व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? – 12
मनुष्यों की अज्ञानता (भाग 1)
प्रेरित पौलुस द्वारा, अथेने के घोर मूर्तिपूजा और परमेश्वर को घृणित, अस्वीकार्य व्यवहार में लिप्त लोगों के लिए, उनके परमेश्वर के प्रकोप से बचने और परमेश्वर के साथ संगति में बहाल होने के लिए, परमेश्वर पवित्र आत्मा की अगुवाई में किए गए प्रचार में दिया गया समाधान था, “इसलिये परमेश्वर अज्ञानता के समयों में आनाकानी कर के, अब हर जगह सब मनुष्यों को मन फिराने की आज्ञा देता है” (प्रेरितों 17:30)। पौलुस के द्वारा कहलवाई गई इस बात में तीन रोचक तथा बहुत महत्वपूर्ण बातें हैं।
सबसे पहली तो यह कि परमेश्वर उन लोगों को उनके पापमय व्यवहार के लिए दण्ड देने की बजाए, उनके इन पापमय कार्यों को, जिनसे परमेश्वर घृणा करता है और सहन नहीं कर सकता है, उन्हें ही अज्ञानता के समय में किए गए कार्य मानकर, उन लोगों को दण्ड देने में आनाकानी करके, उन्हें पश्चाताप करके बच जाने का अवसर देना चाहता है।
दूसरी बात है कि परमेश्वर की यही मनसा केवल अथेने के उन लोगों के लिए ही नहीं थी, वरन जैसा लिखा है “हर जगह सब मनुष्यों को मन फिराने की आज्ञा देता है”; अर्थात यही बात संसार के हर स्थान के सभी मनुष्यों के लिए भी थी, और अपने वचन में इसे लिखवा कर परमेश्वर ने इसे हर समय-काल के सभी लोगों के लिए भी लागू कर दिया। साथ ही, यह परमेश्वर की इच्छा मात्र नहीं है, यह पश्चाताप करना संसार के हर स्थान के हर मनुष्य के लिए परमेश्वर की आज्ञा है, चाहे वह मनुष्य कोई भी हो, कहीं भी और कभी भी रहता हो। प्रकट है कि इस आज्ञा में किसी के भी देश, धर्म, जाति, परिवार, धार्मिकता, ओहदे, सामाजिक मान-सम्मान, आदि की कोई भूमिका नहीं है; यह सभी के लिए, ईसाई धर्म का पालन करने वाले या मसीहियों के लिए भी ठीक वैसे ही लागू है, जैसे किसी अन्य के लिए।
और तीसरी बात है कि यद्यपि पुराने नियम में, तथा मूसा के द्वारा दी गई व्यवस्था में परमेश्वर ने बारंबार कहा है कि जो व्यवस्था का पालन करेगा, वह जीवन में प्रवेश करेगा (लैव्यव्यवस्था 18:5; नहेम्याह 9:29; यहेजकेल 20:11; आदि। इसके अर्थ और अभिप्राय को हम आगे के लेखों में देखेंगे तथा समझेंगे), किन्तु फिर भी पुराने नियम और व्यवस्था का उत्तम ज्ञान और प्रशिक्षण पाए हुए भूतपूर्व फरीसी, पौलुस के द्वारा, परमेश्वर पवित्र आत्मा यह नहीं कहलवा रहा है कि वे लोग, और उनके समान ही सारे संसार के, हर समय और स्थान के, शेष सभी लोग भी, हर कोई तुरंत ही से व्यवस्था का पालन करें; व्यवस्था के अनुसार विधि-विधानों का निर्वाह करें, भेंट-बलिदान चढ़ाएं, याजकों के पास जाएं, और अपने पापों से बचने के लिए व्यवस्था में दिए गए धार्मिकता के नियमों का पालन करें। वरन सभी को परमेश्वर पश्चाताप करने की ही आज्ञा दे रहा है; सभी के लिए उसकी यही एक आज्ञा है; किसी के भी लिए, किसी भी परिस्थिति में, कोई भिन्नता नहीं है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Why The Law Cannot Save Us – 12
Man’s Ignorance (Part 1)
The Apostle Paul while preaching under the guidance of God's Holy Spirit, to those in Athens, given to blatant idolatry and works detested by God, speaks to them about the way to their becoming acceptable to God, being restored to fellowship with God, and escaping His wrath. The God given solution was, "Truly, these times of ignorance God overlooked, but now commands all men everywhere to repent" (Acts 17:30). There are three interesting and very important points in what Paul said here.
First of all, instead of punishing those people for their sinful behavior, God was willing to consider their sinful acts, the very deeds that God hates and cannot tolerate, as acts done in times of ignorance. Through being reluctant to punish them, He wants to give them a chance to repent and be saved.
Secondly, God intended this not only for the people of Athens, but as it is written "commands all men everywhere to repent"; i.e., the same was also applicable for all human beings in every place of the world. And by getting it written in His Word, God also made it applicable to all people of all time-periods. Moreover, it is not just God's will, it is God's command to every human being in every place of the world, that they repent; no matter who the person is, wherever and whenever he lives. It is evident that in the applicability of this commandment, there is no role of any one's country, religion, caste, family, supposed state of righteousness, position, social honor, etc.; It is universally and equally applicable to all, including those professing to be Christians, in much the same way as for anyone else.
And thirdly, although in the Old Testament, and in the Law given by Moses, God has repeatedly said that the one who keeps the Law will enter life (Leviticus 18:5; Nehemiah 9:29; Ezekiel 20:11; etc. We will see and understand its meaning and practical application in later articles), but still through Paul, a former learned Pharisee, one who was very well versed in the knowledge of the Old Testament and of the Law, God the Holy Spirit is neither asking him to say to those people, nor to all the rest of the people of the world, of all times and places, that everyone should get down to following the Law immediately. That they should start fulfilling the ordinances according to the Law, make offerings and sacrifices, go to the priests, and follow the prescribed laws of righteousness in order to be delivered from the consequences of their sins. Rather, instead of asking them to obey the Law, God is commanding everyone everywhere to repent. This is His one and only command to rectify this situation, meant for all; for anyone under any circumstances; there is no difference - this command remains the same.
We will continue with this in the next article as well. But for now, if you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.