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कलीसिया प्रभु एवं उसकी शिक्षाओं पर आधारित है
प्रभु परमेश्वर द्वारा लोगों को उद्धार देने, अपने साथी (मत्ती 28:20; यूहन्ना 14:3, 18), परमेश्वर की संतान (यूहन्ना 1:12-13), और अपने साथ स्वर्ग के वारिस (रोमियों 8:17) बनाने; उन्हें संसार भर में जाकर अपने सुसमाचार के प्रचार की सेवकाई सौंपने और सेवकाई के अनुसार आत्मिक वरदान प्रदान करने के उद्देश्य को समझने के लिए हमें प्रभु की कलीसिया या मण्डली और उससे संबंधित बातों को समझना होगा। इस संदर्भ में प्रचलित कुछ भ्रांतियों और गलत शिक्षाओं की वास्तविकता को हम परमेश्वर के वचन बाइबल से देख रहे हैं। पहले हमने देखा कि आम धारणा के विपरीत, बाइबल के अनुसार कलीसिया कोई भौतिक वस्तुओं से बना हुए भवन, अथवा कोई संस्था नहीं है, वरन प्रभु यीशु द्वारा बुलाए गए, और उसके प्रति समर्पित लोगों का समूह है। हमने पहले देखा था कि शब्द कलीसिया या मण्डली मूल यूनानी भाषा के जिस शब्द का अनुवाद है, वह है “ekklesia, एक्कलेसिया” जिसका शब्दार्थ होता है, “व्यक्तियों का एकत्रित होना”, या “व्यक्तियों का समूह” या “व्यक्तियों की सभा”। कलीसिया को एक विशिष्ट भवन एवं आराधना-स्थल के साथ जोड़ने से संबंधित बातों को हम आगे देखेंगे। दूसरी बहुत आम भ्रांति और गलत शिक्षा है कि प्रभु ने कलीसिया को अपने शिष्य पतरस पर स्थापित किया है, और इस भ्रांति के समर्थन में मत्ती 16:18 में प्रभु की कही बात का हवाला दिया जाता है, जो “कलीसिया” शब्द का बाइबल में सर्वप्रथम प्रयोग का पद भी है।
पिछले लेख में हमने देखा था कि मत्ती 16:18 में प्रभु की कही गई बात की वास्तविकता को तीन बातों:
क्या मत्ती 16:18 में प्रभु की कलीसिया बनाने की बात पतरस के लिए थी?
क्या वचन में किसी अन्य स्थान पर पतरस पर कलीसिया बनाने की, उसे कलीसिया का आधार रखने की पुष्टि है?
क्या पतरस इस आदर और आधार के योग्य था?
के आधार पर जाँच और समझ सकते हैं। पिछले लेख में हमने इनमें से पहली बात के विश्लेषण को देखा था, और समझा था कि प्रभु यीशु ने आलंकारिक भाषा का प्रयोग तो किया, किन्तु मत्ती 16:18 में यह बात पतरस के विषय नहीं कही थी। आज हम दूसरी बात, “वचन में दी गई अन्य बातों के द्वारा क्या कलीसिया के पतरस पर आधारित होने की पुष्टि होती है?” को देखेंगे।
कलीसिया, या मण्डली, अर्थात प्रभु के बुलाए हुए लोगों का समूह किसी भी व्यक्ति पर कदापि आधारित नहीं है, इसकी एक पुष्टि हम प्रेरित पौलुस द्वारा पवित्र आत्मा की अगुवाई में कुरिन्थुस की मण्डली को लिखी गई पहले पत्री के आरंभिक भाग में ही देखते हैं। पौलुस ने कुरिन्थुस की मण्डली के लोगों का, प्रभु के सेवकों के प्रति उनकी निष्ठा के अनुसार विभाजित होने और फिर परस्पर मतभेद रखने की प्रवृत्ति की भर्त्सना करते हुए लिखा, “हे भाइयो, मैं तुम से यीशु मसीह जो हमारा प्रभु है उसके नाम के द्वारा बिनती करता हूं, कि तुम सब एक ही बात कहो; और तुम में फूट न हो, परन्तु एक ही मन और एक ही मत हो कर मिले रहो। क्योंकि हे मेरे भाइयों, खलोए के घराने के लोगों ने मुझे तुम्हारे विषय में बताया है, कि तुम में झगड़े हो रहे हैं। मेरा कहना यह है, कि तुम में से कोई तो अपने आप को पौलुस का, कोई अपुल्लोस का, कोई कैफा का, कोई मसीह का कहता है। क्या मसीह बँट गया? क्या पौलुस तुम्हारे लिये क्रूस पर चढ़ाया गया? या तुम्हें पौलुस के नाम पर बपतिस्मा मिला?” (1 कुरिन्थियों 1:10-13)। इस खंड से स्पष्ट है कि प्रभु के सेवकों के नाम पर, जिनमें से एक नाम पतरस का भी दिया गया है, निष्ठा रखने, और फिर उस आधार पर विभाजित होने, आपस में झगड़ने की यह प्रवृत्ति अनुचित थी। प्रभु के सभी लोगों को, उस एक ही नाम, प्रभु यीशु, पर निष्ठा रखनी थी, और प्रभु के प्रति समर्पण के अनुसार ही साथ मिलकर एक मनता के साथ रहना था। पतरस के नाम को कोई भी और कैसा भी विशेष महत्व प्रदान नहीं किया गया, अपितु यह विशेष महत्व देने के प्रयास की निन्दा की गई, इस से निकलने और हटने के लिए कहा गया। साथ ही यह एक और शिक्षा को हमारे सामने लाता है, जब भी उद्धारकर्ता प्रभु यीशु के नाम को छोड़ किसी भी अन्य व्यक्ति या प्रभु के सेवक के नाम अथवा किसी भी मनुष्य को महत्व देने के प्रयास होते हैं, तो परिणाम परस्पर मतभेद, झगड़े, और प्रभु के नाम की निन्दा होता है; क्योंकि यह परमेश्वर की ओर से नहीं वरन शैतान की ओर से है, और शैतान कभी भी प्रेम को नहीं वरन बैर, फूट, मतभेदों, और झगड़ों को ही लेकर आता है।
इसी बात को 1 कुरिन्थियों 3:1-7 में समझाया और दोहराया गया है, जहाँ पर साथ ही यह भी लिखा गया है कि मसीही विश्वासियों का इस प्रकार से मनुष्यों और मनुष्यों के नामों को महत्व देना:
आत्मिक अपरिपक्वता का चिह्न है, (3:1)
उन्नत और गहन आत्मिक शिक्षाओं को प्राप्त करने, समझने, और जीवन में लागू एवं प्रयोग करने में बाधा डालता है, (3:2)
शारीरिक - अर्थात उद्धार से पहले की प्रवृत्तियों और व्यवहार के अभी भी मसीही चरित्र पर हावी होने और उसे दबाए रखने का प्रमाण है, (3:3-4)
तथा मसीही विश्वासी के जीवन में परमेश्वर की प्राथमिकता के न होने को दिखाता है। (3:5-7)
फिर इससे थोड़ा आगे चलकर, परमेश्वर पवित्र आत्मा एक बहुत महत्वपूर्ण बात लिखवाता है, जिसकी, तथा उससे संबंधित एक अन्य पद की, अनदेखी और अवहेलना वे सभी लोग, जाने या अनजाने में करते हैं, जो यह मानते हैं कि पतरस ही प्रथम मण्डली का आधार था, मण्डली उसी पर बनाई गई थी। पौलुस ने पवित्र आत्मा के अगुवाई में लिखा, “क्योंकि उस नींव को छोड़ जो पड़ी है, और वह यीशु मसीह है कोई दूसरी नींव नहीं डाल सकता” (1 कुरिन्थियों 3:11)। इस पद के पहले भाग से यह बिलकुल स्पष्ट है कि कलीसिया की नींव या आधार पहले से तैयार और स्थापित है; मध्य भाग बताता है कि वह पहले से तैयार और डाली गई नींव स्वयं प्रभु यीशु मसीह है, और अंतिम भाग बताता है कि कोई भी इस नींव को बदल नहीं सकता है, इसके स्थान पर कोई और नींव नहीं डाल सकता है।
इस संदर्भ में इस पद से संबंधित जिस दूसरे पद की अनदेखी और अवहेलना की जाती है, वह है “और प्रेरितों और भविष्यद्वक्ताओं की नींव पर जिसके कोने का पत्थर मसीह यीशु आप ही है, बनाए गए हो। जिस में सारी रचना एक साथ मिलकर प्रभु में एक पवित्र मन्दिर बनती जाती है” (इफिसियों 2:20-21)। पद 20 भी यही बताता है कि कलीसिया की नींव, उसका आधार प्रेरितों और भविष्यद्वक्ताओं द्वारा जो बातें और शिक्षाएं प्रभु ने प्रदान की हैं, अर्थात परमेश्वर का वचन है - जो आदि से था, परमेश्वर का स्वरूप है, और जिसने प्रभु यीशु के रूप में देहधारी होकर हमारे साथ निवास किया (यूहन्ना 1:1, 2, 14)। साथ ही, इस 20 पद में “प्रेरितों और भविष्यद्वक्ताओं” के बहुवचन में प्रयोग पर ध्यान कीजिए। तात्पर्य यह है कि यह नींव, यह आधार, कोई एक व्यक्ति कदापि नहीं था; वरन प्रभु के वे अनेक प्रेरित और भविष्यद्वक्ता थे जिनमें होकर प्रभु का वचन लोगों तक पहुँचा; और पतरस निःसंदेह उनमें से एक था, किन्तु वही एकमात्र कदापि नहीं था, और न ही केवल उसके द्वारा दी गई शिक्षाओं को ही कलीसिया का आधार या नींव बनाया गया। एक बार फिर यह पतरस के एकमात्र आधार होने की धारणा को गलत ठहराता है। साथ ही 20 पद यह भी दिखाता है कि इन सभी प्रेरितों और भविष्यद्वक्ताओं की शिक्षाओं को साथ और संगत रखने वाला वह “कोने का पत्थर”, जिससे सारी नींव एवं भवन-निर्माण की सिधाई और दिशा जाँची जाती है, स्थापित की जाती है, स्वयं प्रभु यीशु मसीह है। फिर 21 पद में लिखा है कि कलीसिया की यह सारी रचना साथ मिलकर “प्रभु में एक पवित्र मन्दिर बनती जाती है” - पतरस में नहीं, प्रभु में!
स्वयं पतरस भी उसके द्वारा लिखी गई पत्रियों में उसके कलीसिया का आधार होने की बात की पुष्टि करना तो दूर, ऐसा कोई संकेत भी नहीं देता है कि प्रभु ने उसे कलीसिया का आधार नियुक्त किया है, जिसके अनुसार वह इस दायित्व का निर्वाह कर रहा है। दोनों पत्रियों के आरंभ में उसने अपने आप को केवल प्रभु का प्रेरित कहा है, और दूसरी पत्री के आरंभ में प्रभु का दास भी कहा है, किन्तु कलीसिया का आधार होने को न तो कहीं कहा है और न ही इसका कोई संकेत दिया है।
प्रेरितों के काम के 15 अध्याय में भी जब यरूशलेम में मण्डलियों में फैलाई जा रही कुछ गलत शिक्षाओं के विषय चर्चा एवं निर्णय करने के लिए उस प्रारंभिक मण्डली के अगुवे एकत्रित हुए (प्रेरितों 15:6), और फिर प्रेरितों 15:7 में पतरस का नाम “बहुत वाद-विवाद के बाद” आया, और उसने किसी अधिकार के साथ नहीं वरन अन्य लोगों के समान एक सदस्य के रूप में अपना तर्क रखा। तथा फिर 12 पद से आगे लिखा है कि अन्य लोग भी अपने विचार रखने लगे; पतरस के तर्कों को अंतिम और निर्णायक नहीं मान लिया गया। फिर अन्ततः याकूब ने सारी चर्चा की समीक्षा प्रस्तुत की (प्रेरितों 15:13-21) और तब 22 पद में जाकर “प्रेरितों और प्राचीनों” के द्वारा सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया। कहीं पर भी पतरस के किसी विशेष स्तर अथवा स्थान, या सभा को संचालित करने, अंतिम निर्णय लेने, आदि जैसी बातों का कोई उल्लेख नहीं है; जबकि यह व्यवहार कलीसिया के “आधार” या “मुख्य संचालक” से अपेक्षित है।
अर्थात परमेश्वर के वचन में कहीं पर भी इस बात का समर्थन नहीं है कि प्रभु ने कलीसिया को पतरस पर आधारित कर के बनाने की बात कही, जिसे फिर निभाया गया; और न ही प्रथम कलीसिया के अगुवों या अलोगों ने कभी पतरस को कोई विशेष स्थान या पद दिया। अगले लेख में हम देखेंगे और विश्लेषण करेंगे कि क्या प्रभु “कलीसिया को पतरस पर बनाने” के योग्य समझ कर उसे यह दायित्व दे सकता था।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, तो परमेश्वर पवित्र आत्मा की आज्ञाकारिता एवं अधीनता में वचन की सच्चाइयों को उससे समझें; किसी के भी द्वारा कही गई कोई भी बात को तुरंत ही पूर्ण सत्य के रूप में स्वीकार न करें, विशेषकर तब, जब वह बात बाइबल की अन्य बातों के साथ ठीक मेल नहीं रखती हो।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
सभोपदेशक 10-12
गलातियों 1
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Built on the Lord & His Word
To understand the salvation given to the people by God, making them His children (John 1:12-13), promising to always be with them (Matthew 28:20; John 14:3, 18), giving them the responsibility of going into the world to preach the gospel of salvation, and giving them Spiritual gifts to help them carry out their work and ministry worthily, we will need to understand about the Church or Assembly of the Lord Jesus and its related things. We have already seen a few wrong teachings, misinterpretations, and misunderstandings related to this from God’s Word the Bible. We first saw that contrary to popular notion, Church is not a physical building or organization, rather it is a gathering of people called out by the Lord Jesus and are surrendered and submissive to Him. We had seen that the word Church or Assembly is a translation of the Greek word ‘ekklesia’ which literally means “a collection of people”, or “a group of people”, or “an assembly of people.” About associating the Assembly or Church with a particular building and place of worship, we will see later. A second common misunderstanding and false teaching is that the Lord has established His Church on Peter, and Matthew 16:18 is quoted in support of this misunderstanding, which is also the verse in which the word ‘ekklesia’ or Church has been used for the very first time in the Bible.
In the previous article we had seen that for the actual meaning and proper understanding of Matthew 16:18, this verse needs to be considered under three questions:
Was the Lord’s statement in Matthew 16:18 about building His Church, about Peter?
Does the Scripture at any other place support or state this notion of the Church being built on Peter, or Peter being its foundation?
Was Peter even worthy of this honor, of being considered to be the foundation for the Church?
In the last article we had analyzed the first question, and had seen that the Lord had used figures of speech in this verse, but had not stated or indicated that the Church will be built on Peter. Today we will consider the second question “Does the Scripture at any other place support or state this notion of the Church being built on Peter, or Peter being its foundation?”
The Church or Assembly, i.e., the gathering of the called-out ones of the Lord is by no means based upon a person; we see an affirmation of this in the beginning of the first letter written by Paul to the Church at Corinth, under the guidance of God the Holy Spirit. Paul, castigating the people of the Church in Corinth for their dividing themselves on the basis of the elders they liked, and then developing a tendency of opposing each other on this basis, wrote to them “Now I plead with you, brethren, by the name of our Lord Jesus Christ, that you all speak the same thing, and that there be no divisions among you, but that you be perfectly joined together in the same mind and in the same judgment. For it has been declared to me concerning you, my brethren, by those of Chloe's household, that there are contentions among you. Now I say this, that each of you says, "I am of Paul," or "I am of Apollos," or "I am of Cephas," or "I am of Christ." Is Christ divided? Was Paul crucified for you? Or were you baptized in the name of Paul?” (1 Corinthians 1:10-13). It is very clear from this passage that the tendency to have allegiance to ministers of the Lord God, amongst whom one of the names mentioned is of Peter, divide into factions based on that allegiance, and then start quarrelling amongst themselves because of it was absolutely wrong and unacceptable. Every Believer in the Lord Jesus has to have allegiance to only one person - the Lord Jesus Christ, be surrendered and obedient to Him, and remain united to serve not any person but Him and Him alone. Note that no special importance or exaltation has been given to Peter here; rather the tendency to give importance and exaltation to persons has been censured outrightly, and the Church members have been commanded to get out and away from this tendency. This brings another teaching before us, whenever any minister of the Lord or any person other than the Lord Jesus is given any importance and exaltation in the Church of the Lord Jesus Christ, it always results in mutual acrimony, tensions, quarrels, and vilification of the name of the Lord Jesus. Because this is not from God, but from Satan, and Satan never brings any love and unity; rather always causes discord, divisions, acrimony, and quarrels amongst people.
This same thing has been reiterated and explained in 1 Corinthians 3:1-7, and in these verses, it has also been taught that giving prominence to men and names of men:
Shows Spiritual immaturity (3:1)
Obstructs receiving, understanding, and applying deeper and solid Spiritual truths and teachings (3:2)
Is proof of still being under the control of not Spiritual but physical or worldly desires and tendencies (3:3-4)
Demonstrates that God does not have the primary place in the Believer’s life (3:5-7)
Then, a little ahead, the Holy Spirit had a very important thing written, which, all those who insist on saying that only Peter was the foundation of the first Church, knowingly or unknowingly ignore and overlook, along with another related verse about this. Paul, under the guidance of the Holy Spirit wrote “For no other foundation can anyone lay than that which is laid, which is Jesus Christ” (1 Corinthians 3:11). The first part of this verse very clearly states that the foundation of the Assembly or the Church of the Lord Jesus is unchangeable, no one alter it or substitute it with another; the middle part states that this foundation has been made ready and established from beforehand; and the last part of the verse that this firm, unalterable, established foundation is none other than the Lord Jesus Christ Himself. No one can ever change this foundation to any other, by any means.
In this context, there is another related verse, and that too is similarly ignored and overlooked by these people. That verse is “having been built on the foundation of the apostles and prophets, Jesus Christ Himself being the chief corner stone, in whom the whole building, being joined together, grows into a holy temple in the Lord” (Ephesians 2:20-21). Here it says that foundation are the “apostles and prophets” implying the teachings and Word received by them from God, i.e., the Word of God - which was eternally present, is a form of God, and which came to dwell on earth in bodily form as the Lord Jesus Christ (John 1:1, 2, 14). Also, take note that in verse 20 here, “apostles and prophets” has been stated in plural. This clearly shows that the foundation of the Church is not any single person, but the many apostles and prophets of God through whom the Word of God came to the people. Undoubtedly, Peter was one of those through whom God’s Word came to the people, but he was not the only one, nor only the teachings given by him were made the foundation. This once again negates the notion that Peter was the only foundation on which the Church was built. Another important thing mentioned in these verses is that along with the “apostles and prophets”, there is Jesus Christ Himself as the corner-stone, to maintain the correct direction and provide a reference point for the entire foundation as well as the super-structure - the building. Then verse 21 concludes that the whole building, the temple being joined together, grows “in the Lord”, and not in Peter!
Peter himself, in his letters, never affirms or even indicates that he has been appointed by the Lord to be foundation of the Church, or that the Church will be built on him. At the beginning of both his letters he only called himself an apostle, and in the second letter even called himself a servant of the Lord, but never stated or indicated that he is the foundation of the Church or that the Church will be built on him.
In Acts15, when the elders and apostles gathered together (Acts 15:6) to discuss and decide upon the wrong doctrines and false teachings that were being preached amongst the Believers, we see that it was not Peter who was leading or directing the discussions; his name and turn cam much later, after a lot of arguments had been done (Acts 15:7), and he presented his opinion not with any special authority, but as an ordinary member of that council. It is written in verse 12 that after him, others too expressed their opinions; Peter’s opinions were not immediately accepted as the final word. Then eventually after James had summarized the whole discussion (Acts 15:13-21), the final decision was taken collectively by the apostles and elders (Acts 15:22). At no place do we see any special status or position being given to Peter, nor did he conduct the proceedings, or take the final decision, as would have been expected from the “foundation” or the “governing authority” of the Church.
In other words, nowhere in the Word of God is there any support of any kind, whatsoever, about Peter being made the “foundation” of the Church, or of the Church ever being built on him by the Lord; nor did the elders and people of the first Church give any special place or position to Peter. In the next article we will see and analyze whether Peter was at all worthy of being considered of building the Church on him.
If you are a Christian Believer, then you should learn to discern and understand the truths of God’s Word under the guidance and teaching of the Holy Spirit. Do not accept anything and everything as the truth unless and until you have cross-checked and verified it from the Bible with the help of the Holy Spirit; more so when that thing does not seem to be consistent with the other related things of the Bible.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favor of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Ecclesiastes 10-12
Galatians 1