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सोमवार, 1 अगस्त 2022

मसीही सेवकाई में पवित्र आत्मा की भूमिका / The Holy Spirit in Christian Ministry – 13


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पवित्र आत्मा - धार्मिकता के लिए कायल करता है (यूहन्ना 16:10)


पिछले लेखों में हमने देखा है कि मसीही सेवकाई में, परमेश्वर पवित्र आत्मा अपने कार्य और सामर्थ्य को प्रभु यीशु के शिष्यों, अर्थात मसीही विश्वासियों में होकर करता है, और उनमें होकर संसार के लोगों के समक्ष मसीही जीवन के उदाहरण तथा वचन की शिक्षाओं को प्रत्यक्ष करता है। इस प्रकार से परमेश्वर पवित्र आत्मा, संसार के समक्ष, मसीही विश्वासी यानि कि प्रभु यीशु के शिष्य बनने वालों के जीवनों, मनोदशा, और विचारधारा में आए परिवर्तन का प्रत्यक्ष एवं व्यावहारिक प्रमाण प्रदान करता है। साथ ही यह प्रत्यक्ष एवं व्यावहारिक प्रमाण औरों को भी प्रोत्साहित करता है कि जैसा औरों के जीवन में हुआ है, वैसे ही मेरे भी जीवन में भी इसी प्रकार का परिवर्तन और परमेश्वर के लिए उपयोगिता संभव है। यूहन्ना 16:8 में पवित्र आत्मा ने तीन बातें लिखवाई हैं, जिनके विषय वह प्रभु यीशु के शिष्यों में होकर संसार को दोषी ठहराता है। ये तीन बातें हैं - पाप, धार्मिकता, और न्याय। और फिर पद 9, 10, और 11 में इन तीनों के विषय टिप्पणी दी है। इनमें से पहली बात, पाप के विषय कायल करना को हम यूहन्ना 16:9 से पिछले लेख में देख चुके हैं। आज हम दूसरी बात, धार्मिकता के बारे में कायल करने के बारे में हम यूहन्ना 16:10 “और धामिर्कता के विषय में इसलिये कि मैं पिता के पास जाता हूं” से कुछ शिक्षाएं लेंगे।


मूल यूनानी भाषा के लेख में जिस शब्द का प्रयोग किया गया है, जिसे यहाँ ‘धार्मिकता’ अनुवाद किया गया है, उसका अर्थ होता है चरित्र एवं व्यवहार में दोष रहित होना। अर्थात, यहाँ पर प्रभु यीशु द्वारा प्रयुक्त शब्द “धार्मिकता” का अर्थ धार्मिक बातों, प्रथाओं, और रीति-रिवाजों का निर्वाह तथा धार्मिक अनुष्ठानों की पूर्ति के आधार पर व्यक्ति का ‘धर्मी’ समझा जाना नहीं है। यह एक बहुत आम बात है, जिससे सभी भली-भांति अवगत हैं, कि बाहरी रीति से सब कुछ करने के बावजूद, सामान्यतः व्यक्ति अंदर से और व्यवहार से फिर भी पापमय लालसाएँ और गुप्त में पापमय व्यवहार रखते हैं। उनकी यह बाहरी ‘धार्मिकता’ एक दिखावा है, उनके मन अभी भी पाप के विचार और व्यवहार के दोषी हैं। बाइबल के अनुसार इसीलिए मसीही विश्वास की शिक्षा धर्म परिवर्तन की नहीं, बल्कि मन परिवर्तन करने की है। यह मन परिवर्तन मनुष्य अपने किसी धर्म के कामों से नहीं करने पाता है, नहीं तो संसार भर में इतने धर्मों और धार्मिक अनुष्ठानों, और कार्यों के द्वारा, अब तक संसार से पाप की समस्या कब की मिट चुकी होती। यह मन परिवर्तन केवल प्रभु यीशु मसीह में लाए गए विश्वास और पापों के पश्चाताप के द्वारा ही संभव है।


बाइबल यह भी सिखाती है कि मन की इस पवित्रता के बिना, जब कोई भी प्रभु को देख भी नहीं सकता है “सब से मेल मिलाप रखने, और उस पवित्रता के खोजी हो जिस के बिना कोई प्रभु को कदापि न देखेगा” (इब्रानियों 12:14), तो फिर उसके साथ संगति और निवास कैसे करेगा? किन्तु प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास लाने के द्वारा, प्रभु यीशु मसीह के द्वारा समस्त मानव जाति के उद्धार के लिए क्रूस पर बहाए गए लहू के द्वारा मनुष्य परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी ठहरता है, उसका मेल-मिलाप परमेश्वर के साथ हो जाता है, और वह पाप के दण्ड से बच जाता है : “सो जब हम विश्वास से धर्मी ठहरे, तो अपने प्रभु यीशु मसीह के द्वारा परमेश्वर के साथ मेल रखें” (रोमियों 5:1); “सो जब कि हम, अब उसके लहू के कारण धर्मी ठहरे, तो उसके द्वारा क्रोध से क्यों न बचेंगे? क्योंकि बैरी होने की दशा में तो उसके पुत्र की मृत्यु के द्वारा हमारा मेल परमेश्वर के साथ हुआ फिर मेल हो जाने पर उसके जीवन के कारण हम उद्धार क्यों न पाएंगे?” (रोमियों 5:9-10)। 


प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास लाना, और ईसाई धर्म का निर्वाह करना, दो बिलकुल भिन्न बातें हैं; और ईसाई धर्म का निर्वाह व्यक्ति को परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी नहीं बनाता है। व्यक्ति किसी भी धर्म को माने, किसी भी परिवार में जन्म ले, सभी के लिए परमेश्वर की आज्ञा पापों से पश्चाताप करने की है “इसलिये परमेश्वर अज्ञानता के समयों में आनाकानी कर के, अब हर जगह सब मनुष्यों को मन फिराने की आज्ञा देता है। क्योंकि उसने एक दिन ठहराया है, जिस में वह उस मनुष्य के द्वारा धर्म से जगत का न्याय करेगा, जिसे उसने ठहराया है और उसे मरे हुओं में से जिलाकर, यह बात सब पर प्रमाणित कर दी है” (प्रेरितों 17:30-31)। प्रेरितों 2 अध्याय में, पतरस का पहला प्रचार यरूशलेम में धार्मिक रीतियों और अनुष्ठानों को निभाने आए हुए “भक्त यहूदियों” के मध्य किया गया था (प्रेरितों 2:5)। पतरस द्वारा उन “भक्त यहूदियों” को किए गए प्रचार को सुनकर “तब सुनने वालों के हृदय छिद गए, और वे पतरस और शेष प्रेरितों से पूछने लगे, कि हे भाइयो, हम क्या करें? पतरस ने उन से कहा, मन फिराओ, और तुम में से हर एक अपने अपने पापों की क्षमा के लिये यीशु मसीह के नाम से बपतिस्मा ले; तो तुम पवित्र आत्मा का दान पाओगे” (प्रेरितों 2:37-38)। जैसे तब उन “भक्त यहूदियों” के लिए धार्मिकता और व्यवस्था के निर्वाह के बावजूद पश्चाताप और समर्पण अनिवार्य था, उसी प्रकार से उद्धार पाने और परमेश्वर को स्वीकार्य होने के लिए आज ईसाई धर्म का निर्वाह करने वालों के लिए भी उतना ही अनिवार्य है। 


प्रभु यीशु मसीह पर विश्वास लाने के द्वारा धर्मी ठहरने, परमेश्वर से मेल-मिलाप हो जाने, पाप के दण्ड से बच जाने की इस पूरी प्रक्रिया को समझने; तथा परमेश्वर की दृष्टि में पाप क्या है, और पाप और उसके निवारण तथा समाधान किस प्रकार संभव है, आदि के विषयों पर बाइबल में दी गई शिक्षाओं पर एक विस्तृत चर्चा पहले प्रस्तुत की जा चुकी है। इस विस्तृत चर्चा की शृंखला का आरंभ पाप और उद्धार” पर लेख के साथ हुआ था; और जिन पाठकों ने इसे नहीं देखा है, वे इस लेख के लिंक से उसे देख सकते हैं, अध्ययन कर सकते हैं।


प्रभु यीशु मसीह द्वारा सभी मनुष्यों के पापों के लिए कलवरी के क्रूस पर दिए गए बलिदान को स्वीकार करने, अपने पापों से पश्चाताप करने, और अपने पापों के लिए प्रभु से क्षमा मांगने से ही व्यक्ति परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी ठहरता है; क्योंकि वह अपने इस विश्वास में आने के द्वारा प्रभु यीशु मसीह को “पहन” लेता है “और तुम में से जितनों ने मसीह में बपतिस्मा लिया है उन्होंने मसीह को पहिन लिया है” (गलातियों 3:27)। इसलिए अब मसीह यीशु में उस व्यक्ति के सभी पाप ढाँप दिए गए हैं, और मसीह यीशु में होकर वह मसीह यीशु की धार्मिकता के कारण धर्मी है। प्रभु यीशु ने यूहन्ना 16:10 में कहा कि वह अब सभी मनुष्यों के उद्धार के लिए अपना कार्य पूरा करके पिता के पास जाता है। जैसे प्रभु यीशु मसीह अपनी धर्मी दशा में परमेश्वर के पास जा सकता था, उसी प्रकार, जो विश्वास में आने के द्वारा प्रभु यीशु मसीह में धर्मी ठहराए गए हैं, वे भी परमेश्वर के पास जा सकते हैं। किन्तु यह आदर संसार के उन लोगों को उपलब्ध नहीं है जो अभी भी अपनी “धर्म-कर्म-रस्म” के निर्वाह की धार्मिकता के आधार पर परमेश्वर के पास आना चाहते हैं। जैसे ऊपर कहा गया, प्रभु यीशु मसीह से मिली इस पवित्रता के बिना तो वे परमेश्वर को देख भी नहीं सकते हैं, उसके पास जाएंगे कैसे?


सच्चे और वास्तविक मसीही विश्वासी के जीवन जीने वालों में, और संसार के मानकों के अनुसार “धार्मिकता” का जीवन जीने वालों में परमेश्वर पवित्र आत्मा “धार्मिकता” की यह तुलना प्रस्तुत करता है। मसीही विश्वास की धार्मिकता की तुलना में, सांसारिक धार्मिकता के विषय सांसारिक लोगों को दोषी ठहराता है। यदि आप मसीही विश्वासी हैं, तो आपकी “धार्मिकता” का आधार क्या है - आपका पापों से पश्चाताप, मसीह यीशु में लाया गया विश्वास, मसीह यीशु को पूर्णतः समर्पित और उसके वचन की आज्ञाकारिता का जीवन; या, किसी परिवार विशेष में जन्म तथा “धर्म-कर्म-रस्म” के निर्वाह की धार्मिकता? आपके मसीही विश्वास की वास्तविकता, और आप में परमेश्वर पवित्र आत्मा की उपस्थिति की पुष्टि आपकी मसीही सेवकाई के द्वारा होती है। यदि आपकी धार्मिकता, मसीही विश्वास की धार्मिकता है, तो फिर आप में होकर पवित्र आत्मा संसार के लोगों को उनकी सांसारिक धार्मिकता के विषय कायल करेगा, उन्हें उसकी अपूर्णता का एहसास करवाएगा। 

 

यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो थोड़ा थम कर विचार कीजिए, क्या मसीही विश्वास के अतिरिक्त आपको कहीं और यह अद्भुत और विलक्षण आशीषों से भरा सौभाग्य प्राप्त होगा, कि स्वयं परमेश्वर आप में आ कर सर्वदा के लिए निवास करे; आपको धर्मी बनाए; आपको अपना वचन सिखाए; और आपको शैतान की युक्तियों और हमलों से सुरक्षित रखने के सभी प्रयोजन करके दे? और फिर, आप में होकर अपने आप को तथा अपनी धार्मिकता को औरों पर प्रकट करे, तथा आप में होकर पाप में भटके लोगों को उद्धार और अनन्त जीवन प्रदान करने के अपने अद्भुत कार्य करे, जिससे अंततः आपको ही अपनी ईश्वरीय आशीषों से भर सके? इसलिए अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। स्वेच्छा और सच्चे मन से अपने पापों के लिए पश्चाताप करके, उनके लिए प्रभु से क्षमा माँगकर, अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आप अपने पापों के अंगीकार और पश्चाताप करके, प्रभु यीशु से समर्पण की प्रार्थना कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए मेरे सभी पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” प्रभु की शिष्यता तथा मन परिवर्तन के लिए सच्चे पश्चाताप और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 


एक साल में बाइबल पढ़ें: 

  • भजन 57-59 

  • रोमियों 4

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English Translation

Holy Spirit Convicts of Righteousness - John 16:10


In the previous articles we have seen that in the Christian Ministry, the Holy Spirit demonstrates His power and His works through the disciples of the Lord Jesus, i.e., the Christian Believers, through them He places before the world the examples of Christian living and the teachings of God’s Word. In this way God the Holy Spirit puts forth for the world an evident proof of the change that comes in the life, thinking, and mentality of a Christian Believer, i.e., the one who decides to become a disciple of the Lord Jesus Christ. This evident and practical proof also encourages others to ponder, that what has been done in a person’s life can also be done in their life and make them acceptable and useful for God. In John 16:8 the Holy Spirit has had three things written that He convicts the world for, through the lives of the disciples of the Lord Jesus. These three are - sin, righteousness, and judgment; and then in verse 9, 10, and 11, comments are added for each of these three. Of these three, we have seen the first one, sin, from John 16:9 in the previous article. Today we will look at and learn from the second thing, righteousness, from John 16:10 “of righteousness, because I go to My Father and you see Me no more” today.


The word translated as “righteousness” here, in the original Greek language means to be blameless in character and behavior. In other words, here the word “righteousness” was not used by the Lord Jesus for religious things, religious rites, rituals, and traditions, for fulfilling of religious obligations and ceremonies, or for a person to be considered “righteous” on their basis. This is a very common thing, something about which generally everybody is well aware that despite doing everything very well externally, a person usually continues to harbor sinful desires internally and often gets involved in sinful behavior covertly. Their such “external” righteousness is a mere façade, their hearts and minds are still guilty of sinful thoughts, desires and behavior. Therefore, Biblically, the teaching of Christian Faith is not for any religious conversions, but for a conversion of the heart and mind. That this conversion of the heart and mind cannot happen through any religious works is evident from the fact that despite so many different religions and religious works, observances and ceremonies all over the world, the problem of sin and righteousness has only continued to worsen, instead of getting solved and eliminated. This change of heart and mind is only brought about by personally coming to faith in the Lord Jesus and repenting of sins.


The Bible also teaches that without this holiness of the heart and mind, one cannot even see the Lord, “Pursue peace with all people, and holiness, without which no one will see the Lord” (Hebrews 12:14); then how would it at all be possible to fellowship and live with the Lord? But by coming into faith in the Lord Jesus, by accepting and believing that the Lord Jesus, through His sacrifice and shedding His blood on the Cross of Calvary, has made available the way for mankind to be saved from sins, become righteous in the eyes of God, be reconciled with God and be delivered from the penalty of his sins for eternity: “Therefore, having been justified by faith, we have peace with God through our Lord Jesus Christ” (Romans 5:1); “Much more then, having now been justified by His blood, we shall be saved from wrath through Him. For if when we were enemies we were reconciled to God through the death of His Son, much more, having been reconciled, we shall be saved by His life” (Romans 5:9-10).


To come to faith in the Lord Jesus and to live according to the Christian religion, are two entirely different things altogether; and living according to the Christian religion does not make anyone righteous in God’s eyes. A person may believe in any religion, and may have been born in any family, God’s command for each and every one, irrespective of their religion or background is to repent of their sins and prepare themselves for the coming judgment, “Truly, these times of ignorance God overlooked, but now commands all men everywhere to repent, because He has appointed a day on which He will judge the world in righteousness by the Man whom He has ordained. He has given assurance of this to all by raising Him from the dead” (Acts 17:30-31). The first preaching of the gospel message by Peter, in Acts chapter 2, was to the “devout Jews” (Acts 2:5) who had gathered in Jerusalem from all the places of the world to fulfill religious requirements and ceremonies. These devout Jews, on hearing Peter’s message given through the power of the Holy Spirit, were moved to cry out and ask how to be saved, and then Peter tells them about how they can be saved, “Now when they heard this, they were cut to the heart, and said to Peter and the rest of the apostles, "Men and brethren, what shall we do?" Then Peter said to them, "Repent, and let every one of you be baptized in the name of Jesus Christ for the remission of sins; and you shall receive the gift of the Holy Spirit” (Acts 2:37-38). Just as at that time repentance and surrender was mandatory for those devout Jews, despite their fulfilling their religious rituals and the Law, similarly, today, for the followers of the Christian religion, repentance and surrender to the Lord Jesus is just as essential to be saved and made acceptable to God.


A detailed presentation regarding the Biblical teachings on topics like what is sin; the remedy for sin and deliverance from it; understanding how to be saved from the consequences of sin, be reconciled with God; and becoming righteous in the eyes of God through coming into faith in the Lord Jesus, etc. has already been made earlier. This series on sin was begun with the article on “Sin and Salvation”, and the readers who have not read it before, can read it now by clicking on the topic, and can go through the series and study the topic, starting from this article onwards.


A person can only become righteous in God’s eyes by personally accepting the sacrifice made by the Lord Jesus on the Cross of Calvary, repenting of their sins, and asking forgiveness from the Lord Jesus for them, because when the person does this, when he comes into faith in Christ Jesus he “puts on” the Lord Jesus Christ, “For as many of you as were baptized into Christ have put on Christ” (Galatians 3:27). So, now all his sins are covered by the Lord Jesus, and by virtue of being in Christ, he now is righteous, by the imputed righteousness of Christ Jesus. The Lord Jesus said in John 16:10 that after completing the work of salvation for everyone, He is now going to the Father. Just as the Lord Jesus could now go to the Father being righteous, similarly those who have been made righteous by coming into Christ, they too can now come to the God the Father. But this honor is not available to those who still want to approach God through their contrived righteousness, based upon their religion, religious observances and works. As has been stated above, without the holiness received from the Lord Jesus, they cannot even see God, then how can they approach Him and be with Him?


The Holy Spirit presents this contrast in the lives of those who live a life of a truly Born-Again Christian Believer and those who live a life of righteousness according to their own contrived worldly methods and standards of righteousness. Thereby the Holy Spirit convicts those who believe in the righteousness by worldly methods and standards, by placing before them the righteousness of the Christian Faith. If you consider yourself to be a Christian Believer, then what is the basis of your righteousness? Is it your having repented of your sins, asked the Lord Jesus’s forgiveness for them, accepted the Lord’s sacrifice on the Cross of Calvary and come into faith in Him, surrendering your life into the hands of Christ Jesus to live in obedience to Him and His Word; or; is it based upon your being born in a particular family and lived according to the rites, rituals, and ceremonies of a particular religion? If your righteousness is the righteousness of the Christian Faith, then the Holy Spirit will convict the world about their worldly righteousness, and make them aware of their deficiencies, through you. The proof of your being in the Christian Faith, and the Holy Spirit residing in you is through your Christian ministry.


If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.


If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.



Through the Bible in a Year: 

  • Psalms 57-59 

  • Romans 4