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सुसमाचार से संबंधित शिक्षाएँ – 4
हमने पिछले लेख का समापन करते हुए यह कहा था कि हम आज के इस लेख में सच्चे पश्चाताप को दिखाने, उसे पहचानने के गुण को देखेंगे। जहाँ सच्चा मन-फिराव या पश्चाताप होगा, वहाँ उसके अनुरूप कुछ कार्य भी होंगे, एक बदला हुआ जीवन और उस से मेल खाते हुए कुछ काम भी होंगे जैसा कि यूहन्ना बपतिस्मा देने वाले ने फरीसियों को बपतिस्मा देने से मना करते हुए कहा था, “सो मन फिराव के योग्य फल लाओ” (मत्ती 3:8)। हम इसका एक उदाहरण पुराने नियम के एक धर्मी राजा योशिय्याह के जीवन से देखते हैं; कृपया अपनी बाइबल को 2 इतिहास 34 अपने सामने खोलकर रखें, और इंगित पदों को पढ़ते रहें।
योशिय्याह आठ वर्ष का बच्चा ही था जब उसे यहूदा का राजा बनाया गया (पद 1)। उसने अपने पूर्वज राजा दाऊद का अनुसरण करते हुए (पद 3), वह किया जो परमेश्वर की दृष्टि में ठीक था (पद 2)। उसने इस्राएलियों को उनकी सांसारिकता और मूर्तिपूजा से वापस परमेश्वर की ओर मोड़ने का प्रयास किया (पद 3-7), और मंदिर की भी, जो उस समय बहुत बुरे हाल में था, मरम्मत करवाई (पद 8)।
इस मरम्मत के दौरान, महायाजक हिल्किय्याह को मूसा में होकर परमेश्वर के द्वारा दी गई व्यवस्था की पुस्तक मिली (पद 14); और हिल्किय्याह ने शापान शास्त्री के हाथों उस पुस्तक को राजा के पास भिजवाया। ज़रा कल्पना कीजिए, उस समय में न तो महायाजक के पास, और न ही शास्त्री के पास परमेश्वर का वचन था, जो उनके गिरे हुए आत्मिक स्तर का सूचक है। जब हम वचन के इस खंड को पढ़ते हैं, तो आभास होता है कि हिल्किय्याह का उद्देश्य परमेश्वर के वचन को प्रस्तुत करने का नहीं था, बल्कि राजा द्वारा सौंपे गए कार्य के बारे में ब्यौरा देना था (पद 15-16)। क्योंकि न तो महायाजक और न ही शास्त्री के पास परमेश्वर का वचन था, इसलिए, वे उसे पढ़ते, उसका अध्ययन भी नहीं करते थे, और उन्होंने परमेश्वर के भवन को बुरे हाल में जा लेने दिया, उनके लिए उस भवन का कोई महत्व नहीं था। उन्होंने तो कभी उसकी मरम्मत करवाने का प्रयास भी नहीं किया; यह प्रयास भी राजा ने ही किया।
शापान के लिए उस पुस्तक का भी कोई महत्व प्रतीत नहीं होता है, वह बड़ी साधारण रीति से कहता है कि उन्हें एक पुस्तक मिली है (पद 18)। क्योंकि उसके लिए उस पुस्तक का कोई महत्व नहीं था, इसलिए, उस पुस्तक के पढ़े जाने का कोई प्रभाव नहीं हुआ; किन्तु पढ़े जाने का राजा योशिय्याह पर भारी प्रभाव आया, और उसने पश्चाताप या मन-फिराव किया (पद 19)। परमेश्वर के वचन को सुनकर राजा योशिय्याह को दो बातों का एहसास हुआ; पहली यह कि उस की भक्ति के बावजूद, परमेश्वर के लोगों का अगुवा होने के नाते उस से जो अपेक्षाएं थीं, वह उन पर पूरा नहीं उतर रहा था, और इसीलिए वह तुरंत ही परमेश्वर के सामने पश्चाताप में आ गया। और दूसरी बात, उसके साथ सेवा करने वाले जो महायाजक और शास्त्री थे, उसे आत्मिक मार्गदर्शन देने के लिए उन पर भरोसा नहीं किया जा सकता था। इसलिए उसने उन्हें परमेश्वर की नबिया, हुल्दा के पास भेजा, कि परमेश्वर की इच्छा और क्या करना है, इसके लिए निर्देश पता कर सके (पद 22)।
हुल्दा में होकर योशिय्याह को परमेश्वर के लोगों पर आने वाली विपत्ति का पता चलता है, क्योंकि वे लोग सांसारिकता और मूर्तिपूजा में चले गए थे (पद 23-25)। यह योशिय्याह का परमेश्वर के प्रति पश्चाताप और भक्ति का रवैया था, उसका व्यक्तिगत मन-फिराव था, उसका परमेश्वर के वचन से प्रेम करना उसे आदर देना था, जिसने उसे अपनी प्रजा, याजकों, लेवियों को परमेश्वर की ओर मोड़ा (पद 30-33)। ऐसा करने से न केवल वह यहूदा और यरूशलेम पर खड़ी हुई विपत्ति से बच सका, किन्तु उसके आने को अपनी मृत्यु के होने के बाद तक के लिए टाल सका (पद 27-28)।
योशिय्याह के उदाहरण से हम देखते हैं कि सच्चा पश्चाताप या मन-फिराव, कार्यों में, व्यावहारिक रीति से परिवर्तित जीवन में दिखाई देता है, प्रमाणित होता है। व्यक्ति का अपना जीवन भी बदलता है, और वह दूसरों के जीवन में भी इस परिवर्तन को देखना चाहता है। पश्चातापी व्यक्ति के जीवन में परमेश्वर के वचन के प्रति प्रेम, आदर और उसका पालन करना दिखाई देता है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Teachings Related to the Gospel – 4
While concluding the previous article, we had said that in today’s article we will look at a characteristic of true, sincere repentance, by which we can recognize it. Wherever there is true repentance, there will also be some works corresponding to it, it will be evidenced by a changed life and some works, as John the Baptist said to the Pharisees while refusing to baptize them “Therefore bear fruits worthy of repentance” (Matthew 3:8). We see an example of this from the Old Testament, from the life of King Josiah, a devout king of Judah; please open your Bibles to 2 Chronicle 34.
Josiah became King of Judah as a child of eight years of age (v.1). But he, by emulating his forefather, King David (v. 3) did what was right in the sight of the Lord (v.2). He strived to turn the Israelites back toward God from their idolatry and worldliness (vs.3-7), and repair the Temple of God that was in a very bad state (v.8).
During the repairs, the High Priest, Hilkiah, found the Book of the Law of the Lord given by Moses (v.14); and Hilkiah sent the Book to the King through Shaphan the Scribe, and he casually presented it to the King, his main attention was not on Moses’s Book of God’s Law, but on reporting about the work given to them by the King (vs 15-16). Just imagine the state of spiritual decline, the Israelites had fallen into. The High Priest and the Scribe, neither possessed, nor knew about the Book of the Law; implying they never read or learnt from it, and they had allowed the Temple of God to go into a state of disrepair. They had never tried to get it repaired, it was the King, who wanted to get it repaired.
For Shaphan also the Book of the Law does not seem to hold any importance; for him it is not ‘the Book’ but simply ‘a book’, who read it to the King (v.18). Because it held no importance for Shaphan, therefore, reading of God’s Word made no affect upon Shaphan, but it did affect King Josiah, who repented (v.19). Josiah realized two things; firstly, despite his godliness he still fell short of what was expected of him as a leader of God’s people, therefore he immediately came down in repentance before God. And secondly, that the High Priest and Scribe serving with him could not be relied upon to guide him properly about spiritual matters. So, he sent them to Huldah, the prophetess of God, to find out God’s will and instructions about what to do (v. 22).
Through Huldah, King Josiah learns of the disaster looming over God’s people, because of their having fallen away into worldliness and idolatry (vs. 23-25). It was Josiah’s reverential attitude towards God, his personal repentance, his loving and honoring God’s Word, and then getting his people, priests, and Levites to turn to God (vs. 30-33), that not only saved him from the calamity that was impending upon Judah and Jerusalem but also postponed it till after his death (vs. 27-28).
Through the example of Josiah, we see that true or sincere repentance is evidenced through works, practically, in a changed life. The life of the repenting person changes, and he wants to see this change in the lives of the others as well. The repentant person has a love, reverence, and obedience to God’s Word.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.