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सुसमाचार से संबंधित शिक्षाएँ – 15
पिछले लेख में हमने देखा है कि प्रभु यीशु की पृथ्वी पर सेवकाई के दिनों में, यहूदियों में प्रतिज्ञा किये हुए मसीहा, छुटकारा देने वाले के आगमन की प्रत्याशा थी; किन्तु उनकी आशा एक ऐसे छुड़ाने वाले के लिए थी जो उन्हें उन पर शासन कर रहे रोमी साम्राज्य से मुक्त करवाए, और राज्य को फिर से उनके हाथों में कर दे – उनके लिए सुसमाचार बस यही था, सुसमाचार का इतना ही अर्थ था। वे अपने आप को पाप के दासत्व में नहीं देखते थे; उनके दृष्टिकोण से व्यवस्था एवं धार्मिक रीतियों का पालन करना उन्हें परमेश्वर के स्वर्गीय राज्य में प्रवेश दिलवाने के लिए पर्याप्त था – इसलिए उनके लिए यह कोई समस्या नहीं थी; उनकी समस्या, उन पर शासन करने वाले रोमी थे; और वे उनसे मुक्त होना चाहते थे। यद्यपि प्रभु का अग्रदूत, यूहन्ना बपतिस्मा देने वाला, लोगों को प्रभु यीशु की सेवकाई के लिए तैयार कर रहा था, जिसके लिए वह पापों से पश्चाताप या मन-फिराव का प्रचार कर रहा था और जो पश्चाताप करते थे उन्हें बपतिस्मा देता था, और जो इसे एक रीति के समान लेना चाहते थे, उन्हें मना कर देता था (मत्ती 3:1-12), फिर भी उन यहूदियों के दृष्टिकोण से, जिनके बीच में वह सेवकाई कर रहा था, पापों के दासत्व से छुटकारा पाना उनके लिए का कोई महत्व नहीं था, उन्हें उससे कोई परेशानी नहीं थी।
जब धनी धार्मिक अधिकारी युवक प्रभु के पास आया, तब वह भली-भान्ति जानता था कि उसके द्वारा आज्ञाओं को मानते चले आने के बावजूद, उसमें कुछ कमी थी, और वह परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के योग्य नहीं था (मत्ती 19:16-22)। फरीसियों का सरदार, निकुदेमुस, भी प्रभु के पास कुछ शंकाओं के समाधान के लिए आया था, और इससे पहले कि वह अपनी समस्या को बोलने भी पाता, प्रभु ने उसे उत्तर दे दिया – उसे नया-जन्म लेना अवश्य था, नहीं तो वह परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करना तो दूर, उसे देख भी नहीं पाएगा (यूहन्ना 3:3, 5)। दूसरे शब्दों में, उसके एक धर्म-गुरु और वचन का शिक्षक होने के बावजूद, वह अपने आप में जानता था कि उसकी सारी धार्मिकता, व्यवस्था के पालन, और रीतियों के निर्वाह के बावजूद, वह अभी भी परमेश्वर को स्वीकार्य नहीं बन पाया था; उसमें अभी भी किसी बात की कमी थी। सभी सुसमाचारों के वृतांतों में हम प्रभु यीशु को, उस समय के धार्मिक अगुवों – फरीसियों, सदूकियों, शास्त्रियों, आदि को, उनके धार्मिक होने के बावजूद उनके पाखण्ड के लिए फटकार लगाते हुए देखते हैं (मत्ती 23); प्रभु ने उनकी धार्मिकता को माना, किन्तु उस धार्मिकता को परमेश्वर के राज्य में प्रवेश देने के लिए अपर्याप्त बताया (मत्ती 5:20)। इसी प्रकार से परमेश्वर के लिए अति-उत्साही फरीसी, शाऊल, जिसे हम उसके परिवर्तित होने के बाद पौलुस के नाम से जानते हैं, ने व्यवस्था पालन के आधार पर अपनी स्व-धार्मिकता के बारे में कुछ बहुत महत्वपूर्ण बात कही है – कि व्यवस्था पालन की धार्मिकता के अनुसार तो वह निर्दोष था, लेकिन फिर भी प्रभु यीशु में विश्वास करने से मिलने वाली धार्मिकता के आधार पर, उसकी पहले वाली, व्यवस्था पालन की धार्मिकता, व्यर्थ थी (फिलिप्पियों 3:4-12)। हम यह भी देखते हैं कि यरूशलेम में जो धर्मी यहूदी (प्रेरितों 2:5) व्यवस्था की आवश्यकताओं के पालन के लिए एकत्रित हुए थे, पिन्तेकुस्त के दिन पतरस द्वारा दिए गए सन्देश द्वारा उनके हृदय छिद गए, उन्हें एहसास हो गया कि उनकी धर्म-परायणता और उस से अपेक्षित धार्मिकता निरर्थक थी; इसलिए वे पुकार उठे कि अब अपनी वास्तविक स्थिति के समाधान के लिए उन्हें क्या करना चाहिए। ध्यान कीजिए, पतरस ने उन्हें और अधिक धर्मी बनने, परमेश्वर के प्रति और अधिक उत्साही होने, व्यवस्था के पालन के प्रति और अधिक प्रतिबद्ध होने, आदि जैसी कोई बात करने के लिए नहीं कहा; वरन, उन से पश्चाताप करने या मन-फिराव के लिए कहा (प्रेरितों 2:37-38)।
यहाँ तक कि सबसे अधिक धर्मी व्यक्ति, अय्यूब, जिसकी धार्मिकता के विषय परमेश्वर ने दो बार दावा किया (अय्यूब 1:1,8; 2:3), जब उसका सामना परमेश्वर से हुआ तो वह तुरन्त पहचान गया कि वास्तव में वह कितना तुच्छ और पापी है, और अपने आप को सही ठहराने की बजाए, जैसा कि वह अपने मित्रों के सामने कर रहा था, उसने परमेश्वर के सामने तुरन्त पश्चाताप किया (अय्यूब 40:4-5; 42:5-6)। परमेश्वर का नबी यशायाह, यद्यपि वह परमेश्वर की सेवकाई में लगा हुआ था, किन्तु जब उसने स्वर्ग के दर्शन में परमेश्वर के सिंहासन और अन्य बातों को देखा तो पुकार उठा कि वह नाश होने योग्य अशुद्ध होंठों वाला मनुष्य है (यशायाह 6:5) – उसने तब तक की उसकी परमेश्वर की सेवकाई का कोई सन्दर्भ, उसके आधार पर अपने आप को सही ठहराने का कोई प्रयास नहीं किया; केवल अपनी धार्मिकता की वास्तविक स्थिति को मान लिया, पश्चाताप कर लिया। अब्राहम भी, जो “परमेश्वर का मित्र” कहलाता है (2 इतिहास 20:7; यशायाह 41:8; याकूब 2:23), परमेश्वर के सामने अपने किसी कार्य अथवा परमेश्वर के साथ उसके सम्बन्ध के आधार पर धर्मी नहीं ठहरा, बल्कि अपने विश्वास करने के कारण धर्मी ठहरा। उसका विश्वास करना ही उसके लिए धार्मिकता गिना गया (इब्रानियों 11:8-9; रोमियों 4:3; गलतियों 3:6)।
परमेश्वर का वचन बहुत स्पष्ट है, कोई भी किसी भी धर्म, या किसी भी प्रकार के धार्मिकता के कार्य, या धर्म, धर्म के कार्यों, और धर्म के रीति-रिवाजों के पालन के आधार पर परमेश्वर की दृष्टि में उसके राज्य में प्रवेश करने योग्य भला नहीं ठहरता है – ऐसी सारी धार्मिकता परमेश्वर की दृष्टि में मैले चिथड़ों के समान है, उसे अस्वीकार्य और योग्य है (यशायाह 64:6)। यह उस समय के यहूदियों के लिए, और आज के मसीहियों या ईसाईयों के लिए समान रीति से लागू है। यदि परमेश्वर के राज्य में धर्म के निर्वाह और धार्मिकता के कार्यों से प्रवेश कर पाना संभव होता, तो प्रभु यीशु मसीह को मनुष्य बनकर पृथ्वी पर उतर आने, पापी मनुष्यों द्वारा अपमानित होने, अपराधी के समान क्रूस पर मरने की कोई आवश्यकता नहीं थी। परमेश्वर केवल किसी अन्य नबी को भेज देता, जो परमेश्वर के दृष्टिकोण से बातों को थोड़ा और स्पष्ट कर देता, लोगों को समझा देता, और मनुष्यों को अपने उद्धार के लिए कार्य करने की प्रेरणा दे देता। किन्तु यह करने की बजाए, जैसे कि प्रभु ने निकुदेमुस से कहा था, और आज हमारे लिए भी वैसा ही लागू है, प्रत्येक जन को परमेश्वर के राज्य में प्रवेश करने के लिए, नया-जन्म लेना अनिवार्य है; चाहे उसका धर्म और कार्य कुछ भी हों (प्रेरितों 17:30-31)। परमेश्वर का वचन बिलकुल स्पष्ट है, कहीं कोई शंका नहीं है, कि कोई भी, कभी भी, “मसीही” या “ईसाई” होकर जन्म नहीं लेता है, अर्थात जन्म से ही “मसीही” या “ईसाई” नहीं होता है; हर किसी को नया-जन्म लेने के द्वारा ही “मसीही” बनना होता है। अगले लेख में हम देखेंगे कि क्यों कोई भी परमेश्वर के सम्मुख व्यवस्था के पालन से धर्मी नहीं ठहरता है, और फिर देखेंगे कि परमेश्वर के दृष्टिकोण से, जैसा कि उसने अपने वचन में लिखवाया है, क्यों किसी परिवार विशेष, अथवा किसी धर्म के अन्तर्गत जन्म लेने से और कुछ रीति-रिवाजों को पूरा करने से कोई “मसीही” नहीं हो जाता है।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
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Teachings Related to the Gospel – 15
In the previous article we have seen that at the time of the earthly ministry of the Lord Jesus, the Jews were anticipating the arrival of the promised Messiah, the deliverer; but their anticipation was of a deliverer who would deliver them from the Romans ruling over them, and restore their kingdom to them – to them that was all that the gospel, or the good news meant. They did not consider themselves to be under the bondage of sin; to them, fulfilling of the religious laws and rituals was sufficient to qualify them to enter the heavenly Kingdom of God – so that was no problem; their problem were the Romans ruling over them; and that is what they wanted to be delivered from. Even though the Lord’s forerunner, John the Baptist, came preparing the people for the ministry of the Lord Jesus, for which he was preaching repentance from sins, baptizing those who repented, and refusing to baptize those who wanted to get it done as a mere ritual (Matthew 3:1-12), yet, from the point-of-view of the Jews amongst whom he was ministering, deliverance from the bondage of sins was the least of their problems.
When the Rich Young Ruler came to the Lord, he well knew that despite his having obeyed the Commandments from his youth, he lacked something, and was unworthy of entering the Kingdom of God (Matthew 19:16-22). The leader of the Pharisees, Nicodemus, too came to the Lord with his doubts, and even before he could speak out that which was bothering him, the Lord gave him the answer – he must be Born-Again, otherwise let alone enter, he would not even see the Kingdom of God (John 3:3, 5); in other words, despite his being a religious leader and teacher, he knew within himself that all his religiosity and fulfilling the Law and the rituals had still not made him acceptable to God, to enter His Kingdom; he still lacked something. Throughout the Gospel accounts we repeatedly find the Lord castigating the religious leaders of His time – the Pharisees, the Sadducees, the Scribes, etc. for their hypocrisy, despite their being religious (Matthew 23); the Lord acknowledged their righteousness, but also called their righteousness as insufficient to enter God’s Kingdom (Matthew 5:20). Similarly, the zealous Pharisee Saul, also known as Paul after his conversion, had something very important to say about his self-professed righteousness based on his religious observances – that on the basis of the righteousness of the Law, he was blameless, but yet, on the basis of the righteousness that comes through faith in the Lord Jesus, his former self-professed righteousness through the observance of the Law was vain (Philippians 3:4-12). We also see that the devout Jews (Acts 2:5) who had gathered in Jerusalem to fulfil the requirements of the Law, on hearing Peter’s sermon on the day of Pentecost were convicted, realizing that their religiosity and their expected righteousness was inconsequential; therefore, they cried out wanting to know what to do to rectify their situation. Notice that Peter did not ask them to be more religious, more zealous, more committed to obeying the Law; but asked them to repent (Acts 2:37-38).
Even the most religious man, Job, about whose righteousness God spoke of twice (Job 1:1, 8; 2:3), on being confronted by God realised how vile and sinful he actually was, and instead of trying to justify himself, as he had been doing with his friends, immediately repented before God (Job 40:4-5; 42:5-6). God’s prophet, Isaiah, although he was already engaged in the ministry for the Lord, but when he saw the vision of heaven, god’s throne, and the other things there, he immediately cried out that he was a man of unclean lips worthy to be destroyed (Isaiah 6:5) – he did not try to justify himself through his ministry carried out by him for the Lord till then; he simply acknowledged his actual state and repented. Even Abraham, called the “Friend of God” (2 Chronicles 20:7; Isaiah 41:8; James 2:23), was justified before God not because of his relationship with God or any of his works, but because of his faith. It was his faith that was accounted to him as righteousness (Hebrews 11:8-9; Romans 4:3; Galatians 3:6).
God’s Word is very clear, no one’s religion, or religious works of any kind, or any righteousness claimed on the basis of religion and their religious works and observances, ever qualified them to be right with God, and be considered good enough to enter God’s Kingdom – all such righteousness is like filthy rags in the eyes of God, unacceptable to Him and vain (Isaiah 64:6). This was so then for the Jews then, and now also for Christianity. If it had been possible to be good enough to enter the Kingdom of God through religion and works, then there was no need for the Lord Jesus to have come down to earth, be humiliated by sinful men, be crucified as a criminal, and suffer death. All God needed to do was send another prophet, clarify things from His point-of-view a bit better and some more, and let men work for their salvation. But instead of this, as the Lord Jesus said to Nicodemus then, and is applicable for us today, each and every one has to be Born-Again to be able to enter the Kingdom of God; this is applicable to all men, everywhere; irrespective of their religion and works (Acts 17:30-31). God’s Word is very clear and unambiguous, no one is ever born a “Christian;” everyone must be Born-Again to be a “Christian.” In the next article we will see why people could not be justified before God through the observance of the Law, and then see why no one from God’s point-of-view, as is given in His Word, can be called a “Christian” by virtue of being born in a particular family, under a particular religion, and fulfilling of certain rites and rituals.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.