परमेश्वर के वचन में फेर-बदल – 16
पिछले लेखों में हमने देखा है कि शैतान बहुत परिश्रम करता रहता है कि किसी न किसी रीति से परमेश्वर के वचन से छेड़-छाड़ हो, उसमें फेर-बदल किया जाए, उसे बिगाड़ा जाए। हमने न केवल उन युक्तियों को देखा है जिनके द्वारा शैतान यह करवाता है, वरन हमने एक बहुत अनपेक्षित, अविश्वसनीय, और सामान्यतः ऐसी जिस पर विचार भी नहीं जाता है बात को भी देखा है, जिसके द्वारा शैतान इस कार्य को करवाता है। यह बात है वे लोग जिनके द्वारा शैतान अपनी इन योजनाओं को कार्यान्वित करवाता है – बहुत अनपेक्षित रीति से, शैतान कलीसिया के अगुवों, प्रमुख लोगों, प्रचारकों और शिक्षकों, आदि के द्वारा, अर्थात ऐसे लोगों के द्वारा जिनके लिए उनका शैतान के हाथों का खिलौना होने के बारे में सोचा भी नहीं जाता है, अधिकांशतः उन्हें ही अपनी दुष्ट योजनाओं के निर्वाह के लिए उपयोग करता है, चाहे बहुधा अनजाने में ही वे शैतान के युक्तियों में फँस जाते हैं। आज से हम देखना आरंभ करेंगे कि शैतान ऐसा क्यों करवाना चाहता है, इस से उसे क्या लाभ होते हैं, और साथ ही कुछ अन्य संबंधित बातों को भी देखेंगे।
हम पहले देख चुके हैं कि परमेश्वर का वचन ही हमें शैतान की कुटिल युक्तियों का सामना करने और उन पर विजयी होने की सामर्थ्य प्रदान करता है। इसीलिए बाइबल में यह निर्देश दोहराया गया है, कि परमेश्वर के वचन में न तो कुछ जोड़ें, और न उसमें से कुछ घटाएं (व्यवस्थाविवरण 4:2; नीतिवचन 30:6; प्रकाशितवाक्य 22:18-19)। बाइबल यह भी सिखाती है कि लोगों को बदलने वाला परमेश्वर का वचन है (1 थिस्सलुनीकियों 2:13), न कि किसी मनुष्य का बुद्धि और ज्ञान, उसके तर्क, या उसका वाक्पटुता के साथ प्रचार करना; वचन ही लोगों को नया जन्म पाने की ओर लेकर आता है (1 पतरस 1:23)। इसीलिए, अपने स्वर्गारोहण से ठीक पहले, प्रभु यीशु ने अपने शिष्यों से ज़ोर देकर कहा था कि जब वो सुसमाचार प्रचार करने और शिष्य बनाने के लिए जाएँगे, तो जो लोग प्रभु को स्वीकार करेंगे और उस पर विश्वास लाएँगे, शिष्यों को उन्हें “सब बातें जो मैं ने तुम्हें आज्ञा दी है, मानना सिखाओ” (मत्ती 28:20a)। प्रभु ने अपने शिष्यों को यहाँ यह अनुमति अथवा स्वतंत्रता नहीं दी कि वे प्रभु की बातों के बारे में अपने स्वयं की व्याख्या अथवा समझ को सिखाएँ; परन्तु औरों को केवल वही सिखाएँ जो उसने उन्हें सिखाया था। और अपने शिष्यों को अपने वचन स्मरण दिलाने तथा सिखाने के लिए प्रभु ने अपना पवित्र आत्मा भी उन्हें सहायक के रूप में दिया (यूहन्ना 14:16, 26); यदि प्रभु के शिष्य अपनी ही बुद्धि, समझ, और व्याख्या के अनुसार प्रभु की बातें औरों को सिखाने के लिए स्वतंत्र होते, तो फिर पवित्र आत्मा द्वारा उन्हें प्रभु के वचन को स्मरण करवाए तथा सिखाए जाने की क्या आवश्यकता होती? मसीही विश्वासी के आत्मिक हथियारों में (इफिसियों 6:13-17), जिन्हें हमें धारण किए रहना है, परमेश्वर के वचन को आत्मा की तलवार कहा गया है – वही वार करने का हमारा एकमात्र हथियार है। यह इसलिए क्योंकि केवल वही है जो मनुष्य के अन्दर गहराई से घुस पाता है कि उसके “जीव, और आत्मा को, और गांठ गांठ, और गूदे गूदे को अलग कर के, वार पार छेदता है; और मन की भावनाओं और विचारों को जांचता है” (इब्रानियों 4:12)। परमेश्वर का यह वचन इसलिए दिया गया है कि “तुझे मसीह पर विश्वास करने से उद्धार प्राप्त करने के लिये बुद्धिमान बना सकता है”, और “उपदेश, और समझाने, और सुधारने, और धर्म की शिक्षा के लिये” है, जिससे कि “परमेश्वर का जन सिद्ध बने, और हर एक भले काम के लिये तत्पर हो जाए” (2 तीमुथियुस 3:15-17)।
हम इसी वचन के द्वारा अपने उद्धारकर्ता प्रभु यीशु के बारे सीखते हैं। इस वचन से प्रभु के बारे में मिलने वाली जानकारी में होकर परमेश्वर ने हमें जीवन और भक्ति से संबंधित सभी बातें प्रदान की हैं, हम बहुमूल्य प्रतिज्ञाएँ दी हैं, ईश्वरीय स्वभाव का संभागी बनाने का मार्ग दिया है, और सँसार की भ्रष्टता से बच कर निकलने का मार्ग दिया है (2 पतरस 1:3-4)। जब यह वचन हमारे हृदयों में होता है तो हमें पाप करने से रोकता है (भजन 119:11), और हमारे पाँवों को फिसलने से बचाता है (भजन 37:31)। हम बाइबल में बारम्बार यह देखते हैं कि हमेशा ही परमेश्वर का वचन ही सामर्थी और प्रभावकारी होता है, न कि किसी मनुष्य द्वारा और आकर्षक, रोचक, तथा लुभावनी बनाने के लिए बाइबल की फेर-बदल की गई बातें और शिक्षाएँ। आने वाले लेखों में हम इसके बारे में थोड़ा और पौलुस के सुसमाचार प्रचार के शैली के द्वारा देखेंगे।
मार्टिन लूथर ने, जो मसीही सुधारवाद के जनक थे, जो रोमन कैथोलिक मत की गलत धारणाओं, परम्पराओं, और गलत मान्यताओं को, परमेश्वर के वचन के आधार पर चुनौती देने के लिए दृढ़ होकर खड़े हो गए थे, कहा था, “अपने सुधारवाद के आरम्भ से ही मैंने परमेश्वर से माँगा है कि मुझे न तो स्वप्न भेजे, और न ही दर्शन, या स्वर्गदूत, वरन मुझे अपने वचन, पवित्र शास्त्र की सही समझ दे; क्योंकि जब तक मेरे पास परमेश्वर का वचन है, मैं जानता हूँ कि मैं उसके मार्ग पर चल रहा हूँ और मैं किसी गलती अथवा भ्रम में नहीं पडूँगा।” परमेश्वर के एक अन्य सेवक, डी. एल. मूडी ने कहा था, “बाइबल आप को पाप से दूर रखेगी, या फिर पाप आप को बाइबल से दूर रखेगा।” इसलिए इसमें कुछ अचरज की बात नहीं है कि शैतान अपना भरसक प्रयास करता है कि हमें परमेश्वर के सच्चे वचन से दूर रखे, और हमें उस खरे वचन को अपने जीवनों में तथा औरों के लाभ के लिए उपयोग न करने दे। परमेश्वर के वचन के भण्डारी होने के नाते, यह हमारा दायित्व है कि हम परमेश्वर के खरे वचन को पहचाने और थामे रहें।
इसके बारे में हम आने वाले लेखों में कुछ और देखेंगे। यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Altering God’s Word – 16
In the preceding articles, we have seen how Satan keeps striving to have God’s Word tampered, altered, and distorted. We have not only seen the various ploys Satan uses to get this done, but have also seen that there is a very unexpected, unbelievable, and generally unconsidered, but very major and significant factor that Satan uses to get this done. This factor is the people Satan uses to accomplish his designs – quite unexpectedly, Satan uses God’s committed Believers, Church leaders or elders, Bible preachers or teachers, etc. In other words, people we would least expect to be instrumental in Satan’s hands, are the ones usually, and very often quite inadvertently, used by him to implement his wicked purposes. We will now start considering why Satan wants to have this done, how it benefits him, and we will also see some other related matters about this, from today.
We have seen earlier that it is the Word of God that gives us the ability to counter and overcome the wiles of the devil. Hence an instruction repeated in different books of the Bible is to not to add or take away from God’s Word (Deuteronomy 4:2; Proverbs 30:6; Revelation 22:18-19). The Biblical also teaches that it is not man’s wisdom, logic, and preaching with eloquence, but God’s Word that changes people (1 Thessalonians 2:13), getting them to be Born Again (1 Peter 1:23). Hence, in His Great Commission, just before His ascension, the Lord Jesus categorically instructed His disciples that when they go out to preach the gospel and make disciples, those who accept Him and come to faith in Him, to them the disciples should “teaching them to observe all things that I have commanded you” (Matthew 28:20a). The Lord did not give His disciples the permission or the liberty to teach their interpretation and understanding of His teachings; but just what He had taught them. To help His disciples remember and learn His Word, the Lord also gave His Holy Spirit to them as their Helper (John 14:16, 26); if the disciples of the Lord were free to preach and teach Lord’s words according to their own understanding and interpretation, then where was the need of the Holy Spirit to help remind them and teach them the Lord’s words? In the Christian Believer’s spiritual armor, prescribed for us (Ephesians 6:13-17), God’s Word has been called the Sword of the Spirit – our one and only weapon of offense. This is because it alone has the ability to penetrate deeply into a person “piercing even to the division of soul and spirit, and of joints and marrow, and is a discerner of the thoughts and intents of the heart” (Hebrews 4:12). This Word of God has been given “to make you wise for salvation through faith which is in Christ Jesus”, and for “doctrine, for reproof, for correction, for instruction in righteousness”, so that, “the man of God may be complete, thoroughly equipped for every good work” (2 Timothy 3:15-17).
It is through this Word that we learn about our savior, the Lord God Jesus Chris. In the knowledge of the Lord, that comes to us from the Word of God, God has given to us all things that pertain to life and godliness, has given us precious promises, the way of becoming partakers of divine nature, and the way of escaping from the corruption of this world (2 Peter 1:3-4). This Word, when it is in our hearts, it keeps us from sin (Psalm 119:11), and keeps our feet from slipping (Psalm 37:31). We see over and over again in the Bible that, it is always the pure Word of God, and not it’s humanly modified or embellished version to make it attractive and interesting, that is powerful and efficacious. In the subsequent articles we will see some more about this from Paul’s style of gospel preaching.
Martin Luther, the Father of the Christian Reformation, the one who rose up to question and challenge the erroneous Roman Catholic dogmas and practices on the basis of God’s Word, said, “From the beginning of my reformation, I have asked God to send me neither dreams, nor visions, nor angels, but to give me the right understanding of His Word, the Holy Scriptures; For as long as I have God's Word, I know that I am walking in His way and that I shall not fall into error or delusion.” Another of God’s servant, the famous evangelist D. L. Moody had said “The Bible will keep you from sin, or sin will keep you from the Bible.” Is it any wonder then that Satan tries his utmost to keep us from the true Word of God, and from using it effectively for our lives as well as for the benefit of others. As stewards of God’s Word, it is our responsibility to discern the pure unadulterated Word of God and hold on to it.
We will consider this further in the subsequent articles. If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.