं या न आएं, और किसी के लिए उपयोगी हों अथवा न हों, चाहे वे फल औरों के लिए लाभदायक हों अथवा कष्टदायक या हानिकारक हों। 

यही अभिप्राय प्रभु द्वारा उसके लिए फलवंत होने के साथ भी संलग्न है - प्रभु के शिष्य प्रभु के लिए और शिष्य बनाएं, जो मत्ती 28:18-20 में शिष्यों को दी गई प्रभु की महान आज्ञा के अनुरूप है। हम जितना अधिक सुसमाचार का प्रचार और प्रसार करेंगे, उतना अधिक प्रभु के लिए फलवंत और परमेश्वर की महिमा का कारण होंगे, जो फिर हमारे लिए आशीष का कारण बनेगा। यहाँ एक बात और ध्यान देने के लिए आवश्यक है, प्रभु ने कहातुम बहुत सा फल लाओ” - प्रभु ने यह नहीं कहा कितुम आत्मा के फल बहुतायत से लाओ” - जो कि सामान्यतः इस पद के साथ समझ लिया जाता है, जबकि प्रभु ने यह नहीं कहा है। शिष्य को अपने जीवन से अपने समान और शिष्य बनाने हैं; अवश्य ही उसके अच्छे, प्रभावी, और आकर्षक मसीही जीवन के लिए उसमें आत्मा के फल और गुण होना अनिवार्य है। किन्तु प्रभु ने औरों के जीवनों में आत्मा के फल उत्पन्न करने के लिए नहीं कहा; जब कोई व्यक्ति प्रभु का शिष्य बन जाएगा, तो उसमें आकर निवास करने वाला पवित्र आत्मा स्वयं उसमें आत्मा के फल उत्पन्न करेगा। कोई मनुष्य अपने अंदर अथवा किसी और में आत्मा के फल उत्पन्न नहीं कर सकता है; आत्मा के फल तो पवित्र आत्मा ही उत्पन्न और विकसित करता है। प्रभु हम से हमारे फल, हमारे द्वारा उसकी शिष्यता में और शिष्यों को लेकर आने के लिए कह रहा है।

साथ ही यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि प्रभु के कहे के अनुसार, जैसे पेड़ की पहचान उसके फलों से होती है, वैसे ही व्यक्ति की पहचान, या शिष्य की पहचान, उसके जीवन के फलों से होती है (मत्ती 7:16, 20)। प्रभु के लिए शिष्य का फलवंत होना प्रभु के प्रति उसके समर्पण, आज्ञाकारिता, प्रेम, और उपयोगिता की पहचान है। प्रभु परमेश्वर फल लाने को बहुत महत्व देता है; प्रभु यीशु ने लूका 13:6-9 में बताए दृष्टांत के द्वारा शिष्यों को समझाया कि जो वृक्ष परमेश्वर के लिए फलवंत नहीं है, उसे फिर उसके दुष्परिणाम भी भुगतने पड़ेंगे। यही बात पुराने नियम में यशायाह 5:1-7 में यहोवा द्वारा लगाई गई दाख की बारी, अर्थात इस्राएल के संदर्भ में भी कही गई है - जब इस्राएल परमेश्वर के लिए फलवंत नहीं हुआ, अच्छे फल नहीं लाया, तो उसे इसके दुष्परिणाम भुगतने पड़े। 

प्रभु यीशु के सच्चे, वास्तविक शिष्य में अपने उद्धारकर्ता प्रभु के लिए उपयोगी होने, उसके आज्ञाकारी होकर, उसके नाम को महिमा देने की लालसा और प्रवृत्ति होती है। प्रभु ने जो वरदान, गुण, और योग्यताएं उसे दी हैं, वह उनका प्रयोग प्रभु के राज्य के विस्तार और विकास के लिए करता है, और अपने लिए आशीष तथा परमेश्वर के लिए महिमा का कारण बनता है। यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो यह जाँचने की बात है कि आप प्रभु के लिए फलवंत हैं कि नहीं; और यदि फलवंत हैं तो आपके फल की मात्रा और गुणवत्ता क्या है? प्रभु परमेश्वर मुझ से और आप से बहुत सा फल लाने की आशा रखता है। क्या हम उसकी शिष्यता की इस कसौटी पर खरे हैं? क्या हम इस पहचान के द्वारा अपने आप को प्रभु के शिष्य कह और बता सकते हैं?

और यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • यिर्मयाह 15-17
  • 2 तिमुथियुस 2

बुधवार, 27 अक्तूबर 2021

मसीही विश्वास एवं शिष्यता - 27


मसीही विश्वासी के गुण (3) - प्रभु के समान होने का प्रयास करता है 

सुसमाचारों में दिए गए वर्णन में से, प्रभु यीशु मसीह के शिष्य का तीसरा गुण है कि उसे अपने उद्धारकर्ता और गुरु, प्रभु यीशु मसीह की समानता में होना है। प्रभु यीशु ने कहा, “चेला अपने गुरु से बड़ा नहीं; और न दास अपने स्वामी से। चेले का गुरु के, और दास का स्वामी के बराबर होना ही बहुत है; जब उन्होंने घर के स्वामी को शैतान कहा तो उसके घर वालों को क्यों न कहेंगे?” (मत्ती 10:24-25)। यह हमारे लिए बहुत विचार और मनन करने की बात है कि परमेश्वर ने व्यवस्था को मूसा के द्वारा लिखवा कर इस्राएलियों के लिए दे दिया, और उन्हें उसका पालन करने के लिए कहा। किन्तु इस अनुग्रह के युग में प्रभु यीशु मसीह ने स्वयं देहधारी वचन बनकर मनुष्यों के मध्य निवास किया (यूहन्ना 1:14) और सजीव उदाहरण के द्वारा जी कर दिखाया, बताया, और सिखाया कि प्रभु यीशु के अनुयायी को कैसा होना है, क्या करना है। मसीही विश्वासी का आदर्श, अनुसरण करने के लिए उसका नमूना स्वयं प्रभु यीशु मसीह है। मसीही विश्वास का जीवन व्यावहारिक जीवन है; संसार के सामने जी कर दिखाया जाता है; धर्म-कर्म-रस्म के निर्वाह और किताबी ज्ञान अर्जित करने का जीवन नहीं है। 

पौलुस ने पवित्र आत्मा की अगुवाई में अपने जीवन के उदाहरण से इस बात को लिखा, कि जैसे वह मसीह का अनुसरण करता था, वैसे ही, उसके समान अन्य लोग भी ऐसा ही करें:

1 कुरिन्थियों 11:1 तुम मेरी सी चाल चलो जैसा मैं मसीह की सी चाल चलता हूं

1 थिस्स्लुनीकियों 4:1-2 निदान, हे भाइयों, हम तुम से बिनती करते हैं, और तुम्हें प्रभु यीशु में समझाते हैं, कि जैसे तुम ने हम से योग्य चाल चलना, और परमेश्वर को प्रसन्न करना सीखा है, और जैसा तुम चलते भी हो, वैसे ही और भी बढ़ते जाओ। क्योंकि तुम जानते हो, कि हम ने प्रभु यीशु की ओर से तुम्हें कौन कौन सी आज्ञा पहुंचाई

पौलुस ने आगे चलकर अपने जीवन के विषय में लिखा:

फिलिप्पियों 1:21 क्योंकि मेरे लिये जीवित रहना मसीह है, और मर जाना लाभ है

गलतियों 2:20 मैं मसीह के साथ क्रूस पर चढ़ाया गया हूं, और अब मैं जीवित न रहा, पर मसीह मुझ में जीवित है: और मैं शरीर में अब जो जीवित हूं तो केवल उस विश्वास से जीवित हूं, जो परमेश्वर के पुत्र पर है, जिसने मुझ से प्रेम किया, और मेरे लिये अपने आप को दे दिया

उसने अपने आप को पूर्णतः मसीह यीशु को समर्पित कर दिया था, और प्रभु यीशु के कहे के अनुसार करता था, उसी के चलाए चलता था, अपने जीवन से उसी को दिखाना, और उसे ही महिमा देना चाहता था। 

मसीही जीवन की परिपक्वता में बढ़ना भी प्रभु यीशु मसीह की समानता में बढ़ते जाना हैपरन्तु जब हम सब के उघाड़े चेहरे से प्रभु का प्रताप इस प्रकार प्रगट होता है, जिस प्रकार दर्पण में, तो प्रभु के द्वारा जो आत्मा है, हम उसी तेजस्वी रूप में अंश अंश कर के बदलते जाते हैं” (2 कुरिन्थियों 3:18)। यह परिवर्तन तब ही संभव है जब हर बात में हर निर्णय से पहले, यह विचार करे किइस बात के लिए, या इस परिस्थिति में, प्रभु यीशु क्या कहता, अथवा क्या करता?” इसीलिए पवित्र आत्मा ने लिखवाया है किइस संसार के सदृश न बनो; परन्तु तुम्हारी बुद्धि के नये हो जाने से तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए, जिस से तुम परमेश्वर की भली, और भावती, और सिद्ध इच्छा अनुभव से मालूम करते रहो” (रोमियों 12:2)। हम मसीही विश्वासियों को अपना हर कार्य, हर निर्णय, सांसारिक बुद्धि अथवा समझ के अनुसार नहीं वरन उस बदली हुई बुद्धि और चाल-चलन के अनुसार करना है।   

यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो यह जाँचने की बात है कि आप का आदर्श, आपके अनुसरण के लिए आपका नमूना कौन है? क्या आप अपने जीवन की हर बात, हर निर्णय में प्रभु यीशु को प्राथमिकता देकर, वैसा ही करने और जीने का प्रयास करते हैं जैसा उस बात, उस निर्णय के लिए प्रभु यीशु करता? प्रभु ने कहा है, शिष्य के लिए अपने गुरु के समान होना ही पर्याप्त है। 

और यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • यिर्मयाह 12-14
  • 2 तिमुथियुस 1    

मंगलवार, 26 अक्तूबर 2021

मसीही विश्वास एवं शिष्यता - 26


मसीही विश्वासी के गुण (2) - प्रभु को प्राथमिक स्थान देता है 

सुसमाचारों में प्रभु यीशु मसीह द्वारा दिए गए मसीही विश्वासी के सात गुणों में से दूसरा गुण है कि वह प्रभु यीशु मसीह को अपने जीवन में प्राथमिक, सबसे उच्च स्थान देता है। प्रभु के शिष्य के लिए पारिवारिक एवं सांसारिक संबंधों से अधिक महत्वपूर्ण प्रभु के साथ उसका संबंध होना चाहिए:

 मत्ती 10:37 जो माता या पिता को मुझ से अधिक प्रिय जानता है, वह मेरे योग्य नहीं और जो बेटा या बेटी को मुझ से अधिक प्रिय जानता है, वह मेरे योग्य नहीं

लूका 14:26 यदि कोई मेरे पास आए, और अपने पिता और माता और पत्नी और लड़के बालों और भाइयों और बहिनों वरन अपने प्राण को भी अप्रिय न जाने, तो वह मेरा चेला नहीं हो सकता

प्रभु ने इसका उदाहरण स्वयं अपने व्यवहार के द्वारा दिखाया; प्रभु के लिए उसके अपने परिवार जनों से अधिक महत्वपूर्ण वे लोग थे जो उसकी बात सुनते और मानते थे:और उस की माता और उसके भाई आए, और बाहर खड़े हो कर उसे बुलवा भेजा। और भीड़ उसके आसपास बैठी थी, और उन्होंने उस से कहा; देख, तेरी माता और तेरे भाई बाहर तुझे ढूंढते हैं। उसने उन्हें उत्तर दिया, कि मेरी माता और मेरे भाई कौन हैं? और उन पर जो उसके आस पास बैठे थे, दृष्टि कर के कहा, देखो, मेरी माता और मेरे भाई यह हैं। क्योंकि जो कोई परमेश्वर की इच्छा पर चले, वही मेरा भाई, और बहिन और माता है” (मरकुस 3:31-35)

किन्तु इसका यह अभिप्राय नहीं है कि मसीही शिष्य को अपनी पारिवारिक जिम्मेदारियों के प्रति उदासीन या लापरवाह होना चाहिए। परमेश्वर के वचन और प्रयोजन में परिवार ही वह इकाई है जिसमें होकर हम परमेश्वर और उसके प्रेम को समझने पाते हैं। परमेश्वर ने हमारे लिए अपने आप को परिवार के सदस्यों, जैसे कि पिता, पुत्र, पति; और अपने लोगों के साथ अपने संबंध तथा उन लोगों के परस्पर संबंधों को भी पारिवारिक संबंधों जैसे कि पुत्र और पुत्रियों, पत्नी, भाई, आदि के द्वारा व्यक्त किया है। वचन परिवार के प्रति व्यक्ति की जिम्मेदारियों को भी सिखाता है:

निर्गमन 20:12 तू अपने पिता और अपनी माता का आदर करना, जिस से जो देश तेरा परमेश्वर यहोवा तुझे देता है उस में तू बहुत दिन तक रहने पाए

लैव्यव्यवस्था 19:3 तुम अपनी अपनी माता और अपने अपने पिता का भय मानना, और मेरे विश्राम दिनों को मानना; मैं तुम्हारा परमेश्वर यहोवा हूं

1 तीमुथियुस 5:8 पर यदि कोई अपनों की और निज कर के अपने घराने की चिन्ता न करे, तो वह विश्वास से मुकर गया है, और अविश्वासी से भी बुरा बन गया है

प्रभु यीशु मसीह ने इस ज़िम्मेदारी को भी क्रूस की वेदना सहते हुए निभाया, जब उन्होंने अपनी माता मरियम की ज़िम्मेदारी अपने शिष्य यूहन्ना को सौंपी:परन्तु यीशु के क्रूस के पास उस की माता और उस की माता की बहिन मरियम, क्‍लोपास की पत्नी, और मरियम मगदलीनी खड़ी थी। यीशु ने अपनी माता और उस चेले को जिस से वह प्रेम रखता था, पास खड़े देखकर अपनी माता से कहा; हे नारी, देख, यह तेरा पुत्र है। तब उस चेले से कहा, यह तेरी माता है, और उसी समय से वह चेला, उसे अपने घर ले गया” (यूहन्ना 19:25-27)

साथ ही हम यह भी देखते हैं कि प्रभु की मण्डली के अगुवों को सबसे पहले परिवार की उचित देखभाल करने वाला होना चाहिए, तब ही वह मण्डली की देखभाल ठीक से कर सकेंगे: 

1 तीमुथियुस 3:4-5 अपने घर का अच्छा प्रबन्‍ध करता हो, और लड़के-बालों को सारी गम्भीरता से आधीन रखता होजब कोई अपने घर ही का प्रबन्‍ध करना न जानता हो, तो परमेश्वर की कलीसिया की रखवाली क्योंकर करेगा?

1 तीमुथियुस 3:12 सेवक एक ही पत्नी के पति हों और लड़के बालों और अपने घरों का अच्छा प्रबन्‍ध करना जानते हों

पारिवारिक संबंधों से बढ़कर प्रभु को प्राथमिकता देने का अर्थ परिवार की अनदेखी करना नहीं है, वरन पारिवारिक जिम्मेदारियों की आड़ लेकर, प्रभु के कार्य की अनदेखी नहीं करना है। हमने मरकुस 3:14-15 में से शिष्य के लिए प्रभु के प्रयोजनों में से दूसरे प्रयोजन में देखा था कि प्रभु के शिष्य को जब और जहाँ प्रभु भेजे, तब और वहाँ जाने के लिए तैयार रहना चाहिए। हम यह भी देख चुके हैं कि प्रभु जब भी किसी व्यक्ति को अपने किसी कार्य के लिए भेजता है, तो उससे संबंधित सारी तैयारियों को पूरा कर लेने के बाद ही ऐसा करता है। इसलिए प्रभु के शिष्य को प्रभु में इस बात के लिए भरोसा रखना चाहिए कि यदि प्रभु उसे कहीं जाने या कुछ करने के लिए कह रहा है, तो प्रभु ने उसके परिवार से संबंधित जिम्मेदारियों के बारे में भी कुछ प्रयोजन कर के रखा होगा, और उस शिष्य की अनुपस्थिति में परिवार को कोई हानि नहीं होगी। साथ ही, शिष्य द्वारा अपने परिवार को प्रभु के हाथों में सौंप कर, प्रभु के कहे के अनुसार करने के लिए जाना, इस बात का अभी सूचक है कि वह शिष्य यह मानता और निभाता है कि उसके परिवार की देखभाल भी प्रभु ही करता है, न कि वह स्वयं; जो कि उसके विश्वास की परिपक्वता का सूचक एवं चिह्न है।

जो प्रभु को महत्व देते हैं, प्रभु उनको भी बहुत महत्व और प्रतिफल देता है:यीशु ने कहा, मैं तुम से सच कहता हूं, कि ऐसा कोई नहीं, जिसने मेरे और सुसमाचार के लिये घर या भाइयों या बहिनों या माता या पिता या लड़के-बालों या खेतों को छोड़ दिया हो। और अब इस समय सौ गुणा न पाए, घरों और भाइयों और बहिनों और माताओं और लड़के-बालों और खेतों को पर उपद्रव के साथ और परलोक में अनन्त जीवन” (मरकुस 10:29-30) 

यदि आप मसीही विश्वासी हैं, अपने आप को प्रभु यीशु मसीह का अनुयायी कहते हैं, तो प्रभु के सच्चे शिष्य की इस दूसरी पहचान की कसौटी पर आप कहाँ खड़े हैं? प्रभु, उसकी आज्ञाकारिता, और उस का वचन आपके जीवन में क्या महत्व रखता है; क्या स्थान पाता है? क्या आपने प्रभु को अपने जीवन में प्राथमिक तथा सर्वोच्च स्थान दिया है? वह राजाओं का राजा, प्रभुओं का प्रभु, सृष्टि का रचयिता एवं स्वामी और सर्वशक्तिमान परमेश्वर है; उसको उसकी महिमा और हस्ती के उपयुक्त स्थान न देना, उसका अपमान करना है। इसलिए यदि आप प्रभु के जन हैं, तो प्रभु को अपने जीवन में उसका सही आदर और स्थान भी प्रदान करें। 

और यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • यिर्मयाह 9-11
  • 1 तिमुथियुस 6

सोमवार, 25 अक्तूबर 2021

मसीही विश्वास एवं शिष्यता - 25


मसीही विश्वासी के गुण (1) - प्रभु के वचनों में बना रहता है 

      पिछले लेखों में हमने मरकुस 3:14-15 से प्रभु के अपने शिष्यों के लिए तीन प्रयोजनों को देखा था, कि शिष्य प्रभु के साथ रहें, और जब तथा जहाँ भी प्रभु उन्हें भेजे, वहाँ जाकर वह प्रचार करें जो प्रभु उन्हें करने को कहे। पहला प्रयोजन प्रभु के साथ रहकर उससे सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए है; दूसरा उसकी आज्ञाकारिता और उसके प्रति समर्पण में होकर, अपनी नहीं वरन उसकी इच्छा पूरी करने से संबंधित है; और तीसरा  प्रयोजन उस अधिकार के बारे में है, जो अपने साथ रहने वाले, और अपने आज्ञाकारी शिष्यों को प्रभु देता है। प्रभु के प्रत्येक शिष्य के जीवन में, उसकी प्रभावी और सफल मसीही सेवकाई के लिए, ये तीनों प्रयोजन बहुत महत्वपूर्ण, वरन अनिवार्य हैं।

इन प्रयोजनों के अतिरिक्त, सुसमाचारों प्रभु ने सात ऐसे गुणों को भी बताया जो उसके शिष्यों में पाए जाने चाहिएं। इन गुणों का होना ही किसी व्यक्ति के इस दावे की पुष्टि करेगा कि वह वास्तव में प्रभु यीशु मसीह का शिष्य है। आज हम इन सात में से पहले गुण के बारे में देखेंगे:

1. शिष्य प्रभु यीशु मसीह के वचनों में बना रहता है: प्रभु के वचन को जानना या पढ़ना, और उस वचन में बने रहना, दो भिन्न बातें हैं। वचन में बने रहने का अर्थ है कि प्रभु यीशु का सच्चा शिष्य केवल उस के वचनों को पढ़ता, और जानता नहीं है, वरन उन्हें सीखता, समझता है, और साथ ही उनका पालन करता है, उन्हें अपने व्यावहारिक जीवन में दिखाता है; तथा औरों को भी प्रभु के वचन के बारे में बताता और सिखाता है। इस संदर्भ में कुछ पदों को देखिए:

यूहन्ना 8:31 तब यीशु ने उन यहूदियों से जिन्होंने उन की प्रतीति की थी, कहा, यदि तुम मेरे वचन में बने रहोगे, तो सचमुच मेरे चेले ठहरोगे

यूहन्ना 14:15 यदि तुम मुझ से प्रेम रखते हो, तो मेरी आज्ञाओं को मानोगे

यूहन्ना 14:21 जिस के पास मेरी आज्ञा है, और वह उन्हें मानता है, वही मुझ से प्रेम रखता है, और जो मुझ से प्रेम रखता है, उस से मेरा पिता प्रेम रखेगा, और मैं उस से प्रेम रखूंगा, और अपने आप को उस पर प्रगट करूंगा

यूहन्ना 14:23 यीशु ने उसको उत्तर दिया, यदि कोई मुझ से प्रेम रखे, तो वह मेरे वचन को मानेगा, और मेरा पिता उस से प्रेम रखेगा, और हम उसके पास आएंगे, और उसके साथ वास करेंगे

इन पदों से यह स्पष्ट है कि स्वयं प्रभु यीशु मसीह के कहे के अनुसार, उनका सच्चा शिष्य वही है जो उनके वचन को अपने जीवन में प्राथमिक स्थान देता है, उन में बना रहता है, और उसकी बातों का पालन करता है। यदि कोई यह कहता है कि वह प्रभु से प्रेम करता है, तो यह भी इसी से प्रमाणित होता है कि वह प्रभु के वचन से कितना प्रेम करता है। यदि व्यक्ति परमेश्वर के वचन बाइबल से प्रेम नहीं करता है, तो प्रभु द्वारा यूहन्ना 14:21, 23 में कहे के अनुसार, उसका प्रभु से प्रेम करने का दावा अस्वीकार्य है।

प्रभु क्यों चाहता है कि उनके शिष्य उसके वचन में बने रहें? क्योंकि यदि शिष्य प्रभु में बना नहीं रहे, तो फिर वह प्रभु के लिए फलवंत, उपयोगी भी नहीं हो सकता है :तुम मुझ में बने रहो, और मैं तुम में: जैसे डाली यदि दाखलता में बनी न रहे, तो अपने आप से नहीं फल सकती, वैसे ही तुम भी यदि मुझ में बने न रहो तो नहीं फल सकते। मैं दाखलता हूं: तुम डालियां हो; जो मुझ में बना रहता है, और मैं उस में, वह बहुत फल फलता है, क्योंकि मुझ से अलग हो कर तुम कुछ भी नहीं कर सकते” (यूहन्ना 15:4-5)। यदि शिष्य प्रभु के लिए फलवंत नहीं है, प्रभु द्वारा अपने शिष्यों को दी गई महान आज्ञा (मत्ती 28:18-20) का पालन नहीं कर रहा है, तो फिर उसकी शिष्यता व्यर्थ है। 

हम कैसे पहचान सकते हैं कि हम प्रभु के वचनों में बने हुए हैं? दो प्रमुख चिह्न हैं जो यह दिखाते हैं कि हम प्रभु के वचन के साथ केवल एक औपचारिकता नहीं निभा रहे हैं, वरन वास्तव में प्रभु के वचन में बने हुए हैं:

पहला चिह्न है, जो प्रभु के वचन में बना रहता है, वह उसका पालन भी करता है, “पर जो कोई उसके वचन पर चले, उस में सचमुच परमेश्वर का प्रेम सिद्ध हुआ है: हमें इसी से मालूम होता है, कि हम उस में हैं” (1 यूहन्ना 2:5); “और जो उस की आज्ञाओं को मानता है, वह उस में, और वह उन में बना रहता है: और इसी से, अर्थात उस आत्मा से जो उसने हमें दिया है, हम जानते हैं, कि वह हम में बना रहता है” (1 यूहन्ना 3:24) 

और दूसरा चिह्न है, कि उस शिष्य का चाल-चलन और व्यवहार प्रभु के समान होता जाता है,  “सो कोई यह कहता है, कि मैं उस में बना रहता हूं, उसे चाहिए कि आप भी वैसा ही चले जैसा वह चलता था” (1 यूहन्ना 2:6); “तुम मेरी सी चाल चलो जैसा मैं मसीह की सी चाल चलता हूं” (1 कुरिन्थियों 11:1)

यदि आप मसीही विश्वासी हैं, अपने आप को प्रभु यीशु मसीह का अनुयायी कहते हैं, तो प्रभु के सच्चे शिष्य की इस पहली पहचान की कसौटी पर आप कहाँ खड़े हैं? प्रभु का वचन आपके जीवन में क्या महत्व रखता है; क्या स्थान पाता है? और यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • यिर्मयाह 6-8     
  • 1 तिमुथियुस 5

रविवार, 24 अक्तूबर 2021

मसीही विश्वास एवं शिष्यता - 24

   

मसीही विश्वासी के प्रयोजन (8) - आश्चर्यकर्मों के लिए अधिकार

      मरकुस 3:14-15 में अपने शिष्यों के लिए प्रभु के तीन प्रयोजनों में से दो को, कि शिष्य प्रभु के साथ रहें, और जब तथा जहाँ भी प्रभु उन्हें भेजे, वहाँ जाकर वह प्रचार करें जो प्रभु उन्हें करने को कहे हम देख चुके हैं। प्रभावी और सफल सेवकाई के लिए ये तीनों प्रयोजन बहुत महत्वपूर्ण, वरन अनिवार्य हैं। पहला प्रयोजन प्रभु के साथ रहकर उससे सामर्थ्य प्राप्त करने के लिए है; दूसरा उसकी आज्ञाकारिता और उसके प्रति समर्पण में होकर, अपनी नहीं वरन उसकी इच्छा पूरी करने से संबंधित है। और आज हम तीसरे प्रयोजन उस अधिकार के बारे में देखेंगे, जो अपने साथ रहने वाले, और अपने आज्ञाकारी शिष्यों को प्रभु देता है। 

तीसरा प्रयोजन हैऔर दुष्टात्माओं के निकालने का अधिकार रखें” (मरकुस 3:15)। प्रभु ने अपने शिष्यों को संसार में अपने प्रतिनिधि होने के लिए बुलाया और चुना था, और प्रभु की पृथ्वी की सेवकाई के पश्चात, उन्हें ही प्रभु के कार्य को आगे बढ़ाना था, सारे संसार में पहुँचाना था। जो संसार के सामने सर्वशक्तिमान परमेश्वर के प्रतिनिधि होंगे, उन प्रतिनिधियों में उन्हें यह अधिकार देने वाले के समान कुछ गुण भी अवश्य होंगे। इसीलिए हम देखते हैं कि प्रभु ने अपने आज्ञाकारी और समर्पित शिष्यों को एक ऐसा अधिकार भी दिया, जो संसार का कोई व्यक्ति, कोई सामर्थ्य उन्हें नहीं दे सकती थी - वे दुष्टात्माओं पर अधिकार रखें। मत्ती यह भी बताता है कि प्रभु ने न केवल दुष्टात्माओं को निकालने का अधिकार दिया, वरन बीमारियों और दुर्बलताओं को दूर करने का भी अधिकार दियाफिर उसने अपने बारह चेलों को पास बुलाकर, उन्हें अशुद्ध आत्माओं पर अधिकार दिया, कि उन्हें निकालें और सब प्रकार की बीमारियों और सब प्रकार की दुर्बलताओं को दूर करें” (मत्ती 10:1)। और जब प्रभु ने उन्हें प्रचार के लिए भेजा, तो उन्होंने यह सब किया भीऔर उन्होंने जा कर प्रचार किया, कि मन फिराओ। और बहुतेरे दुष्टात्माओं को निकाला, और बहुत बीमारों पर तेल मलकर उन्हें चंगा किया” (मरकुस 6:12-13)। किन्तु मरकुस 9:14-29 (तथा मत्ती 17:14-20, और लूका 9:37-42) में एक और घटना भी है जब यही शिष्य एक लड़के में से एक दुष्टात्मा को नहीं निकाल सके। और प्रभु ने उनकी असफलता का कारण उनका अविश्वास और प्रार्थना की कमी को बताया। संभवतः शिष्यों में प्रभु की बजाए अपने आप पर, अपनी सामर्थ्य पर भरोसा आ गया था; वे प्रभु पर विश्वास के साथ नहीं, अपने ऊपर रखे गए विश्वास द्वारा यह करना चाह रहे थे, और जब असफल रहे तो संदेह में भी आ गए। 

प्रभु द्वारा शिष्यों के प्रयोजनों के लिए दिया गया क्रम और अभिप्राय आज भी उतने ही महत्वपूर्ण और कार्यकारी हैं। जो प्रार्थना और वचन के अध्ययन के द्वारा प्रभु के साथ बने रहते हैं; जो प्रभु के आज्ञाकारी रहते हैं, तब ही और वही कहते और करते हैं जब और जो प्रभु कहता है; और हर बात के लिए प्रभु पर निर्भर तथा उस पर विश्वास रखने वाले रहते हैं, वे फिर प्रभु के लिए अपनी सेवकाई के दौरान प्रभु से आश्चर्यकर्म भी करने की सामर्थ्य पाते हैं और उन कार्यों को करते हैं। प्रभु यीशु ने अपनी पृथ्वी की सेवकाई के अंत में, अपने स्वर्गारोहण के समय, शिष्यों को संसार में सुसमाचार प्रचार के लिए जाने से पहले फिर से यह अधिकार दिए थे (मरकुस 16:17-18), किन्तु प्राथमिकता फिर भीविश्वास करनेही की थी - जो विश्वास में स्थिर और दृढ़ होगा, उसी में ये बातें भी कार्यकारी होंगी। 

आज बहुत से लोग प्रभु यीशु के नाम में चमत्कार और अद्भुत कामों के द्वारा लोगों को लुभाने में लगे हुए हैं, और प्रभु ने बता भी दिया था कि ऐसे लोग होंगे, किन्तु प्रभु उन्हें स्वीकार नहीं करेगा; क्योंकि उन्होंने परमेश्वर की आज्ञाकारिता में नहीं, अपनी ही इच्छा में होकर यह सब किया (मत्ती 7:21-23)। अंत के दिनों के लिए, जिनमें हम आज हैं, यह भविष्यवाणी है कि बहुत से लोग चिह्नों और चमत्कारों के द्वारा बहकाए जाएंगे (2 थिस्सलुनीकियों 2:9-12)। साथ ही 2 कुरिन्थियों 11:13-15 में भी चेतावनी दी गई है कि शैतान के दूत प्रभु के लोगों का भेष धरकर और उनके समान बातें करने के द्वारा लोगों को बहका और भटका देते हैं। किन्तु मरकुस 3:14-15 हमें इस धोखे में पड़ने और बहकाए जाने से बचे रहने का तरीका बताता है। जो भी अपने आप को प्रभु का शिष्य, उसका अभिषिक्त कहे, उसके जीवन में उपरोक्त तीनों प्रयोजन उसी क्रम में विद्यमान होने चाहिएं जिसमें प्रभु ने शिष्यों के लिए निर्धारित करे हैं, कहे हैं। यदि ऐसा नहीं है, तो सचेत हो जाने और उस जन को वचन की कसौटी पर बारीकी से परखने की आवश्यकता है।

प्रभु के सच्चे शिष्यों की प्राथमिकता प्रभु के साथ बने रहना और उसकी आज्ञाकारिता में रहना है, न कि चिह्न और चमत्कार दिखाकर लोगों को प्रभावित तथा आकर्षित करने, और उनसे भौतिक लाभ कमाने की प्रवृत्ति रखना। प्रभु ने कभी भी अपने शिष्यों से यह नहीं कहा कि वे इन चिह्नों और चमत्कारों को करने की सामर्थ्य को भौतिक लाभ अर्जित करने का माध्यम बना लें; जो ऐसा करते हैं वे प्रभु की इच्छा का नहीं अपनी इच्छा का पालन करते हैं। इसीलिए प्रभु का निर्देश हैसब बातों को परखो: जो अच्छी है उसे पकड़े रहो” (1 थिस्स्लुनीकियों 5:21)। यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो सचेत होकर, प्रभु के वचन के अनुसार अच्छे से जाँच-परखकर ही इन विलक्षण और अद्भुत लगने वाली बातों और उनके करने वालों पर भरोसा करें। धोखे में पड़ने से स्वयं भी बचें, तथा औरों को भी बचाकर रखें।

जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • यिर्मयाह 3-5     
  • 1 तिमुथियुस 4