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बप्तिस्मा समझना - (9) – पवित्र आत्मा का बप्तिस्मा के निहितार्थ (ज़ारी)
कल के लेख में हमने परमेश्वर पवित्र आत्मा के विषय फैलाई जा रही गलत शिक्षाओं के मसीही विश्वासी के जीवन और उसकी सेवकाई पर आने वाले दुष्प्रभावों के निहितार्थों और घातक परिणामों के पहले भाग को देखा था। यदि कुछ गंभीरता और ध्यान से “पवित्र आत्मा का बप्तिस्मा” और इससे संबंधित धारणाओं पर विचार किया जाए तो यह प्रकट हो जाता है कि ऐसी शिक्षाएं एक शैतानी चाल हैं, लोगों को सच्चाई से भटकाने और वचन को ऐसे तोड़-मरोड़ कर सिखाने के लिए, जिससे अनजाने में और नासमझी में होकर (यशायाह 5:13; होशे 4:6) मनुष्य परमेश्वर से भी बढ़कर बनने का प्रयास करने लगे - वही कार्य जिसे करने के कारण लूसिफर को स्वर्ग से गिरा दिया गया और वह शैतान बन गया। इन गलत शिक्षाओं के द्वारा शैतान बारंबार एक प्रतीत होने वाली भक्ति और धार्मिकता का आवरण डालकर, यह दिखाने और सिखाने का प्रयास करता है कि मनुष्य अपने प्रयास से परमेश्वर को नियंत्रित तथा संचालित कर सकता है; परमेश्वर को अपने हाथ की कठपुतली बना सकता है। यह धारणा संसार के कई अन्य धर्मों में देखी और सिखाई जाती है, कि मनुष्य अपनी धार्मिकता और तपस्या के द्वारा अपने देवी-देवताओं को बाध्य कर सकताहै कि वे उसे कुछ ऐसी शक्तियां और योग्यताएँ प्रदान करें फिर जिन का दुरुपयोग वह अपने स्वार्थ और लाभ के लिए करने लगता है। यदि इन गलत शिक्षाओं के सिखाने और फैलाने वालों की प्रार्थनाओं, जीवनों, और कार्यों को देखें, जैसा हम पहले कर चुके हैं, तो इनमें भी हम यही पाते हैं कि वे पवित्र-आत्मा की सामर्थ्य और उसके वरदानों के द्वारा सांसारिक और भौतिक लाभ तथा शारीरिक चंगाइयों पर ही अधिक केन्द्रित रहते हैं। पापों के लिए पश्चाताप, उद्धार, परमेश्वर और उसके वचन की आज्ञाकारिता में चलना, आदि बातें उनके प्रचार और शिक्षाओं का केंद्र नहीं होती हैं; ये बातें और इन पर जोर देना या तो उनके शिक्षा और प्रचार में बहुत कम देखी जाती हैं, अथवा होती ही नहीं हैं। वरन वे परमेश्वर के नाम पर सांसारिक सुख-समृद्धि और भौतिक आशीषों में अधिक रूचि रखते हैं - जो कि अपने प्रयासों और कार्यों के द्वारा देवी-देवताओं को बाध्य और नियंत्रित कर पाना और फिर उनसे सांसारिक तथा भौतिक लाभ प्राप्त करने की शक्तियां पा लेने के बाद उन्हें स्वार्थ के लिए उपयोग करने के समान है।
इस शृंखला के निष्कर्ष पर पहुँचने पर आज हम इन गलत शिक्षाओं में शैतान द्वारा छिपाए गए कुछ और निहितार्थों को देखेंगे:
ऊपर हम देख चुके हैं, कि यद्यपि यह स्पष्ट लिखा हुआ है कि पवित्र आत्मा पाना और पवित्र आत्मा से बपतिस्मा एक ही बात को कहने के दो भिन्न तरीके हैं, फिर भी इन गलत शिक्षाओं को सिखाने और फैलाने वाले, ‘से’ के स्थान पर ‘का’ लगाकर यही सिखाने और दिखाने का प्रयास करते हैं कि यह एक अलग बात है, जो मनुष्य के अपने प्रयासों के द्वारा संभव है; इसलिए सेवकाई में लगे मसीही विश्वासियों को अवश्य ही इसके लिए प्रयास और प्रार्थना करनी चाहिए। यह न केवल उनका ध्यान और समय उनकी सेवकाई से हटाकर व्यर्थ बात में फंसाना और उन्हें प्रभु के लिए उपयोगी होने से बाधित करना, उनकी सेवकाई और प्रभु के लिए उनकी उपयोगिता में व्यर्थ का विलंब करवाना है; वरन उनके मनों में यह बात डालना भी है कि वे परमेश्वर को बाध्य कर सकते हैं कि वह उनके लिए उनकी इच्छा के अनुसार करे।
यदि यह कहा जाए कि पवित्र आत्मा का बपतिस्मा विश्वासी के अंदर उद्धार पाते ही आकर बस जाने वाले पवित्र आत्मा को प्राप्त करना नहीं अपितु उसे सक्रिय (activate) कर देना है; तो इसका अभिप्राय हो जाता है कि परमेश्वर पवित्र आत्मा, जो पश्चाताप और प्रभु में विश्वास करने के साथ ही विश्वासी को परमेश्वर की ओर से दे दिया गया, वह आकर विश्वासी के अंदर शांत और निष्क्रिय बैठा हुआ होता है, और तब तक इस स्थिति में रहेगा, जब तक कि विश्वासी उसे जागृत कर के सक्रिय और कार्यकारी न कर दे। अर्थात कार्य करवाने वाला परमेश्वर पवित्र आत्मा नहीं, वरन उसे नियंत्रित करने वाला मनुष्य है, जिसमें पवित्र आत्मा विद्यमान है। जबकि ऐसी कोई शिक्षा पवित्र आत्मा के बारे में प्रभु यीशु ने न तो यूहन्ना 14 और 16 अध्यायों में, न ही पत्रियाँ लिखने वाले प्रेरितों और शिष्यों ने किसी अन्य स्थान पर कभी भी, कहीं पर भी दी; न ही बाइबल में किसी अन्य स्थान पर ऐसी कोई बात कही गई है। यह केवल शैतान के बहकावे में आकर मनुष्य द्वारा परमेश्वर पर हावी होने का एक शैतानी प्रयास है, बाइबल के पूर्णतः विरुद्ध शिक्षा है। इस संदर्भ में यह एक रोचक बात है कि कुछ अन्यजाति धर्मों में यह धारणा पाई जाती है कि मानव-शरीर में कुछ अद्भुत अति शक्तिशाली शक्ति हैं जिन्हें मनुष्य अपने प्रयास और विधियों से जागृत कर सकता है और उपयोग कर सकता है।
यदि यह कहा जाए कि पवित्र आत्मा मिलता तो सभी विश्वासियों को है, किन्तु कुछ ऐसे भी होते हैं जिन्हें उनकी सेवकाई के लिए कुछ अधिक सामर्थ्य की आवश्यकता होती है, इसलिए उन्हें एक और अनुभव, पवित्र आत्मा का बपतिस्मा प्राप्त करने की आवश्यकता होती है, तो यह भी वचन की किसी भी शिक्षा के साथ मेल नहीं खाता है। भक्ति और धार्मिकता के नाम पर यह मसीही विश्वासियों में भिन्नता और मतभेद उत्पन्न करने का प्रयास है; उन्हें घमंड में गिराने का तरीका है। यदि इसे स्वीकार किया जाता है तो, इस विचारधारा के परिणाम समझना कुछ कठिन नहीं है:
यह मसीही विश्वासियों को विभाजित करती है - पवित्र आत्मा का बपतिस्मा पाए हुए और न पाए हुए में बाँट देती है। वचन स्पष्ट दिखाता है कि जब भी किसी भी आधार पर लोगों ने अपने आप को भिन्न देखने या दिखाने का प्रयास किया है, तो कलीसिया में परेशानियाँ ही आई हैं, फूट ही पड़ी है, कभी कोई उन्नति नहीं हुई - (i) प्रभु यीशु मसीह के स्थान पर अगुवों के नाम और अनुसरण पर विभाजन के कारण कुरिन्थुस की मंडली में फूट पड़ी (1 कुरिन्थियों 1:11-13)। (ii) इब्रानी और यूनानी विश्वासी कहलाए जाने से फूट और बैर आया, जिसका बुरा प्रभाव प्रेरितों के प्रार्थना और वचन की सेवा पर पड़ने लगा (प्रेरितों 6:1-4)। (iii) यहूदी और गैर-यहूदी मसीही विश्वासियों के मध्य खींच-तान और अलगाव से सभी प्रेरितों और पौलुस को भी जूझते ही रहना पड़ा (प्रेरितों 15:1-2, 5, 10-11; इफिसियों 2:17-22)। यह बात विभाजित करने और दोगलेपन के जीवन में गिरा देने के लिए इतनी सामर्थी थी कि पतरस और बरनबास जैसे प्रेरित और अगुवे भी इसमें गिर गए (गलातियों 2:11-13)। यही स्थिति, इस प्रकार बपतिस्मा पाए और न पाए हुओं के मध्य उत्पन्न होकर प्रभु के लोगों में और उसकी कलीसिया में फूट और मतभेद उत्पन्न करती है।
जो अपने आप को अलग से पवित्र आत्मा का बपतिस्मा पाए हुए समझते हैं, वे अपने आप को अन्य विश्वासियों से कुछ उच्च श्रेणी का समझने लगते हैं; घमंड में आ जाते हैं, जो उनकी मसीही सेवकाई, तथा संसार में मसीही गवाही और कलीसिया के काम के लिए घातक है, क्योंकि परमेश्वर मनुष्य के घमंड के साथ नहीं निभा सकता है, उसके साथ कोई समझौता नहीं कर सकता है। इसके विपरीत जिन्होंने यह तथाकथित बपतिस्मा नहीं पाया है, और बहुत प्रयास करने के बाद भी उन्हें यह अनुभव नहीं मिला है, और क्योंकि ऐसा कुछ है ही नहीं इसलिए कभी मिलेगा भी नहीं, उनमें निराशा और हीन भावना आने लगती है, और वे अपनी सेवकाई में कमज़ोर पड़ने लगते हैं। दोनों ही स्थितियों में हानि प्रभु के लोगों और उनकी सेवकाई तथा परमेश्वर के सुसमाचार के प्रचार और प्रसार ही की होती है, और लाभ शैतान को मिलता है।
इस विचारधारा से यह गलत और बाइबल के प्रतिकूल समझ भी फैलती है कि अलग सेवकाइयों के लिए अलग वरदानों ही की नहीं वरन अलग अतिरिक्त सामर्थ्य की भी आवश्यकता होती है; जिसका अभिप्राय यह निकलता है कि कुछ सेवकाई प्रमुख हैं, जिनके लिए विशेष सामर्थ्य की आवश्यकता होती है, और शेष हलकी या गौण हैं, जिनके लिए किसी विशेष सामर्थ्य की आवश्यकता नहीं है। यह फिर से मसीही सेवकों में दरार और ऊँच-नीच की भावना को जन्म देता है। यह सेवकाई के लिए दिए जाने वाले पवित्र आत्मा के वरदानों की शिक्षा के बिल्कुल विरुद्ध है। वरदान कोई भी हो, सब मिलकर एक ही देह, उसकी कलीसिया की सेवा और पोषण तथा उन्नति के लिए हैं, कोई बड़ा या छोटा, अथवा महत्वपूर्ण या गौण नहीं है, सभी समान स्तर, महत्त्व, एवं उपयोगिता के हैं (रोमियों 12:3-5)। परमेश्वर प्रत्येक को उसे सौंपी गई सेवकाई के आधार पर प्रतिफल देगा, न कि वरदानों के अधिक अथवा कम महत्वपूर्ण होने की धारणा के अनुसार (मत्ती 20:9-15)। पवित्र आत्मा की समान सामर्थ्य, उसकी आज्ञाकारिता में कार्य करने के द्वारा, सभी की सेवकाई के लिए समान रीति से उपलब्ध है।
परमेश्वर ने हम मसीही विश्वासियों को अपनी पवित्र आत्मा के द्वारा, हमारे उद्धार पाने के साथ ही मसीही जीवन एवं सेवकाई के लिए आवश्यक सामर्थ्य तथा अपने वचन के द्वारा उपयुक्त मार्गदर्शन दे रखा है; अब यह हम पर है कि हम उसका सदुपयोग करें और प्रभु के योग्य गवाह बनें।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
- भजन 105-106
- 1 कुरिन्थियों 3
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Understanding Baptism - (9) – Implications of Baptism OF the Holy Spirit (Continued)
of the Holy Spirit”, and their effects on the life and ministry of a Christian Believer. If we ponder over this notion with some seriousness, it becomes evident that these teachings and doctrines are a satanic conspiracy to deviate people away from the truth and to teach a distorted version of God’s Word, through which inadvertently and unknowingly the gullible (Isaiah 5:13; Hosea 4:6) start making efforts to become even greater than God - which is the same thing that Lucifer attempted in heaven and was cast down from there, became Satan. Through these wrong teachings, in the garb of righteousness and godliness, Satan tries to show and teach that man through his efforts can control and direct God; can treat him like a puppet in his hands - a concept often seen in many religions of the world where it is shown and taught that men through their works, efforts, and self-righteousness were able to persuade their gods and goddesses to grant them powers and abilities which they later misused for selfish gains. If we ponder over the prayers, life, and works of the preachers and teachers of these wrong teachings, as we have done earlier, then in them too we find that they are more centred around using the power and gifts of the Holy Spirit for acquiring and increasing in things of worldly and temporal benefits, and in physical healings. Preaching and teachings related to repentance for sins, salvation, living in obedience to God and His Word, etc. usually are a very insignificant or a missing part. They mainly concentrate upon using the Holy Spirit to gain worldly, physical, and temporal goods, gains, and blessings - something quite like the pagan practice of persuading and controlling gods and goddesses through one’s works and efforts for selfish physical gains and temporal possessions.
In today’s article we will look at and consider some other implications that Satan has hidden in and propagates through these false teachings and wrong doctrines:
In the previous articles we have seen that although it is clearly written in the Word of God that receiving the Holy Spirit and baptism with the Holy Spirit are two ways of expressing the same fact, yet these preachers and teachers of wrong doctrines, by using "of” in place of “with”, attempt to not only show and prove that they are two different things, but also that achieving them is possible through human efforts and methods; and therefore, those who are engaged in Christian Ministry should make it a point to attain to this status; which is nothing more than diverting the attention, time, and efforts of the Believers into a vain activity, and thereby obstructing and deviating them away from their service and ministry for the Lord. It also plants in their hearts the thought that they can persuade God to act and do as they desire.
If it were to be accepted, as some of them allege to be the case, that the “baptism the Holy Spirit” is activating the Holy Spirit who has come to reside in the Christian Believers from the moment of their salvation, then this notion implies that God the Holy Spirit, having come to reside in a Born-Again Christian Believer, being given to him by God, comes in a dormant state and remains dormant unless and until the Believer wakes Him up and makes Him active. Therefore, it is the person in whom the Holy Spirit is residing, who controls and directs the Holy Spirit, instead of it being the other way around. But no such teaching has been given by the Lord Jesus regarding the Holy Spirit in John chapters 14 and 16, nor anywhere in the letters of the New Testament or any other books of the Bible. This is an unBiblical teaching, a satanic attempt to beguile people into trying to dominate and control God. In this context it is interesting to note that in some pagan religions there is the concept of awakening super-powers residing within the body through human methods and efforts.
If it is said that the Holy Spirit is given to all Believers, but there are some who need some extra power and abilities for their ministry, therefore, they need a ‘second experience’, the “baptism of the Holy Spirit” for this, then, this too is inconsistent with the teachings of God’s Word. This is only an attempt to create divisions and differences amongst Christian Believers in the garb of godliness and righteousness; a way of making them fall into pride. If this notion is to be accepted, then it’s consequences are not difficult to see and understand:
It will created divisions and differences amongst Christian Believers - divide them into those who have received the “baptism of the Holy Spirit”, and those who have not. God’s Word very clearly shows that whenever God’s people, within themselves, have tried to show themselves as different from others on any basis, the result has always been problems in the Church, never any benefit or progress, only breaking up and antagonism - (i) the Church in Corinth got divided because of following certain elders instead of the Lord Jesus (1 Corinthians 1:11-13). (ii) By segregating themselves as ‘Hebrew’ and ‘Hellenist’ Believers, there were contentions and in-fighting which started to adversely affect the prayers and service of God’s Word by the Apostles and Elders of the Church in Jerusalem (Acts 6:1-4). (iii) All the Apostles, Elders, and even Paul had to continually struggle to dissuade the Believers from thinking of themselves as Jewish and Non-Jewish Believers and the harmful effects of this thinking throughout their ministry (Acts 15:1-2, 5, 10-11; Ephesians 2:17-22). This was such a strong divisive and disruptive force, that even the Apostles and Elders of the stature of Peter and Barnabas got carried away by it and fell into hypocrisy (Galatians 2:11-13). A similar situation of division, differences, contentions, and hypocrisy arises when the Church is divided into ‘haves’ and ‘have-nots’ on the basis of this false and unBiblical doctrine of the “baptism of the Holy Spirit.”
Those who consider themselves as those who have received the so-called “baptism of the Holy Spirit”, they start thinking of themselves as Believers of a superior or better quality; fall into spiritual pride, which is detrimental for their Christian ministry and functioning in the Church, since God can never compromise with and work along with those who are proud. In contrast, those who do not receive this so-called “baptism of the Holy Spirit”, despite their many efforts and attempts, they develop a feeling of being inferior and inadequate for God’s work, and they become weak and ineffective in their ministry. In both these situations, because of this false notion, God’s people and work of preaching and propagating the Gospel are brought to harm; and Satan gets to benefit.
This notion also gives rise to the false unBiblical understanding that different ministries not only need different gifts of the Holy Spirit, but also different power and abilities from the Holy Spirit. Which then implies that some ministries are main and important and need some extra power and ability to be carried out, while the others are not as important or significant and do not need any extra power or abilities. This once again creates divisions and feelings of superiority-inferiority amongst Christian Believers and ministries. This concept is absolutely contrary to the purpose in giving the gifts of the Holy Spirit for Christian Ministry. Whatever be the gift, all are meant to serve, nurture, and contribute to the growth of the one body of Christ, the Church; no gift is greater or lesser, significant or insignificant, all gifts are equal and equally necessary, equally useful (Romans 12:3-5). God will reward everyone according to what the person has done with the ministry and gift entrusted to him; and not on the status and importance of the ministry or gift given to a person (Matthew 20:9-15). The very same power of the Holy Spirit is equitably available to everyone who is obedient to Him in their ministry.
If you are a Christian Believer, then it is mandatory for you to learn the teachings related to the Holy Spirit from the Word of God, seriously ponder over them, understand them, and obey them. You should learn the truth and accordingly live and behave appropriately and worthily, and should teach only the truth from the Bible. You will have to give an account of everything you say to the Lord Jesus (Matthew 12:36-37). When you have God’s Word in your hand, and the Holy Spirit is there with you to teach you, then how will you be able to answer for yourself for getting deceived by wrong doctrines and false preaching and teachings? How will you justify your giving credibility to the persons, sects, and denominations teaching and preaching wrong things in the name of the Holy Spirit, and being part of their false teachings?
If you are still thinking of yourself as being a Christian, because of being born in a particular family and having fulfilled the religious rites and rituals prescribed under your religion or denomination since your childhood, then you too need to come out of your misunderstanding of Biblical facts and start understanding and living according to what the Word of God says, instead of what any denominational creed says or teaches. Make the necessary corrections in your life now while you have the time and opportunity; lest by the time you realize your mistake, it is too late to do anything about it.
If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Psalms 105-106
1 Corinthians 3