मसीही विश्वासी के प्रयोजन (6) - प्रचार
के लिए तैयार (1)
मसीही विश्वास एवं शिष्यता के अध्ययन के अंतर्गत
हम मरकुस 3:14-15 से प्रभु यीशु द्वारा अपने शिष्यों के लिए रखे गए प्रयोजनों पर मनन कर रहे
हैं। शिष्यों के लिए प्रभु के दूसरे प्रयोजन “वह उन्हें
भेजे, कि प्रचार करें” के पहले और
दूसरे भाग को हम पिछले लेखों में देख चुके हैं, और आज इस
दूसरे प्रयोजन के तीसरे भाग, प्रभु जब और जहाँ उन्हें भेजें,
वे वहाँ जाकर “प्रचार करें” को देखेंगे।
प्रचार करना, पुराने तथा नए नियम में,
समस्त पवित्र शास्त्र में प्रभु के लोगों की एक प्रमुख गतिविधि रही है। प्रभु यीशु
का अग्रदूत, “यूहन्ना आया, जो जंगल
में बपतिस्मा देता, और पापों की क्षमा के लिये मन फिराव के
बपतिस्मा का प्रचार करता था” (मरकुस 1:4)। जब प्रभु यीशु की सेवकाई का समय आया, तब “यूहन्ना के पकड़वाए जाने के बाद यीशु ने गलील में आकर परमेश्वर के राज्य
का सुसमाचार प्रचार किया। और कहा, समय पूरा हुआ है, और परमेश्वर का राज्य निकट आ गया है; मन फिराओ और
सुसमाचार पर विश्वास करो” (मरकुस 1:14-15)। अपने बारह शिष्यों को चुनने के बाद, प्रभु ने
उन्हें कुछ निर्देश देकर दो-दो करके भेजा (मरकुस 6:7-11), “और उन्होंने जा कर प्रचार किया, कि मन फिराओ। और
बहुतेरे दुष्टात्माओं को निकाला, और बहुत बीमारों पर तेल
मलकर उन्हें चंगा किया” (मरकुस 6:12-13)। और अपनी पृथ्वी की सेवकाई के अंत, अपने स्वर्गारोहण के समय प्रभु यीशु ने
अपने शिष्यों को यरूशलेम से आरंभ करके संसार के छोर तक उसके गवाह होने (प्रेरितों 1:8)
की ज़िम्मेदारी सौंपी, “और उसने उन से कहा,
तुम सारे जगत में जा कर सारी सृष्टि के लोगों को सुसमाचार प्रचार
करो। जो विश्वास करे और बपतिस्मा ले उसी का उद्धार
होगा, परन्तु जो विश्वास न करेगा वह दोषी ठहराया
जाएगा” (मरकुस 16:15-16)। उन्हें
सारे संसार में जाकर उद्धार के सुसमाचार को बताना था; और तब
से लेकर आज दिन तक प्रभु यीशु के शिष्य, विभिन्न विधियों एवं
उपलब्ध माध्यमों से, सारे संसार में यही करते आ रहे हैं।
न केवल प्रभु ने शिष्यों से प्रचार करने
को कहा, वरन
उन्हें उस प्रचार का मुख्य विषय, उसकी विधि, और संबंधित बातों का क्रम भी बताया
“यीशु ने उन के पास आकर कहा, कि स्वर्ग और
पृथ्वी का सारा अधिकार मुझे दिया गया है। इसलिये तुम जा कर सब जातियों के लोगों को
चेला बनाओ और उन्हें पिता और पुत्र और पवित्र आत्मा के नाम से बपतिस्मा दो। और
उन्हें सब बातें जो मैं ने तुम्हें आज्ञा दी है, मानना
सिखाओ: और देखो, मैं जगत के अन्त तक सदैव तुम्हारे संग हूं”
(मत्ती 28:18-20); “और उन्होंने निकलकर हर
जगह प्रचार किया, और प्रभु उन के साथ काम करता रहा, और उन चिह्नों के द्वारा जो साथ साथ होते थे वचन को, दृढ़ करता रहा। आमीन” (मरकुस 16:20)। मत्ती और मरकुस रचित सुसमाचारों के अंत में दी गई प्रभु की ये बातें,
बहुत महत्वपूर्ण और हमारे लिए बहुत ध्यान देने योग्य शिक्षाएं हैं,
क्योंकि प्रभु का यही निर्देश, जगत के अंत तक,
सफल और प्रभावी प्रचार की कुंजी है; और जब
शिष्य प्रभु के कहे के अनुसार करते रहे, तो, जैसा उपरोक्त मरकुस 16:20 में लिखा है, प्रभु भी उनके साथ होकर कार्य करता रहा, उनके प्रचार
को सफल और प्रभावी करता रहा। इसका प्रमाण हम कुछ ही समय पश्चात प्रेरितों के काम
में लिखी एक बात में देखते हैं, “और उन्हें न पाकर,
वे यह चिल्लाते हुए यासोन और कितने और भाइयों को नगर के हाकिमों के सामने
खींच लाए, कि ये लोग जिन्होंने जगत को उलटा पुलटा कर दिया
है, यहां भी आए हैं” (प्रेरितों
17:6) - यह लगभग 52 ईस्वी, अर्थात प्रभु यीशु के स्वर्गारोहण से लगभग 18-19 वर्ष
बाद की बात है। तात्पर्य यह कि प्रभु यीशु के स्वर्गारोहण के दो दशकों के भीतर ही,
प्रभु के शिष्यों ने अपने प्रचार द्वारा “जगत को
उलटा पुलटा” कर दिया था, यानि कि जगत
में खलबली मचा दी थी।
उस समय उन प्रचारकों के पास न तो यात्रा
के कोई विशेष साधन थे, न संपर्क एवं संचार की कोई व्यवस्था थी, न ही सम्पूर्ण वचन लिखित
और संकलित रूप में जैसा आज हमारे हाथों में है उपलब्ध था। अभी तो सारी पत्रियाँ
लिखी भी नहीं गई थीं! उन आरंभिक प्रचारकों के लिए भी सुसमाचार प्रचार करना सहज
अथवा सरल नहीं था; उनको भी बहुत विरोध और कठिनाइयों का सामना
करना पड़ा था। किन्तु फिर भी प्रभु द्वारा दिए गए सुसमाचार प्रचार के इस साधारण से
सूत्र (फौरमुले), इस विधि ने उनके प्रचार को बहुत प्रभावी और
सामर्थी बना दिया था। जो काम इस विधि के द्वारा तब किया गया, वही आज भी संभव है, क्योंकि प्रभु के समान उसका वचन,
उसकी बात युगानुयुग एक सी है, कभी बदलती नहीं है और हर युग, हर स्थान,
हर सभ्यता के लिए सदा प्रभावी और उपयोगी है। इसलिए प्रभावी सुसमाचार प्रचार के लिए
आज हमें भी मनुष्यों द्वारा बनाई गई और सिखाई जाने वाली बातों के स्थान पर प्रभु
के इस सुसमाचार प्रचार के उपाय को जानने, समझने, और उसका पालन करने की आवश्यकता है। अगले लेख में हम इसी के बारे में कुछ
और देखेंगे।
यदि आप प्रभु के शिष्य हैं, और उसके लिए उपयोगी होना
चाहते हैं, तो प्रभु के वचन का अध्ययन करने और प्रभु से मार्गदर्शन प्राप्त करते रहने के लिए प्रार्थना
करते रहिए। उसके वचन, बाइबल, का अध्ययन करते समय, बाइबल में आपकी सेवकाई से
संबंधित दी गई बातों को सीखने, समझने, और उनका पालन करने पर विशेष ध्यान दीजिए -
वे ही प्रभु द्वारा उस सेवकाई के प्रभावी रीति से किए जाने, उसके प्रभु के लिए फलवंत
होने का सही मार्ग हैं। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी
तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय
आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी उसके पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। प्रभु
यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा
सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय
जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से
केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे
पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते
हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे
पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े
गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें।
मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और
समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय
एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल
पढ़ें:
- यशायाह
65-66
- 1 तिमुथियुस 2