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आरंभिक विचार (1)
बपतिस्मे के बारे में अपने अध्ययन, और आज के विषय में जाने से पहले, यह आवश्यक है कि हम अपने आप को बाइबल को समझने और उसकी व्याख्या करने से संबंधित एक बुनियादी तथ्य से अवगत कर लें। बाइबल परमेश्वर का एकमात्र सत्य, अनन्तकालीन, अचूक, अपरिवर्तनीय वचन है जो सर्वदा के लिए स्वर्ग में स्थापित है (नहेम्याह 9:13; भजन 19:9; भजन 111:7-8; भजन 119:75, 86, 89, 138, 142, 144, 152, 160, 172; नीतिवचन 30:5; सभोपदेशक 3:14; यशायाह 40:8; यिर्मयाह 31:36; मत्ती 24:35;यूहन्ना 17:17; रोमियों 3:4; 1 पतरस 1:25)। यह कभी समय, स्थान, या व्यक्ति के अनुसार बदलता नहीं है; यह हमेशा ही सभी के लिए एक समान ही रहता है। इसलिए, किसी समय पर, किसी स्थान पर, किसी व्यक्ति के लिए जो इसका अर्थ था; वही हमेशा ही, सभी के लिए, सभी स्थानों बना रहेगा। यदि किसी भी कारण से यह बदल जाए, तो फिर यह सत्य नहीं रह जाएगा, अनन्तकालीन नहीं होगा, अचूक और अपरिवर्तनीय नहीं रहेगा। सीधे शब्दों में, फिर ऐसी स्थिति में बाइबल को कभी भी परमेश्वर का वचन स्वीकार नहीं किया जा सकता है, और न ही उसकी किसी बात पर कभी भरोसा किया जा सकता है, क्योंकि तब तो उसकी बातें समय, स्थान, और व्यक्ति के अनुसार बदलती रहेंगी। इसलिए, जो बाइबल को परमेश्वर का वचन स्वीकार करते हैं, उन्हें इसके गुणों को भी पूरे मन से स्वीकार करना होगा। न केवल पूरे मन से स्वीकार करना होगा, वरन, बाइबल का अध्ययन और व्याख्या करते समय इस तथ्य का ध्यान भी रखना होगा। और साथ ही उन्हें इसे बाइबल के शब्दों, पदों, और खण्डों के अर्थ तथा व्याख्या पर लागू भी करना होगा, और किसी भी अर्थ अथवा व्याख्या को इसके अनुसार स्वीकार अन्यथा अस्वीकार भी करना होगा।
इस बात को ध्यान में रखते हुए, जब हम परमेश्वर के वचन से बपतिस्मे से संबंधित विभिन्न बातों और शिक्षाओं में जाते हैं, तो यह हमारे लिए बहुत सहायक होगा कि हम बपतिस्मे के बारे में कुछ आरंभिक बातों को भी देख और समझ लें। इन आरंभिक बातों की समझ के लिए हमें अपने आप को उस समय-काल में ले जाना होगा, जब इन बातों को पहली बार कहा गया, या ये घटित हुई थीं, और जब इन्हें परमेश्वर के वचन में लिखवाया गया। यदि हम इन्हें उन लोगों के दृष्टिकोण से देख और समझ सकें, जिन्होंने इन्हें पहली बार सुना था और अपने जीवनों में लागू किया था, तो हम यह भी समझने पाएंगे कि उन्होंने इन के बारे में क्या समझा था, और इन्हें अपने जीवनों में किस प्रकार लागू किया था। इस बात को यदि कुछ भिन्न रीति से कहा जाए तो, बपतिस्मे से संबंधित बातें और इस शब्द के सबसे पहले और आरंभिक प्रयोग, उस समय में बपतिस्मे को दिए जाने का उस समय के लोगों के लिए जो अर्थ, जो व्यावहारिक अभिप्राय था, यही अर्थ और व्यावहारिक अभिप्राय ही इसका मूल और बुनियादी अर्थ और प्रयोग है। यही वह अपरिवर्तनीय तथ्य है जिसे हमें स्वीकार करना है, समझना है, और अपने जीवन में लागू करना है। अन्य कोई भी अर्थ या व्याख्या इस मूल और बुनियादी अर्थ एवं प्रयोग में कुछ योगदान कर सकती है, उसे और अधिक स्पष्ट कर सकती है, किन्तु कभी भी उसे बदल या हटा कर उसका स्थान नहीं ले सकती है। अन्यथा, जैसे ऊपर कहा गया है, यह परमेश्वर के वचन को बदलना, उसे असत्य, चूक जाने वाला, और परिवर्तनीय कर देना होगा।
बाइबल में बपतिस्मे का पहला उल्लेख नए नियम में मत्ती 3 अध्याय में, प्रभु यीशु मसीह के अग्रदूत यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले की सेवकाई के साथ किया गया है। बपतिस्मे को हम जिस तरह से जानते और समझते हैं, उसका वैसा कोई उल्लेख पुराने नियम में नहीं है। किन्तु पुराना नियम इसके बारे में पूर्णतः शांत भी नहीं है। परमेश्वर के वचन के एक तथ्य पर थोड़ा विचार कीजिए; इस तथ्य पर यदि किसी का ध्यान जाता भी है तो भी शायद ही कभी जाता होगा। और शायद ही कभी अथवा कभी ध्यान नहीं जाने का कारण है, क्योंकि हम बपतिस्मे के बारे में उन्हीं बातों के आदि हो चुके हैं, उन्हें वैसे ही देखते और समझते हैं, जैसे हमारे डिनॉमिनेशन, मत, अथवा समुदाय की मान्यताओं और सिद्धांतों के आधार पर, हमारे धार्मिक अगुवे और प्राचीन हमें सिखा और पढ़ा देते हैं। विचार करने के लिए आवश्यक इस तथ्य का दो जगह पर उल्लेख किया गया है - पहला, यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले की सेवकाई के साथ मत्ती 3:1-7 में; और दूसरा, प्रेरितों 2:38 में, भक्त यहूदियों को पतरस द्वारा किए गए पहले प्रचार में, जिसमें वह उन्हें पश्चाताप करने और बपतिस्मा लेने के लिए कहता है।
यूहन्ना की सेवकाई वाले हवाले से हम देखते हैं कि न केवल जन-साधारण, वरन फरीसी और सदूकी भी, जो परमेश्वर की व्यवस्था तथा पुराने नियम पवित्र शास्त्र के ज्ञाता थे, उसके पास बपतिस्मा लेने के लिए आए। पतरस द्वारा “आकाश के नीचे की हर एक जाति में से” आए हुए भक्त यहूदियों (प्रेरितों 2:5) को किए गए पश्चाताप और बपतिस्मे के लिए किए गए आह्वान में यह निहित है कि वे लोग व्यवस्था की बातों और माँगो से भली भांति परिचित रहे होंगे। लेकिन न तो जन-साधारण ने, न फरीसियों और सदूकियों ने जकरयाह याजक के पुत्र यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले को कोई चुनौती दी कि उसने कोई नई बात जो परमेश्वर के वचन में दी ही नहीं गई है उसे सिखाना और बताना क्यों आरंभ कर दिया है, न ही उसपर परमेश्वर के वचन के उल्लंघन का आरोप लगाया, और न ही उसे परमेश्वर की निन्दा करने का दोषी ठहराया। इसी प्रकार से, जब पतरस ने उन भक्त यहूदियों से बपतिस्मा लेने के लिए कहा, तो किसी ने भी उससे इस बात को समझाने के लिए नहीं कहा; और न ही परमेश्वर पवित्र आत्मा ने इस बात के किसी स्पष्टीकरण को वचन में लिखवाने की कोई आवश्यकता समझी। इन बातों का प्रकट अभिप्राय है कि आम लोग, फरीसी और सदूकी, और भक्त यहूदी, सभी समझते और स्वीकार करते थे कि शब्द ‘बपतिस्मा’ या ‘बपतिस्मा लेने’ का क्या अर्थ है; उनके लिए यह कोई नई अथवा अनसुनी या विचित्र बात नहीं थी। अगले लेख में हम अपने अध्ययन को यहाँ से आगे ज़ारी रखेंगे।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में नया जन्म पाए हुए प्रभु यीशु के शिष्य हैं, पापों से छुड़ाए गए हैं तथा आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है। आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
निर्गमन 31-33
मत्ती 22:1-22
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Preliminary Considerations (1)
Before we get into our study on baptism, and our topic for the day, we need to make ourselves aware of a basic fact related to interpreting and understanding the Bible. The Bible is the one and only true, eternal, infallible, unalterable Word of God forever established in heaven (Nehemiah 9:13; Psalm 19:9; Psalm 111:7-8; Psalm 119:75, 86, 89, 138, 142, 144, 152, 160, 172; Proverbs 30:5; Ecclesiastes 3:14; Isaiah 40:8; Jeremiah 31:36; Matthew 24:35; John 17:17; Romans 3:4; 1 Peter 1:25). It does not change with time, place, or person; it always remains the same for everybody, forever. Therefore, what it meant for certain people at a certain place, at a certain time; it will always mean the same for everyone else, at every place, and at any time. If it were to change due to any consideration, then it will not be true, eternal, infallible and unalterable. For then some portion of it will no longer remain true, will change, hence it will not be eternal and unalterable, and since a part of it has failed, so it will not be infallible either. To state it simply, in that case, the Bible can never be accepted as the Word of God, and can never be trusted for anything; since then with time, or place, or person, parts of it will keep varying. Therefore, those who accept the Bible as the Word of God, will also have to accept it whole-heartedly with its characteristics, and not only keep them in mind when studying and interpreting the Bible, but also apply them to the meanings and interpretations that are given to its words, verses, and passages; and assess and accept or reject those meanings and interpretations accordingly.
With this in mind, as we go into various aspects and teachings about baptism, from God’s Word, it will be very helpful to look into and understand some preliminary things about baptism. To see and understand these preliminary things, we will also need to place ourselves in the same time-frame, as was, when these things first happened and were stated in God’s Word. If we can understand from the point-of-view of those people who first heard of this term and its application, we can also understand how they understood it and applied it to their lives. To put it in a different manner, the things related to baptism and the use of this term, when it was first said and done, conveyed a certain meaning and understanding of this word and its application to the people of that time. This meaning and understanding of this word and its application is the basic, unalterable fact, that has to be accepted, understood and applied by us today. Every other meaning and interpretation may supplement and complement this initial basic meaning and understanding, but none can never replace or change this initial basic meaning. Else, as stated above, it would tantamount to altering God’s Word and rendering it untrue, fallible and alterable.
The first mention of baptism in the Bible is in the New Testament, in Matthew chapter 3, with the ministry of John the Baptist, the forerunner of the Lord Jesus Christ. There is no mention of baptism, as we know it, in the Old Testament. But the Old Testament is not completely silent about it either. Ponder over a scarcely, if at all noticed fact from God’s Word. This fact is scarcely ever, or not at all noticed by us, since we are all so accustomed, trained, and taught, to think about baptism in the manner our religious leaders and elders preach and teach to us, according to the beliefs and doctrines of our denominations, sects, and groups. This fact to ponder over is mentioned at two places - first, with the ministry of John the Baptist in Matthew 3:1-7; and second, in the first preaching of Peter to the devout Jews and his call to them for repentance, in Acts 2:38.
With John’s ministry we see that not just the common people, but also the Pharisees and Sadducees, the experts and teachers of God’s Law and the Old Testament Scriptures, came to him for baptism. In Peter’s call for repentance and baptism, he was addressing the devout Jews (Acts 2:5) who had come from “every nation under heaven”, who would have been well versed with the requirements of the Law and its fulfillment. But neither the common people, nor the Pharisees and Sadducees who were scholars of God’s Word, challenged John, the son of Zacharias, a priest, for starting something new, of preaching and teaching something not given in God’s Word, did not accuse him of breaking God’s Word, or of blasphemy in the name of God. Similarly, the devout Jews when told by Peter to be baptized, did not ask for this term to be explained to them; nor has the Holy Spirit considered it necessary to have an explanation of this term recorded in God’s Word. The evident implication is that the common people, the Pharisees and Sadducees, and the devout Jews, they all understood and accepted what the term baptism or ‘to be baptized’ means; it was nothing new or unheard of and strange for them. We will continue our study from this point onwards in the next article.
If you are a Christian Believer, then please examine your life and make sure that you are actually a Born-Again disciple of the Lord, i.e., are redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word. Whoever may be the preacher or teacher, but you should always, like the Berean Believers, first cross-check and test all teachings that you receive, from the Word of God. Only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Exodus 31-33
Matthew 22:1-22
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