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शुक्रवार, 1 दिसंबर 2023

Blessed and Successful Life / आशीषित एवं सफल जीवन – 97 – Stewards of Holy Spirit / पवित्र आत्मा के भण्डारी – 26


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पवित्र आत्मा से सीखना – 6

 

    नया जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी उन्हें, उन में निवास करने के लिए परमेश्वर द्वारा प्रदान किए गए परमेश्वर पवित्र आत्मा के भण्डारी हैं। पवित्र आत्मा उन्हें उनका सहायक, साथी, शिक्षक, और मार्गदर्शक होने के लिए दिया गया है, उनके मसीही जीवन जीने और परमेश्वर द्वारा सौंपी गई सेवकाई को योग्य रीति से पूरा करने के लिए। इसलिए, प्रत्येक नया-जन्म पाए हुए मसीही विश्वासी को पवित्र आत्मा की सेवाओं का उचित रीति से उपयोग करना सीखना चाहिए, जिस से वह विश्वास में और परमेश्वर की सेवा करने में बढ़े। मसीही विश्वासी को परमेश्वर का वचन भी उन से सीखना चाहिए, क्योंकि यह उन का एक कार्य है (यूहन्ना 14:26)। किन्तु पवित्र आत्मा से सीखने के लिए पवित्र आत्मा के प्रति एक अनुशासन, सीखने की वासत्विक लालसा, आज्ञाकारिता, और प्रतिबद्धता चाहिए होती है, और यह बहुधा विश्वासियों को कठिन लगता है। तीन मुख्य कारण हैं जिन के कारण अधिकाँश विश्वासी पवित्र आत्मा से सीखने नहीं पाते हैं, यद्यपि वह उन्हें सिखाना चाहता है, उन की प्रतीक्षा करता है। इन तीन में से हम पहले दो कारणों को देख चुके हैं, और अब तीसरे कारण को देख रहे हैं, कि क्यों, पवित्र आत्मा से सीखने में खराई के साथ यत्न करने के स्थान पर विश्वासी आसान मार्ग को चुन लेते हैं, और वचन सीखने के लिए मनुष्यों तथा पुस्तकों पर निर्भर करने लगते हैं, जो उन्हें शैतान की युक्तियों और चालाकियों में पड़ने के खतरे में फँसा देता है। सामान्यतः, विश्वासी अपनी कलीसिया के प्राचीनों, अगुवों, और वचन के प्रचारकों, तथा शिक्षकों पर निर्भर हो जाते हैं, उन पर ऐसा भरोसा करते हैं कि उनकी बातों पर अँध-विश्वास करने लगते हैं।

    हम देख चुके हैं कि कोई भी मनुष्य सिद्ध और अचूक नहीं है, और हमने परमेश्वर के वचन के उदाहरणों से देखा था कि कैसे परमेश्वर के सबसे भक्त लोगों ने भी गलतियाँ की हैं तथा अपने और दूसरों पर परेशानियाँ लाए हैं। क्योंकि प्रत्येक मनुष्य असिद्ध और गलती करने वाला होता है, इसलिए उन की शिक्षाएँ और उनके द्वारा लिखी गई पुस्तकें भी असिद्ध और गलतियों वाली होती हैं। इसीलिए बाइबल की यही शिक्षा है कि किसी भी शिक्षा को स्वीकार और पालन करने से पहले उसे परमेश्वर के वचन से जाँच-परख लेना चाहिए, और यदि सही हो तभी उसे स्वीकार करना और उसका पालन करना चहाइए। इसीलिए, जो लोग केवल मनुष्यों से ही सीखने पर निर्भर रहते हैं, वे न केवल शैतान के द्वारा बहकाए जा कर झूठी शिक्षाओं तथा गलत सिद्धान्तों में पड़ जाने के खतरे में भी रहते हैं, बल्कि अपने विश्वास तथा परमेश्वर के वचन में ठीक से बढ़ने और परिपक्व होने भी नहीं पाते हैं। आज हम इस तीसरे कारण, कि परमेश्वर के लोग भी गलतियाँ करते हैं, को वहाँ से और आगे देखना आरंभ करेंगे जहाँ पर पिछले लेख में छोड़ा था।

    इसे एक और उदाहरण से समझिए। आज अनेकों बाइबल कमेंट्री उपलब्ध हैं, और प्रत्येक कमेंट्री परमेश्वर के वचन के माननीय विद्वानों द्वारा लिखी और संपादित की गई है, वे सभी परमेश्वर के प्रति समर्पित और प्रतिबद्ध लोग हैं, सभी अपने प्रयास के द्वारा परमेश्वर के वचन के सत्यों को प्रस्तुत करना चाहते हैं, और सभी यही दावा करते हैं कि उन्होंने प्रार्थनाओं, भक्ति और आदर के साथ, पवित्र आत्मा की अगुवाई में उस कमेंट्री को तैयार किया, उन्हें उपलब्ध बाइबल संबंधित अध्ययन-शील सामग्री का उचित उपयोग किया है। लेकिन फिर भी यह सामान्यतः देखा जाता है कि बाइबल के खण्डों की व्याख्या और दिए गए स्पष्टीकरणों में भिन्न कॅमेनट्रियों में अंतर होते हैं, और ये अंतर व्याख्या करने वालों की व्यक्तिगत समझ या राय तथा उन पर उनके मत या डिनौमिनेशन की शिक्षाओं के प्रभाव के कारण आ जाते हैं। कभी-कभी कुछ अन्य समर्पित और प्रतिबद्ध विद्वान विश्वासी उनकी आलोचना करते हैं, उन में विरोधाभास देखते हैं और उनकी बड़ी दृढ़ता और दावे के साथ कही गई कुछ बातों को गलत भी प्रमाणित कर देते हैं। तो जब इस प्रकार की बातें हमारे सामने आती हैं, तो हम उनके बारे में क्या सोचते हैं? क्या पवित्र आत्मा लोगों को भिन्न और परस्पर विरोधी बातें लिखवाता और भ्रम में डालता है; या, क्या वह मसीहीयों के मध्य में भिन्न व्याख्या और राय के द्वारा मतभेद उत्पन्न कर रहा है? यह कहना तो दूर, ऐसा सोचना भी परमेश्वर के विरुद्ध ईश-निंदा से कतई कम नहीं है। इसलिए, इसे समझ पाने का एकमात्र आधार है ‘मानवीय त्रुटि’ – मनुष्य हमेशा ही असिद्ध, गलती करने वाला मनुष्य ही रहेगा; हमेशा ही गलती करने की प्रवृत्ति रखेगा, हमेशा परमेश्वर के वचन और शिक्षाओं में अपनी ही व्याख्या, विचार, और राय डालने वाला रहेगा, और उसे बहुधा सुधरने की आवश्यकता होगी; वह चाहे कोई भी हो, कितना भी प्रतिष्ठित क्यों न हो, कितना ही ज्ञानवान क्यों न हो।

    अकसर, सामान्यतः आदर दिखाने के लिए या परमेश्वर के वचन को प्रभावी रीति से प्रचार करने और शिक्षा देने के उद्देश्य से, परमेश्वर के कुछ समर्पित और प्रतिबद्ध लोग भी बाइबल की कुछ बातों, वाक्यांशों, और तथ्यों को बाइबल के विपरीत या बाहर के अर्थ के साथ प्रस्तुत करने लगते हैं। साथ ही मनुष्यों द्वारा उनकी डिनौमिनेशन की धारणाओं के अनुरूप बनाई गई शिक्षाओं, रीतियों और दी जाने वाली प्राथमिकताओं की भी कोई कमी नहीं है, और फिर लोग अपनी व्यक्तिगत समझ, विचार और राय भी इन बातों में डालते रहते हैं, और इसके बाद इन सभी को या तो परमेश्वर का वचन (मत्ती 15:9), या परमेश्वर के वचन के अनुसार तथ्य कह कर लोगों को सिखाते हैं। ऐसी बातों से कई विश्वासी गलत मार्ग पर चल पड़ते हैं, और बाइबल के बाहर की, त्रुटिपूर्ण शिक्षाओं को तथा मनुष्यों द्वारा बनाए गए सिद्धान्तों को, परमेश्वर के सत्य मान लेते हैं, जो कि वह बात नहीं हैं। एक भली-भाँति जाना-माना किन्तु दुखदायी तथ्य है कि कुछ विश्वासी न केवल उनकी कलीसिया के अगुवों और शिक्षकों के द्वारा कही जाने वाली हर बात को अँध-विश्वास के साथ स्वीकार कर लेते हैं, बल्कि उन प्राचीनों और शिक्षकों के द्वारा उपयोग किए जाने वाले शब्दों, वाक्यांशों, और अभिव्यक्तियों के हाव-भाव की, अपने जीवनों में नकल भी करने लगते हैं। मनुष्यों के प्रति उनकी वफादारी इतनी अधिक होती है कि वे उन मनुष्यों द्वारा परमेश्वर के वचन के असत्य को स्वीकार करना और मानना पसंद करते हैं, बजाए परमेश्वर के वचन के सत्य के अनुसार अपने आप को सुधारने और वचन का, उसकी सच्चाई के अनुसार पालन करने के। परमेश्वर और उसके वचन के स्थान पर मनुष्य को इस प्रकार से ऊंचे पर उठाना, वरियता देना, उनके आत्मिक जीवन में उन्नति तथा उनके परमेश्वर के वचन को सीखने में बाधा बनता है।

    हम अगले लेख में इसे और गए देखेंगे, और देखेंगे कि किस प्रकार से परमेश्वर के वचन की बजाए मनुष्य के वचन के प्रति विश्वासयोग्यता तथा प्रतिबद्धता मसीही विश्वासी के जीवन पर प्रभाव डालती है, उसे अपरिपक्व और शारीरिक बनाए रखती है।

    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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English Translation

Learning from the Holy Spirit – 6

 

    The Born-Again Christian Believers are stewards of God the Holy Spirit, given to them by God to reside in them. The Holy Spirit has been given to be their Helper, Companion, Teacher, and Guide for their Christian living and fulfilling their God assigned ministry. Therefore, every Born-Again Christian Believer should learn about worthily utilizing the Holy Spirit’s services to grow and mature in faith and in serving the Lord. The Christian Believer is to also learn God’s Word from Him, for that is one of His functions (John 14:26). But learning from the Holy Spirit requires discipline, sincere desire to learn, obedience, and commitment to Him on the part of the Christian Believer, which the Believers often find difficult to do. There are three main reasons why most Believers fail to learn from the Holy Spirit, though He is waiting and wanting to teach them. Of these three, we have seen the first two, and are now looking into the third one, why, instead of putting in a diligent effort to learn from the Holy Spirit, the Believers take the easy way out, and start depending upon men and books to learn God’s Word, and open themselves to the wiles of the devil. Usually the men the Believer’s learn from and trust, often blindly, are their Church elders, leaders, preachers and teachers of God’s Word.

    We have seen that no man is perfect and infallible, and have seen through examples from God’s Word how even the godliest of God’s people have made mistakes and brought problems upon themselves and others. Since all men are imperfect and fallible, therefore, their teachings and the books written by them are also imperfect and fallible. Hence the Biblical teaching is to first verify every teaching from God’s Word, irrespective of who it is coming through; and if found factual, only then to accept and follow it. Therefore, those who only depend upon learning from men, without first verifying from God’s Word and discerning the truth, not only remain prone to be misled by Satan into false teachings and wrong doctrines, but also do not properly grow and mature in their faith and God’s Word. Today we will carry on from where we had left in the last article, on this third reason, even men of God being prone to make errors.

    Understand this through another example. There are numerous Bible Commentaries available, and each Commentary has been written and edited by reputed scholars of God’s Word, all committed people of God, all wanting to present God’s truth through their works, and all claiming to have prepared the Commentary prayerfully, reverentially, under the guidance of the Holy Spirit, using the various kinds of scholarly Biblical material available to them. But still, it is common to find variations or differences in interpretation and explanations of various Biblical texts in the different Commentaries, often due to the Commentator’s personal opinions and denominational influences upon them. Sometimes, some other committed Christian Believers and Bible scholars may even criticize, contradict, and disprove some things that have very authoritatively been stated by another committed Christian Believer, Bible scholar, and Commentator. So, when these things come before us, what do we think of it? Has the Holy Spirit been misleading people into writing variable or contradictory things; or, has He been generating differences in interpretation and opinions amongst Christians? To even think of this, let alone say it, is nothing short of blasphemy. Therefore, the only way of explaining it is the ‘human error’ - man will always be imperfect, fallible man; always prone to making mistakes, always likely to add his own thoughts, interpretations, and opinions to God’s teachings, and often in need of being corrected, no matter who, how reputed, and how knowledgeable he may be.

    Often, though reverentially to preach and teach God’s Word emphatically, and in their efforts to glorify God, God’s committed Believers inadvertently start saying, preaching and teaching certain Biblical facts and phrases in an unBiblical manner. Moreover, there is no lack of man-made denominational teachings, preferences and practices, and also people’s personal understanding, views and opinions being taught or presented either as God’s Word (Matthew 15:9), or taught to people as a factual Biblical teaching. These things mislead the Believers into wrongly accepting and falsely following those unBiblical or erroneous teachings and man-made denominational doctrines as God’s truth, which they are not. A well-known but sad fact is that some Believers usually not only blindly believe and accept everything their Church elders and teachers say, but they also adopt the words, phrases, and mannerisms etc. of those elders and teachers into their own lives. Such is their loyalty to men that they prefer to accept and use men’s misuse of God’s Word, rather than correct themselves and use God’s Word as it is, in its truth. This exaltation of men, instead of God and His Word, creates problems in their spiritual growth, and learning God’s Word.

    We will look further into this in the next article, and see how loyalty to man’s word over and above commitment to be faithful to God’s Word affects the Christian Believers life, keeps him immature and carnal.

    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.


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