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मंगलवार, 22 मार्च 2022

व्यवस्था और मसीही जीवन / The Law and the Christian Life - 9


व्यवस्था क्यों हमें उद्धार नहीं दे सकती है? (4)

शारीरिक मनुष्य शैतान के सामने असमर्थ क्यों है? (3)

पिछले लेखों में हम देखते आ रहे हैं कि मनुष्य अपनी शक्ति और बुद्धि से शैतान का सफलतापूर्वक सामना कर पाने में पूर्णतः असमर्थ है, चाहे वह स्वाभाविक और अपरिवर्तित दशा में हो अथवा उद्धार पाया हुआ हो। उद्धार पाया हुआ मनुष्य परमेश्वर की सहायता और आज्ञाकारिता में रहते हुए तो शैतान का सामना कर सकता है, और उसकी युक्तियों पर जयवंत हो सकता है। किन्तु जैसे ही वह अपनी किसी भी बात या अनाज्ञाकारिता के कारण परमेश्वर द्वारा निर्धारित सीमाओं से ज़रा सा भी बाहर आता है, तो शैतान उसे डस लेता है (सभोपदेशक 10:8), पाप में फँसा लेता है। परमेश्वर की व्यवस्था के उसके पास होते हुए भी, मनुष्य क्यों उसका पालन करने में, और शैतान का सामना करने में असमर्थ है, इसके तथा अन्य संबंधित बातों के कारणों का विश्लेषण करते हुए हमने पिछले लेख में तीन बातों को देखना आरंभ किया था, जिनके निष्कर्षों तथा वचन की कुछ अन्य बातों के परस्पर समावेश से हम इन प्रश्नों के उत्तर तक पहुँचने पाएंगे। ये तीन बातें हैं:

(i) परमेश्वर और उसकी बातों का अपरिवर्तनीय तथा अटल और सर्वदा लागू रहना; 

(ii) मनुष्यों की तुलना में स्वर्गदूतों के कुछ गुण; 

(iii) मनुष्य और स्वर्गदूतों का तुलनात्मक स्तर या स्थान।


पिछले लेख में हमने इनमें से पहली बात, परमेश्वर और उसका वचन और बातें हमेशा ही अटल तथा अपरिवर्तनीय हैं को बाइबल के उदाहरणों से देखा और समझा था। आज हम अन्य दोनों बातों को बाइबल के उदाहरणों से देखेंगे और समझेंगे।


(ii) मनुष्यों की तुलना में स्वर्गदूतों के कुछ गुण: स्वर्गदूतों की सामर्थ्य के विषय वचन बताता है कि मनुष्यों की तुलना में स्वर्गदूत अधिक सामर्थी हैं; और उन्हें सामान्य रीति से सामर्थी कहा भी गया है, जबकि इसकी तुलना में मनुष्यों में से केवल कुछ ही सामर्थी हुए, किन्तु सामान्य रीति से सभी मनुष्यों को सामर्थी नहीं कहा गया है। इस संदर्भ में बाइबल के तीन पद देखिए:

भजन संहिता 103:20 “हे यहोवा के दूतों, तुम जो बड़े वीर हो, और उसके वचन के मानने से उसको पूरा करते हो उसको धन्य कहो!”

2 थिस्स्लुनीकियों 1:7 “और तुम्हें जो क्‍लेश पाते हो, हमारे साथ चैन दे; उस समय जब कि प्रभु यीशु अपने सामर्थी दूतों के साथ, धधकती हुई आग में स्वर्ग से प्रगट होगा।”

2 पतरस 2:11 “तौभी स्वर्गदूत जो शक्ति और सामर्थ्य में उन से बड़े हैं, प्रभु के सामने उन्हें बुरा भला कह कर दोष नहीं लगाते।” यदि इस पद को उसे संदर्भ में, पद 9-10 के साथ देखें तो प्रकट है कि स्वर्गदूत स्वाभाविक रीति से मनुष्यों से शक्ति और सामर्थ्य में बड़े हैं।

 

(iii) मनुष्य और स्वर्गदूतों का तुलनात्मक स्तर या स्थान: मनुष्य शैतान के सामने असमर्थ है, क्योंकि अपनी सृष्टि से ही वह स्वर्गदूतों से कम सामर्थी और निचले स्तर का बनाया गया है। इसे थोड़ा बारीकी से समझना होगा:

 

प्रभु यीशु मसीह, पृथ्वी के अपने शारीरिक रूप में, पूर्णतः परमेश्वर भी था, और पूर्णतः मनुष्य भी - परमेश्वर होते हुए भी, पृथ्वी पर आने के समय अपने परमेश्वरत्व को छोड़ कर, अपने आप को शून्य कर के, वह मनुष्य का रूप लेकर, मनुष्य की समानता में पृथ्वी पर आ गया (फिलिप्पियों 2:5-8)। 


पृथ्वी पर मनुष्य के रूप में उसके स्तर के विषय इब्रानियों 2:6-10 देखिए: “6:वरन किसी ने कहीं, यह गवाही दी है, कि मनुष्य क्या है, कि तू उस की सुधि लेता है? या मनुष्य का पुत्र क्या है, कि तू उस पर दृष्टि करता है? 7: तू ने उसे स्‍वर्गदूतों से कुछ ही कम किया; तू ने उस पर महिमा और आदर का मुकुट रखा और उसे अपने हाथों के कामों पर अधिकार दिया। 8: तू ने सब कुछ उसके पांवों के नीचे कर दिया: इसलिये जब कि उसने सब कुछ उसके आधीन कर दिया, तो उसने कुछ भी रख न छोड़ा, जो उसके आधीन न हो: पर हम अब तक सब कुछ उसके आधीन नहीं देखते। 9: पर हम यीशु को जो स्‍वर्गदूतों से कुछ ही कम किया गया था, मृत्यु का दुख उठाने के कारण महिमा और आदर का मुकुट पहने हुए देखते हैं; ताकि परमेश्वर के अनुग्रह से हर एक मनुष्य के लिये मृत्यु का स्‍वाद चखे। 10: क्योंकि जिस के लिये सब कुछ है, और जिस के द्वारा सब कुछ है, उसे यही अच्छा लगा कि जब वह बहुत से पुत्रों को महिमा में पहुंचाए, तो उन के उद्धार के कर्ता को दुख उठाने के द्वारा सिद्ध करे।” 


यहाँ पद 8-10 में यह प्रकट है कि यह खंड प्रभु यीशु के विषय है, और इस संदर्भ के साथ पद 6 में “मनुष्य का पुत्र” भी प्रभु यीशु ही है, जो सुसमाचारों में उसका एक उपनाम था, जिसे उसने स्वयं भी अपने लिया प्रयोग किया है (मत्ती 8:20; 9:6; 12:8; मत्ती 16:13)। फिर पद 7 में उसके विषय लिखा गया है कि पृथ्वी पर भेजे जाने पर परमेश्वर ने “मनुष्य के पुत्र” अर्थात प्रभु यीशु को “स्वर्गदूतों से कुछ ही कम किया है”। अर्थात, अपनी पार्थिव देह में, मनुष्यों की समानता में होते हुए वह स्वर्गदूतों से (एकवचन ‘स्वर्गदूत’ - कोई विशिष्ट स्वर्गदूत नहीं; वरन बहुवचन ‘स्वर्गदूतों’ - सभी स्वर्गदूतों से) कुछ कम स्तर का हो गया। तात्पर्य यह कि मनुष्य, जिसकी समानता में प्रभु यीशु इस पृथ्वी पर आया, वह अपनी इस स्वाभाविक दशा में न केवल स्वर्गदूतों से कम सामर्थी है जैसा हमने ऊपर देखा है, वरन उनसे कम स्तर का भी है। इसीलिए उद्धार पाए हुए मनुष्यों को परमेश्वर से दिए जाने वाले आदर में से एक है कि स्वर्गदूत, उनकी सेवा-टहल करने वाली आत्माएं बना दिए जाते हैं (इब्रानियों 1:14)। यदि सृष्टि के स्वाभाविक क्रम में मनुष्य की वरीयता स्वर्गदूतों से ऊपर होती, तो फिर उनके मनुष्यों की सेवा-टहल करने वाले बनाए जाने में मनुष्यों को क्या विशेष आदर मिलता? किन्तु उद्धार पाकर, परमेश्वर की संतान (यूहन्ना 1:12-13) हो जाने के कारण, अब उन उद्धार पाए हुओं के लिए वरीयता क्रम बदल दिया गया है; अब उद्धार पाया हुआ मनुष्य ऊपर और आज्ञाकारी स्वर्गदूत उनसे कम स्तर के कर दिए गए हैं। 


अब इन तीन बातों के निष्कर्ष हमारे सामने हैं: 

(i) परमेश्वर की बात, उसका वचन, उसके द्वारा दिए गए अधिकार और वरदान अपरिवर्तनीय हैं, अटल हैं, और वह उन्हें वापस नहीं लेता है।

(ii) अपनी रचना में ही मनुष्य स्वर्गदूतों से कम सामर्थी है। 

(iii) सृष्टि के वरीयता क्रम में मनुष्य स्वाभाविक रीति से स्वर्गदूतों से निचले क्रम का है। उद्धार पाने के बाद, उसका यह क्रम, आज्ञाकारी स्वर्गदूतों के संदर्भ में बदल दिया जाता है, और वह स्वर्गदूतों से उच्च स्तर का बना दिया जाता है। किन्तु शेष सभी मनुष्य स्वर्गदूतों से निचले स्तर के ही रहते हैं।


अगले लेख में हम इन निष्कर्षों को अन्य बातों के साथ मिलाकर इनके व्यावहारिक अर्थ और अभिप्राय को देखेंगे। इनके द्वारा हम देखेंगे और समझेंगे कि मनुष्यों के शैतान का सामना करने में असमर्थ होने और पाप में गिरते रहने पर भी, क्यों परमेश्वर द्वारा प्रेरितों 17:30 में स्वाभाविक अपरिवर्तित मनुष्य द्वारा पाप करने को “अज्ञानता के समय” की बात कहकर उसे दण्ड देने में आनाकानी करता है, पश्चाताप करने के लिए कहता है, और उसे दंड से बचने का अवसर देता है।


किन्तु अभी के लिए हमें अपने जीवनों में झांक कर देखना आवश्यक है कि क्या हम परमेश्वर द्वारा दिए गए इस अवसर का, उसके आनाकानी करने का, सदुपयोग कर रहे हैं कि नहीं? क्या हमने अपने पापों के लिए पश्चाताप करके, अपना जीवन उसे सच्चे मन से समर्पित किया है कि नहीं? या हम अभी भी अपने धर्म, परिवार, जन्म से धार्मिक अनुष्ठानों तथा रीति-रिवाजों के पालन करने वाले होने, अपने धर्म-गुरुओं के चलाए चलने वाले होने, आदि व्यर्थ और निष्फल बातों के द्वारा ही परमेश्वर की दृष्टि में भले और धर्मी, तथा उसे स्वीकार्य होने, उसके साथ स्वर्ग में प्रवेश करने वाले समझे बैठे हैं, शैतान के धोखे से अपने अनन्त जीवन के विषय निश्चिंत हो गए हैं? आज, अभी, समय और अवसर रहते हुए पापों से पश्चाताप करके अपना जीवन प्रभु यीशु मसीह को समर्पित कर दें, उससे पापों के लिए क्षमा माँग लें, परमेश्वर की संतान बन जाएं। बाद में कहीं बहुत देर न हो जाए।  


यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी। 

 

एक साल में बाइबल पढ़ें:

  • यहोशू 10-11  

  • लूका 1:39-56   


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Why can't the Law save us? (4)

Why is man incapable of confronting Satan? (3)

 

In the previous articles, we have been seeing that man is absolutely incapable of successfully confronting Satan in his own strength and intelligence, whether in his natural and unregenerate state or even after being saved. A saved man can face Satan’s tactics, and overcome him, with God's help, so long as he is obedient to God. But as soon as he transgresses the limits set by God, through any of his words or behavior, through any kind of disobedience, Satan bites him (Ecclesiastes 10:8), ensnaring him in sin. In analyzing the reasons for why man is unable to face Satan, and unable to obey God's law despite having it in his hands, and other related issues, in the previous article we had begun to look at three things whose conclusions, and considering them along with some other points of Scripture will help us to reach the answers to the above questions. These three are:

(i) God and His Word are unchanging and what He grants always remains irrevocable and in effect;

(ii) Some characteristics of angels as compared to humans;

(iii) The comparative level or place of humans and angels.

 

In the previous article, we saw and understood the first of these, that God and His Word are unchanging and things He grants always remain irrevocable, with some Biblical examples. Today we will look at and understand the other two things with some Biblical examples.


(ii) Some characteristics of angels as compared to humans: God’s Word states that the angels are more powerful than humans; and angels, in general, have been called mighty or powerful. Whereas in comparison, only a few human beings have been powerful, and unlike the angels, all human beings, in general, have never been called mighty. Consider three Bible verses in this context:

Psalm 103:20 "Bless the Lord, you His angels, Who excel in strength, who do His word, Heeding the voice of His word."

2 Thessalonians 1:7 "and to give you who are troubled rest with us when the Lord Jesus is revealed from heaven with His mighty angels"

2 Peter 2:11 "Whereas angels, who are greater in power and might, do not bring a reviling accusation against them before the Lord." If we look at this verse in its context, along with verses 9-10, it is apparent that angels are naturally greater in strength and power than humans.


(iii) The comparative level or place of humans and angels: Man is incapable of facing Satan, because from his creation he has not only been made less powerful than angels, but of a lesser status than the angels as well. This has to be understood a little more closely:


The Lord Jesus Christ, in his physical form on earth, was also wholly God, and wholly human – while being God, He emptied Himself when He came to earth in the form of man, and took upon Himself the likeness of man (Philippians 2:5-8).


Regarding His status as a man on earth, also consider Hebrews 2:6-10: “6: But one testified in a certain place, saying: "What is man that You are mindful of him, Or the son of man that You take care of him? 7: You have made him a little lower than the angels; You have crowned him with glory and honor, and set him over the works of Your hands. 8: You have put all things in subjection under his feet." For in that He put all in subjection under him, He left nothing that is not put under him. But now we do not yet see all things put under him. 9: But we see Jesus, who was made a little lower than the angels, for the suffering of death crowned with glory and honor, that He, by the grace of God, might taste death for everyone. 10: For it was fitting for Him, for whom are all things and by whom are all things, in bringing many sons to glory, to make the captain of their salvation perfect through sufferings."


Here in verses 8–10 it is clear that this section is about the Lord Jesus, and in this context the phrase "Son of Man" in verse 6 is also for the Lord Jesus, which was also a name used for Him and by Him in the Gospels, He often called Himself by this name (e.g., Matthew 8:20; 9:6; 12:8; Matthew 16:13). Then in verse 7 it is written about him that when He was sent to earth, God made the "Son of man" i.e. Lord Jesus "a little lower than the angels". Implying that in His earthly body, being in the likeness of humans, He became somewhat lower than the angels (not singular 'angel' - i.e. not a specific angel; but plural 'angels' - i.e. all angels). This means that man, in whose likeness the Lord Jesus came to this earth, is not only less powerful than the angels in his natural state, as we have seen above; but is also of a lower status than them. That is why one of the God-given honor for saved humans is that angels are made ministering spirits, to serve them (Hebrews 1:14). If, in the natural order of creation, man already possessed a superiority over angels, then how could it be special honor for humans to have angels as ministering spirits for them? But having been saved, having become children of God (John 1:12-13), the created order of superiority, for those who are saved is now changed; now the saved man is elevated above and the obedient angels are made lower than him.


Now the conclusions of these three things are before us:

(i) Whatever God has said, His Word, the rights, privileges, and gifts given by Him are irrevocable, unchanging, and He does not take them back.

(ii) Man since his creation is less powerful than the angels.

(iii) Human beings, in their natural state, are lower than the angels in the hierarchy of created beings. After he is saved, this order changes for the saved man, in context of God’s obedient angels, and the saved man is elevated to a higher status than angels. But all the rest of the human beings remain at a lower level than the angels.


In the next article, we'll look at the practical application and implications of these conclusions, by also taking them along with some other things. Through these we will see and understand why although humans are unable to face Satan, continue to fall in sin time and again, yet God calls this tendency of the unregenerate man to sin something done in "times of ignorance" in Acts 17:30 and is reluctant to punish him for it; rather, asking him to repent of his sins and be saved from the punishment.


But for now, we need to look into our lives and see whether we are making good use of this opportunity given to us by God, or, are we ignoring Him and His benevolence? Have we sincerely committed our lives to Him, repenting of our sins or not? Or, have we fallen for Satan's deceit, and we are still assuming being good and righteous in the eyes of God through vain and ineffective things like our religion, family, our following and fulfilling religious rituals and customs since our birth, by our being obedient to our religious leaders, etc. and falsely believe that we will be considered acceptable to Him, worthy of entering heaven with Him? Today, now, while having the time and opportunity to repent of sins, make the right decision, repent of your sins, submit your life to the Lord Jesus Christ, ask Him for forgiveness of sins, become a child of God. It may be too late afterwards.


If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. By asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily submit yourself sincerely and with a committed heart to his Lordship in your life - this is the only way to salvation and heavenly life. You have to say only a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ, willingly and meaningfully, while simultaneously completely committing your life to Him. You can say this prayer of repentance and submission in a manner something like this, “Lord Jesus, I thank you for taking my sins upon yourself for their forgiveness and because of them you died on the cross in my place, were buried, you rose again on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God. Please forgive my sins, take me under your shelter, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and submissive heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

Read the Bible in a Year:

  • Joshua 10-11

  • Luke 1:39-56