यह तर्क भी दिया जाता है कि बाइबल में महिलाओं के प्रचार करने और अधिकार रखने से संबंधित, तथा कुछ और विषय जैसे कि प्रार्थना और आराधना के समय में स्त्रियों का सिर को ढाँपना, पुरुषों को लंबे बाल नहीं रखना, आदि निर्देश केवल उसी समय के लिए दिए गए थे और आज उनका पालन आवश्यक नहीं है। इसलिए आज उन बातों का पालन करने पर ज़ोर देना अव्यावहारिक है, मान्य नहीं है। किन्तु परमेश्वर के वचन बाइबल में हम ऐसी कोई छूट, अनुमति या उदाहरण नहीं पाते हैं। कहीं ऐसा नहीं लिखा है कि ये बातें एक निर्धारित समय के लिए हैं, और न ही कहीं ऐसा लिखा है कि कितने समय के बाद उनका पालन करने की कोई आवश्यकता नहीं रहेगी। वरन परमेश्वर का संपूर्ण वचन सत्य है, और सदा काल के लिए आकाश में स्थापित है (भजन 119:89, 152, 160)। परमेश्वर का वचन, उसका हर भाग, उसके दिए जाने के समय से समय से लेकर जगत के अन्त के समय तक के सभी लोगों के लिए दिया गया है – उनके समय, सभ्यताओं, परिस्थितियों, जीवन-शैलियों, व्यवहारिक उपयोगिता, उनकी आवश्यकताओं, आदि के होनेभिन्न के बावजूद, सभी पर समान रीति से लागू एवं उपयोगी होने के लिए। भिन्न समयों, स्थानों, सभ्यताओं, परिस्थितियों, आदि के लोगों के लिए भिन्न वचन नहीं दिए गए हैं। जैसे कि वही एक प्रभु यीशु मसीह सारे संसार के सभी लोगों के लिए, चाहे वे किसी भी समय, स्थान, और सभ्यता आदि से क्यों न हों, एकमात्र उद्धारकर्ता है; वैसे वही एक वचन सभी पर समान रीति से लागू है, उसी वचन का देहधारी स्वरूप ही तो प्रभु यीशु मसीह है (यूहन्ना 1:14)। और जब प्रभु यीशु मसीह युगानुयुग एक सा है (इब्रानियों 13:8), जब वह परमेश्वर के स्वरूप में होकर कभी नहीं बदलता है (मलाकी 3:6), तो वह वचन के रूप में परिवर्तनीय कैसे हो सकता है? बाइबल में कोई भी परिवर्तन, काट-छाँट करने का, संशोधन या सम्पादन करने का अधिकार किसी भी मनुष्य को कभी भी नहीं दिया गया है। वरन चिताया गया है कि बाइबल की बातों में जोड़ने, या उसमें से कुछ छाँटने वाले के जीवन में यह करने के कारण भारी दुष्प्रभाव आएँगे (प्रकाशितवाक्य 22:18-19)। इसलिए अपने तर्क को सही ठहराने के लिए परमेश्वर के वचन के साथ खिलवाड़ करना, अपने लिए मुसीबतों को दावत देना है। वचन में जो लिखा गया है, हमारे पालन करने के लिए लिखा गया है, न कि उसे बिगाड़ने और अपने स्वार्थ-सिद्धि के लिए उपयोग करने के लिए।
इसी प्रकार का एक अन्य तर्क यह भी दिया जाता है कि ये बातें उस समय की कुछ मंडलियों के लिए थीं, और वे आज की सभी मंडलियों पर लागू करने के लिए नहीं हैं। इस तर्क का एक स्वरूप हम पहले, 1 तिमुथियुस 2:11-12 के इफ़सुस की मण्डली के लिए ही होने, क्योंकि वहाँ पर उनकी देवी डायना का मन्दिर था, के संदर्भ में देख चुके हैं। उससे पहले 1 कुरिन्थियों 14:36-38 से हमने यह भी देखा था कि परमेश्वर पवित्र आत्मा ने पौलुस के द्वारा यह लिखवा दिया था कि प्रभु की सभी मण्डलियों को एक ही वचन, समान निर्देशों का ही पालन करना है। अलग-अलग मण्डलियों के लिए अलग-अलग वचन और निर्देश नहीं हैं। न तो तब थे, और न ही अब हैं; और न ही परमेश्वर के वचन में समय, स्थान, और सभ्यता, या लोगों के व्यवहार, अथवा पसंद-नापसंद के अनुसार कोई संशोधन या परिवर्तन किए गए हैं। वही एक ही वचन, सदा के लिए स्थापित है, सत्य है, अटल है, लागू है। यही वचन, जो परमेश्वर है, हमारे लिए देहधारी होकर प्रकट हुआ (यूहन्ना 1:1-2, 14); इसलिए वचन में काट-छाँट करना, उसे अपनी सुविधा के अनुसार तोड़ना-मरोड़ना, उसका दुरुपयोग करना, स्वयं परमेश्वर के साथ ऐसा करना है। इसलिए ऐसा करने वालों को उस परिणाम के लिए भी तैयार रहना चाहिए जो यह करने के कारण उन्हें भुगतना पड़ेगा।
प्रकट है कि परमेश्वर के वचन को झुठलाने के लिए दिया जाने वाला कोई भी तर्क, विश्लेषण करने पर सही और स्वीकार्य नहीं ठहरता है, यह कदापि प्रमाणित नहीं करता है कि स्त्रियों को कलीसिया में प्रचार करने और पास्टर की ज़िम्मेदारियाँ निभाने की अनुमति है। परमेश्वर का वचन स्पष्ट है कि महिलाओं की अपनी सेवकाई है, और पुरुषों की अपनी, और परमेश्वर ने दोनों को उनकी सेवकाई के अनुसार वरदान दिए हैं। दोनों को ही अपनी-अपनी सेवकाई, निर्धारित सीमाओं में रहते हुए करनी है; अपनी इच्छा के अनुसार सीमाओं का उल्लंघन और दूसरे की सेवकाई में दखल नहीं देना है। अगले लेख से हम बाइबल की स्त्रियों के उदाहरणों का विश्लेषण करना आरंभ करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
- क्रमशः
This argument is also given that the instructions like women are not to preach or have authority over men, and instructions related to other topics like women covering the head during prayer and worship, men not to keep long hair, etc. were meant only for that time period, and have no relevance for today. Therefore, it is impractical and unnecessary to emphasize on following them. But there is no such relaxation, permission, or example given in God’s Word the Bible. Nowhere do we find written that these instructions were only for a limited time period, and neither has it been said after what time there will be no need to follow those instructions. What is said is that the whole of God’s Word is the truth, and is forever settled in heaven (Psalm 119:89, 152, 160). The Word of God, each and every part of it, since the time of its being given, has been given for all people till the end of the world – for uniform application and following by all at all times, by all cultures and civilizations, under all circumstances, by those of all life-styles, no matter the differences between the people. Different Words of God have not been given for use by different people in different times, places, cultures, circumstances etc. Just as one and the same Lord is the one and only Savior for all the people of the world, irrespective of time, place, civilization, etc., similarly one Word of God is universally and uniformly meant for everyone. The Lord Jesus Christ is that Word which became flesh (John 1:14). And, since the Lord Jesus Christ is the same yesterday, today, and forever (Hebrews 13:8), since He being God has never changed (Malachi 3:6), then how can he change as the Word? No man has ever been given the right to cut and trim, edit, or alter the Word of God. Instead, a warning has been given that those who add to or subtract from the Word of God will suffer grave consequences (Revelation 22:18-19). Therefore, to play with the Word of God to justify one’s arguments, is inviting trouble. All that has been written in the Word, has been written for our obedience, not for corrupting it to serve selfish interests.
Another form of this argument is that these instructions were meant of some of the then Churches, not for everyone. We have already seen one form of this argument earlier with 1 Timothy 2:11-12 being for the Ephesian Church, because the temple of their goddess Diana was located there. Prior to that, we had seen from 1 Corinthians 14:36-38 that God the Holy Spirit had it written through Paul that all the Churches of God had the same Word and instructions to obey. Neither then, nor now, different Word and instructions had not been given for different Churches, and neither is God’s Word to be altered, edited, or modified according to times, people, place, cultures, and convenience, or likes and dislikes of anyone. One and the same Word is established forever, is the truth, is unchanging, and forever applicable upon all. This very Word became flesh for us (John 1:14); therefore, to cut and trim that Word, or alter and edit it according to one’s convenience, to misuse it, is to do this to the incarnated Word, i.e., the Lord God Himself. Therefore, those who are desirous of doing this to God’s Word, should also remain ready to bear the consequences of their actions.
So, it is evident that any argument given to falsify God’s Word, on proper evaluation and analysis, does not stand up as truth, is never found acceptable, and never proves that the women have the permission to preach from the pulpit, or to hold the office of pastor in the Churches of the Lord God. God’s Word is very clear, the women have their own ministry, and the men have theirs, and God has given the necessary gifts to both of them according to their ministries. Both have to fulfil their ministries within the limits set up for them by God. They are not to transgress those limits to fulfil their own desires, and are not to interfere in the ministries of one-another. From the next article, we will start considering the examples of the women of the Bible that are used to justify the argument.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
- To Be Continued