निष्कर्ष - 1 कुरिन्थियों 12:28-31
हम पिछले लेखों में 1
कुरिन्थियों 12:28 में सूचीबद्ध किए गए कुछ
आत्मिक वरदानों के बारे में देखते आ रहे हैं। यह पद हमें बताता है कि “परमेश्वर ने कलीसिया में अलग अलग व्यक्ति नियुक्त किए हैं...",
और फिर उन व्यक्तियों को दिए गए वरदानों की सूची दी गई है। इस
आरंभिक वाक्यांश में कुछ बातें ध्यान से देखने और विचार करने योग्य हैं:
- आत्मिक
वरदान जैसा कि पहले 1 कुरिन्थियों 12:11 में बताया गया है, परमेश्वर द्वारा दिए जाते हैं। इफिसियों 2:10 में
लिखा है कि परमेश्वर ने अपने प्रत्येक विश्वासी के लिए पहले से ही कुछ-न-कुछ
भले कार्य निर्धारित कर रखे हैं। परमेश्वर के लोगों के द्वारा उन भले कार्यों
को सुचारु रीति से करने के लिए, उन कार्यों में उनकी
सहायता के लिए, परमेश्वर पवित्र आत्मा उन्हें परमेश्वर
द्वारा निर्धारित उनकी सेवकाई के अनुसार कुछ आत्मिक वरदान बाँट देता है। ये
वरदान व्यक्ति की इच्छा के अनुसार नहीं, वरन, परमेश्वर द्वारा किए गए निर्धारण के अनुसार हैं; केवल वही इनके विषय निर्णय करता है।
- इन
आत्मिक वरदानों का प्रयोग ‘कलीसिया’ के लिए है, जैसा
कि पहले 1 कुरिन्थियों 12:7 में भी
बताया गया है। परमेश्वर पवित्र आत्मा की ओर से दिया गया कोई भी वरदान किसी
व्यक्ति के अपने व्यक्तिगत प्रयोग के लिए, अथवा लोगों
में अपने आप को विशिष्ट, अथवा उच्च या महत्वपूर्ण दिखाने के लिए, प्रदर्शन करने के लिए नहीं है। सभी वरदान कलीसिया यानि कि मसीही
विश्वासियों की मण्डली की भलाई के लिए उपयोग करने के लिए दिए गए हैं। कोई भी
व्यक्ति यह दावा नहीं कर सकता है कि उसने कुछ विशेष, अथवा
औरों से उत्तम पाया है। सभी वरदान परमेश्वर की ओर से हैं, समान महत्व के हैं, बड़े या छोटे नहीं हैं;
और न ही कोई मसीही विश्वासी परमेश्वर की दृष्टि में कम अथवा
अधिक महत्वपूर्ण है - जिसके अनुसार वह उन्हें कोई वरदान दे। सभी विश्वासी
परमेश्वर के लिए समान हैं, वह सभी से समान प्रेम करता
है। सभी पापों के लिए पश्चाताप करने और प्रभु यीशु से पापों की क्षमा माँगकर
उसे समर्पण करने के द्वारा मसीही बने हैं, अपनी किसी भी
योग्यता अथवा गुण या विशेषता के कारण नहीं।
- अलग-अलग
आत्मिक वरदानों के प्रयोग के लिए परमेश्वर ने अलग-अलग व्यक्ति नियुक्त किए हैं। अर्थात, न तो एक ही व्यक्ति को सभी
वरदान दिए गए हैं; और न ही सभी व्यक्तियों को एक ही
वरदान दिया गया है। जिसकी जैसी सेवकाई परमेश्वर ने निर्धारित की, उसी के अनुसार उसे वरदान भी दे दिए गए। पद 28 के
इस आरंभिक वाक्यांश में स्पष्ट लिखा है “नियुक्त किए
हैं”; अभिप्राय यह कि किसी भी व्यक्ति ने कोई भी
सेवकाई अथवा कोई भी वरदान किसी रीति से अपने लिए चुने अथवा कमाए नहीं है।
जिसे जो भी दिया गया, वह परमेश्वर की ओर से, परमेश्वर की योजना के अनुसार दिया गया है। उस व्यक्ति की आशीष उसे दी
गए सेवकाई को, उसे दिए गए वरदान की सहायता से भली-भांति
करने से, उनके द्वारा परमेश्वर की आज्ञाकारिता एवं
महिमा करने से है; न कि औरों की सेवकाई और वरदानों के
लिए लालसा और माँग करने से।
इस आरंभिक वाक्यांश के बाद दी गई सूची, कलीसिया में वरदानों के
उपयोग किए जाने के अनुसार है, अर्थात जो वरदान अधिक उपयोग
किए जाते हैं, उन्हें पहले बताया गया है और जो कम उपयोग होते
हैं, उन्हें बाद में बताया गया है। किन्तु अपने-अपने स्थान
और प्रयोग के समय के अनुसार प्रत्येक वरदान अन्य के बराबर ही महत्वपूर्ण है। सबसे
कम प्रयोग किए जाने वाले अन्य भाषा बोलने वाले वरदान को सबसे बाद में रखा गया है,
और वचन से संबंधित सेवकाई के वरदानों को पहले तीन स्थानों पर रखा
गया है। किन्तु जब कोई विदेशी प्रचारक आए, जिसके अनुवाद के लिए
उसकी भाषा बोलने वाले सेवक की आवश्यकता हो, तो जिसके पास यह
अन्य भाषा से संबंधित वरदान है, उसकी उपयोगिता और महत्व पहले
तीनों वरदानों के समान है प्रकट हो जाता है। इसीलिए, सेवकाई
और संबंधित वरदान कम अथवा अधिक महत्व के नहीं हैं, किन्तु
उन्हें कलीसिया के कार्यों में सामान्यतः कितना अधिक अथवा कम प्रयोग करने की
आवश्यकता पड़ती है, उसी के अनुसार वरदानों को यहाँ सूचीबद्ध
किया गया है।
अलग-अलग व्यक्तियों को अलग-अलग वरदान दिए
जाने को फिर पद 29 से
पद 31 के आरंभ में कुछ आलंकारिक
प्रश्नों (rhetorical questions) के द्वारा दोहराया और
समझाया गया है कि न तो सभी को एक ही वरदान दिया गया है, और न ही
किसी एक को सभी वरदान दिए गए हैं। [आलंकारिक प्रश्न (rhetorical question) वे प्रश्न होते
हैं, जिनके ‘हाँ’, अथवा ‘न’ में उत्तर, प्रश्न और उसके संदर्भ में पहले से ही निहित होते हैं, और पाठक या श्रोता को उस प्रश्न का कोई उत्तर स्वयं नहीं देना होता है,
वरन वे उस प्रश्न के संदर्भ से उस पूर्व-निहित एवं निर्धारित उत्तर
को समझ जाते हैं।]। मूल यूनानी भाषा में इन प्रश्नों को नकारात्मक भाव के साथ लिखा
गया है, अर्थात, इन सभी प्रश्नों का
उत्तर ‘नहीं’ ही है। इस आलंकारिक भाषा
के प्रयोग के द्वारा पवित्र आत्मा ने पौलुस में होकर यह स्थापित किया है कि सभी को
एक ही वरदान नहीं दिया गया है, अलग-अलग विश्वासियों को
अलग-अलग वरदान दिए गए हैं। इसलिए परमेश्वर पवित्र आत्मा के संबंध में गलत शिक्षाओं
के सिखाने और फैलाने वालों के लिए यह ध्यान देने, और समझने
तथा वचन से सीखकर पालन करने की बात है कि वे सभी को एक ही वरदान - अन्य भाषा बोलना,
मांगने या प्राप्त करने की शिक्षा देकर, और वह
भी बहुत बलपूर्वक और दृढ़ता के साथ, वचन की अनदेखी कर रहे हैं,
वचन के विपरीत बात सिखा रहे हैं, लोगों को
झूठी बातों से बहका और भरमा रहे हैं। और परमेश्वर पवित्र आत्मा, जो सत्य का आत्मा (यूहन्ना 14:17) है, वह वचन के विरुद्ध न तो कभी सिखाएगा, और न ही कभी
करेगा। साथ ही, वचन में जिन ‘अन्य-भाषाओं’
की बात की गई है वे पृथ्वी के ही किसी अन्य क्षेत्र अथवा स्थान की
भाषाएं हैं, कोई अलौकिक या पृथ्वी के बाहर की भाषाएं नहीं
हैं (प्रेरितों 2:1-11)। साथ ही प्रभु यीशु मसीह ने कहा है
कि शैतान ही प्रत्येक झूठ का पिता है, प्रत्येक असत्य उसी की
ओर से होता है (यूहन्ना 8:44)। इसलिए उनकी ये, तथा अन्य
संबंधित गलत शिक्षाएं, पवित्र आत्मा की ओर से नहीं हैं,
वरन शैतान की ओर से किया गया छलावा हैं, जिस
में से उन्हें बाहर आ जाना चाहिए।
और तब पद 31 से, जिसका उपयोग पवित्र आत्मा से संबंधित गलत शिक्षाएं
फैलाने वाले मन-चाहे वरदान मांगने और प्राप्त करने की अपनी एक और गलत शिक्षा को
सही ठहराने के लिए करते हैं, हम देख चुके हैं कि उनकी यह
धारणा सत्य नहीं है। इस पद को उसके संदर्भ में देखने और समझने से यह प्रकट है कि यह प्रत्येक मसीही
विश्वासी के मण्डली में अधिक से अधिक उपयोगी होने के अभिप्राय से कहा गया है, आत्मिक वरदान बदलवाने के
लिए नहीं। इस पद को अन्य पदों के साथ और उसके संदर्भ में देखने से यह प्रकट हो
जाता है कि यहाँ जो “बड़े से बड़े वरदान” वाक्यांश का प्रयोग किया गया है, उसका अभिप्राय कलीसिया या मण्डली में अधिक से अधिक ज़िम्मेदारी वाले वरदान के
लिए है। अर्थात पौलुस में होकर परमेश्वर पवित्र आत्मा मसीही विश्वासियों को यह बता
रहा है कि मसीही मण्डली में अधिक से अधिक ज़िम्मेदारी उठाने वाले, यानि कि प्रभु के लिए
अधिक से अधिक उपयोग में आने वाले व्यक्ति होने की ‘धुन’ में रहो या लालसा रखो। यदि
इसे वरदानों और सेवकाइयों के बड़े-छोटे होने के लिए समझा जाए तो फिर पद 12-27
में दी गई चर्चा व्यर्थ है; फिर तो प्रभु की
मण्डली रूपी देह में सभी समान महत्व के नहीं हैं, और पवित्र
आत्मा ने बड़े या छोटे आत्मिक वरदान देने के द्वारा भेद-भाव किया है। और यह बात
परमेश्वर के स्वरूप और वचन की शिक्षाओं के साथ बिल्कुल मेल नहीं खाती है, इसलिए स्वीकार्य भी नहीं है। साथ ही, यदि यह कहा जाए
कि यह पद व्यक्ति द्वारा अपनी इच्छा के अनुसार वरदान माँगने और पाने को सिखा रहा
है, तो ध्यान कीजिए कि यह पद केवल “धुन
में रहने” के लिए कह रहा है। इस पद में कोई आश्वासन नहीं
है कि उस व्यक्ति की वह ‘धुन” पूरी भी
की जाएगी। न ही वचन में कहीं पर ऐसा कोई उदाहरण है कि किसी मसीही विश्वासी के
मांगने पर उसकी सेवकाई या वरदान बदल दिए गए। और न ही किसी अन्य स्थान पर ऐसी कोई
शिक्षा प्रभु ने अथवा पत्रियों के लेखकों में से किसी ने दी है। इसलिए परमेश्वर
पवित्र आत्मा के नाम से ऐसी किसी ‘धुन’ के पूरा किए जाने की शिक्षा भी असत्य है, परमेश्वर
की ओर से नहीं है, और यह सिखाना वचन का दुरुपयोग करना है।
यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो ध्यान कीजिए कि आपके
लिए कितना महत्वपूर्ण और अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की हर बात को उसके
संदर्भ के साथ, मूल भाषा के शब्दों के अर्थ को समझते हुए,
उसकी वास्तविकता में समझें; न कि मन-गढ़न्त
धारणाओं और गलत शिक्षाओं, असत्य को बताने और फैलाने वालों की
बातों में आकर उनके छलावे में फंस जाएं (2 कुरिन्थियों 2:11)। क्योंकि वचन का दुरुपयोग करके लोगों को बहका कर पाप में फंसाना शैतान की
बहुत पुरानी और परखी हुई युक्ति है (2 कुरिन्थियों 11:3,
13-15), जिसे वह अदन की वाटिका से प्रयोग करता आ रहा है (उत्पत्ति 3:1-6);
यहाँ तक कि उसने इसे प्रभु यीशु के विरुद्ध भी प्रयोग करने का
प्रयास किया था (मत्ती 4:1-11)। यदि आपके साथ भी वह अपनी इस
युक्ति में सफल हुआ तो आपको लगेगा कि आप सही मार्ग पर हैं, किन्तु
शैतान आपको गलत मार्ग पर लिए चल रहा होगा। और अन्ततः जब आँख खुलेगी, और सही समझ आएगी, तब तक बहुत देर हो चुकी होगी।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक
स्वीकार नहीं किया है, तो
अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के
पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की
आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए
- उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से
प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ
ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस
प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद
करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया,
उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी
उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को
क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और
मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।”
सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा
भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
- हाग्गै
1-2
- प्रकाशितवाक्य 17