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फसह तथा प्रभु की मेज़ - प्रभु परमेश्वर को आदर और महिमा देने के लिए
निर्गमन 12 में प्रभु भोज के प्ररूप, फसह, से संबंधित बातों और परमेश्वर के निर्देशों के द्वारा प्रभु की मेज़ में भाग लेने के संबंध में सीखते हुए, हमने पिछले लेख से अपने तीसरे खण्ड, पद 40-49 के बारे में देखना आरंभ किया है। पिछले लेख में हमने पद 40-41 से देखा है कि परमेश्वर अपनी ही समय-सारणी के अनुसार कार्य करता है, और वह जो निर्धारित कर देता है, उसे कोई नहीं बदल सकता है। साथ ही हमने यह भी देखा था कि परमेश्वर के बच्चों को चाहे जिस भी परिस्थिति से होकर निकलना पड़े, चाहे बंधन या सताव ही हो, उन सभी का एक उद्देश्य होता है, और ये सभी उनके दीर्घ-कालीन लाभ के लिए ही होती हैं, चाहे वर्तमान में वे कठिन, दुखदायी, और व्यर्थ ही क्यों न लगें।
पद 42 में परमेश्वर का वचन फिर से परमेश्वर के लोगों के छुटकारे से संबंधित कुछ बहुत महत्वपूर्ण तथ्यों को दोहराता है, जिन्हें सदा याद रखना चाहिए। इस एक पद में, यह दो बार कहा गया है कि इस्राएल के छुटकारे की वह रात यहोवा के निमित्त मानने के लिए है, अर्थात, उन्हें उसे प्रभु परमेश्वर को आदर देने और महिमा देने के लिए उसे याद रखना और मनाना है; यह एक बार कहा गया है कि सभी इस्राएलियों को यह स्मरण रखना है कि यहोवा ही ने उन्हें मिस्र से छुड़ाया है; और यह एक बार कहा गया है कि इस्राएलियों को इसे अपनी सभी पीढ़ियों में मनाना है - पद 14 का यादगार पर्व, जिसके बारे में हम पहले देख चुके हैं।
हम जानते हैं कि इस्राएलियों को मिस्र के दासत्व से छुड़ाने के लिए परमेश्वर ने यद्यपि मूसा और हारून को उपयोग किया था, किन्तु मूसा इस ज़िम्मेदारी को लेने के लिए बिल्कुल असहमत था (निर्गमन 3:11-4:10)। एक बार पहले वह अपनी सामर्थ्य और योग्यता के सहारे यह करने का प्रयास कर चुका था, और वह बुरी तरह से असफल रहा था (निर्गमन 2:11-15; प्रेरितों 7:23-29)। परमेश्वर ने बहुत प्रयास से यह कार्य करने के लिए मूसा को मनाया, तैयार किया, और सामर्थ्य प्रदान की; और मूसा ने अपनी नहीं, परमेश्वर की सामर्थ्य से इस्राएलियों को छुटकारा दिलाया। किन्तु पापी मनुष्य में यह प्रवृत्ति होती है कि परमेश्वर की अनदेखी कर के, उस मनुष्य को आदर और महिमा प्रदान करे जो उसके समक्ष परमेश्वर के नाम में सिखा और काम कर रहा है; इस्राएलियों ने भी यही किया। यद्यपि उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि वे परमेश्वर के पीछे चलेंगे, उसके आज्ञाकारी रहेंगे, क्योंकि उसने ही उन्हें मिस्र से छुड़ाया था (निर्गमन 19:3-8), फिर भी जब मूसा दस आज्ञाएँ लेने के लिए गया, उनके मध्य में से उसकी कुछ ही दिन की अनुपस्थिति के कारण, उन्होंने अपने छुटकारे का श्रेय मूसा को दिया, परमेश्वर को भूलकर उसके विमुख हो गए, और हारून से मांग की, कि वह उनके लिए देवता बनाए जो उनके आगे-आगे चलें (निर्गमन 32:1)। यह केवल इस्राएलियों के लिए ही सत्य नहीं है; परंतु अधिकांश ईसाई या मसीही समाज, यहाँ तक कि मसीही विश्वासी भी इसी पाप के दोषी हैं। पौलुस ने कुरिन्थुस के मसीही विश्वासियों को पवित्र आत्मा की अगुवाई में डाँट लगाते हुए उनकी भर्त्सना की, क्योंकि वे लोग अपने आप को उद्धारकर्ता प्रभु के पीछे चलने वाले नहीं, बल्कि उनके मध्य में कार्य करने वाले प्रभु के सेवकों के अनुयायी बनकर आपस में विभाजित होने लग गए थे; प्रभु के नाम में साथ जुड़े हुए रहने के स्थान पर, अपने मन-पसंद प्रभु के सेवक के नाम में गुटों में बंटने लगे थे (1 कुरिन्थियों 1:10-13; 3:3-9)। विभाजित कर देने की यही शैतानी आत्मा आज भी कलीसियाओं में कार्य कर रही है; ईसाई या मसीही समाज में विद्यमान अनेकों डिनॉमिनेशंस, समुदाय, गुट, आदि इसका प्रमाण हैं। इसीलिए, मसीहियों में सेवकाई का उद्देश्य है “जब तक कि हम सब के सब विश्वास, और परमेश्वर के पुत्र की पहचान में एक न हो जाएं, और एक सिद्ध मनुष्य न बन जाएं और मसीह के पूरे डील डौल तक न बढ़ जाएं” (इफिसियों 4:13)। इस प्रकार से एक बार फिर से हम निर्गमन 12:42 से सीखते हैं कि जैसे इस्राएलियों को किसी मनुष्य को नहीं बल्कि परमेश्वर को आदर और महिमा देने के लिए फसह में भाग लेना था, उसी प्रकार से मसीही विश्वासियों को भी प्रभु भोज या प्रभु की मेज़ में प्रभु को आदर और महिमा देने के लिए भाग लेना है, मंडली में एकता के लिए प्रयासरत रहना है, न कि दलों और गुटों में बंटना है।
निर्गमन 12:42 में उल्लेखित दूसरी बात है कि यहोवा परमेश्वर ही उन्हें मिस्र से निकाल कर लाया था। वे लोग अपने आप से कुछ भी नहीं करने पाए थे। हम देख चुके हैं, कि जैसे निर्गमन 1:7-12 में लिखा है, इस्राएली संख्या में मिस्रियों से अधिक हो गए थे, वे मिस्रियों से अधिक सामर्थी थे, और मिस्रियों पर उनका भय छाया हुआ था; फिर भी अपनी कुटिलता के द्वारा उन्होंने इस्राएली लोगों को अपनी बंधुवाई में ले लिया, उन्हें सताने लग गए, और इस्राएली छुटकारे के लिए परमेश्वर को पुकारने लगे (निर्गमन 3:7-9)। इस्राएलियों की संख्या और सामर्थ्य उन्हें मिस्रियों की कुटिलता, बंधुवाई, और सताव से नहीं छुड़ा सकी। इसी प्रकार से मसीही विश्वासियों को भी उनकी किसी योग्यता, भले कामों, “धार्मिकता”, आदि ने नहीं छुड़ाया और उद्धार दिया है। यह केवल परमेश्वर के अनुग्रह से, प्रभु यीशु के कलवरी के क्रूस पर हमारे पापों के लिए दिए गए बलिदान और उनकी कीमत के चुकाए जाने से मिली पापों की क्षमा के द्वारा संभव हुआ है (इफिसियों 2:1-9)। प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों से कहा है कि उसके मेज़ में उसकी याद में भाग लिया करें (लूका 22:19; 1 कुरिन्थियों 11:24-25), अर्थात, उसने जो उनके लिए किया है, उन्हें किस प्रकार अनन्त विनाश से बचाया है, उसे याद करते हुए। इसलिए, प्रभु भोज में सम्मिलित होना अपनी किसी “धार्मिकता”, सांसारिक ओहदे, किसी प्रकार के कार्यों, या किसी योग्यता के प्रदर्शन के लिए या घमण्ड करने के लिए नहीं है। वरन, यह अपने आप को दीन और नम्र करके उस बात को याद करना है जो प्रभु ने हमारे पापों से हमें छुड़ाने के लिए सही है; और पश्चातापी; कृतज्ञता से भरे हृदय के साथ, हमारे लिए उसके द्वारा दिए गए बलिदान को स्मरण करने के लिए है।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
मीका 4-5
प्रकाशितवाक्य 12
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The Passover & The Lord’s Table - To Honor & Exalt The Lord God
While learning about the Holy Communion, through what God has said and ordained for its antecedent the Passover in Exodus 12, we have started to consider our third section comprising of verses 40-49 since the previous article. In verses 40-41, as we have seen in the previous article, God’s Word reminds us that God works according to His time-table, and nothing can alter what He decides. We also saw that everything that God’s children have to pass through, even the bondage and afflictions, are for a purpose and for their long-term benefit, even though immediately they may seem harsh, painful, and vain.
In verse 42, God’s Word again reiterates some other very important facts related to the deliverance of God’s people, that should always be kept in mind by them. Twice in this one verse it says that the night of Israel’s deliverance from Egypt is of solemn observance to the Lord, i.e., they have to remember and observe it to honor and exalt the Lord; once it says that all the children of Israel should remember that it was the Lord who delivered them out of Egypt; and once it is said that this is to be observed by Israel throughout their generations - the memorial feast of verse 14, about which we have already seen.
We know that God used Moses and Aaron to deliver the Israelites from Egypt, but we also know that Moses was very reluctant to take up this responsibility (Exodus 3:11-4:10), having earlier assumed that he could do it through his own capabilities and failed miserably in the attempt (Exodus 2:11-15; Acts 7:23-29). Though God did persuade, make ready, and empower Moses, but it was God’s power, not their own through which the Israelites were delivered. But sinful man has the tendency to disregard God and give honor and credit to a person whom he sees saying and doing things in the name of God; the Israelites too did the same. Despite committing themselves to follow God and be His obedient people, since He had delivered them from Egypt (Exodus 19:3-8), when Moses went to receive the Ten Commandments, within a few days of his absence from their midst, they ascribed their deliverance to Moses, forgot God and turned their backs to Him, demanded from Aaron that he make new ‘gods’ for them, to go before them (Exodus 32:1). This is not true for just the Israelites, but most of Christendom, even the Christian Believers are guilty of this same sin. Paul while admonishing the Christian Believers of Corinth through the Holy Spirit, chides them for dividing themselves up as followers of not their savior Lord, but the ministers of the Lord amongst them; instead of remaining united in the name of the Lord, they had divided themselves according to their favorite ministers of the Lord (1 Corinthians 1:10-13; 3:3-9). This same satanic spirit of creating divisions and factions within the Church is at work even today; and the numerous sects, denominations, groups, divisions in Christendom are the evidence. That is why the goal of Christian Ministry amongst Believers is “till we all come to the unity of the faith and of the knowledge of the Son of God, to a perfect man, to the measure of the stature of the fullness of Christ” (Ephesians 4:13). So once again we learn from Exodus 12:42 that like the Israelites had to partake in and observe the Passover to honor and exalt the Lord God, not man; similarly, the Christian Believers have to partake in the Holy Communion, or participate in the Lord’s Table to honor and exalt the Lord, and strive for unity, not divisions and factions in the Church.
The second thing mentioned in Exodus 12:42 is that it was the Lord God who brought them out of Egypt. They could not do anything about it by themselves. We have seen, that as written in Exodus 1:7-12, that the Israelites had become more in number than the Egyptians, they were mightier than the Egyptians, and the Egyptians were in dread of them; yet because of the shrewd handling by the Egyptians, the Israelites were under oppression and were crying out to the Lord for deliverance (Exodus 3:7-9). The numbers and might of the Israelites could not deliver them from the shrewd tactics, bondage, and oppression of the Egyptians. Similarly, the Christian Believers have been redeemed and saved not by any of their capabilities, or good works, or any kind of “righteousness” etc., but solely by the grace of God, through forgiveness of our sins because of the Lord Jesus having paid for them on the Cross of Calvary on our behalf (Ephesians 2:1-9). The Lord Jesus has asked His disciples to partake of His Table in remembrance of Him (Luke 22:19; 1 Corinthians 11:24-25), i.e., in remembrance of what He has done for them, how He has saved them from eternal destruction. So, partaking of the Lord’s Table is not to show off or be proud of one’s “righteousness”, worldly status, works of any kind, or any capabilities. But it is to humble ourselves, remember and acknowledge what the Lord had to undergo to save us from our sins; and with a contrite, humble heart full of gratitude, remember His sacrifice for our sake.
If you are a Christian Believer, and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually a disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. You should also always, like the Berean Believers, first check and test all teachings that you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Micah 4-5
Revelation 12
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