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गुरुवार, 2 जून 2022

बाइबल, पाप और उद्धार / The Bible, Sin, and Salvation – 20


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पाप का समाधान - उद्धार - 16


    हम देखते आ रहे हैं कि मनुष्य के पाप में पड़ने के कारण उत्पन्न हुई बातों के समाधान के लिए जिस मनुष्य की आवश्यकता थी, उस में निम्नलिखित बातों का होना अनिवार्य था:

  • वह एक पाप के दोष और पाप करने के प्रवृत्ति से रहित मनुष्य हो; 

  • वह अपना जीवन और सभी कार्य परमेश्वर की इच्छा और आज्ञाकारिता में होकर, उसे समर्पित रहकर करे। वह सदा ही परमेश्वर पर अपना पूरा भरोसा बनाए रखे, उस की किसी भी बात पर कोई संदेह न करे, उसकी आज्ञाकारिता के लिए कोई आनाकानी न करे;  

  • वह पृथ्वी के किसी भी अन्य साधारण और सामान्य मनुष्य के समान सभी परिस्थितियों और बातों के अनुभव में से होकर निकले, किन्तु फिर भी वह अपने जीवन भर, अपने  मन-ध्यान-विचार-व्यवहार में पूर्णतः निष्पाप, निष्कलंक, और पवित्र रहा हो;

  • वह स्वेच्छा से सभी मनुष्यों के पापों को अपने ऊपर लेने और उनके दण्ड - मृत्यु को सहने के लिए तैयार हो; 

  • वह मृत्यु से वापस लौटने की सामर्थ्य रखता हो; मृत्यु उस पर जयवंत नहीं होने पाए;

  • वह अपने इस महान बलिदान के प्रतिफलों को सभी मनुष्यों को सेंत-मेंत देने के लिए तैयार हो; 

    हमने देखा कि प्रभु यीशु मसीह के जीवन में इस सूची की पहली तीन बातें सटीक पूरी होती हैं। आज हम चौथी बात, उसके स्वेच्छा से अपना बलिदान देने के बारे में देखते हैं। 

    उत्पत्ति 3 अध्याय में दिए गए प्रथम पाप के संसार में प्रवेश और कार्यान्वित होने के समय के विवरण में हम आदम द्वारा परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता करके, उस वर्जित फल को खा लेने और पाप करने के बारे में लिखा पाता हैं: “सो जब स्त्री ने देखा कि उस वृक्ष का फल खाने में अच्छा, और देखने में मनभाऊ, और बुद्धि देने के लिये चाहने योग्य भी है, तब उसने उस में से तोड़कर खाया; और अपने पति को भी दिया, और उसने भी खाया” (उत्पत्ति 3:6)। दिए गए क्रम के अनुसार, शैतान की बातों के प्रभाव में आकर, उस फल से आकर्षित होकर, पहले स्त्री ने अनाज्ञाकारिता की - फल को तोड़कर खाया, और फिर अपने पति, आदम, को भी दिया। हव्वा शैतान की बातों से प्रभावित हो गई और लालच में पड़ गई, उस वर्जित फल के ओर आकर्षित हो गई। पहले उसने अनाज्ञाकारिता की, फल को पहले उसने खाया, और उसके बाद उसने अपने पति आदम को खाने के लिए दिया। उत्पत्ति 3:6 के इस वृतांत की घटनाओं के क्रम से प्रकट है कि शैतान ने आदम को प्रभावित नहीं किया था; केवल हव्वा को ही किया था। हव्वा ने अपनी बुद्धि, समझ, और आँकलन के अनुसार, पहले अपने मन में पाप करने का निर्णय लिया, और फिर अपने उस निर्णय को शरीर में कार्यान्वित भी किया। पहले स्वयं पाप कर लेने के बाद, उसने आदम को भी यही करने के लिए कहा। पौलुस इस बात का कि पहले हव्वा बहकाई गई थी, हवाला तिमुथियुस और कुरिन्थियों को लिखी अपनी पत्रियों में देता है (1 तिमुथियुस 2:14; 2 कुरिन्थियों 11:3)।

    आदम के पास यह अवसर था कि वह परमेश्वर की आज्ञाकारिता में बना रहता, स्त्री के समान फल को न खाता, और न केवल उसके निर्णय से अपने आप को अलग रखता, वरन उसे उसके पाप में गिरने के बारे में और परमेश्वर से इसके लिए सहायता माँगने के बारे में सिखाता। किन्तु उसने ऐसा नहीं किया। यद्यपि आदम बहकाया नहीं गया था; किन्तु उसने भी अपनी स्वेच्छा के अंतर्गत, स्त्री के समान उसने भी पहले अपने मन में परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता करने, और पाप करने का निर्णय लिया, और फिर उसे शारीरिक रीति से कार्यान्वित कर लिया। यह हमारे समक्ष एक बहुत महत्वपूर्ण बात को लेकर आता है - हव्वा धोखे में आ गई, प्रभावित की गई, और पाप करने के लिए लालच में फंसा ली गई। लेकिन आदम ने, जो बहुत अच्छे से जानता था कि परमेश्वर ने उससे इस बारे में क्या कहा है, स्वेच्छा से और जान-बूझकर, अपने इस निर्णय के परिणामों से भली-भांति अवगत होने के बावजूद, पाप में गिरे हुए एक अन्य मनुष्य अर्थात हव्वा की बात का पालन करने और परमेश्वर की अनाज्ञाकारिता करने को ठान लिया, और कर भी लिया। इसलिए, आदम का पाप और अधिक गंभीर था, और आदम द्वारा की गई इन बातों को पलटने के द्वारा ही पाप का समाधान किया जा सकता था.  

    अब पाप के लिए प्रायश्चित, और पाप के परिणामों के समाधान को उपलब्ध करवाने वाले मनुष्य के लिए भी यही बात आवश्यक थी कि वह आदम द्वारा किए गए कार्य को उल्ट दे; अर्थात उसे स्वेच्छा से पाप के निवारण से संबंधित सभी बातों का अपने निर्णय के अनुसार परमेश्वर के पक्ष में होकर पालन करना था। अर्थात, उसे इस प्रक्रिया में निहित परेशानियों, अपमान, तिरस्कार, कष्टों और यातनाओं, और अन्ततः एक भयानक मृत्यु को भली-भांति जानते-बूझते हुए भी, जो शैतान और संसार के लोग उस पर लाएँगे, स्वेच्छा से उन सभी को स्वीकार करने और सहने के लिए तैयार होना था; उसे इस बात के लिए भी तैयार होना था लोगों से परमेश्वर की इच्छा और निर्देशों का पालन करने के लिए आग्रह करे, उन्हें परमेश्वर को समर्पित जीवन जीने, और जब कभी भी परमेश्वर की सहायता की आवश्यकता हो तो परमेश्वर को पुकारने के लिए सिखाए और तैयार करे; और, इन सभी में होकर निकलने में भी अपने पवित्र, सिद्ध, निष्पाप, निष्कलंक अस्तित्व को बनाए रखने वाला हो।

    हम पिछले लेख में देख चुके हैं कि इब्रानियों 10:7 और फिलिप्पियों 2:6 में प्रभु यीशु के संसार में आते समय किए गए निर्णय के बारे में लिखा है, कि वह स्वेच्छा से परमेश्वर द्वारा पहले से लिख दी गई बातों की पूर्ति के लिए इस संसार में मानव-देहधारी होकर आ गया। आते समय उसने अपने ईश्वरत्व को छोड़ कर मानव रूप में अपने आप को ईश्वरत्व की सभी महिमा और आदर से शून्य कर लिया। वह एक पूर्णतः आज्ञाकारी दीन और नम्र दास का स्वरूप धरण कर के पृथ्वी पर आया, और प्रभु पृथ्वी पर इसी स्वरूप में रहा और कार्य किया।

    जब उसने अपने शिष्यों से अपने आने वाले बलिदान और कष्ट के बारे में बात की, तो उसके शिष्य पतरस ने, प्रभु के प्रति अपने प्रेम के अंतर्गत, प्रभु को ऐसा करने से रोकना चाहा, किन्तु प्रभु ने उसे तुरंत ही झिड़क दिया: “उस समय से यीशु अपने चेलों को बताने लगा, कि मुझे अवश्य है, कि यरूशलेम को जाऊं, और पुरनियों और महायाजकों और शास्त्रियों के हाथ से बहुत दुख उठाऊं; और मार डाला जाऊं; और तीसरे दिन जी उठूं। इस पर पतरस उसे अलग ले जा कर झिड़कने लगा कि हे प्रभु, परमेश्वर न करे; तुझ पर ऐसा कभी न होगा। उसने फिरकर पतरस से कहा, हे शैतान, मेरे सामने से दूर हो: तू मेरे लिये ठोकर का कारण है; क्योंकि तू परमेश्वर की बातें नहीं, पर मनुष्यों की बातों पर मन लगाता है” (मत्ती 16:21-23)।  यहाँ 21 पद में प्रभु की कही बात पर ध्यान कीजिए “मुझे अवश्य है, कि यरूशलेम को जाऊं, और पुरनियों और महायाजकों और शास्त्रियों के हाथ से बहुत दुख उठाऊं; और मार डाला जाऊं; और तीसरे दिन जी उठूं।” उसका यह सब बातों को सहने के लिए यरूशलेम को जाना, उसका अपना निर्णय था; वह स्वयं, या पतरस के कहने पर, इस निर्णय से हट सकता था, किन्तु उसने ऐसा नहीं किया। वरन, उसे इस निर्णय से हटाने का प्रयास करने वाले पतरस को ही “शैतान” कहकर झिड़क दिया, और उसे परमेश्वर की आज्ञाकारिता में बाधा होने की उलाहना दी। 

    यही एकमात्र समय नहीं था, जब प्रभु यीशु ने अपने यरूशलेम जाने, और वहाँ पर यातनाएं देने तथा मारे जाने के लिए पकड़वाए जाने की बात अपने शिष्यों से कही। उसने अन्य अनेकों अवसरों पर भी उनके सामने इसी बात को रखा (मत्ती 17:21-22; 20:17-19; मरकुस 9:30-32; लूका 9:22, 44; 18:31-33; आदि)। अर्थात प्रभु के लिए यरूशलेम जाकर अपने आप को मारे जाने के लिए पकड़वाया जाना, कोई अनपेक्षित या अनायास घटने वाली बात नहीं थी। वह इससे भली-भांति परिचित था, फिर भी उन्होंने यह किया, स्वेच्छा से किया, परमेश्वर की इच्छानुसार ऐसा किया।  

    जब समय आया, और यहूदा इस्करियोती प्रभु को पकड़वाने के लिए जाने के लिए फसह के भोज से जाने को तैयार हो रहा था, तब भी प्रभु ने उसे रोका नहीं, वरन उसे जा लेने दिया “और टुकड़ा लेते ही शैतान उस में समा गया: तब यीशु ने उस से कहा, जो तू करता है, तुरन्त कर” (यूहन्ना 13:27)।

    जब उसे पकड़ने और यातनाएं देने के बाद, क्रूस पर चढ़ाए जाने के लिए ले जाया जा रहा था, तब उसके हाल देखकर कुछ स्त्रियाँ विलाप करने लगीं, तो प्रभु ने उन्हें उसके लिए विलाप करने से मना किया “और लोगों की बड़ी भीड़ उसके पीछे हो ली: और बहुत सी स्त्रियां भी, जो उसके लिये छाती-पीटती और विलाप करती थीं। यीशु ने उन की ओर फिरकर कहा; हे यरूशलेम की पुत्रियों, मेरे लिये मत रोओ; परन्तु अपने और अपने बालकों के लिये रोओ” (लूका 23:27-28)। प्रभु को अपने नहीं, उन पर शीघ्र ही आने वाले दुख की चिंता थी। 

    कुल मिलाकर, परमेश्वर का वचन बाइबल यह स्पष्ट दिखाती है कि प्रभु यीशु ने स्वेच्छा से अपने आप को मारे जाने के लिए दे दिया। वह पापी मनुष्यों के बदले में उनके मृत्यु दण्ड को सहने के लिए तैयार था। उसने यह इसलिए स्वीकार किया ताकि मुझे और आपको अनन्त जीवन की आशीष दे सके - यदि मैं और आप उसके इस बलिदान पर विश्वास लाएं, उसे अपना प्रभु स्वीकार करें, और स्वेच्छा तथा सच्चे मन से अपना जीवन उसे समर्पित कर के, उसके शिष्य बन जाएं।

    यदि आप ने अभी भी उद्धार नहीं पाया है, अपने पापों के लिए प्रभु यीशु से क्षमा नहीं मांगी है, तो अभी आपके पास अवसर है। स्वेच्छा से, सच्चे और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे पश्चाताप के साथ एक छोटी प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।” आपका सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को स्वर्गीय जीवन बना देगा।

 

एक साल में बाइबल: 

  • 2 इतिहास 17-18

  • यूहन्ना 13:1-20

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English Translation

The Solution for Sin - Salvation - 16


We have seen in the previous articles that the man God required to atone for and provide the solution to the problem of sin should have the following characteristics:

  • He should be without any guilt of sin, devoid of the sin nature or the tendency to sin found in all human beings.

  • He should do all things in his life according to the will of God and in obedience to God, living a life of submission to God. He must always have full faith in God, never doubt anything God says, and never be reluctant to obey God for anything.

  • He should pass through all the situations and circumstances that any average normal human being on earth passes through; but yet throughout his life, in all his thoughts, attitudes, behavior, and actions should remain totally sinless, spotless, and holy.

  • He should voluntarily be willing to take upon himself all the sins of entire mankind, and be willing to suffer their punishment, i.e., death in the place of all of mankind.

  • He should have the power to overcome death and to return back to life from death; death should not have any hold on him.

  • He should be voluntarily and freely willing to share the benefits of his great sacrifice with mankind.

    We have also seen that in the life of the Lord Jesus Christ, the first three characteristics of the above list are fulfilled. Today we will look at the 4th characteristic, that is about His voluntarily taking the sins of mankind upon Himself and sacrificing Himself for mankind.


    In chapter 3 of Genesis, we find the account of how sin entered into the world and affected the whole of creation. This happened because of the disobedience of Adam and Eve, in eating the forbidden fruit, “So when the woman saw that the tree was good for food, that it was pleasant to the eyes, and a tree desirable to make one wise, she took of its fruit and ate. She also gave to her husband with her, and he ate'' (Genesis 3:6). Going by the serial order of the events given in this account, we see that it was Eve, who was influenced and enticed by Satan’s talk, was attracted to the forbidden fruit. It was she who first disobeyed, first ate the fruit, and then she gave it to her husband Adam to eat. From this description given in Genesis 3:6, it is evident that Satan had not influenced Adam to sin; he had only influenced Eve. It was Eve who, based on her own wisdom, understanding, and assessment, first decided in her mind to disobey God, commit the sin, and then went ahead to do accordingly, i.e., she then committed it physically as well. After doing so, she then asked Adam to do the same as well. Paul gives a reference to this incident of Eve being deceived, in his letters to Timothy and to the Corinthian Church (1 Timothy 2:14; 2 Corinthians 11:3).

    Adam had the opportunity to remain obedient to God, not eat the forbidden fruit, and not only keep himself separate from Eve’s decision, but also to educate her about her fallen state and ask her to seek God’s help for the remedy.  But he did not do so. Although Adam was not deceived by Satan; but of his own free will, like Eve, he too first mentally decided to disobey God and commit sin, and then he too, like Eve, acted upon his decision and physically committed the sin. This brings us to a very important point - Eve was deceived, influenced, and enticed to sin by Satan. But Adam, knowing fully well what God had said to him, voluntarily and volitionally decided to disobey God, and obey another human being already fallen into sin i.e., Eve, and committed the sin by his own choice, knowing fully well the consequences that would follow. Therefore, it was Adam’s sin that was more serious, and it was through the reversal of what Adam had done that the remedy for sin could be brought about.


    Therefore, now for the one who was going to provide the atonement, the solution to the effects of sin, it was necessary that he act in a reverse manner to what Adam had done; i.e., he had to voluntarily do everything in accordance with God’s will, instead of doing against what God had said. He should voluntarily, being well aware of all the consequences of his action, be willing to fulfill all things stated by God for the solution for sin. This meant that knowing very well the inherent serious problems, insults, rejections, sufferings, and torture culminating in a terrible death that would come his way from Satan and the people of the world, he would still be willing to undergo all of this volitionally; he would be willing and committed to urge people to obey God’s instructions and will, submit to Him, and seek God’s remedy as and when it was required for them to do so; and while passing through all of this he should remain holy, perfect, sinless, and blameless, on all accounts, throughout.


    We have seen in the previous article that in Hebrews 10:7 and Philippians 2:6 it is written about the decision the Lord Jesus made at the time of coming into the world, that He had decided to come into the world in human form to fulfill all things that God had written in the Scriptures beforehand. On coming to earth in His human form, He emptied himself of all his glory, heavenly status, and honor as God, and came to earth as a common man. He remained and ministered as a humble, fully obedient servant of God while on earth, throughout His ministry.


    When He spoke with his disciples about his coming sacrifice and sufferings then one of his disciples Peter, because of his love for the Lord, tried to stop the Lord from doing this, but the Lord immediately rebuked him “From that time Jesus began to show to His disciples that He must go to Jerusalem, and suffer many things from the elders and chief priests and scribes, and be killed, and be raised the third day. Then Peter took Him aside and began to rebuke Him, saying, "Far be it from You, Lord; this shall not happen to You!" But He turned and said to Peter, "Get behind Me, Satan! You are an offense to Me, for you are not mindful of the things of God, but the things of men."” (Mathew 16:21-23). Here take note of what the Lord says to Peter in verse 21 “From that time Jesus began to show to His disciples that He must go to Jerusalem, and suffer many things from the elders and chief priests and scribes, and be killed, and be raised the third day.” His going to Jerusalem to suffer all of this was His own decision. He had the opportunity to alter His decision, either Himself or because of Peter’s urging Him; but He did not do so. Instead, He immediately turned down Peter’s attempt to dissuade Him from doing this, and even addressed Peter as ‘Satan’, since, in suggesting this Peter was coming in the way of His being obedient to God.


    This wasn't the only occasion when the Lord Jesus had talked with His disciples about his going to Jerusalem, being caught over there to be tortured and then killed. He had put this before His disciples on many other occasions as well (Matthew 17:21-22; 20:17-19; Mark 9:30-32; Luke 9:22, 44; 18:31-33; etc.). The meaning is quite evident, that the Lord's going to Jerusalem and allowing himself to be caught was not something unexpected or unforeseen. He was very well aware of it all, and yet He allowed it voluntarily in the will of God.


    When the time came, and Judas Iscariot was getting ready to leave the Passover feast to go and make arrangements for the Lord Jesus to be caught, the Lord Jesus neither prevented, nor stopped Judas from doing so rather urged him go and do what he wanted to do “Now after the piece of bread, Satan entered him. Then Jesus said to him, "What you do, do quickly."” (John 13:27). 


    After being caught and tortured when He was being taken to be crucified, some women looking at his condition started to weep and lament; the Lord ask them not to weep for him “And a great multitude of the people followed Him, and women who also mourned and lamented Him. But Jesus, turning to them, said, "Daughters of Jerusalem, do not weep for Me, but weep for yourselves and for your children”” (Luke 23:27-28). Even at that time the Lord was more worried about the torment that was going to come upon them in the near future; than He was of his own condition.


    Overall, the Bible, the Word of God very clearly shows that the Lord Jesus gave himself up voluntarily to be sacrificed. He was willing to suffer the death penalty in lieu of the sinful and sinning mankind. He agreed to suffer all of this so that you and I could have the blessing of eternal life - provided you and I believe in His sacrifice, accept him as our Lord, and voluntarily with a sincere heart submit our lives to Him, to become His obedient disciples.


    If you are still not Born Again, have not obtained salvation, have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heart-felt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company, wants to see you blessed; but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours. 

 

 

Through the Bible in a Year: 

  • 2 Chronicles 17-18

  • John 13:1-20