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रविवार, 9 अक्टूबर 2022

प्रभु यीशु की कलीसिया या मण्डली - पश्चाताप द्वारा जोड़े जाना / The Church, or, Assembly of Christ Jesus - Membership Through Repentance


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पश्चाताप को समझना


हम पिछले लेखों में देख चुके हैं कि परमेश्वर की अनन्तकालीन आशीषों और स्वर्गीय जीवन का संभागी होने का एकमात्र मार्ग है प्रभु यीशु मसीह की कलीसिया का अंग, उसका सदस्य होना। प्रभु यीशु मसीह की कलीसिया का अंग होने, उसमें जुड़ने की प्रक्रिया, कोई रहस्यमय या गुप्त बात नहीं है जो केवल कुछ विशिष्ट लोगों पर ही प्रकट की गई है, या जिसे हर किसी पर प्रकट नहीं किया जाता है। न ही यह किसी व्यक्ति अथवा संस्था या डिनॉमिनेशन आदि के द्वारा अपने लिए स्वतः ही निर्धारित कर लेने वाली कोई बात है। जिस प्रकार से परमेश्वर अपनी कलीसिया की हर बात के संबंध में बिलकुल निश्चित और सटीक है, हर बात को स्वयं निर्धारित करता है, उन बातों में किसी प्रकार के परिवर्तन या छेड़-छाड़ को स्वीकार नहीं करता है, उसी प्रकार से उसकी कलीसिया में सम्मिलित होने की भी परमेश्वर द्वारा एक निर्धारित प्रक्रिया है, जिसे उसने अपने वचन में सभी के लिए प्रकट कर दिया है। प्रभु की प्रथम कलीसिया की स्थापना के वृतांत, प्रेरितों 2 अध्याय में यह स्पष्ट वर्णित है। जिस रीति से वह प्रथम कलीसिया स्थापित हुई, और प्रभु द्वारा उसमें लोग जोड़े गए; उसी प्रकार से तब से लेकर आज तक भी, संसार के हर स्थान से, प्रभु यीशु के द्वारा उसकी कलीसिया के साथ लोग जोड़े जाते रहे हैं, और प्रभु के दूसरे आगमन तथा कलीसिया के उठाए जाने तक लोगों को कलीसिया में जोड़ते जाने के लिए उसी प्रक्रिया का निर्वाह होता रहेगा।


पिछले लेख में हमने प्रेरितों 2 अध्याय से देखा था कि कोई अपने आप से प्रभु की कलीसिया में नहीं जुड़ सकता है, वरन प्रभु ही अपने लोगों को अपनी कलीसिया में जोड़ता है (प्रेरितों 2:47)। न तो जोड़े जाने वाले लोगों की भक्ति की, न उनके द्वारा उनके धर्म के निर्वाह की, और न ही उन लोगों के परिवार या वंशावली की कलीसिया के साथ प्रभु की कलीसिया में जोड़े जाने में कोई भूमिका है (1 कुरिन्थियों 1:26-28)। इस प्रक्रिया के दो पक्ष हैं - पहला प्रभु यीशु मसीह में पापों की क्षमा और उद्धार के सुसमाचार को लोगों तक पहुँचाने वाले, जन सामान्य को प्रभु के इस सुसमाचार के बारे में बताने वाले; और दूसरे वे लोग जो इस सुसमाचार को सुनकर, इसके प्रति स्वीकृति की, सकारात्मक प्रतिक्रिया देते हैं। जो सच्चे मन से यह सकारात्मक प्रतिक्रिया देते हैं, प्रभु की कलीसिया में जुड़ते हैं, उनके जीवनों में होने वाली सात बातें प्रेरितों 2:38-42 में लिखी गई हैं। इस प्रक्रिया का आरंभ पवित्र आत्मा की सामर्थ्य से दिए गए सुसमाचार द्वारा लोगों के मनों को “छेदने”, या उन्हें उनके पापों के प्रति कायल करने और फिर उन कायल होने वालों में उनके पापों के समाधान की आवश्यकता के बोध के साथ होता है (2:37)। जो पवित्र आत्मा द्वारा सुसमाचार से पापों के लिए कायल किए जाते हैं, और पापों के समाधान के लिए कोई अपना अथवा किसी प्रकार का मानवीय या संस्थागत समाधान ढूँढने के स्थान पर परमेश्वर के समाधान के खोजी होते हैं, और उस समाधान को स्वीकार करते हैं, उसका पालन करते हैं, प्रभु की कलीसिया में उनके जुड़ने का कार्य पश्चाताप के साथ आरंभ होता है (2:38)।

 

आज हम इस अति-महत्वपूर्ण शब्द “पश्चाताप” या “मन-फिराओ” को और उसके अभिप्राय को समझने का प्रयास करते हैं। मूल यूनानी भाषा के जिस शब्द का अनुवाद “पश्चाताप” या “मन-फिराओ” किया गया है, उसका शब्दार्थ होता है पहले से बिलकुल भिन्न, उससे उलट सोच-विचार, मान्यताएं, और धारणाएं रखना। अर्थात, जिस बात के लिए पश्चाताप किया जाए, या जिसके विषय मन फिराया जाए, वह वास्तविक तब ही होगा जब व्यक्ति उन बातों के विषय अपना सोच-विचार-व्यवहार पूर्णतः बदल कर भिन्न कर ले, ऐसा कर ले जो पहले वाले के विपरीत हो। इसीलिए परमेश्वर पवित्र आत्मा ने मसीही विश्वास में आने वाले व्यक्ति के लिए लिखवाया है, “सो यदि कोई मसीह में है तो वह नई सृष्‍टि है: पुरानी बातें बीत गई हैं; देखो, वे सब नई हो गईं” (2 कुरिन्थियों 5:17)। प्रकट है, बाइबल की परिभाषा के अनुसार किया गया “पश्चाताप” या “मन-फिराव” एक औपचारिकता, मुँह से कुछ शब्दों का दोहरा देना, और फिर वापस उसी पहले वाली सोच-विचार-व्यवहार की स्थिति में लौट जाना नहीं है। यदि व्यक्ति द्वारा किया गया यह “पश्चाताप” या “मन-फिराव” वास्तविक होगा, तो उस व्यक्ति में दिखने वाली दो बातों के द्वारा प्रकट एवं प्रमाणित हो जाएगा:

  1. रोमियों 12:2और इस संसार के सदृश न बनो; परन्तु तुम्हारी बुद्धि के नये हो जाने से तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए, जिस से तुम परमेश्वर की भली, और भावती, और सिद्ध इच्छा अनुभव से मालूम करते रहो।” सच्चा “पश्चाताप” या “मन-फिराव” करने के बाद, फिर उस व्यक्ति में संसार के सदृश्य रहने, सोचने, व्यवहार करने आदि बातों के निर्वाह की प्रवृत्ति नहीं रहेगी। उसका चाल-चलन बदल जाएगा, और निरंतर बदलता चला जाएगा। अब वह हर बात में परमेश्वर की इच्छा जानने और मानने वाला हो जाएगा, और इसी पथ पर अग्रसर बना रहेगा। यह एक आजीवन चलती रहने वाली प्रक्रिया है - परमेश्वर पवित्र आत्मा व्यक्ति को उसके पापों के विषय कायल करता रहता है, और व्यक्ति विनम्र एवं आज्ञाकारी होकर न पापों के लिए पश्चाताप के साथ अपने मसीही जीवन एवं चाल-चलन को सुधारता रहता है। इस प्रक्रिया का प्रभाव होता है कि व्यक्ति अंश-अंश करके प्रभु यीशु मसीह के स्वरूप में ढलता चला जाता है (2 कुरिन्थियों 3:18; रोमियों 8:29)। सच्चे पश्चाताप का यह प्रथम प्रत्यक्ष एवं सर्व-विदित प्रभाव है, जिसके लिए किसी को दावा करने की आवश्यकता ही नहीं है; उसका बदला हुआ जीवन स्वयं ही उसके अंदर आए परिवर्तन को बताता है। 

  2. 2 कुरिन्थियों 7:10क्योंकि परमेश्वर-भक्ति का शोक ऐसा पश्चाताप उत्पन्न करता है जिस का परिणाम उद्धार है और फिर उस से पछताना नहीं पड़ता: परन्तु संसारी शोक मृत्यु उत्पन्न करता है।” वास्तविक पश्चाताप या मन-फिराव, व्यक्ति के मन में परमेश्वर के सम्मुख उसके पापमय व्यवहार के लिए एक गहरा और गंभीर शोक भी उत्पन्न करता है। यह केवल दिखावे का या औपचारिकता का शोक नहीं है, इस शोक में परमेश्वर भक्ति भी सम्मिलित रहती है। अर्थात, सच्चा पश्चाताप व्यक्ति को संसार के लगाव से निकालकर संसार के प्रति अलगाव और परमेश्वर के प्रति लगाव की ओर ले जाता है। यह एक बड़ी स्वाभाविक बात है कि जिसने संसार और सांसारिकता की बातों के लिए सच्चा पश्चाताप किया है, अर्थात उस सोच-विचार-व्यवहार को वास्तव में छोड़ दिया है, उससे पलट गया है, वह उसी सोच-विचार-व्यवहार में लिप्त कैसे रहेगा? अगर वह अभी भी लिप्त है, तो उसने उस सोच-विचार-व्यवहार के लिए वास्तविक पश्चाताप किया ही नहीं है। यही वह बनावटी या सांसारिक शोक है जिसके लिए इस पद में लिखा है कि वह मृत्यु उत्पन्न करता है; क्योंकि व्यक्ति शब्दों की औपचारिकता के निर्वाह के द्वारा यही सोचता रहता है कि उसने “वैधानिक”, या परंपरागत आवश्यकता को पूरा कर लिया है, और अब उसकी दशा ठीक और स्वीकार्य है, जबकि ऐसा होता नहीं है। अन्ततः जब तक उसे अपने उस औपचारिक पश्चाताप की वास्तविकता एवं व्यर्थता समझ में आती है, तब तक बहुत देर हो चुकी होती है, और व्यक्ति अनन्त विनाश में चला जाता है।


प्रभु यीशु की कलीसिया के साथ जुड़ना सच्चे पश्चाताप के साथ आरंभ होता है, जिसका प्रत्यक्ष प्रमाण पश्चाताप करने वाले उस व्यक्ति के जीवन में आया पूर्ण परिवर्तन, पश्चातापी जीवन, तथा अंश-अंश करके प्रभु यीशु के स्वरूप में ढलते चले जाना और पापमय जीवन एवं व्यवहार के लिए शोक में तथा ईश्वरीय भक्ति में बढ़ते चले जाना होता है।


यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो प्रभु यीशु की कलीसिया में अपने सम्मिलित होने को भली-भांति सुनिश्चित कर लीजिए। अपने जीवन को जाँच-परख कर देख लीजिए कि आप में उपरोक्त सच्चे पश्चाताप या मन-फिराव के गुण और प्रमाण विद्यमान हैं कि नहीं? यदि लेशमात्र भी संदेह हो, तो अभी समय और अवसर रहते स्थिति को ठीक कर लीजिए। कहीं थोड़ी सी लापरवाही, बात को गंभीरता से न लेना, अनन्तकाल की पीड़ा न बन जाए।


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 


एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • यशायाह 32-33 

  • कुलुस्सियों 1


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English Translation

Understanding Repentance


We have seen in the previous articles that the only way to be partakers of God’s eternal blessings and heavenly fellowship is by becoming a part of the Church of the Lord Jesus Christ, i.e., a member of the Lord’s Church. The way to becoming a member of the Lord’s Church is not something mysterious, or a secret, that has been revealed to only a chosen or select few, nor is it something that cannot be made apparent to everyone; rather the invitation is for everyone and the way is open for all. It is not something that any group, sect, or denomination decides by itself, for its members. Just as the Lord God is very definitive, clear, and straightforward about everything pertaining to His Church, He alone determines them all, and does not accept any interference or alteration in what He has decided and stated, similarly, the Lord God has determined and given the way to join His church, become its member. He has made this way apparent in His Word for everyone. This process is given in the description of the events leading to the establishing of His first Church, in Acts 2. Just as the first Church was established at that time, and God’s people were added to it; similarly, since then till now, in all places of the world, at all times, people have been added to the Church of the Lord through the same process; and this very process will continue just the same till the second coming of the Lord.


In the previous article we had seen that no one can ever join himself to the Lord’s Church; rather it is the Lord who joins people to His Church (Acts 2:47). In this joining of the people to His Church by the Lord, neither their reverence, nor their fulfilling of religious rituals and ceremonies, nor their family affiliation and genealogy has any role (1 Corinthians 1:26-28). There are two kinds of people involved in this process - the first are those who take the good news of forgiveness of sins and salvation to the people; inform the general public about the gospel; and second are those who listen to this gospel, give a positive response and accept it. Those who accept and give a positive response honestly and with a sincere commitment, are joined to the Church, in their lives seven things are seen which are written in Acts 2:38-42. As we see from Acts 2:38, having listened to the gospel message given under the power of the Holy Spirit, by committed disciples of the Lord Jesus, the first step is being “cut to the heart”. In other words, the people are convicted of their sins, and seek a remedy for their being in a state of sin (Acts 2:37). Those who are actually convicted by the Holy Spirit for their sins and sincerely seek its remedy, they do not turn to any persons, groups, sects, or denominations for this remedy, but turn directly to God to show them the remedy, accept what God shows and tells them, and obey it. So, the first step to joining the Church of the Lord Jesus Christ is a factual conviction of sins, and a true heartfelt repentance for them (Acts 2:38).


Let us try and understand this very important term “repentance” which is the first step to being a part of the Lord’s Church. The word used in the Greek language, and translated as “repentance”, literally means to come to a totally different, and diametrically opposite understanding than the one before, to have concepts and notions that are the reverse of those held earlier. Therefore, for a person to repent about something will only be factual and meaningful if a person develops and starts following a path totally different and reverse of what he was following earlier in his thoughts, mind, and behavior. That is why the Holy Spirit had it written about Christian Believers, “Therefore, if anyone is in Christ, he is a new creation; old things have passed away; behold, all things have become new” (2 Corinthians 5:17). This makes it very clear that Biblically speaking, the actual “repentance” is not something done to fulfill a formality, nor is it ritually reciting a few words, and then reverting back to the same earlier state. If this repentance of a person is factual, then it will be proven by two things evident in that person’s life:


1. Romans 12:2 - “And do not be conformed to this world, but be transformed by the renewing of your mind, that you may prove what is that good and acceptable and perfect will of God.” After true repentance, that person will no longer have a tendency to think, act, and behave like people of the world. His life-style will change, and will continue to change. Now he will start making efforts to find out and fulfill God’s will about everything, and will remain committed to this. This is a life-long process - the Holy Spirit keeps convicting the person for his sins, and the person in humble submission continues to obey and improve his life and behavior. The effect of this process is that the person keeps on getting transformed into the likeness of the Lord Jesus, bit by bit (2 Corinthians 3:18; Romans 8:29). This is the first evident proof of true repentance; a proof that speaks for itself, no one needs to make any claims about it. The changed outer life of the person speaks for the transformation happening within.


2. 2 Corinthians 7:10For godly sorrow produces repentance leading to salvation, not to be regretted; but the sorrow of the world produces death.” True repentance creates a deep sense of remorse and heartfelt sorrow in that person for the sins he has committed in the eyes of God. This is not just a formality, nor a pretense; there is a sincere Godly reverence involved in true repentance. In other words, a person who has truly repented, will change from being attached to the world, to being attached to the Lord God and living not for the world but for his savior Lord. This is a very natural and obvious thing; it is not difficult to understand that he who has truly repented from the worldly things and way of life, and has discarded it, how can he remain attached and involved in them in his thoughts, mind and behavior? If the person is still involved in worldly ways, then he has not truly repented from them. This is that “sorrow of the world,” an external, ‘make-believe’ sorrow, a pretense, that produces death. Because that person having fulfilled certain formalities and spoken some specified words, keeps thinking and believing that he has ritually and legally repented, therefore, he is now good enough and acceptable to God. Whereas in reality, that is not the case; he is actually still in his sins and the punishment of unforgiven sins, i.e., eternal death, is still upon him. By the time he realizes his real condition, it is too late to do anything about it.


Joining the Church of the Lord Jesus begins with true repentance; which is evidenced by the radical change that comes about in the person’s life, his penitent life-style, and his being gradually and progressively getting transformed into the likeness of the Lord Jesus.


If you are a Christian Believer, then examine yourself and be sure that you indeed are a part of the Church of the Lord Jesus. Evaluate your life to ascertain that the signs of true repentance are evident in your life or not. If you are in the slightest doubt, do not take it lightly or ignore it, but take proper remedial action while you have the time and opportunity from God available to you. A seemingly small carelessness and procrastination can have eternally disastrous results.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.


Through the Bible in a Year: 

  • Isaiah 32-33 

  • Colossians 1