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व्यक्तिगत जीवन में पवित्र आत्मा की भूमिका - यूहन्ना 14:16
हम पहले के लेखों में यह देख चुके हैं कि प्रभु ने शिष्यों के लिए यह अनिवार्य किया था कि वे बिना पवित्र आत्मा की सामर्थ्य को प्राप्त किए, सेवकाई के लिए बाहर न निकलें। साथ ही प्रभु ने उन्हें यह भी स्मरण करवाया था कि पवित्र आत्मा के विषय वह उनसे पहले भी चर्चा कर चुका है। हमने पिछली बार प्रभु द्वारा अपनी पृथ्वी की सेवकाई के दौरान, अपने क्रूस पर दिए गए बलिदान से पहले, शिष्यों के साथ विभिन्न समयों पर पवित्र आत्मा के बारे में की गई बातों को देखा था, जिनमें प्रभु ने बारंबार यही कहा था कि उन्हें आने वाले समय में पवित्र आत्मा प्राप्त होगा। इसलिए, प्रभु के क्रूस पर चढ़ाए जाने से पहले के इन हवालों के आधार पर पवित्र आत्मा को प्राप्त करने से संबंधित कुछ गढ़ी हुई धारणाओं को उचित ठहराने के प्रयास करना या तर्क देना अनुचित और परमेश्वर के वचन की गलत व्याख्या करना होगा। शिष्य के जीवन में पवित्र आत्मा की भूमिका के विषय पर बाइबल में दर्ज की गई प्रभु की सबसे विस्तृत चर्चा, प्रभु के पकड़वाए जाने से ठीक पहले, फसह के पर्व के भोज के दौरान, शिष्यों से हुई बात-चीत में दी गई है, जिसका विवरण हमें यूहन्ना 14 तथा 16 अध्यायों में मिलता है। हम इन्हीं अध्यायों में प्रभु द्वारा परमेश्वर पवित्र आत्मा के विषय दी गई शिक्षाओं से सीखते हैं कि परमेश्वर पवित्र आत्मा मसीही विश्वासी के व्यक्तिगत जीवन, तथा सेवकाई में क्या कार्य करता है, और परमेश्वर पवित्र आत्मा की सामर्थ्य क्यों मसीह यीशु के शिष्य की मसीही सेवकाई के लिए आवश्यक है।
यूहन्ना 14: व्यक्तिगत उपयोगिता
प्रभु ने पहले शिष्यों को, उनमें परमेश्वर पवित्र आत्मा की आवश्यकता और शिष्यों के जीवन में पवित्र आत्मा के द्वारा होने वाले कार्यों के बारे में बताया:
यूहन्ना 14:16 - “और मैं पिता से बिनती करूंगा, और वह तुम्हें एक और सहायक देगा, कि वह सर्वदा तुम्हारे साथ रहे।” पवित्र आत्मा मसीही विश्वासी का सहायक है, प्रभु द्वारा दिया गया एक भिन्न (एक 'और') सहायक; इस पद में हम पवित्र आत्मा के बारे में तीन मुख्य बातों को देखते हैं:
वह प्रभु यीशु मसीह की परमेश्वर पिता से विनती के आधार पर, अर्थात प्रभु यीशु मसीह की ओर से परमेश्वर पिता द्वारा प्रभु यीशु के शिष्यों में भेजा या दिया जाता है; किसी अन्य विधि से नहीं। कोई मनुष्य त्रिएक परमेश्वर के इस सम्मिलित कार्य में न तो हस्तक्षेप कर सकता है, और न परमेश्वर को उस मनुष्य के कहे या उस मनुष्य की इच्छा के अनुसार कुछ करने के लिए बाध्य कर सकता है। तात्पर्य यह, कि परमेश्वर पवित्र आत्मा किसी मनुष्य के कहे अनुसार या मनुष्यों द्वारा बनाई और बताई जाने वाली विधियों से प्राप्त नहीं होता है, जैसा कि कुछ मत या डिनॉमिनेशन वाले बहुत जोर देकर अपने अनुयायियों को बताते और सिखाते हैं। और हम पहले देख चुके हैं कि आज इस अनुग्रह के समय में, प्रत्येक मसीही विश्वासी को उद्धार पाते ही परमेश्वर की ओर से पवित्र आत्मा दे दिया जाता है।
उसे सर्वदा मसीही विश्वासी के साथ रहने के लिए दिया गया है। इसलिए उद्धार पाए हुए मसीही विश्वासी के लिए बार-बार पवित्र आत्मा मांगने की प्रार्थना करना या कहना अथवा गीतों में गाना और मांगना, प्रभु की शिक्षाओं और परमेश्वर के वचन के अनुसार नहीं है – उद्धार पाने के साथ जब एक बार दे दिया गया तो सदा साथ रहने के लिए दे दिया गया। वह मसीही विश्वासी को छोड़ कर कभी नहीं जाता है।
परमेश्वर पवित्र आत्मा 'सहायक' होने के लिए दिया गया है - उनका सेवक होने के लिए नहीं। वह मसीही विश्वासियों से कार्य करवाता है, उनका मार्गदर्शन करता है, उन्हें सिखाता है, उनके लिए निर्धारित सेवकाई के अनुसार उन्हें योग्य और सामर्थी करने के लिए उपयुक्त वरदान देता है (1 कुरिन्थियों 12:7, 11); किन्तु वह विश्वासियों के स्थान पर उनके लिए निर्धारित कार्य नहीं करता है। मसीही विश्वासी उस से कार्यों या जिम्मेदारियों का निर्वाह करने के लिए अपनी असमर्थता जता कर, अपना निर्धारित कार्य उससे नहीं करवा सकते हैं। यदि विश्वासी किसी कार्य को करने में असमर्थ हैं, तो पवित्र आत्मा उन्हें बताएगा, सिखाएगा, उनका मार्गदर्शन करेगा कि वो उस कार्य को कैसे करें; लेकिन उनके स्थान पर उस कार्य को कर के नहीं देगा। करना मसीही विश्वासी को ही होगा, पवित्र आत्मा की अगुवाई और सिखाए के अनुसार।
यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु परमेश्वर द्वारा आपके लिए निर्धारित सेवकाई को प्रभु की इच्छा के अनुसार, और प्रभु को स्वीकार्य रीति से पूरा करना चाहते हैं, प्रभु के लिए उपयोगी होना चाहते हैं, तो आपके जीवन में परमेश्वर पवित्र आत्मा की उपस्थिति तथा भूमिका के प्रति आपको सजग और संवेदनशील होना अनिवार्य है। जब आप, आपके अंदर निवास करने वाले परमेश्वर पवित्र आत्मा की आवाज़ को पहचानने लगेंगे, उसकी आज्ञाकारिता में होकर, उसके कहे के अनुसार कार्य करने लगेंगे, तो आपकी मसीही सेवकाई स्वतः ही परमेश्वर की सामर्थ्य से परिपूर्ण, प्रभावी, उपयोगी, और परमेश्वर को स्वीकार्य हो जाएगी।
क्या इस बात की कल्पना भी करना आपके अंदर एक रोमांच नहीं भर देता है कि परमेश्वर आप में होकर कार्य करना चाहता है, ताकि आपको आशीषित कर सके, अनन्तकाल के प्रतिफलों से परिपूर्ण कर सके? वह तो करना चाहता है, और उसने इसके लिए उपयुक्त संसाधन भी आपको उपलब्ध करवा दिए हैं; किन्तु क्या आप अपनी तथा अपने साथ के लोगों की बुद्धि-समझ-ज्ञान, और अपने डिनॉमिनेशन की मान्यताओं, धारणाओं, और विधि-विधानों आदि से निकलकर केवल परमेश्वर के कहे के अनुसार करने के लिए तैयार हैं, प्रतिबद्ध हैं (गलातीयों 1:10)। जब तक आप में यह निर्णय करने और उसे निभाने की हिम्मत नहीं होगी, परमेश्वर पवित्र आत्मा को आपके जीवन में खुलकर और प्रभावी रीति से कार्य करने की अनुमति और छूट नहीं होगी; और फिर न ही आप एक प्रभावी मसीही सेवकाई करने पाएंगे, और न ही अपने अनन्तकाल के लिए कोई विशेष प्रतिफल अर्जित करने पाएंगे। और फिर आपका मसीही जीवन और मसीही सेवकाई धर्म-कर्म-रस्म के बंधनों में बंधा मनुष्यों और संस्थाओं द्वारा निर्धारित औपचारिकताएं पूरी करते रहने मात्र का ही जीवन बनकर रह जाएगा।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो थोड़ा थम कर विचार कीजिए, क्या मसीही विश्वास के अतिरिक्त आपको कहीं और यह अद्भुत और विलक्षण आशीषों से भरा सौभाग्य प्राप्त होगा, कि स्वयं परमेश्वर आप में होकर कार्य करे, जिससे आपको आशीषों से भर सके? इसलिए अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए मेरे सभी पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” प्रभु की शिष्यता तथा मन परिवर्तन के लिए सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
भजन 35-36
प्रेरितों 25
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Role of the Holy Spirit in Personal Life - John 14:16
In the previous articles we have seen that the Lord Jesus had made it mandatory for the disciples to wait till they had received the power of the Holy Spirit, only then to go out for their ministry. The Lord had also reminded them that He had talked to them about the Holy Spirit earlier also. We had seen in the previous article about the various references regarding the Lord’s talking to the disciples about the Holy Spirit, before His crucifixion. In these discussions with the disciples the Lord had kept telling them that their receiving the Holy Spirit will happen in the days to come. Therefore, to argue and try to justify some current notions about receiving the Holy Spirit, on the basis of these pre-crucifixion references, is inappropriate and misinterpreting the Word of God. The most detailed discussion of the Lord regarding the role of the Holy Spirit in disciple’s life is found in His discourse with the disciples while eating the Passover feast, in John chapters 14 and 16. From the teachings given by the Lord in this discourse, we learn that the Holy Spirit has a very important role in both the personal life (chapter 14) as well as the ministry of a Christian Believer (chapter 16); we also learn why the presence, power, and activity of the Holy Spirit is necessary in Christian ministry.
John 14: Role of the Holy Spirit in Personal Life
The Lord, first of all, told the disciples about the necessity of the Holy Spirit and about the works that He does in their lives:
John 14:16 “And I will pray the Father, and He will give you another Helper, that He may abide with you forever.” The Holy Spirit is there to help the Christian Believer, given by God as ‘another helper’ or one more helper. From this verse we see three main things about the Holy Spirit:
He is sent by God the Father on the basis of the Lord Jesus’s request to do so, i.e., He is sent by God the Father to be with the disciples of the Lord Jesus, on behalf of the Lord Jesus Christ. There is no other way to have Him come into a person’s life. No man can interfere in this work of the Holy Trinity; nor can any man ever, in any manner compel the Triune God to do according to what that man says or wants. The implication is that, contrary to what some sects and denominations teach and emphasize upon, God the Holy Spirit neither comes to anyone on the basis of any man’s works or requests, nor through any of the methods and practices devised by any person. Rather, as we have already seen, in this Age of Grace, the Holy Spirit is given spontaneously to every Born-Again Christian Believer by the Lord God, the moment he is saved.
He has been given to every Christian Believer, “that He may abide with you forever” - He comes to remain forever and always with the Believer. Therefore, for a saved Christian Believer, there is no sense or rational to repeatedly keep praying or asking for the Holy Spirit to come and be with him. Similarly, all worship and songs etc. asking for the Holy Spirit to come again and fill again or empower again etc. are vain and inconsistent with the straightforward teachings of the Lord and God’s Word - when He has already been given by the Lord God to a Believer, it is so that He remains with the Believer forever. He never leaves and goes away from any Christian Believer, so it makes no sense to keep asking for Him again and again in various ways.
God the Holy Spirit has been given to be a Believer’s helper - not his servant or substitute laborer. He guides and teaches the Christian Believers, He is there to empower and enable them, to help them to do their ministry and work. He also gives to the Christian Believers the necessary gifts so that they can fulfill their God assigned ministry worthily (1 Corinthians 12:7, 11); but He does not do anyone’s work for him, in his stead. No Christian Believer can plead inability to do his work due to any reason, and ask the Holy Spirit to do it for him; this will never happen. If for any reason, a Christian Believer is unable to do some work, then the Holy Spirit will teach him, show him how to do it, guide him, encourage him to do the work; but He will never take over from the person pleading inability and do that work for him. The work will have to be done by the Christian Believer, the Holy Spirit will help and guide him into doing it.
If you are a Christian Believer, and want to fulfill your God assigned ministry according to God’s will, in the manner acceptable to God, and be useful and fruitful for the Lord, then you will have to be sensitive to the presence and role of God the Holy Spirit residing in you. When you start recognizing the promptings of the Holy Spirit residing in you, and start working under His guidance in obedience to Him, then your Christian ministry will automatically become full of God’s power, effective, useful for the Lord, acceptable to God, and a source of blessings for you.
Doesn’t this thought fill you with a thrill and exhilaration that God desires to work through you, so that He can bless you, fill you with eternal rewards? He wants to do this, and He has made available the necessary provisions also; but are you willing to be obedient to Him and only Him? Are you committed to do only what God says, no matter what your own or some other person’s wisdom, understanding, and knowledge may be telling you; no matter what the beliefs, notions, rites and rituals of your sect of denomination might be? Are you willing to step out of every man-made rule and regulation for the sake of being obedient to God and pleasing God (Galatians 1:10)? Unless and until you have the courage to take this decision and live by it, God the Holy Spirit will never have the freedom to fully and effectively work in your life; and then you will neither fulfill your God assigned ministry appropriately, nor will you be able to gather any worthwhile rewards for your eternity. Unless you provide this freedom to the Holy Spirit in your life, your Christian life will only be life of living to fulfill the demands religion, rituals, and works, under the obligations and formalities of men, denominations, and organizations.
If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Psalms 35-36
Acts 25