प्रश्न: क्या लेंट और लेंट में उपवास बाइबल के अनुसार हैं?
उत्तर:
ईस्टर, लेंट, लेंट का उपवास, क्रिसमस आदि किसी त्यौहार या परम्परा का बाइबल में कोई उल्लेख नहीं है, और न ही उन्हें मानने - मनाने से संबंधित कोई शिक्षा अथवा निर्देश दिए गए हैं। न ही कहीं यह कहा या जताया गया है की इनके मानने अथवा मनाने से कोई भी परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी ठहरा; या फिर नहीं मानने अथवा नहीं मनाने से अधर्मी ठहरा, या उसकी किसी आशीष में बढ़ती अथवा घटती हुई।
परमेश्वर ने अपनी बुद्धिमत्ता में न तो प्रभु यीशु के जन्म की, और न ही उनके क्रूस पर चढ़ाए जाने की कोई तिथि बाइबल में दर्ज करवाई – जबकि समय का नाप और लेखा उत्पत्ति की पुस्तक से मिलता आया है – उत्पत्ति 7:4, 11; 8:4-5, 13-14; इसलिए यदि आवश्यक अथवा उपयोगी होता तो अपने एकलौते पुत्र से संबंधित ये इतनी महत्वपूर्ण क्रिसमस और ईस्टर की तारीखें भी परमेश्वर दर्ज करवा सकता था। किन्तु उसने ऐसा नहीं किया, और न ही कभी चाहा कि मनुष्य अपनी ओर से कोई तिथि निर्धारित करें या मनाएं; और न ही उन्हें मानने-मनाने से संबंधित कोई विधि अथवा निर्देश दिए। क्रिसमस और ईस्टर आदि, सभी गैर-मसीही त्यौहार हुआ करते थे जिन्हें मसीह यीशु में अपूर्ण विश्वास और समर्पण किए हुए लोगों ने मसीहियत में आने के बाद भी मनाना नहीं छोड़ा और उन्हें अपने पूर्व धर्मों के देवी-देवताओं के नाम से मनाने के स्थान पर ‘मसीही’ हो जाने के पश्चात मसीह यीशु के नाम से मनाना आरंभ कर दिया। ये सभी पर्व और परम्पराएं मनुष्यों द्वारा बनाए और स्थापित किए गए रीति-रिवाज़ हैं, जो कर्मों के द्वारा धर्मी प्रतीत होने का आडंबर करने के लिए प्रेरित करते हैं। किन्तु बाइबल के अनुसार इनका मनाया जाना व्यर्थ है (मत्ती 15:8-9), क्योंकि हमारे सभी धार्मिकता के कार्य परमेश्वर की दृष्टि में मैले चीथड़ों के समान हैं (यशायाह 64:6), और कर्मों के द्वारा कोई परमेश्वर की दृष्टि में धर्मी नहीं ठहरता है (रोमियों 3:20, 28; रोमियों 4:2; रोमियों 11:6; इफिसियों 2:8-9; तीतूस 3:5)। परमेश्वर केवल अपने वचन की आज्ञाकारिता से प्रसन्न होता है (1 शमूएल 15:22)। उसे व्यर्थ के पर्व और बलिदानों आदि से घृणा है "तुम्हारे नये चांदों और नियत पर्वों के मानने से मैं जी से बैर रखता हूं; वे सब मुझे बोझ से जान पड़ते हैं, मैं उन को सहते सहते उकता गया हूं" (यशायाह 1:14; देखें यशायाह 1:11-18)। परमेश्वर हम से चरित्र की उत्तमता तथा नम्रता, और उसके प्रति सच्चा समर्पण एवं आज्ञाकारिता चाहता है, मनुष्यों के अपने मन की इच्छानुसार गढ़े हुए पर्व मानना-मनाना नहीं (होशे 6:6; मीका 6:8)।
यदि प्रभु यीशु मसीह के चालीस दिन के उपवास के अनुसरण में लेंट का उपवास रखा जाता है तो प्रभु यीशु मसीह के इस उपवास के संबंध में बाइबल में लिखी कुछ बातों का भी अनुसरण होना चाहिए। प्रभु के इस उपवास का वर्णन मत्ती 4:1-11 तथा लूका 4:1-13 में हमें मिलता है। परमेश्वर के वचन के इन खण्डों के अध्ययन से हम सीखते हैं कि:
· प्रभु यीशु मसीह ने 40 दिन का यह उपवास केवल एक बार, अपनी सेवकाई के आरंभ में रखा था, सेवकाई के अन्त में पकड़वाए और क्रूस पर चढ़ाए जाने के समय नहीं। और न ही वे इसे प्रतिवर्ष किसी नियत समयानुसार दोहराते रहे थे, जबकि फसह का पर्व इस्राएलियों द्वारा प्रतिवर्ष मनाया जाता था।
· जैसे मत्ती 4:1 में आया है, उस उपवास के समय में प्रभु अकेले जंगल में थे, और उनके जंगल में जाने का उद्देश्य था कि प्रभु की इबलीस द्वारा परीक्षा की जाए । वे इस परिक्षा के लिए पवित्र आत्मा की अगुवाई से जंगल में गए थे (मत्ती 4:1), किसी परंपरा के निर्वाह के लिए नहीं।
· उस समय वह 40 दिन तक पूर्णतः निराहार रहे थे (लूका 4:2)।
· उन चालीस दिनों के उपवास के दौरान प्रभु उन सभी चालीस दिनों तक शैतान द्वारा परखे भी गए थे (लूका 4: 1)। और फिर अन्त में उनकी वे तीन परीक्षाएं हुईं जिनका विवरण हम मत्ती 4:3-11 और लूका 4:3-13 में पाते हैं।
क्या आज मनाए जाने वाले लेंट और उस दौरान रखे जाने वाले चालीस दिन के उपवास में इनमें से एक भी बात पाई जाती है? यदि नहीं, तो फिर यह प्रभु यीशु के उपवास का अनुसरण कैसे कहा जा सकता है? तो क्या यह प्रभु के नाम पर लोगों से झूठ बोलना, झूठी शिक्षा देना, और उन्हें निष्फल धोखे में रखना नहीं है?
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु, मैं अपने पापों के लिए पश्चातापी हूँ, उनके लिए आप से क्षमा माँगता हूँ। मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मुझे और मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
- क्रमशः
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Question: Are Lent and the Fasting during Lent in Accordance with the Bible?
Answer:
Easter, Lent, fasting during Lent, Christmas etc. are traditions or festivals that are not mentioned anywhere in the Bible, and neither are there any teachings or instructions about believing on them or observing them. Nor is it indicated or mentioned anywhere that by believing in them or observing them anybody was considered righteous by God; or that by not believing or not observing them anyone was considered unrighteous; nor is it anywhere stated that there was any gain or loss in a person’s blessings from God, by observing or not observing them.
God in His wisdom did not have the date of birth, or of crucifixion of His Son documented in the Bible –although time-keeping and recording has been present since the days of Genesis –Genesis 7:4, 11; 8:4-5, 13-14. Therefore if these were so important and useful, then God would have had these so important dates of Christmas and Easter, related to His only begotten Son, recorded in the Bible. But He did not do so, nor has He ever expressed the desire that men ought to determine a date for them and observe these days and festivals; nor has He given any instructions or methodology of observing them. Christmas and Easter etc., initially were pagan days which those who converted to Christianity in a superficial manner did not stop observing but continued to observe in the name of ‘Christ’ instead of in the name of their former deities, after their becoming ‘christians’. All these feasts, festivals and traditions are man-made rituals, that tend to promote appearing righteous by works; but their observances are vain according to the Bible (Matthew 15:8-9). Because all are self-righteousness is like filthy rags in the sight of God (Isaiah 64:6), and no can ever be righteous in God’s eyes through any kind of works (Romans 3:20, 28; Romans 4:2; Romans 11:6; Ephesians 2:8-9; Titus 3:5). The only thing that pleases God is obedience to Him and His Word (1 Samuel 15:22). He hates vain feasts and festivals "Your New Moons and your appointed feasts My soul hates; They are a trouble to Me, I am weary of bearing them" (Isaiah 1:14; see Isaiah 1:11-18). God wants a good character and humility, and a true submission, commitment and obedience towards Him, not the observance of man-made and self-devised festivals (Hosea 6:6; Micah 6:8).
If the fast in Lent is in accordance with the forty day fast of the Lord Jesus then the things written in the Bible related to this fast by the Lord Jesus should also be a part of this Lent fasting. The description of this fast by the Lord Jesus is found in Matthew 4:1-11 and Luke 4:1-13. From these portions of God’s Word we learn that:
· The Lord Jesus observed this fast of 40 days only once, and that too at the beginning of His Ministry, not at the time of His being caught and crucified. Neither did He repeat the fasting on certain designated days, although the Passover feast was observed annually by the Israelites.
· As it says in Matthew 4:1 during this period of fasting the Lord was alone in the wilderness, and the purpose of His being in the wilderness was for Him to be tempted by the devil. He had gone into there by the leading of the Holy Spirit (Matthew 4:1), not to fulfill any tradition or observe any ritual.
· In that period of 40 days He did not take any food (Luke 4:2).
· During that fast of forty days the Lord was also tempted by the devil throughout those forty days (Luke 4: 2). At the end of those forty days the devil tempted Him with the three temptations mentioned in Matthew 4:3-11 and Luke 4:3-13, the ones we are commonly aware of.
In the observance of the Lent and the fasting in the Lent period, is even one of any of the above ever seen? If not, then how can it be in accordance with the fast of the Lord Jesus? In that case, would it not be telling lies to the people in the name of the Lord and teaching them wrong doctrines, and deceiving them for a fruitless endeavor?
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord, make your decision in favor of the Lord Jesus now to ensure your eternal life and heavenly blessings. Where there is obedience to the Lord, where there is respect and obedience to His Word, there is also the blessing and protection of the Lord. Repenting of your sins, and asking the Lord Jesus for forgiveness of your sins, voluntarily and sincerely, surrendering yourself to Him - is the only way to salvation and heavenly life. You only have to say a short but sincere prayer to the Lord Jesus Christ willingly and with a penitent heart, and at the same time completely commit and submit your life to Him. You can also make this prayer and submission in words something like, “Lord Jesus, I am sorry for my sins and repent of them. I thank you for taking my sins upon yourself, paying for them through your life. Because of them you died on the cross in my place, were buried, and you rose again from the grave on the third day for my salvation, and today you are the living Lord God and have freely provided to me the forgiveness, and redemption from my sins, through faith in you. Please forgive my sins, take me under your care, and make me your disciple. I submit my life into your hands." Your one prayer from a sincere and committed heart will make your present and future life, in this world and in the hereafter, heavenly and blessed for eternity.
- To Be Continued
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