पिछले लेख में हमने बाइबल की बातों की सही व्याख्या करने में सहायक कुछ अनिवार्य मूल सिद्धांतों: हर बात को उसके संदर्भ में लेना, उस बात से संबंधित अन्य पदों के साथ लेना, उसे बाइबल की अन्य संबंधित शिक्षाओं के साथ लेना, और उस बात को उसके उस अर्थ के साथ समझना जो उसके मूल या प्रथम श्रोताओं ने उस बात के कहे या लिखे जाने के समय समझा था और पालन किया था, को अपने समक्ष लिया था। साथ ही हमने यह भी ध्यान किया था कि सामान्य वार्तालाप और भाषा के प्रयोग के समान, बाइबल में भी आलंकारिक भाषा का प्रयोग किया गया है; इसलिए हर बात केवल उसके शब्दार्थ में ही नहीं, संदर्भ के अनुसार उसके अर्थ या भावार्थ में समझनी भी आवश्यक होती है। यदि इन मूल सिद्धांतों का ध्यान न रखा जाए, तो गलत व्याख्या और अनुचित अर्थ निकालना बहुत सरल हो जाता है; और इसी गलती के कारण ये गलत व्याख्याएं और गलत शिक्षाएं बनाई और सिखाई जाती हैं।
फिर इन सिद्धांतों के आधार पर हमने बपतिस्मे से संबंधित एक बहुत आम धारणा, कि उद्धार के लिए बपतिस्मा भी आवश्यक है, उद्धार बपतिस्मे के बिना नहीं है के समर्थन में प्रयोग होने वाले दो पदों, प्रेरितों 2:38, और प्रेरितों 22:16 का विश्लेषण किया था। उपरोक्त सिद्धांतों के आधार पर किए गए इन पदों के सही विश्लेषण के द्वारा हम समझने पाए थे कि ये दोनों पद, इनके विषय प्रचलित आम धारणा के विपरीत, उद्धार के लिए बपतिस्मा लेने की अनिवार्यता अथवा आवश्यकता की पुष्टि नहीं करते हैं। आज हम इस तर्क के लिए प्रयोग किए जाने वाले एक और पद, 1 पतरस 3:21 का विश्लेषण भी उपरोक्त सिद्धांतों के अनुसार करेंगे, और उसके बाद पापों के धोए जाने से संबंधित एक बहुत महत्वपूर्ण, किन्तु सामान्यतः अनदेखा किए जाने वाले बाइबल के तथ्य पर भी विचार करेंगे।
क्या उद्धार के लिए बपतिस्मा आवश्यक है? (2)
एक और पद जिसका इसी प्रकार से गलत व्याख्या के साथ दुरुपयोग किया जाता है, वह है, 1 पतरस 3:21 “और उसी पानी का दृष्टान्त भी, अर्थात बपतिस्मा, यीशु मसीह के जी उठने के द्वारा, अब तुम्हें बचाता है; (उस से शरीर के मैल को दूर करने का अर्थ नहीं है, परन्तु शुद्ध विवेक से परमेश्वर के वश में हो जाने का अर्थ है)” है। इस पद से भी पहली झलक में लोग यही अर्थ लेते हैं कि बपतिस्मे द्वारा बचाए जाते हैं। किन्तु इस पद के वाक्यों को भी ध्यान से, और उसके संदर्भ में देखने से यह प्रकट हो जाता है कि इस पद का यह अर्थ नहीं है।
इस पद का पहला वाक्य, इससे ठीक पहले के 20 पद को उदाहरण के समान लेते हुए, नूह के समय की जल-प्रलय और आठ लोगों के उससे बचाए जाने को एक प्ररूप के समान लेता है। वे आठ लोग बिना सुरक्षा के साधन को लिए, पानी में चले जाने के द्वारा नहीं बच गए थे। वे केवल नूह द्वारा बनाए गए जहाज़ में चले जाने के द्वारा बचे थे। वे स्वयं जल पर तैरते नहीं रहे थे, वरन वह जहाज़ जिसमें वे थे, वह जल पर तैर रहा था, और उन्हें सुरक्षित रखे हुए था। नूह द्वारा बनाए गए जहाज़ में उनकी सुरक्षा और देखभाल, उद्धारकर्ता प्रभु यीशु मसीह में आ जाने से, विनाश से लोगों के बचाए जाने का प्रतीक या प्ररूप है। विनाश करने वाले जल-प्रलय के समय में भी उस जहाज़ में नूह और उसके परिवार का सुरक्षित बने रहना, नूह और उसके परिवार द्वारा कही जा रही बात के सही होने की गवाही थी। इसी प्रकार से बपतिस्मा भी संसार के सामने प्रभु यीशु मसीह में विश्वास के द्वारा आ जाने से मिलने वाले बचाव या उद्धार और सुरक्षा की गवाही है (रोमियों 8:1)। इससे, अब यह प्रकट है कि बचाने या उद्धार देने वाला बपतिस्मा नहीं है, वरन बपतिस्मा तो नूह और उसके परिवार की गवाही के प्ररूप के समान वर्तमान संसार के लिए प्रभु यीशु में होने से बचाए जाने की गवाही है। जबकि बचाने वाला या उद्धार देने वाला तो प्रभु यीशु मसीह है। बपतिस्मा तो प्रभु यीशु मसीह के पुनरुत्थान के द्वारा लोगों के उद्धार पाने या बचाए जाने की गवाही है। पुनरुत्थान से अभिप्राय, उसके सभी अर्थों और महत्व सहित, मसीह के मारे जाने और गाड़े जाने से भी है।
और यही बात बाइबल के अन्य स्थानों पर भी कही गई है कि बपतिस्मा केवल उद्धार पाए हुए व्यक्ति के द्वारा उन के पापों से बचा लिए जाने की दी जाने वाली गवाही है। जिससे कि लोग इस बात का गलत अर्थ न निकालें, पवित्र आत्मा की अगुवाई में पतरस तुरंत ही, अगले ही वाक्य में, बपतिस्मे द्वारा तो केवल शरीर के मैल को दूर किए जाने, किन्तु परमेश्वर के वश में होने से आत्मा के शुद्ध किए जाने के बीच अंतर कह देता है। उस समय, पतरस और अन्य शिष्यों के लिए तो बपतिस्मा केवल डुबकी का बपतिस्मा ही था; इसीलिए वह लिखता है कि बपतिस्मे के लिए पानी में डुबकी लेना शरीर के मैल को तो दूर कर सकता है, किन्तु आत्मा का मैल परमेश्वर के वश में हो जाने से ही दूर होता है।
अब एक बहुत महत्वपूर्ण बात पर ध्यान दीजिए; वचन में कहीं नहीं आया है कि कोई भी जल किसी के पापों को धो डालता है, या पापों से शुद्ध करता है। चाहे पुराने नियम में हो या नए नियम में, बाइबल के अनुसार पापों के निवारण के लिए लहू बहाया जाना अनिवार्य है “और व्यवस्था के अनुसार प्रायः सब वस्तुएं लहू के द्वारा शुद्ध की जाती हैं; और बिना लहू बहाए क्षमा नहीं होती” (इब्रानियों 9:22)। 1 यूहन्ना 1:7 में लिखा है, “पर यदि जैसा वह ज्योति में है, वैसे ही हम भी ज्योति में चलें, तो एक दूसरे से सहभागिता रखते हैं; और उसके पुत्र यीशु का लहू हमें सब पापों से शुद्ध करता है।” और प्रकाशितवाक्य 1:5 में लिखा है “और यीशु मसीह की ओर से, जो विश्वासयोग्य साक्षी और मरे हुओं में से जी उठने वालों में पहलौठा, और पृथ्वी के राजाओं का हाकिम है, तुम्हें अनुग्रह और शान्ति मिलती रहे: जो हम से प्रेम रखता है, और जिसने अपने लहू के द्वारा हमें पापों से छुड़ाया है।” यदि बपतिस्मे के जल से पाप धुल सकते, तो फिर प्रभु यीशु को अपना लहू क्यों बहाना पड़ता? यूहन्ना बपतिस्मा देने वाला भी तो पश्चाताप करने वालों को मन फिराव का बपतिस्मा दे ही रहा था (मत्ती 1:1-11)। प्रभु परमेश्वर उसे ही और अधिक प्रभावी तथा कार्यकारी कर देता, और प्रभु यीशु को लहू बहाने की कोई आवश्यकता ही नहीं होती! पाप की समस्या का बहुत सहज और सरल समाधान हो जाता।
जब हमारे पापों को धोने के लिए प्रभु यीशु मसीह को अपना निष्पाप, अमूल्य लहू बहाना ही पड़ा, तो क्या हम बपतिस्मे के लिए प्रयोग किए जाने वाले संसार के नदी, तालाबों, आदि के जल को प्रभु यीशु मसीह के लहू के समान प्रभावी और कार्यकारी समझने और बताने की हिमाकत कर सकते हैं; उसका ऐसा अपमान कर सकते हैं? हम यह कैसे, किस आधार पर, कह सकते है कि पापों को धो डालने और हमें पापों से शुद्ध करने का जो काम प्रभु यीशु मसीह का अमूल्य लहू करता है, वही संसार के नदी, तालाबों का जल भी कर देता है? क्योंकि यह कहना कि बपतिस्मे से पाप धुलते हैं और उद्धार मिलता है, बपतिस्मे को प्रभु यीशु के बलिदान और लहू बहाए जाने के समतुल्य बना देता है।
अब, क्या आप इस उद्धार के लिए बपतिस्मे की आवश्यकता की भ्रष्ट बात में छुपे शैतान के कुटिल झूठ और भ्रम को समझ रहे हैं? कृपया प्रभु यीशु के बलिदान और उसके अमूल्य लहू बहाने को इस प्रकार तुच्छ दिखाने की इस गलती में कदापि न पड़ें, इसका परिणाम बहुत भयानक है: “जब कि मूसा की व्यवस्था का न मानने वाला दो या तीन जनों की गवाही पर, बिना दया के मार डाला जाता है। तो सोच लो कि वह कितने और भी भारी दण्ड के योग्य ठहरेगा, जिसने परमेश्वर के पुत्र को पांवों से रौंदा, और वाचा के लहू को जिस के द्वारा वह पवित्र ठहराया गया था, अपवित्र जाना है, और अनुग्रह की आत्मा का अपमान किया” (इब्रानियों 10:28-29)।
यदि आप मसीही हैं, तो आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप मनुष्यों की बनाई हुई रीतियों और प्रथाओं का नहीं, परमेश्वर के वचन का पालन करने वाले हों। क्योंकि अन्ततः आपका न्याय, मनुष्यों के द्वारा बनाई और धर्म-उपदेश करके सिखाई गई, मनुष्यों की बातों के आधार पर नहीं होगा। क्योंकि मनुष्यों द्वारा बनाए गए धर्मोपदेश न केवल व्यर्थ हैं (मत्ती 15:9) किन्तु हटा भी दिए जाएंगे (मत्ती 15:13)। सभी का न्याय प्रभु यीशु के द्वारा (प्रेरितों 17:30-31), उसके वचन की अटल और अपरिवर्तनीय बातों के आधार पर होगा (यूहन्ना 12:48)। इसलिए आपके लिए मनुष्यों को नहीं परमेश्वर को प्रसन्न करने वाला बनना अनिवार्य है, नहीं तो अनन्त जीवन में अनंतकाल की हानि उठानी पड़ेगी। अपने जीवन में गंभीरता से झांक कर देख लें, और जिन भी बातों को सही करना है, उन्हें अभी समय और अवसर रहते हुए सही कर लें; कहीं कल या “बाद में” पर टाल देने से बहुत विलंब और हानि न हो जाए।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
1 शमूएल 15-16
लूका 10:25-42
In the previous article, we looked at some essential fundamental principles that help to interpret the statements of the Bible correctly. These are: to consider everything in its context, to always consider along with other verses related to that matter, to always consider along with other relevant Bible teachings, and to always consider understanding it with the meaning that its original or first audience understood and followed when it was first said or written. We also noted that the Bible too uses figurative language, as is usual in normal conversation and use of language. Therefore, it is necessary to understand everything not only in its literal meaning, but also in its implied meaning or connotation, according to the context. If these basic principles are not taken care of, it becomes very easy to misinterpret and misunderstand Biblical statements; And because of these mistakes, there are misinterpretations and wrong teachings that are made and taught.
Then, based on these principles, we analyzed two verses, Acts 2:38, and Acts 22:16, that are very often used to support a very common but erroneous belief that baptism is necessary for salvation, that salvation without baptism is not possible. Through a proper analysis of these verses based on the above principles, we were able to understand that both these verses, contrary to popular belief about them, do not affirm the compulsion or necessity of baptism for salvation. Today we will also analyze another verse used for this argument, 1 Peter 3:21, in accordance with the above principles, and then look at a very important, but commonly overlooked Biblical fact about the washing away of sins.
Is Baptism Necessary for Salvation? (2)
Another verse that is similarly misused because of its misinterpretation is 1 Peter 3:21 “There is also an antitype which now saves us--baptism (not the removal of the filth of the flesh, but the answer of a good conscience toward God), through the resurrection of Jesus Christ". From this verse also at first glance people assume the meaning that they are saved by baptism. But by looking at the sentences of this verse carefully, and in their context, it becomes apparent that this verse does not mean this.
The first sentence of this verse, using the immediately preceding verse 20 as an illustration, takes the flood of Noah's time and the rescue of eight people mentioned in it, as an antitype, meaning, an earlier type or symbol. Those eight people did not survive by going into the water without a security mechanism; but only survived by getting into the ark built by Noah. It was the ark, not they themselves, which floated on the water and kept them safe. Their safety and security in the ark built by Noah is a representation of the protection and security from eternal destruction in the Lord Jesus Christ the Savior. The destroying flood and the safe presence of Noah and his family in the saving ark served to confirm Noah’s testimony; of what he had been foretelling the people of the world. Similarly, baptism also is before the world as a testimony of the people being saved by coming into faith in the Lord Jesus Christ (Romans 8:1). It now is evident that in this verse baptism is not the saving agent, but the equivalence of the ‘antitype’ - the testimony of Noah and his family. Whereas the one who saves is the Lord Jesus Christ. Baptism is just a testimony of being saved through the resurrection of Christ. The resurrection also alluding to Christ’s death with all its meanings and significance, and burial as well.
And the same thing, that baptism is only the testimony given by a saved person of the salvation from his sins, is said in other places in the Bible too. So that people may not misinterpret this, Peter, led by the Holy Spirit, immediately, in the sentence, said that by baptism only the filth of the body may be cleansed, but the purification of the soul is only by having a good conscience towards God. At that time, for Peter and the other disciples, baptism was simply baptism of immersion. That is why he writes that taking a dip in water for baptism can only remove the filth of the body, but the filth of the soul is removed only by being under the control of God.
Now pay attention to one very important thing; nowhere in the Scriptures is it ever mentioned or implied that any water can wash away one's sins, or purify one from sins. Whether in the Old Testament or the New Testament, according to the Bible, the shedding of blood is necessary for the remission of sins “And according to the law almost all things are purified with blood, and without shedding of blood there is no remission” (Hebrews 9:22). It is written in 1 John 1:7, “But if we walk in the light as He is in the light, we have fellowship with one another, and the blood of Jesus Christ His Son cleanses us from all sin." And, Revelation 1:5 says, “and from Jesus Christ, the faithful witness, the firstborn from the dead, and the ruler over the kings of the earth. To Him who loved us and washed us from our sins in His own blood.” If the water of baptism could wash away sins, then why would the Lord Jesus have to shed His blood? John the Baptist was already baptizing those who repented with the baptism of repentance (Matthew 1:1-11). The Lord God could have made it more effective and applicable, and the Lord Jesus would have had no need to shed His priceless blood! That would have been a very simple and easy solution to the problem of sin.
Since the Lord Jesus Christ had to shed His sinless, priceless blood to wash away our sins, how can we then say that the waters of the world's rivers, ponds, etc. used for baptism are as effective as the priceless blood of the Lord Jesus Christ? Can we dare to treat His blood so lightly and thereby insult Him like that? How, on what basis, can we say that like the priceless blood of Lord Jesus Christ, which washes away our sins and cleanses us from sins, the water of the rivers and ponds of the world can also do the same? Because to say that baptism washes away sins and brings salvation, equates baptism and the water of baptism to the sacrifice and shed of blood of the Lord Jesus.
Now, do you understand the devious, derogatory lies and deception of Satan hidden in this corrupt matter of justifying salvation by baptism? Please do not fall into this mistake of despising the sacrifice of the Lord Jesus and the shedding of His priceless blood, the consequences are so severe: “Anyone who has rejected Moses' law dies without mercy on the testimony of two or three witnesses. Of how much worse punishment, do you suppose, will he be thought worthy who has trampled the Son of God underfoot, counted the blood of the covenant by which he was sanctified a common thing, and insulted the Spirit of grace?" (Hebrews 10:28-29).
If you are a Christian, it is essential for you to follow the Word of God, not the customs and traditions created by men. Because in the end, you will neither be judged by any man, nor on the basis of any man-made doctrines and teachings, all of which not only are vain (Matthew 15:9) but will also be taken away (Matthew 15:13). But everyone will be judged by the Lord Jesus (Acts 17:30-31), and only on the basis of His unalterable and firmly established Word (John 12:48). Therefore, it is necessary for you to be pleasing to God, instead of striving to please men; else you will have to suffer the loss of eternal life and eternity. Take a serious account of your life, and whatever things you need to rectify, do it right now, while you have the time and opportunity; procrastinating and postponing it for tomorrow or "later" may be very harmful.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
Read the Bible in a Year:
1 Samuel 15-16
Luke 10:25-42