परमेश्वर के वचन से उचित व्यवहार – 17
पिछले कुछ लेखों से हम पौलुस द्वारा परमेश्वर के वचन के उपयोग और उसके साथ व्यवहार के बारे में 2 कुरिन्थियों 2:17 से सीखते आ रहे हैं, जिस से कि हम भी वैसा ही करने वाले बनें। पौलुस द्वारा लिखे गए लेखों में से हमने देखा है कि पहली कलीसिया के समय से ही, कुछ नहीं वरन बहुतेरे प्रचारकों और शिक्षकों ने सुसमाचार का प्रचार और परमेश्वर के वचन की शिक्षा देने को व्यक्तिगत लाभ कमाने के लिए उपयोग करना आरम्भ कर दिया था, जिसके लिए वे परमेश्वर के वचन और सुसमाचार को बिगाड़ते और भ्रष्ट करते थे। आज से हम अपने ध्यान को पौलुस द्वारा कुरिन्थुस की मण्डली को लिखी दूसरी पत्री के एक अन्य खण्ड, 2 कुरिन्थियों 4:1-5 पर ले कर जाएंगे, और वहाँ से पौलुस के द्वारा परमेश्वर के वचन के उपयोग और उसके साथ व्यवहार के बारे में कुछ और बातों को सीखेंगे।
पौलुस ने इस से पिछले अध्याय में, अर्थात 2 कुरिन्थियों अध्याय 3 में कुरिन्थुस की मण्डली के लोगों से कहा था कि वे ही उसकी सेवकाई का प्रमाण और उसके लिए सिफारिश की पत्रियाँ हैं, जिन्हें लोग पढ़ सकते हैं और देख तथा समझ सकते हैं कि वह क्या प्रचार कर रहा और सिखा रहा था। पौलुस, 2 कुरिन्थियों 3:12 में अपनी सेवकाई से संबंधित एक और बात कहता है – क्योंकि, जिस सुसमाचार का वह प्रचार करता था, उस से उसके पास जो आशा थी, अनन्तकाल की और धन्य आशा, उसके कारण वह हिम्मत या साहस के साथ प्रचार करता था। हम पहले देख चुके हैं कि पौलुस ने निःसंकोच अपने बारे में यह कहा था कि लोग उसे कोई अच्छा या प्रभावी वक्ता नहीं समझते थे (2 कुरिन्थियों 10:1, 10)। किन्तु इस से उसे कोई परेशानी नहीं होती थी, क्योंकि वह वही कहता था जो पवित्र आत्मा उसे बोलने के लिए कहता था, जब और जहाँ उसे बोलने के लिए कहता था। इसलिए, जैसे उसने 1 कुरिन्थियों 3:6-8 में कहा है, वह केवल उसे दिए गए बीज का बोने वाला था, केवल सन्देश-वाहक था; उसके इस परिश्रम को परिणाम परमेश्वर देता था। इसलिए, परमेश्वर द्वारा उसे सौंपी गई सेवकाई को पूरी करने के लिए, पौलुस को अपनी किसी योग्यता अथवा कौशल पर कभी भी निर्भर नहीं होना पड़ता था। वह अच्छे से जानता और समझता था कि यदि वह पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन एवं सामर्थ्य में होकर प्रचार और शिक्षा देना करता रहेगा, तो परमेश्वर उपयुक्त परिणाम भी देगा और उसके परिश्रम को आशीषित भी करेगा। तो फिर, पौलुस ने यहाँ पर यह क्यों लिखा, “हम हियाव के साथ बोलते हैं”?
वर्तमान में हमारे इस शब्द हियाव या साहस के उपयोग के अनुसार, हम इसके अर्थ को जोखिम उठाने, मुंहफट या उद्दण्ड होने के साथ लेते हैं। किन्तु मूल यूनानी भाषा में जिस शब्द का उपयोग किया गया है, और जिसका अनुवाद यहाँ ‘हियाव’ या ‘साहस’ किया गया है, उसका वास्तविक अर्थ है स्पष्ट बोलने वाला या सीधी बात बोलने वाला, वह जो अपनी बात के प्रति निःसंकोच है और उसको खुल कर या बेबाक होकर कहता है। दूसरे शब्दों में, पौलुस को अपने सन्देश के बारे में कभी कोई संकोच नहीं था, वह अपनी बात के लिए कभी कोई हिचकिचाहट नहीं रखता था, और जो भी बोलता था उसे दृढ़ता से कहता था। परमेश्वर के द्वारा उसे दिए गए सन्देश को देने के लिए वह कभी चतुराई की बातों का या उसे संकेतों के द्वारा कहने का प्रयास नहीं करता था, न ही किसी आलंकारिक भाषा का या बात को घुमा-फिरा कर कहने की शैली का उपयोग करता था, और न ही उसे अपने सन्देश को आकर्षक, लुभावना, और श्रोताओं के लिए रुचिकर बनाने की कोई आवश्यकता होती थी। वह इस के बारे में बहुत ध्यान रखता था। ऐसा इसलिए था क्योंकि वह इस बात के प्रति बहुत दृढ़ था कि उसने परमेश्वर से जैसा सन्देश प्राप्त किया है, उसे वैसा ही प्रस्तुत भी करे, बिना उस में अपनी और से कुछ भी जोड़े, या अपने द्वारा उसकी प्रस्तुति को और बेहतर बनाने का प्रयास किए (1 कुरिन्थियों 11:23; 15:3; गलातियों 1:12; 1 थिस्सलुनीकियों 4:2)।
पौलुस इसी सन्दर्भ में 2 कुरिन्थियों 4:1 में, अपने और अपने सह-कर्मियों के लिए, उन्हें परमेश्वर द्वारा दी गई सेवकाई की विषय कहता है, “तो हम हियाव नहीं छोड़ते।” इसे हम अगले लेख से देखना आरम्भ करेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Appropriately Handling God’s Word – 17
For the past few articles, we have been considering Paul’s utilizing and handling God’s Word from 2 Corinthians 2:17, for our learning of doing the same. Through Paul’s writings, we have seen how, not a few, but many preachers and teachers, right from the time of the first Church, had started to use the preaching of the gospel and the teaching of God’s Word for personal gain and benefit, by distorting and corrupting God’s Word and the gospel. From today we will shift our focus to another section of Paul’ second letter to the Corinthians, to 2 Corinthians 4:1-5, and from there learn some more things from Paul about utilizing and handling the Word of God.
Paul had said to the Corinthian Believers in the previous chapter, i.e., 2 Corinthians chapter 3, that they were the proof of his ministry and his letter of recommendation, for the world to see, read and understand, what he was preaching and teaching. Paul in 2 Corinthians 3:12 also states another thing related to his ministry – because of the hope, the eternal and blessed hope, that he had, through the gospel which he preached, he used great boldness of speech in his preaching. We have seen earlier, that Paul unhesitatingly admitted that he was not considered to be a great or skillful orator (2 Corinthians 10:1, 10). But this did not bother him, since he spoke what the Holy Spirit asked him to say, when and where the Holy Spirit asked him to speak. So, as he had stated in 1 Corinthians 3:6-8, he was only the sower of the seed given to him, merely the conveyor of the message, it was God who gave results to his labor. Hence, he did not have to bother about or depend upon any of his personal skills and abilities to fulfill his God assigned ministry. He well knew and understood that if he continued to preach and teach under the guidance and power of the Holy Spirit, God would give the required results, and bless his efforts. Why then did he need to use “great boldness of speech” in preaching the gospel and teaching God’s Word?
We tend to misunderstand this word ‘boldness’ in our present manner of using this word; i.e., being impudent or aggressive or taking risks in face of dangers. But the word used in the original Greek language and translated as ‘boldness’ here means being out-spoken, or speaking very plainly, being frank, forthright, and assured of what was being spoken. In other words, Paul had no doubts, never vacillated, and was firm in what he spoke. In conveying his God given message, he neither ‘beat around the bush’, did not use any flowery or idiomatic language, nor did he have to resort to anything to make his preaching attractive, appealing, and pleasing to the audience. Notice that Paul does not only say ‘boldness’ but ‘great boldness’; i.e., he emphasizes on this to convey that he was very particular about doing this. This was because, as we have seen about him in the previous articles, he was particular to present God’s message as he had received it, without adding anything to it from his side, or trying to improve its presentation by any means (1 Corinthians 11:23; 15:3; Galatians 1:12; 1 Thessalonians 4:2).
It is in this context, that Paul says in 2 Corinthians 4:1, that he and his colleagues ‘do not lose heart’’ in their ministry given to them by God. We will start considering this in the next article.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.