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आत्मिक वरदानों के प्रयोगकर्ता - उपकार करने वाले - आवश्यकता
मसीही विश्वासियों की मण्डली के कार्यों को सुचारु रीति से चलाने के लिए 1 कुरिन्थियों 12:28 में दी गई आत्मिक वरदानों की सूची के पहले तीन वरदान वचन की सेवकाई से संबंधित हैं; उसके बाद के तीन वरदान - सामर्थ्य के कार्य करना, चंगा करना, और उपकार करना, मण्डली के सदस्यों तथा अन्य मसीही विश्वासियों तथा औरों की भलाई के लिए विशेषतः प्रयोग किए जाने वाले वरदान हैं। विशेषतः मसीही विश्वासियों की भलाई के लिए उपयोग में आने वाले इन तीन वरदानों में से पहले दो को हम पिछले लेखों में देख चुके हैं। इन दोनों वरदानों के विषय हमने देखा है कि यद्यपि इन वरदानों के कारण लोगों का ध्यान इन वरदानों का प्रयोग करने वाले व्यक्ति की ओर जाता है, उसे प्रशंसा और प्रधानता मिलने का बहुत अवसर रहता है; किन्तु यदि इन वरदानों का उपयोग परमेश्वर के निर्देशों और उसके निर्धारित उद्देश्यों, सुसमाचार के प्रचार और प्रसार, के अनुसार न किया जाए, इनसे मिलने वाला आदर और महिमा परमेश्वर को न दिया जाए, तो ये वरदान और इनका प्रयोग व्यर्थ हो जाता है। आज हम इस श्रेणी के तीसरे वरदान “उपकार करने” वालों की आवश्यकता के बारे में, और अगले लेख में उनकी कार्य-विधि के बारे में वचन से देखेंगे। यह ऐसा वरदान है जिसके विषय, अन्य दोनों वरदानों की तुलना में, सामान्यतः शायद ही कोई लालसा रखता है और उसे परमेश्वर से माँगता है, यद्यपि इस पद में दिए क्रम में, इस वरदान को लोकप्रिय वरदानों, प्रधानताओं और अन्य भाषा बोलने से अधिक वरीयता दी गई है, उन से पहले रखा गया है।
मूल यूनानी भाषा के जिस शब्द का अनुवाद ‘उपकार’ किया गया है उसका शब्दार्थ होता है ‘राहत’ या ‘सहायता’ प्रदान करना, अर्थात किसी को उसके दुखों, कष्टों, परेशानियों में आराम देना। और यह सभी जानते हैं कि किसी को आराम देने के लिए स्वयं को कष्ट या परेशानी उठानी पड़ती है। किन्तु यदि परमेश्वर ने अपने लोगों को यह कार्य सौंपा है, और परमेश्वर पवित्र आत्मा ने उसके लिए आवश्यक सामर्थ्य और योग्यता वरदान के रूप में उन निर्धारित लोगों को दी है, तो अवश्य ही मसीही विश्वासियों की मण्डली में इस वरदान की आवश्यकता थी, है, और रहेगी। इसका स्पष्ट अर्थ यह हुआ कि मसीही विश्वासियों की मण्डली में अवश्य ही ऐसे लोग होंगे जो किसी कष्ट, क्लेश, परेशानी में होंगे; और उन्हें किसी ऐसे जन की सहायता की आवश्यकता होगी जो इस विपरीत परिस्थिति में उन्हें ढाढ़स और सांत्वना दे सके, उनके साथ खड़ा होकर उन्हें हिम्मत दे, उनका सहारा बने, उनकी सहायता करे। यह हम सभी का अनुभव है कि मसीही विश्वासियों की मण्डली के लोग, भिन्न समयों में, जीवन की विभिन्न परिस्थितियों से, वे चाहे सुख की हों या दुख की, निकलते रहते हैं। इसलिए मसीही विश्वासियों की प्रत्येक मण्डली में ऐसे लोगों की भी आवश्यकता बनी रहती है जो “उपकार” या “सहायता” करने वाले हों, औरों को राहत पहुँचाने वाले हों।
इस तथ्य को पहचानना और मानना एक और बहुत महत्वपूर्ण तथ्य को भी हमारे समक्ष लाता है - मसीही विश्वासी दुखों और परेशानियों से अछूते नहीं होते हैं। उन्हें भी अन्य सभी लोगों के समान जीवन की हर प्रकार की परिस्थितियों का सामना करना होता है, उनसे होकर निकलना होता है। पवित्र आत्मा की अगुवाई में याकूब ने लिखा, “एलिय्याह भी तो हमारे समान दुख-सुख भोगी मनुष्य था...” (याकूब 5:17); कल्पना कीजिए, परमेश्वर का इतना महान और सामर्थी नबी भी ‘हमारे समान दुख-सुख भोगी मनुष्य था’, और उसकी यह सामर्थी सेवकाई उन सुख-दुख के अनुभवों और परिस्थितियों के मध्य ही संपन्न हुई। पवित्र आत्मा ने पौलुस के द्वारा लिखवाया, “पर जितने मसीह यीशु में भक्ति के साथ जीवन बिताना चाहते हैं वे सब सताए जाएंगे” (2 तीमुथियुस 3:12); और पौलुस तथा उसके साथी सुसमाचार प्रचार करते हुए “चेलों के मन को स्थिर करते रहे और यह उपदेश देते थे, कि हमें बड़े क्लेश उठा कर परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करना होगा” (प्रेरितों 14:22)। पौलुस का अपना मसीही जीवन इस बात का प्रमाण है कि मसीही विश्वास का जीवन ऐश और आराम का, सांसारिक संपन्नता, समृद्धि, सुख, और विलासिता का, आराम से बैठकर किताबी ज्ञान बांटने और मज़े लेने का जीवन नहीं, वरन, व्यावहारिक जीवन में सुसमाचार को जी कर दिखाने का जीवन होता है।
प्रभु की इच्छा के अनुसार की गई मसीही सेवकाई में भी दुख उठाने होते हैं, जैसे पौलुस ने तिमुथियुस को लिखा “पर तू सब बातों में सावधान रह, दुख उठा, सुसमाचार प्रचार का काम कर और अपनी सेवा को पूरा कर” (2 तीमुथियुस 4:5)। दुख, तकलीफ, और बीमारियाँ, सभी पर आती हैं, कभी-कभी परमेश्वर की ओर से भेजी जाती हैं (2 कुरिन्थियों 12:7-10), ये पौलुस और तिमुथियुस पर भी आईं (2 कुरिन्थियों 11:30; गलातीयों 4:13; 1 तिमुथियुस 5:23), और आज भी सभी मसीही सेवकों पर आती रहती हैं। वचन के उदाहरणों से हम देखते हैं कि ऐसी परिस्थितियों में ये मसीही सेवक ही एक-दूसरे के लिए तथा औरों के लिए ढाढ़स और प्रोत्साहन प्रदान करते थे - इन्हें स्वयं भी “उपकार” या “राहत” देने की इस सेवकाई की आवश्यकता होती थी, और ये इस वरदान को एक-दूसरे की सहायता के लिए भी प्रयोग करते थे।
मसीही विश्वास के जीवन में दुख, तकलीफों, क्लेशों और सताव सर्वदा विद्यमान रहने के इस अति महत्वपूर्ण तथ्य को जानना और मानना, तथा सुसमाचार प्रचार के साथ इसे औरों को बताना, हमारे लिए क्यों आवश्यक है? क्योंकि मसीही विश्वास के बारे में गलत शिक्षाएं देने वाले अकसर सुसमाचार की इस सच्चाई को बताने के स्थान पर, प्रलोभन के रूप में, इसके विपरीत आश्वासन लोगों को देते हैं, कि मसीही विश्वासी बन जाने के बाद सभी दुखों और तकलीफों का निवारण हो जाएगा, सारे कष्ट मिट जाएंगे, जीवन सहज और सरल हो जाएगा, सभी समस्याओं का समाधान हो जाएगा, इत्यादि - जो वचन की सच्चाई से कदापि मेल नहीं रखता है। इस प्रलोभन के अंतर्गत जब लोग मसीही विश्वास को स्वीकार करते हैं, और फिर जब उन्हें वास्तविकता का सामना करना पड़ता है, तो यह उनके लिए एक बहुत बड़ा झटका होता है। ऐसे में कई लोग पीछे हट जाते हैं, मसीही विश्वास और विश्वासियों को बदनाम करने लगते हैं। जबकि सुसमाचार का सच्चा प्रचार कभी इस तथ्य को नहीं छिपाएगा, वरन जैसा स्वयं प्रभु यीशु मसीह ने भी उसके पीछे चलने की इच्छा रखने वालों को सिखाया था (लूका 9:23, 57-62), प्रभु के पीछे हो लेने की कीमत को जान और पहचान कर, उस कीमत को चुकाने का दृढ़ निर्णय कर के ही प्रभु के शिष्य बनने का कदम उठाना चाहिए।
यदि आप मसीही विश्वासी हैं, मसीही सेवकाई और सुसमाचार प्रचार में संलग्न हैं, तो ध्यान रखें कि पवित्र आत्मा, जो “सत्य के आत्मा” (यूहन्ना 16:13 है), की सामर्थ्य और अगुवाई से प्रभु यीशु मसीह जो “मार्ग, सत्य, और जीवन” (यूहन्ना 14:6) है, में लाए गए विश्वास और पापों से किए गए पश्चाताप के द्वारा संसार के लोगों को मिलने वाली पापों की क्षमा और अनन्त जीवन का सुसमाचार किसी झूठ अथवा असत्य प्रलोभन के साथ कभी भी, किसी भी तर्क के दबाव में आकर, न करें। वरन सत्य का प्रचार, सत्य के साथ ही हो, क्योंकि प्रभु यीशु ने कहा है “सत्य को जानोगे, और सत्य तुम्हें स्वतंत्र करेगा” (यूहन्ना 8:32)। पाप के दुखों और क्लेशों में पड़े संसार के लोगों को, तथा मसीही विश्वासियों में भी विद्यमान दुखियों को, किसी “सहायक”, या “उपकार” करने वाले की बहुत आवश्यकता है। किन्तु असत्य और प्रलोभनों के द्वारा सत्य का प्रचार और प्रसार कभी नहीं हो सकता है; क्योंकि किसी भी, और कैसे भी असत्य के साथ ‘सत्य’ कभी नहीं जुड़ सकता है, और न ही असत्य को कभी स्वीकृति या मान्यता प्रदान कर सकता है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
नीतिवचन 8-9
2 कुरिन्थियों 3
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Users of the Gifts of the Holy Spirit - Helps - Their Necessity
A list of Spiritual gifts for the proper functioning of the Christian Assemblies has been given in 1 Corinthians 12:28. In this list, the first three gifts are related to the Ministry of the Word of God; the next three - miracles, healings, and helps are particularly related to being used for the benefit of other members of the Church, the other Christian Believers, and for the benefit of other people. Two of these three gifts particularly related for the benefit of others, we have already seen in the previous articles. The two gifts that we have seen are those that attract the attention of others towards the person using them, and therefore, he has a very good chance of gaining name, fame, and authority. But we have also seen that if these gifts are not used according to the instructions of God and for His assigned purposes, for spreading the gospel, and if the honor and glory because of the exercising of these gifts is not given to the Lord God, then these gifts and their glory are vain. Today we will see about the third gift in this category, “Helps” - we will see about its necessity today, and about its method in the next article. This is a gift which hardly anyone ever desires or asks God for, in comparison to the other two, even though it has been kept before the gifts of administrations and tongues in this list.
The word in the original Greek language, which has been translated as “Helps” in English, literally means to provide comfort or relief, i.e., to help a person find relief or comfort in their time of sorrows and problems. Everyone is aware of the fact that to provide relief and comfort to others, one has to suffer some discomfort and face problems. But if God has given this responsibility to some of His people, and God the Holy Spirit has given the required strength and ability to do this as a Spiritual gift, then it is very evident that the necessity for this was present in the initial Church, is present today, and will remain. This then implies that in the Christian Assemblies there were, are and will be people who will be in sorrows, problems and discomforts; and in these adverse situations they will need the help of someone who can comfort them, stand with them, encourage them, help them. We have all been through such experiences; and know that even Christian Believers keep passing through different circumstances, good or bad, in their lives off and on. Therefore, the necessity of people with the spiritual gift of “Helps” will always remain in the Christian Assemblies to provide relief and comfort to others.
Recognizing and accepting this fact brings another very important fact before us - the Christian Believers are not untouched by sorrows, problems, and adverse situations. Like the other people, they too have to face all kinds of situations and circumstances in their lives, and pass through them. Under the guidance of God, the Holy Spirit, James wrote, “Elijah was a man with a nature like ours…” (James 5:17); imagine, a prophet of God of the stature of Elijah, went through the same situations and circumstances as anybody else, and his powerful ministry was accomplished by passing through all these situations and circumstances, just as anybody else. Paul wrote, through the Holy Spirit, “Yes, and all who desire to live godly in Christ Jesus will suffer persecution” (2 Timothy 3:12); and Paul with his companions went around preaching “We must through many tribulations enter the kingdom of God” (Acts 14:22). The life of Paul is testimony to the fact that the Christian Believer’s life is not a life of ease, comfort, luxury, and sitting comfortably while preaching bookish knowledge; rather it is a life of practically living out and demonstrating the gospel and teachings of the Lord Jesus.
In the Christian Ministry done in the will of the Lord, people have to face problems, opposition and suffer, as Paul wrote to Timothy, “But you be watchful in all things, endure afflictions, do the work of an evangelist, fulfill your ministry” (2 Timothy 4:5). Pain, problems, and sicknesses etc. come upon everyone, at times they are even sent by God (2 Corinthians 12:7-10), and they came upon Paul and Timothy also (2 Corinthians 11:30; Galatians 4:13; 1 Timothy 5:23), and even today everyone in Christian Ministry keeps experiencing them, off and on, at some time or the other.. We see from the examples given in God’s Word that in such times, the Christian Ministers helped each-other, they comforted and encouraged others - they themselves needed the “Helps” or comfort from others, and provided the “Helps” and comfort to others, when the need arose (2 Corinthians 1:3-4; 2:7; 7:13; Ephesians 6:22; Colossians 4:8, 11; 1 Thessalonians 2:11; 3:7; 5:11, 14).
Why is it important for us to know, realize, and acknowledge about pain, sorrows, problems, oppositions, and persecutions being ever-present in the life of Christian Faith? Because those who preach and teach wrong doctrines and false teachings about the Christian Faith, instead of telling and teaching the truth of the gospel, to attract and entice people tell the opposite, they assure the people that if they come into the Christian Faith, all their problems will come to an end, all pains and sorrows will be relieved, life will become convenient and easy-going, etc. - and all of this has no support from the Word of God. If someone comes to be a “Christian” because of this enticement, on facing the reality, it is a very big shock for them. In this situation many people turn away, and start slandering the Christians. Whereas, a true preaching of the Gospel will never hide this fact, but just as the Lord Jesus taught to those who wanted to follow Him (Luke 9:23, 57-62), the people should be clearly told of the price they will have to pay for becoming followers of the Lord Jesus, and only if they are willing and ready to pay the price, should they take this step.
If you are a Christian Believer, and are involved in Christian Ministry and Gospel preaching, then keep in mind to never ever, in the name of the Holy Spirit, who is “the Spirit of Truth” (John 16:13), use any false assurances and untruths to preach the gospel, the message of forgiveness of sins and salvation through faith in the Lord Jesus Christ, who is “the way, the truth, and the life” (John 14:6). Never preach anything false under any pressure or compulsion, but always preach the truth through the power of The Truth, because the Lord Jesus has said, “you shall know the truth, and the truth shall make you free” (John 8:32). The world suffering under the pains and problems of sin, and even the Christian Believers facing opposition, problem, and sorrows need a “Help”, someone who can comfort and encourage them, give them some relief from their pains and problems. But the preaching and teaching of The Truth can never be done through false assurances and untruths, because The Truth can never be associated with, and nor can the Lord ever accept or affirm and go along with anything false or untrue.
If you are still thinking of yourself as being a Christian, a child of God, entitled to a place in heaven, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start learning, understanding, and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Proverbs 8-9
2 Corinthians 3