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शनिवार, 15 जुलाई 2023

The Law & Salvation / व्यवस्था और उद्धार – 2 – Being Good/ भला होना - 1

बाइबल में दी गई व्यवस्था और मनुष्य के उद्धार में संबंध

भला होना भाग 1

      मनुष्यों के परस्पर व्यवहार एवं संबंधों और मनुष्यों के परमेश्वर के प्रति व्यवहार और संबंधों में एक बात सामान्य है - दोनों ही में भला होने, भला माने जाने, भला प्राप्त करने आदि की बहुत प्रमुख भूमिका है। सभी मनुष्य दूसरे से भले व्यवहार और भलाई की अपेक्षा करते हैं, चाहे वे स्वयं वही व्यवहार औरों के प्रति न करें। इसी प्रकार से परमेश्वर के प्रति भी यही दृष्टिकोण रहता है, वे हमेशा यही चाहते हैं कि उनका ईश्वर उनके प्रति भाल रहे और भलाई करता रहे। इस उद्देश्य से वे इसी धारणा के अंतर्गत जीवन जीते रहते हैं कि भले बनने और भलाई करने, चाहे यह उस थोड़े से समय ही के लिए क्यों न हो जब उन्हें ईश्वरीय सहायता की आवश्यकता होती है, वे ईश्वर को स्वीकार्य बन जाएँगे। उनकी यह धारणा इस बात पर आधारित है कि भले काम करने और आत्मिक या आध्यात्मिक बातों को मानने-मनाने से वे भले हो जाएँगे; भले होने के द्वारा व परमेश्वर को स्वीकार्य हो जाएंगे, जिससे फिर ईश्वर उनके पक्ष में होकर, उनकी इच्छा और लालसा के अनुसार उनके लिए कार्य करेगा। 


    किसी भी बात के भले या बुरे, सही अथवा गलत, उचित अथवा अनुचित, स्वीकार्य अथवा अस्वीकार्य, आदि होने के लिए एक स्थापित एवं सर्व-मान्य, तथा वैध मानक, या जायज़ आधार की आवश्यकता होती है, जिसके समक्ष उस बात को लाकर, उस मानक के आधार पर उस बात की वास्तविक स्थिति को पहचाना जा सके। क्योंकि बात चाहे किसी के व्यक्तिगत दृष्टिकोण से भली हो, सही हो, मानने योग्य हो; किन्तु यदि उस स्थापित एवं सर्व-मान्य और वैध मानक के अनुसार आँकलन करने पर भली, सही, मानने योग्य नहीं है, तो उसे स्वीकार्य होने का दर्जा नहीं मिलेगा। 


    सांसारिक और शारीरिक बातों के लिए, व्यक्ति जिस स्थान पर रहता है, सामान्यतः उस देश या स्थान का संविधान ही हर बात के वैध एवं स्वीकार्य होने, या न होने को परिभाषित करता है, वहाँ पर लागू होने वाले मानकों का निर्णय करता है। उस संविधान का उपयोग या दुरुपयोग किस रीति से किया जाता है, यह पृथक विषय है - यदि अनुचित भी किया जाता है, तो भी गलती संविधान की नहीं, उसकी व्याख्या, उसके लागू करने, और उसका उपयोग करने वाले की है। यहाँ पर एक महत्वपूर्ण बात ध्यान में रखनी चाहिए, भले और स्वीकार्य होने का आँकलन हमारे अपने मानकों के अनुसार सही नहीं होता है, वरन जिसकी दृष्टि में हम भले और स्वीकार्य होना चाह रहे हैं, उसके मानकों के अनुसार ही सही या वैध ठहरता है।


    हम मसीही विश्वासियों के लिए आत्मिक बातों के लिए यह “संविधान”, जो बात को वैध/जायज़  और स्वीकार्य, अथवा अनुचित और अस्वीकार्य घोषित करता है, वह परमेश्वर का वचन, बाइबल और उसके नियम या व्यवस्था है। सांसारिक और आत्मिक बातों के भले या बुरे होने के आँकलन में अन्तर होने के कारण ही प्रभु यीशु मसीह ने कहा था “... जो कैसर का है, वह कैसर को; और जो परमेश्वर का है, वह परमेश्वर को दो” (मत्ती 22:21; देखें 22:15-21)। अर्थात संसार के अधिकारियों के द्वारा संसार की बातों को जिस आधार पर देखा और माना जाता है, उसके अनुसार संसार की बातों का आँकलन एवं निर्वाह करो; और परमेश्वर के द्वारा प्रदान किए गए माप-दंड या मानकों के आधार पर परमेश्वर से संबंधित बातों का आँकलन एवं निर्वाह करो। सांसारिक मानकों के आधार पर परमेश्वर की बातें नहीं जाँची और मानी जा सकती हैं; और न ही परमेश्वर के मानकों के आधार पर सांसारिकता को निभाया जा सकता है। जो संसार के साथ चलना चाहता है, उसे सांसारिक माप-दंड अपनाने चाहिएं; और जो परमेश्वर के साथ चलना और रहना चाहता है उसे परमेश्वर के माप-दंड अपनाने चाहिएं।


    मसीही विश्वास में वह जो परमेश्वर के वचन के अनुसार सही है, स्वीकार्य है, वही भला है; अन्य सभी जो परमेश्वर के वचन के अनुसार सही नहीं है, स्वीकार्य नहीं है, वह भला भी नहीं है - उस बात के बारे में मनुष्यों के विचार, धारणाएं, और आँकलन चाहे कुछ भी हो। इसलिए, हम मसीही विश्वासियों के लिए तो, बाइबल ही यह निर्धारित करती है कि “भले कार्य” क्या हैं, और क्या नहीं हैं; परमेश्वर को क्या स्वीकार्य है और क्या स्वीकार्य नहीं है, और परमेश्वर के दृष्टिकोण से भला मनुष्य कौन है।


    यह एक स्वाभाविक बात है कि जो भला है, वही भला कर भी सकता है। प्रभु यीशु मसीह ने कहा, “कोई अच्छा पेड़ नहीं, जो निकम्मा फल लाए, और न तो कोई निकम्मा पेड़ है, जो अच्छा फल लाए। हर एक पेड़ अपने फल से पहचाना जाता है; क्योंकि लोग झाड़ियों से अंजीर नहीं तोड़ते, और न झड़बेरी से अंगूर। भला मनुष्य अपने मन के भले भण्डार से भली बातें निकालता है; और बुरा मनुष्य अपने मन के बुरे भण्डार से बुरी बातें निकालता है; क्योंकि जो मन में भरा है वही उसके मुंह पर आता है” (लूका 6:43-45)। अर्थात मनुष्य का जीवन, व्यवहार, उसके “फल” उसकी वास्तविकता को प्रमाणित करते हैं; जो परमेश्वर के आँकलन के अनुसार भला करता है वही उसकी दृष्टि में भला भी है।  


    तो अब प्रश्न उठता है कि परमेश्वर के वचन के आधार पर यह भले काम करने वाला और परमेश्वर को स्वीकार्य भला मनुष्य कौन है? उसके क्या गुण हैं? अगले लेख में हम मनुष्य के भले होने और हो पाने के बारे में परमेश्वर के वचन में से देखेंगे। किन्तु अभी के लिए मुख्य बात यही है कि अपने साथ उसे संगति में रखने के लिए परमेश्वर को वही मनुष्य स्वीकार्य है, जिसने अपने पापों के लिए पश्चाताप करके प्रभु यीशु से उनके लिए क्षमा माँग ली है और जिसके पाप क्षमा हो गए हैं; जो स्वेच्छा से, सच्चे और समर्पित मन से प्रभु यीशु मसीह का अनुयायी या शिष्य हो गया है। 


    यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।

 

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The Relationship Between the Law and Salvation in the Bible

Being Good – Part 1

     There is one thing in common between the mutual interactions and relationships of human beings with each other, and, in their behavior and relationships of humans towards God - in both of them being good, being considered good, receiving good, etc. have a very prominent role. All human beings expect good behavior and goodness from others, even though they themselves may not behave the same towards others. Similarly, they always want that their god will be good towards them, and only do that which is good for them. To this end, they live under the assumption that by being good, even if it is for a short while – at the moment they need divine help if they be good as do good, they will become acceptable to God. Their this notion is based on the belief that by doing good works, and by accepting and doing spiritual or pious things, they will become good, which will then make them acceptable to God, because of which god will then act in their favor, will do things for them according to their wish and desires.

    For anything to be good or bad, right or wrong, appropriate or inappropriate, acceptable or unacceptable, etc., there is a need for an established and universally accepted, and legally acceptable standard, or a valid basis, before which that matter can be placed, and it’s actual status can be evaluated as per that standard. Because even if a thing is good, correct, and acceptable from one's personal point of view; unless it is appropriate, correct, and acceptable on being evaluated according to that established and universally accepted and valid standard, it will not be considered as acceptable.

    For worldly and physical things, the place where a person lives, generally the constitution or norms of that country or place, defines and decides the standards of considering whether things are valid and acceptable, or not. The manner in which that constitution is actually used or misused by people is a separate matter - even if it is used improperly, the fault is not of the constitution, but of its interpretation and the way it is applied and put to use. There is an important thing to keep in mind over here, the evaluation of being good and acceptable cannot be done according to our criteria and standards, rather, it has to be done according to the criteria and standards that are according to the person in whose eyes we are trying to be good and acceptable, only then will the standard be valid and acceptable.

    For us Christians, this "constitution" for spiritual matters, which declares what is valid/legal and acceptable, or inappropriate and unacceptable, is the Word of God, i.e., the Bible, and its laws. Because of the difference in the assessment of the good or bad of worldly and spiritual things, the Lord Jesus Christ said “… Render therefore to Caesar the things that are Caesar's, and to God the things that are God's" (Matthew 22:21; see 22:15-21). In other words, assess and do the things of the world, on the basis of the standards used for assessing the things of the world and as they are seen and accepted by the authorities of the world; and on the basis of the criteria or standards given by God, assess and fulfill the things related to Him. The things pertaining to God cannot be evaluated, judged and accepted by worldly standards; Nor can worldliness be evaluated and lived out by the standards of God. He who wants to walk with the world, must adopt worldly standards; and one who wants to walk and live with God must adopt the standards of God.

    In the Christian faith, only that which is according to the Word of God is acceptable, and is considered good. All else that is not right according to God's Word is not acceptable, and is not good either—whatever people may think, believe, and assess regarding that matter. So, for us Christians, the Bible determines what is "good works," and what is not; What is acceptable to God and what is not acceptable, and who is a good man from God's point of view.

    It is a natural thing that only those who really are good from within, can also do something actually good. The Lord Jesus Christ said, "For a good tree does not bear bad fruit, nor does a bad tree bear good fruit. For every tree is known by its own fruit. For men do not gather figs from thorns, nor do they gather grapes from a bramble bush. A good man out of the good treasure of his heart brings forth good; and an evil man out of the evil treasure of his heart brings forth evil. For out of the abundance of the heart his mouth speaks” (Luke 6:43-45). Or, a man's life, his behavior, his "fruits" prove his reality; one who does good according to God's standards, is also good in His eyes.

    So now the question arises that on the basis of the Word of God who is the man that does good and is therefore acceptable to God because of his goodness? What are this person’s qualities? In the next article, we'll look at this question from God's Word - about man being good and being able to do good. But for now, the main thing is that the only person acceptable to God, the one to be in fellowship with him, is the one who has repented of his sins and asked the Lord Jesus for their forgiveness, and whose sins are forgiven; One who voluntarily, with a sincere and submissive heart has become a follower or disciple of the Lord Jesus Christ.


    If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life.  Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.

 

 

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