पाप का समाधान - उद्धार - 9
पिछले कुछ लेखों में हम पाप
और उस के समाधान, उद्धार, के बारे में
परमेश्वर के वचन बाइबल की शिक्षाओं को देखते आए हैं। उद्धार के बारे में हम बाइबल
की शिक्षाओं को तीन महत्वपूर्ण प्रश्नों के अंतर्गत देखते आ रहे हैं। ये प्रश्न हैं:
· यह
उद्धार, अर्थात बचाव, या सुरक्षा किस
से और क्यों होना है?
· व्यक्ति
इस उद्धार को कैसे प्राप्त कर सकता है?
· इसके
लिए यह इतना आवश्यक क्यों हुआ कि स्वयं परमेश्वर प्रभु यीशु को स्वर्ग छोड़कर सँसार
में बलिदान होने के लिए आना पड़ा?
अभी तक हम इनमें से पहले दो
प्रश्नों के उत्तरों तथा उनके निष्कर्षों को बाइबल की शिक्षाओं के अनुसार को देख
चुके हैं। साथ ही हमने तीन धर्मी, परमेश्वर के वचन के ज्ञाता,
और समाज में उच्च ओहदा रखने वाले लोगों के जीवनों को भी देखा था,
और उनसे सीखा था कि इन सब बातों के होने के बावजूद वे परमेश्वर को
स्वीकार्य होने की स्थिति में नहीं थे, और स्वयं उनका विवेक
उन्हें इसके लिए बेचैन करता था। अब तीसरा प्रश्न देखना बाकी है; किन्तु इस सबसे महत्वपूर्ण प्रश्न को देखने से पहले, जो बातें हम अभी तक देख और सीख चुके हैं, उन्हें
ध्यान कर लेना, उनका पुनः अवलोकन कर लेना अच्छा रहेगा,
जिससे परमेश्वर के मनुष्य बनकर, सभी मनुष्यों
के पापों के लिए अपने आप को बलिदान कर देने को समझने में हमें कोई असमंजस न हो।
पुनः अवलोकन
पाप क्या है?
- बाइबल
के अनुसार, पाप की
परिभाषा और व्याख्या किसी मनुष्य अथवा मनुष्यों के अनुसार नहीं है; वरन इसे स्वयं परमेश्वर ने बताया है। उसने जो कहा और निर्धारित किया
है, अन्ततः वही माना जाएगा, और
उसी के अनुसार ही सब को और सब कुछ को जाँचा-परखा जाएगा, हर निर्णय लिया जाएगा (यूहन्ना 12:48; 1 कुरिन्थियों
3:11-13)।
- परमेश्वर
ने बताया है कि पाप केवल कुछ शारीरिक कार्य करना ही नहीं है, वरन, मूलतः,
परमेश्वर के नियमों, उसकी व्यवस्था का
उल्लंघन करना है (1 यूहन्ना 3:4)।
किसी भी प्रकार का अधर्म पाप है (1 यूहन्ना 5:17),
वह चाहे किसी भी बात या परिस्थिति के अन्तर्गत अथवा उद्देश्य
से क्यों न किया गया हो।
- बाइबल
सिखाती है कि पाप में होना एक मानसिक दशा है। हर प्रकार के पाप का आरंभ मन
में होता है, और उचित
परिस्थितियों एवँ समय में वह शारीरिक क्रियाओं में प्रगट हो जाता है (याकूब 1:14-15;
मरकुस 7:20-23)। इसीलिए परमेश्वर की
दृष्टि में विचारों में किए गए पाप भी वास्तव में किए गए पापों के समान ही
दण्डनीय हैं (मत्ती 5:22, 28)।
- इसीलिए
परमेश्वर की दृष्टि में ऐसे सभी प्रकार के विचार, दृष्टिकोण, भावनाएं, मनसा, प्रवृत्ति,
कार्य, व्यवहार, इत्यादि
पाप हैं जो उसके द्वारा दिए गए धार्मिकता के नियमों और मानकों के अनुसार उचित
नहीं हैं, उन मानकों के अनुरूप नहीं हैं। ये बातें चाहे
अभी मन ही में हों, किसी शारीरिक क्रिया में प्रकट
नहीं भी हुई हों; किन्तु उनकी मन में उपस्थिति और स्थान ही मनुष्य को परमेश्वर
की दृष्टि में “पापी” ठहराने के लिए पर्याप्त है।
पाप के परिणाम:
- पवित्र, निष्पाप परमेश्वर पाप के साथ
संगति नहीं कर सकता है।
- पाप
परमेश्वर और मनुष्य में दीवार ले आता है, परस्पर संगति को तोड़ देता है।
- पाप
मनुष्यों में मृत्यु, अर्थात, मानवीय क्षमताओं और संदर्भ में,
एक अपरिवर्तनीय बिछड़ जाना ले आता है। आत्मिक रीति से, मनुष्य परमेश्वर से पाप
करते ही बिछड़ गया; और शारीरिक
रीति से उसी दिन से उसका शरीर क्षय होना आरंभ हो गया, और
अन्ततः मर गया। मृत्यु की यही दशा प्रथम मनुष्यों से उनकी संतानों में भी आई,
और आज भी विद्यमान है। इसी समस्या का निवारण परमेश्वर ने प्रभु
यीशु में होकर समस्त मानव जाति को उपलब्ध करवाया है।
उद्धार और संबंधित बातें:
- ‘उद्धार’ या ‘बचाव’
का अर्थ होता है “किसी खतरे अथवा हानि से
सुरक्षा मिलना”; अर्थात उद्धार दिए जाने का अर्थ है
बचाया जाना, सुरक्षित कर दिया जाना।
- उद्धार
हमेशा परमेश्वर की ओर से दिया जाता है; कोई भी व्यक्ति कभी भी, किसी भी रीति से
परमेश्वर के उद्धार को कमा नहीं सकता है; अपने किसी भी
प्रयास से अपने आप को उद्धार प्राप्त करने का अधिकारी अथवा योग्य नहीं कर
सकता है; अर्थात, अपने आप को स्वर्ग में प्रवेश और निवास के योग्य शुद्ध और पवित्र
नहीं कर सकता है।
- परमेश्वर
का समाधान, मनुष्य के
स्वेच्छा तथा सच्चे मन से परमेश्वर के प्रति संपूर्ण विश्वास रखने, और अपने इस विश्वास पर आधारित परमेश्वर की सम्पूर्ण आज्ञाकारिता एवं
समर्पण के साथ उसकी आज्ञाकारिता में जीवन व्यतीत करने के निर्णय कर लेने पर
निर्भर है।
- इस
पूरी प्रक्रिया में मनुष्य को केवल परमेश्वर द्वारा उपलब्ध करवाए गए समाधान
को अपने जीवन में कार्यान्वित करना है; उसमें अपनी कोई बात, योजना, विधि आदि नहीं सम्मिलित करनी है, और न ही किसी
अन्य मनुष्य की मध्यस्थता अथवा योगदान को सम्मिलित करना है।
- यह
उद्धार, अर्थात बचाव,
या सुरक्षा किस से और क्यों होना है?
- किस से - उद्धार या बचाव पाप के दुष्प्रभावों से होना है, जिन के कारण मनुष्यों में आत्मिक एवं शारीरिक मृत्यु, डर, अहं, दोष, लज्जा, परमेश्वर से दूरी, अपनी गलतियों के लिए बहाने बनाना तथा दूसरों पर दोषारोपण करने,
परमेश्वर की कृपा को नजरंदाज करने जैसी प्रवृत्ति और भावनाएं
आ गई हैं। प्रभु यीशु मसीह हमें पाप के प्रभावों से मुक्त कर के “पवित्र, निष्कलंक, निर्दोष,
बेदाग और बेझुर्री” बनाकर अपने साथ,
अपनी कलीसिया, अर्थात मसीही विश्वासियों
के कुल समुदाय को, अपनी दुल्हन बनाकर खड़ा करना चाहता
है (इफिसियों 5:25-27)।
- क्यों - क्योंकि हमारा सृष्टिकर्ता परमेश्वर हम सभी मनुष्यों से अभी भी, हमारी
पाप में पतित दशा में भी प्रेम करता है, हमारे साथ
संगति में रखना चाहता है, चाहता है कि हम उस से
मेल-मिलाप कर लें, और उसके पुत्र-पुत्री होने के दर्जे
को स्वीकार कर लें (यूहन्ना 1:2-13) और स्वर्ग के
वारिस बन जाएं। वह हमें विनाश में नहीं आशीष में देखना चाहता है।
- व्यक्ति
इस उद्धार को कैसे प्राप्त कर सकता है?
- पाप और उद्धार से संबंधित चर्चा के इस महत्वपूर्ण दूसरे प्रश्न का
निष्कर्ष है कि पाप का समाधान और उद्धार किसी धर्म के कार्य अथवा धर्म के
निर्वाह के द्वारा नहीं है; न ही यह किसी धर्म विशेष की बात है; और न ही
पैतृक अथवा वंशागत है। प्रत्येक व्यक्ति को अपने पापों के लिए स्वयं
पश्चाताप करना होगा, उनके लिए स्वयं प्रभु यीशु से
क्षमा माँगनी होगी, स्वयं ही अपना जीवन प्रभु यीशु को
समर्पित करना होगा, उसका आज्ञाकारी शिष्य बनने का
स्वयं ही निर्णय लेना होगा।
तीन व्यक्तियों, नीकुदेमुस, धनी जवान धर्मी अधिकारी,
और पौलुस के जीवन दिखाते हैं कि धर्म का निर्वाह, परमेश्वर के वचन का मनुष्यों एवं अपनी समझ से प्राप्त किया गया ज्ञान,
धार्मिक कार्य, धार्मिक उन्माद, धार्मिकता के द्वारा समाज में उच्च और प्रतिष्ठित होना, आदि, कुछ भी मनुष्य को परमेश्वर के सामने धर्मी और
स्वीकार्य, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश के लिए योग्य नहीं
बनाता है। यह केवल नया जन्म पा लेने, अर्थात, प्रत्येक मनुष्य के स्वेच्छा और सच्चे मन से पापों के लिए पश्चाताप करने
और प्रभु यीशु मसीह को उद्धारकर्ता स्वीकार करके अपना जीवन उसे समर्पित करने,
उसकी आज्ञाकारिता में, उसकी शिष्यता में आ जाने
के द्वारा ही है; उद्धार का यही एक मात्र मार्ग है।
यदि आप ने अभी भी अपने पापों के लिए प्रभु यीशु से
क्षमा नहीं मांगी है,
तो अभी आपके पास अवसर है। स्वेच्छा से, सच्चे
और पूर्णतः समर्पित मन से, अपने पापों के प्रति सच्चे
पश्चाताप के साथ एक छोटे प्रार्थना, “हे प्रभु यीशु मैं मान
लेता हूँ कि मैंने जाने-अनजाने में, मन-ध्यान-विचार और
व्यवहार में आपकी अनाज्ञाकारिता की है, पाप किए हैं। मैं मान
लेता हूँ कि आपने क्रूस पर दिए गए अपने बलिदान के द्वारा मेरे पापों के दण्ड को
अपने ऊपर लेकर पूर्णतः सह लिया, उन पापों की पूरी-पूरी कीमत
सदा काल के लिए चुका दी है। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मेरे मन को अपनी ओर परिवर्तित करें, और मुझे अपना
शिष्य बना लें, अपने साथ कर लें।” आपका
सच्चे मन से लिया गया मन परिवर्तन का यह निर्णय आपके इस जीवन तथा परलोक के जीवन को
स्वर्गीय जीवन बना देगा।
बाइबल पाठ: रोमियों 6:15-23
रोमियों
6:15 तो क्या हुआ क्या हम इसलिये पाप करें, कि हम व्यवस्था के आधीन नहीं वरन अनुग्रह के आधीन हैं?
कदापि नहीं।
रोमियों
6:16 क्या तुम नहीं जानते, कि जिस की आज्ञा मानने के लिये तुम अपने आप को दासों के
समान सौंप देते हो, उसी के दास हो: और जिस की मानते हो,
चाहे पाप के, जिस का अन्त मृत्यु है, चाहे आज्ञा मानने के, जिस का अन्त धामिर्कता है
रोमियों
6:17 परन्तु परमेश्वर का धन्यवाद हो, कि तुम जो पाप के दास थे तौभी मन से उस उपदेश के मानने वाले
हो गए, जिस के सांचे में ढाले गए थे।
रोमियों
6:18 और पाप से छुड़ाए जा कर धर्म के दास हो गए।
रोमियों
6:19 मैं तुम्हारी शारीरिक दुर्बलता के कारण मनुष्यों की रीति पर कहता हूं, जैसे तुम ने अपने अंगों को कुकर्म के
लिये अशुद्धता और कुकर्म के दास कर के सौंपा था, वैसे ही अब अपने
अंगों को पवित्रता के लिये धर्म के दास कर के सौंप दो।
रोमियों
6:20 जब तुम पाप के दास थे, तो धर्म की ओर से स्वतंत्र थे।
रोमियों
6:21 सो जिन बातों से अब तुम लज्जित होते हो, उन से उस समय तुम क्या फल पाते थे?
रोमियों
6:22 क्योंकि उन का अन्त तो मृत्यु है परन्तु अब पाप से स्वतंत्र हो कर और परमेश्वर
के दास बनकर तुम को फल मिला जिस से पवित्रता प्राप्त होती है, और उसका अन्त अनन्त जीवन है।
रोमियों
6:23 क्योंकि पाप की मजदूरी तो मृत्यु है, परन्तु परमेश्वर का वरदान हमारे प्रभु मसीह यीशु में अनन्त
जीवन है।
एक साल में बाइबल:
· नीतिवचन 1-2
· 1 कुरिन्थियों 16