व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? – 8
क्योंकि मनुष्य शैतान के सामने असमर्थ है (भाग 6)
मनुष्य क्यों अपनी शक्ति और युक्ति द्वारा शैतान का सामना कर पाने और उसपर विजयी होने में असमर्थ है, इसे हम तीन बातों के अंतर्गत देखते आ रहे हैं, और दो पहली दो बातों को देख चुके हैं। आज हम तीसरी बात को देखेंगे, और फिर अगले लेख से इन तीनों बातों के निष्कर्ष और तात्पर्य को देखेंगे।
(iii) मनुष्य और स्वर्गदूतों का तुलनात्मक स्तर या स्थान: मनुष्य शैतान के सामने असमर्थ है, क्योंकि अपनी सृष्टि से ही वह स्वर्गदूतों से कम सामर्थी और निचले स्तर का बनाया गया है। इसे थोड़ा बारीकी से समझना होगा:
प्रभु यीशु मसीह, पृथ्वी के अपने शारीरिक रूप में, पूर्णतः परमेश्वर भी था, और पूर्णतः मनुष्य भी - परमेश्वर होते हुए भी, पृथ्वी पर आने के समय अपने परमेश्वरत्व को छोड़ कर, अपने आप को शून्य कर के, वह मनुष्य का रूप लेकर, मनुष्य की समानता में पृथ्वी पर आ गया (फिलिप्पियों 2:5-8)।
पृथ्वी पर मनुष्य के रूप में उसके स्तर के विषय इब्रानियों 2:6-10 देखिए: “6:वरन किसी ने कहीं, यह गवाही दी है, कि मनुष्य क्या है, कि तू उस की सुधि लेता है? या मनुष्य का पुत्र क्या है, कि तू उस पर दृष्टि करता है? 7: तू ने उसे स्वर्गदूतों से कुछ ही कम किया; तू ने उस पर महिमा और आदर का मुकुट रखा और उसे अपने हाथों के कामों पर अधिकार दिया। 8: तू ने सब कुछ उसके पांवों के नीचे कर दिया: इसलिये जब कि उसने सब कुछ उसके आधीन कर दिया, तो उसने कुछ भी रख न छोड़ा, जो उसके आधीन न हो: पर हम अब तक सब कुछ उसके आधीन नहीं देखते। 9: पर हम यीशु को जो स्वर्गदूतों से कुछ ही कम किया गया था, मृत्यु का दुख उठाने के कारण महिमा और आदर का मुकुट पहने हुए देखते हैं; ताकि परमेश्वर के अनुग्रह से हर एक मनुष्य के लिये मृत्यु का स्वाद चखे। 10: क्योंकि जिस के लिये सब कुछ है, और जिस के द्वारा सब कुछ है, उसे यही अच्छा लगा कि जब वह बहुत से पुत्रों को महिमा में पहुंचाए, तो उन के उद्धार के कर्ता को दुख उठाने के द्वारा सिद्ध करे।”
यहाँ पद 8-10 में यह प्रकट है कि यह खंड प्रभु यीशु के विषय है, और इस संदर्भ के साथ पद 6 में “मनुष्य का पुत्र” भी प्रभु यीशु ही है, जो सुसमाचारों में उसका एक उपनाम था, जिसे उसने स्वयं भी अपने लिया प्रयोग किया है (मत्ती 8:20; 9:6; 12:8; मत्ती 16:13)। फिर पद 7 में उसके विषय लिखा गया है कि पृथ्वी पर भेजे जाने पर परमेश्वर ने “मनुष्य के पुत्र” अर्थात प्रभु यीशु को “स्वर्गदूतों से कुछ ही कम किया है”। अर्थात, अपनी पार्थिव देह में, मनुष्यों की समानता में होते हुए वह स्वर्गदूतों से (एकवचन ‘स्वर्गदूत’ - कोई विशिष्ट स्वर्गदूत नहीं; वरन बहुवचन ‘स्वर्गदूतों’ - सभी स्वर्गदूतों से) कुछ कम स्तर का हो गया। तात्पर्य यह कि मनुष्य, जिसकी समानता में प्रभु यीशु इस पृथ्वी पर आया, वह अपनी इस स्वाभाविक दशा में न केवल स्वर्गदूतों से कम सामर्थी है जैसा हमने ऊपर देखा है, वरन उनसे कम स्तर का भी है। इसीलिए उद्धार पाए हुए मनुष्यों को परमेश्वर से दिए जाने वाले आदर में से एक है कि स्वर्गदूत, उनकी सेवा-टहल करने वाली आत्माएं बना दिए जाते हैं (इब्रानियों 1:14)। यदि सृष्टि के स्वाभाविक क्रम में मनुष्य की वरीयता स्वर्गदूतों से ऊपर होती, तो फिर उनके मनुष्यों की सेवा-टहल करने वाले बनाए जाने में मनुष्यों को क्या विशेष आदर मिलता? किन्तु उद्धार पाकर, परमेश्वर की संतान (यूहन्ना 1:12-13) हो जाने के कारण, जो अपने जीवन भर निरंतर अपने उद्धारकर्ता प्रभु यीशु की समानता में बदलते चले जा रहे हैं (रोमियों 8:16-17, 29-30; 2 कुरिन्थियों 3:18), अब उन उद्धार पाए हुओं के लिए वरीयता क्रम बदल दिया गया है; अब उद्धार पाया हुआ मनुष्य जो प्रभु की समानता में ढल रहा है, ऊपर और आज्ञाकारी स्वर्गदूत उनसे कम स्तर के कर दिए गए हैं।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Why The Law Cannot Save Us – 8
Because Man is Incapable of Handling Satan (Part 6)
We have been looking into and considering why man by his strength and abilities is incapable of facing Satan and overcoming him. We have been considering it under three points, and have seen the first two of these three points. Today we will see the third point, and then from the next article will look at the conclusions of these points and what we can derive from them.
(iii) The comparative level or place of humans and angels: Man is incapable of facing Satan, because from his creation he has not only been made less powerful than angels, but of a lesser status than the angels as well. This has to be understood a little more closely:
The Lord Jesus Christ, in his physical form on earth, was also wholly God, and wholly human – while being God, He emptied Himself when He came to earth in the form of man, and took upon Himself the likeness of man (Philippians 2:5-8).
Regarding His status as a man on earth, also consider Hebrews 2:6-10: “6: But one testified in a certain place, saying: "What is man that You are mindful of him, Or the son of man that You take care of him? 7: You have made him a little lower than the angels; You have crowned him with glory and honor, and set him over the works of Your hands. 8: You have put all things in subjection under his feet." For in that He put all in subjection under him, He left nothing that is not put under him. But now we do not yet see all things put under him. 9: But we see Jesus, who was made a little lower than the angels, for the suffering of death crowned with glory and honor, that He, by the grace of God, might taste death for everyone. 10: For it was fitting for Him, for whom are all things and by whom are all things, in bringing many sons to glory, to make the captain of their salvation perfect through sufferings."
Here in verses 8–10 it is clear that this section is about the Lord Jesus, and in this context the phrase "Son of Man" in verse 6 is also for the Lord Jesus, which was also a name used for Him and by Him in the Gospels, He often called himself by this name (e.g., Matthew 8:20; 9:6; 12:8; Matthew 16:13). Then in verse 7 it is written about him that when He was sent to earth, God made the "Son of man" i.e., Lord Jesus "a little lower than the angels". Implying that in His earthly body, being in the likeness of humans, He became somewhat lower than the angels (not singular 'angel' - i.e., not a specific angel; but plural 'angels' - i.e., all angels). This means that man, in whose likeness the Lord Jesus came to this earth, is not only less powerful than the angels in his natural state, as we have seen above; but is also of a lower status than them. That is why one of the God-given honor for saved humans is that angels are made ministering spirits, to serve them (Hebrews 1:14). If, in the natural order of creation, man already possessed a superiority over angels, then how could it be special honor for humans to have angels as ministering spirits for them? But having been saved, having become children of God (John 1:12-13), and continually throughout his lifetime growing in the likeness of his Savior the Lord Jesus (Romans 8:16-17, 29-30; 2 Corinthians 3:18), the created order of superiority, for those who are saved is now changed; now the saved man being transformed into the likeness of the Lord is elevated above and the obedient angels are made lower than him.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.