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मसीही विश्वास से संबंधित कुछ मूल तथ्य
पिछले लेखों में हम दो महत्वपूर्ण विषयों को देख चुके हैं कि (i) बाइबल को क्यों परमेश्वर का वचन कहा जाता है, तथा (ii) बाइबल के अनुसार पाप और उद्धार तथा इनमें निहित अभिप्राय क्या हैं, और इनसे जुड़ी हुई महत्वपूर्ण बातें क्या हैं। आज से हम इससे आगे का विषय “मसीही विश्वास एवं शिष्यता” को देखना आरंभ करेंगे, जो इन पिछले विषयों पर आधारित होगा तथा उनसे और आगे की बातों को प्रकट करेगा। इस शृंखला में विचार के लिए हम आज बाइबल के अनुसार उद्धार और नया जन्म पाने के लिए मसीही विश्वास से संबंधित कुछ मूल बातों को देखेंगे।
जैसा हम पहले के लेखों में देख चुके हैं, न तो परमेश्वर का कोई धर्म है, न परमेश्वर ने कभी कोई धर्म बनाया, और न ही प्रभु यीशु मसीह ने कभी अपने शिष्यों से उनके नाम पर कोई धर्म प्रतिपादित एवं स्थापित करने, किसी धर्म का प्रचार करने, या लोगों का धर्म परिवर्तन करवाने की कभी कोई शिक्षा अथवा निर्देश दिया। प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों को संसार में इसी निर्देश के साथ भेजा कि वे सारे संसार में जाकर लोगों को इस उद्धार के सुसमाचार के बारे में बताएं, और जो विश्वास करें उन्हें प्रभु यीशु मसीह की शिष्यता में बढ़ाएं, “यीशु ने उन के पास आकर कहा, कि स्वर्ग और पृथ्वी का सारा अधिकार मुझे दिया गया है। इसलिये तुम जा कर सब जातियों के लोगों को चेला बनाओ और उन्हें पिता और पुत्र और पवित्रआत्मा के नाम से बपतिस्मा दो। और उन्हें सब बातें जो मैं ने तुम्हें आज्ञा दी है, मानना सिखाओ: और देखो, मैं जगत के अन्त तक सदैव तुम्हारे संग हूं” (मत्ती 28:18-20)। साथ ही हम यह भी देख चुके हैं कि परमेश्वर ने संसार के सभी मनुष्यों के लिए जो पापों की क्षमा, उद्धार, और नया जन्म प्राप्त करने का प्रावधान किया है, वह न तो किसी धर्म के अंतर्गत किया, न उसे किसी धर्म विशेष से जोड़ा, और न ही उस समाधान में किसी धार्मिक रीति-रिवाज़ अथवा अनुष्ठान के निर्वाह की कोई भी भूमिका अथवा महत्व है, और न ही यह किन्हीं कार्यों अथवा कर्मों के द्वारा संपन्न अथवा लागू होता है। परमेश्वर द्वारा उपलब्ध करवाया गया यह निवारण पूर्णतः परमेश्वर प्रभु यीशु मसीह पर स्वेच्छा तथा पूरे मन से किए गए विश्वास ही पर आधारित है, और बिना किसी भी अन्य मनुष्य के इसमें सम्मिलित हुए अथवा मध्यस्थ हुए, केवल अपने पापों से पश्चाताप करने वाले मनुष्य और प्रभु यीशु मसीह के मध्य संबंध से है। यह सभी के लिए समान रीति से मुफ़्त में उपलब्ध है, वे चाहे किसी भी देश, धर्म, जाति, सामाजिक स्थान और स्तर, समृद्धि, शिक्षा, रंग, लिंग, आदि के क्यों न हो। साथ ही, परमेश्वर का यह प्रावधान वंशागत नहीं है; प्रत्येक मनुष्य को समझ-बूझकर अपने जीवन में इसे कार्यान्वित करने के लिए आप ही इसके विषय निर्णय लेना होता है, तब ही यह उसके जीवन में लागू हो सकता है। इस प्रावधान को उपलब्ध परमेश्वर ने करवाया है, स्वीकार करना अथवा अस्वीकार करना, यह प्रत्येक मनुष्य का अपना निर्णय है; एनी कोई भी व्यक्ति इसे किसी के लिए न तो ले सकता है और न ही कार्यान्वित करवा सकता है।
इसीलिए, परमेश्वर के वचन बाइबल के अनुसार, प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास करना, और उसके साथ संबंध स्थापित कर के उस संबंध का निर्वाह करना, मसीही विश्वास कहलाता है, कोई धर्म नहीं, और न ही कभी यह कोई धर्म था। इस मसीही विश्वास को बिगाड़ कर इसे ‘ईसाई धर्म’ का नाम और रूप देना न तो परमेश्वर की ओर से है, न परमेश्वर ने करवाया, और न परमेश्वर को स्वीकार्य है। बाइबल के अनुसार व्यक्ति चाहे ईसाई धर्म को माने, या किसी अन्य धर्म को, किन्तु जब तक वह नया जन्म लेकर मसीही विश्वासी नहीं बन जाता है, प्रभु यीशु के साथ एक व्यक्तिगत संबंध स्थापित करके प्रभु यीशु का शिष्य नहीं हो जाता है, तब तक वह अपने पापों में ही बिना उनकी क्षमा पाए हुए बना रहता है; और जो बिना पापों की क्षमा प्राप्त किए मरेगा, उसे फिर उन पापों के दण्ड को भोगना होगा, परमेश्वर से दूर नरक में जाना होगा, चाहे वह ईसाई धर्म का मानने वाला और ईसाई धर्म के रीति-रिवाजों, त्यौहारों, अनुष्ठानों का कितनी भी निष्ठा के साथ पालन क्यों न करता रहा हो।
हम कल बाइबल में प्रथम चर्च या कलीसिया, अर्थात आरंभिक मसीही विश्वासियों के समूह या मंडली की गतिविधियों के लेख - नए नियम में प्रेरितों के काम नामक पुस्तक में से मसीही विश्वास को कुछ और विस्तार से देखेंगे और समझेंगे। आप यदि अभी भी अपने धर्म, धार्मिकता, भले कार्यों और नेक कर्मों, आदि के द्वारा परमेश्वर प्रभु यीशु मसीह से उद्धार और पापों की क्षमा के भ्रम में पड़े हुए हैं, तो मेरा आप से विनम्र निवेदन है कि परमेश्वर के वचन से इन बातों से संबंधित तथ्यों का अध्ययन कीजिए, और सही निर्णय कर लीजिए। आप पाप और उद्धार से संबंधित पहले के लेखों का अवलोकन करने के द्वारा भी इस विषय का अध्ययन कर सकते हैं। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपनी ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
- Nehemiah 12-13
- Acts 4:23-37
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Christian Faith - Some Basic Facts
In the previous articles, we have seen about two important topics related to the Christian Faith, (i) Why Bible is the Word of God, and (ii) What, according to the Bible, are sin and salvation; and have considered the important things related to them, and their implications. From today, we will be starting the next topic, “Christian Faith and Discipleship,” which builds further upon these topics. In this new series, today we will look at some basic facts about salvation, being Born-Again, related to the Christian Faith.
As we have seen in the earlier articles, God does not have a religion, nor did He ever make any religion, and nor did the Lord Jesus ever ask His disciples to start and establish any religion in His name, or preach about a religion, and neither did the Lord ever give any teaching or instructions to do any religious conversions amongst the people of the world. The Lord Jesus sent out His disciples into the world to tell the people of the world about the gospel of salvation, and those who believe, to nurture them as disciples of the Lord, “And Jesus came and spoke to them, saying, "All authority has been given to Me in heaven and on earth. Go therefore and make disciples of all the nations, baptizing them in the name of the Father and of the Son and of the Holy Spirit, teaching them to observe all things that I have commanded you; and lo, I am with you always, even to the end of the age." Amen” (Matthew 28:18-20). We have also seen that the provision that God has prepared and made available to mankind as remedy for the problem of sin, was neither done under any religion, nor did God associate it with any religion, nor is there any role or importance of any religious rituals, rites, and ceremonies, and neither is it achieved or implemented through any works or particular deeds. This provision made available by God is completely dependent upon a voluntary full-hearted acceptance of faith in the Lord Jesus Christ, the repentance of sins and asking for the Lord’s forgiveness for them without the inclusion or mediation of any other person between the Lord Jesus and the person accepting the Lord Jesus as Saviour. It is available to everyone, all over the world, free of any cost; their nationality, religion, caste, social status, prosperity, education, skin color, gender, etc. have no role, whatsoever, in their being saved by faith in the Lord Jesus. Also, God’s this provision is not hereditary or inherited; every person has to take a considered decision about this in his life for himself, only then does it become applicable and effective in his life. Although this provision has been made available by God, but to accept it or reject it is every person’s personal decision; no one else can take the decision or make it applicable for anyone else.
Therefore, according to God’s Word the Bible, believing on the Lord Jesus, establishing a relationship of faith with Him, and then living out that relationship of faith is what is known as the Christian Faith, it is not a religion and it never was a religion. Corrupting this Christian Faith and giving it the form and name of “Christian Religion” is not from God, neither has God got it done, nor is it acceptable to Him. According to the Bible, whether a person follows the Christian religion or any other religion, unless he is Born-Again and becomes a Christian Believer, unless he has come into a personal relationship with Lord Jesus Christ and has become His disciple, he is still continuing in his sins without their being forgiven; and all those who die without having received the forgiveness of their sins, will then have to suffer the punishment of their sins of being eternally separated from God in hell, even though he may be a staunch follower of the Christian religion, and may have been fulfilling all the rites, rituals, and ceremonies, and have been very diligently observing all the feasts and festivals traditionally associated with this religion.
In the next article, we will see in some detail the activities and beliefs of the initial Christian Believers, i.e., the First Church, as given in the Book of Acts, and understand this further. If you are still living in the deception of being righteous in God’s eyes through your religion, good works, self-righteousness etc. instead of the righteousness of repentance of sins and faith in the Lord Jesus, then it is my humble request that you please study about these things from God’s Word the Bible, and come to a correct decision. You can also do this by going through the previous articles on Sin and Salvation.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Nehemiah 12-13
Acts 4:23-37