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आरम्भिक बातें – 7
मरे हुए कामों से मन फिराना – 3
हम इब्रानियों 6:1-2 में दी गई आरंभिक बातों को सीख रहे हैं, और वर्तमान में हम उन छः में से पहली बात, अर्थात, मरे हुए कामों से मन फिराने के बारे में विचार कर रहे हैं। हमने देखा है कि “मरे हुए काम” क्या हैं, वे काम जो चाहे धार्मिक और भले प्रतीत हों, किन्तु उनके द्वारा करने वालों में कोई आत्मिक बढ़ोतरी या परिपक्वता नहीं होती है। पिछले लेख में हमने मत्ती 7:21-23 से एक प्रकार के “मरे हुए कामों” के बारे में देखा था – स्वयं के द्वारा निर्धारित की गई सेवकाइयाँ, जो यद्यपि प्रभु के नाम में की जाती हैं, किन्तु या तो परमेश्वर की इच्छा में नहीं होती हैं, अथवा परमेश्वर द्वारा दिए गए तरीके से नहीं की जाती हैं। हमने देखा था कि अन्ततः वे सभी प्रभु द्वारा पूर्णतः तिरस्कार कर दी जाएँगी; प्रभु उन्हें “कुकर्म” कह चुका है। आज हम एक अन्य प्रकार के “मरे हुए कामों” के बारे में देखेंगे, आज अधिकाँश मसीहियों को जिन्होंने जकड़ रखा है – मनुष्यों द्वारा बनाए गए सिद्धान्तों और परमेश्वर के बिगाड़े हुए, भ्रष्ट किए हुए वचन के आधार पर परमेश्वर की सेवकाई करना, और यह मान लेना कि ऐसा करना ठीक है।
प्रभु ने मत्ती 15:3-9 में शास्त्रियों और फरीसियों, जो यहूदियों के धार्मिक अगुवे और प्राचीन थे, और प्रभु पर दोष लगा रहे थे कि वह पुरनियों की रीतियों का पालन नहीं करता है (मत्ती 15:1-2), की खिंचाई की; यहाँ पर कम से कम उन्होंने यह तो सच कहा कि वे रीतियाँ पुरनियों की थीं, उन्हें परमेश्वर द्वारा दी गई नहीं कहा। प्रभु ने, पद 3 में उन्हें उत्तर देते हुए ध्यान दिलाया कि यहूदियों के धार्मिक अगुवे होते हुए भी, वे लोग अपनी रीतियों के पालन करने से बंधे होने के द्वारा परमेश्वर की आज्ञाओं को टाल रहे थे। इसके बाद, पद 4 से 6 तक प्रभु उन पर लगाए गए इस दोष का प्रमाण उन शास्त्रियों और फरीसियों के द्वारा किए जाने वाले कार्यों से देता है। उसके बाद, यशायाह 29:13 का हवाला देते हुए, जो वे कर रहे थे (पद 7-8) उसके लिए प्रभु उन्हें कपटी कहता है, उनकी आराधना को व्यर्थ आराधना कहता है, और उन पर मनुष्यों की बनाई हुए विधियों को परमेश्वर की आज्ञाएँ बताकर सिखाने का दोष लगाता है। ध्यान कीजिए कि प्रभु न तो उन्हें अधर्मी कहता है, न ही उन पर प्रभु परमेश्वर यहोवा को छोड़ कर किसी अन्य देवी-देवता के पीछे चलने का दोष लगाता है, और न ही उन्हें किसी अन्य धर्म शास्त्र का पालन करने वाला बताता है।
प्रभु द्वारा उन धर्म के अगुवों और प्राचीनों के विरुद्ध कही गई इन बातों का आधार था उनके द्वारा परमेश्वर के वचन में फेर-बदल करना और यह करके उसे बिगड़ देना, भ्रष्ट कर देना। उन्होंने वचन में अपने ही विचार और व्याख्याएँ मिला दी थीं, अपनी ही आज्ञाएँ बना ली थीं, और वे लोगों को इन बातों को परमेश्वर के द्वारा दिए गए सिद्धान्त कह कर सिखा रहे थे, पालन करवा रहे थे। प्रभु यीशु उन्हें परमेश्वर के वचन में परिवर्तन करने और इस प्रकार से वचन को भ्रष्ट करने, उन्हें परमेश्वर द्वारा दी गई आज्ञाओं का नहीं बल्कि अपने द्वारा, मनुष्यों की बनाई हुई आज्ञाओं का पालन करने का दोषी ठहराता है, उन्हें बजाए सच्चे मन से और खराई से परमेश्वर की आराधना करने के, मात्र औपचारिकता निभाने के लिए धार्मिक रीति-रिवाज़ों का पालन करने वाले कहता है। इन बातों के कारण, प्रभु यीशु के नजरिए से, जैसा कि उसने इस खण्ड में कहा है, वे कपटी थे, और परमेश्वर की उनकी आराधना व्यर्थ थी। एक और बात पर ध्यान कीजिए, यद्यपि इन धार्मिक अगुवों ने प्रभु की बात से ठोकर खाई (मत्ती 15:12), अर्थात वे बातें उन्हें बुरी लगीं, लेकिन वे प्रभु पर कुछ भी झूठ कहने का दोष नहीं लगा सके; और एक तरह से अप्रत्यक्ष रीति से यह मान लिया कि प्रभु ने उनके बारे में जो कुछ कहा था, वह सच था। प्रभु इससे आगे मत्ती 15:13-14 में कहता है कि जो भी परमेश्वर की ओर से नहीं हैं, वे सब उखाड़े जाएँगे, वे अपने अनुयायियों के साथ गढ़े में जा गिरेंगे, अर्थात उनका अन्त बहुत दुखदायी होगा।
ये धार्मिक अगुवे यहोवा को छोड़ अन्य किसी की उपासना नहीं कर रहे थे, किन्तु वे उस रीति से उपासना नहीं कर रहे थे, जैसी प्रभु परमेश्वर ने पवित्र शास्त्र में आज्ञा दी थी कि परमेश्वर की उपासना की जाए। उन्होंने अपनी ही समझ के अनुसार उन्हें दिए गए परमेश्वर के वचन की व्याख्याएँ कर ली थीं, और उनके अनुसार वचन में परिवर्तन कर लिए थे। इन परिवर्तनों का उद्देश्य उन्हें भौतिक समृद्धि देना और परमेश्वर की ओर से धार्मिक कार्यों को करने वाले कार्यकर्ता होने के नाते जन-साधारण पर अपनी पकड़ बनाए रखना था। अब वे परमेश्वर द्वारा दिए गए पवित्र शस्त्र को नहीं, वरन उस में किए गए उनके परिवर्तनों वाले वचन को सिखाते थे, और उसे ही परमेश्वर का वास्तविक वचन स्वीकार करवा के, उसी का पालन करवाते थे। हम इसे पहाड़ी उपदेश में देखते हैं, जहाँ पर प्रभु ने कई बार वाक्यांश “तुम सुन चुके हो” या इसी के समान, जैसे कि मत्ती 5:21, 27 में; और फिर उसके बाद प्रभु कहता है “परन्तु मैं तुम से कहता हूँ” या उसी के समान कुछ, जैसे कि मत्ती 5:22, 28 में लिखा है। यहाँ पर “तुम सुन चुके हो” उस बात को बताता है जो धार्मिक अगुवों और प्राचीनों के द्वारा लोगों को बताई और सिखाई जाती थी, अर्थात भ्रष्ट किया हुआ वचन; और “परन्तु मैं तुम से कहता हूँ” उस बात का सही रूप है, परमेश्वर का वास्तविक वचन, जो लोगों को बताया और सिखाया जाना तथा पालन करवाना चाहिए था।
अगले लेख में हम इन बातों का वर्तमान की स्थिति में महत्व एवं लागू किया जाना देखेंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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The Elementary Principles – 7
Repentance From Dead Works - 3
We are learning about the elementary principles mentioned in Hebrews 6:1-2, and are presently considering the first of these six, i.e., repentance from dead works. We have seen what “dead works” are, works that seem to be religious and good works, but do not result in any spiritual growth or maturity for those carrying them out. In the last article we saw from Matthew 7:21-23 one kind of “dead works” – self-determined ministries though carried out in the name of the Lord, but either not in the will of God, or, not according to how God wants things done. We saw that eventually they will be totally rejected by the Lord; He has called them “lawlessness” or “iniquity.” Today we will consider another kind of “dead works” that these days has a very strong hold on most Christians – serving God through man-made doctrines and the corrupted Word of God, and trusting it to be okay.
In Matthew 15:3-9, The Lord Jesus pulls up the Scribes and the Pharisees, the religious leaders and elders of the Jews, who were accusing Him of transgressing the traditions of the elders (Matthew 15:1-2) – here, at least they were honest in saying that it were the elder’s traditions, and did not call them as God given traditions. The Lord, in verse 3 answers them by pointing out to them, that as the religious leaders of the Jews, they were transgressing the commandment of God because of adhering to their traditions. The Lord then, from verses 4 to 6, goes on to illustrate His accusation through specific examples of what the Scribes and Pharisees used to do. Then, quoting Isaiah 29:13, He calls them hypocrites for what they were practising (verses 7-8), calls their worship of God as vain, and accuses them of teaching man-made commandments as the doctrines of God. Notice, the Lord neither calls them irreligious, nor of believing in and worshipping some god other than the Lord God Jehovah, nor of following some other Scriptures.
The Lord’s basis of making these statements against these religious elders and leaders was that they had altered and corrupted God’s Word, by bringing into it their own ideas and interpretations, made up their own commandments, which they were teaching the people as God given doctrines, and making them follow them. The Lord Jesus holds them guilty of altering and thereby corrupting God’s Word, of making the people obey their man-made commandments instead of what God had commanded, of perfunctory ritualistic observances and practises instead of a heart-felt and sincere worship of God. Because of these things from the Lord’s perspective, as He says in this passage, they were hypocrites, and their worship of God was vain. Notice another thing, though these religious leaders were offended at what the Lord had pointed out about them (Matthew 15:12), but they could not accuse the Lord of saying anything false; thereby indirectly acknowledging to be true all that the Lord had to say. The Lord goes on to say in Matthew 15:13-14, that all who were not from God will be uprooted, will fall into a ditch along with their followers, i.e., will have a sorry ending.
These religious leaders were not worshipping anyone other than Jehovah, but they were not worshipping Him as the Lord God had commanded it to be done in the Scriptures. They had made their own modifications in God’s commandments through their own interpretations of God’s Word given to them. These modifications had been done to benefit them physically, materially, and give them greater power over the common people, presenting themselves as religious functionaries on behalf of God. Now, instead of the actual Scriptures given by God, they were preaching and teaching their own modifications of God’s Word, and were compelling the people to accept whatever they taught, as the authentic Word of God, and obey it. We see this in the Sermon on the Mount, where the Lord often uses the phrase “you have heard” (e.g. Matthew 5:21, 27), or something like it, and the Lord follows it with the phrase “but I say to you” (e.g. Matthew 5:22, 28). The “you have heard” refers to what the people were being taught and asked to do by the religious leaders and elders, i.e., the altered and corrupted word; and the “but I say to you” is the corrected version, the true Word of God, that the people should have been taught and asked to follow.
In the next article we will see the importance and application of these things in our current context.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.