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निर्गमन 12:8-10 (2) - प्रभु की मेज़ - वचन का आदर, अध्ययन, और पालन करने वालों के लिए
बाइबल हमें 2 कुरिन्थियों 11:3 में बताती है कि हव्वा से पाप करवाने के लिए शैतान ने उसे अपनी चालाकी से बहका लिया, और उसी तरह से वह मसीही विश्वासियों के मनों को भी भ्रष्ट करता है और उन्हें मसीह में सादगी से भटका कर ले जाना चाहता है। हव्वा शैतान द्वारा इसलिए बहकाई जा सकी क्योंकि उसने परमेश्वर की कही बात, उसके वचन पर भरोसा रखने की बजाए, परमेश्वर के निर्देशों से बाहर की बातों पर, एक अन्य सृजे गए प्राणी के द्वारा उससे कही जाने वाली बातों पर भरोसा कर लेने को चुन लिया। उसकी दूसरी गलती थी कि उसने शैतान की बात मान लेने से पहले अपने पति आदम के साथ इस बात पर चर्चा नहीं की; और न ही परमेश्वर के आने पर, जैसा वह किया करता था, उस से इसके बारे में पूछने की प्रतीक्षा की। शैतान जो भी कहना चाहता था, उसे सुनने के बाद उसने तुरंत ही निर्णय लेकर कार्यवाही कर ली तथा आदम से भी करवा दी, क्योंकि शैतान ने जो कहा था वह हव्वा की समझ, बुद्धि, और आँखों को भाया, और उसने उस पर भरोसा कर लिया, मनुष्य के जीवन तथा सृष्टि में शैतान और पाप के लिए द्वार को खोल दिया, और हम आज तक उनके द्वारा परमेश्वर के निर्देशों की अनाज्ञाकारिता तथा परमेश्वर के वचन को नज़रंदाज़ करने के परिणाम भुगत रहे हैं।
लगभग यही स्थिति प्रभु भोज, या, प्रभु की मेज़ तथा अन्य बातों के लिए परमेश्वर द्वारा उसके वचन बाइबल में दिए गए निर्देशों के बारे में भी ईसाई या मसीही समाज में व्याप्त है। आज लोगों में परमेश्वर के वचन का अध्ययन करने और उसके निर्देशों को मानने में कोई रुचि नहीं है, अथवा इसका बहुत ही कम शौक है। इसकी बजाए वे उसी को मानने और उसका पालन करने से संतुष्ट रहते हैं जो एक अन्य मनुष्य उन्हें परमेश्वर के नाम में पुल्पिट से एक आकर्षक और तर्क-संगत रीति से बता देता है; और वे उसे स्वीकार करने तथा उसका पालन करने से पहले बाइबल से उसकी जांच अथवा पुष्टि भी नहीं करते हैं। परिणाम यह हुआ है कि शैतान ने बड़ी ही आसानी से अपनी गलत शिक्षाएं और अनुचित सिद्धांत मसीहियत में घुसा दिए हैं, अपनी गलत और शैतानी व्याख्याओं की द्वारा परमेश्वर के वचन की बातों को भ्रष्ट कर दिया है, बिगाड़ दिया है। इस प्रकार से, जैसे उसने हव्वा को बहकाया, उसी प्रकार से उसने अधिकांश ईसाई या मसीही समाज को बाइबल के बाहर की अपनी गलत शिक्षाओं का पालन करने के लिए, जिनमें उसकी दुष्टता की बातें, चालाकियाँ, और सांसारिक बातों की शिक्षाएं भी चतुराई से मिलाई हुई होती हैं, बहका लिया है। इसलिए, ईसाई या मसीही समाज में जो परिस्थिति व्याप्त है वह यह है कि आज लोग परमेश्वर की इच्छा को जानने, समझने, और उसका पालन करने के लिए प्रयास करने की बजाए, मनुष्य की बातों को सुनने और स्वीकार करने, उनका पालन करने में अधिक रुचि रखते हैं; अर्थात, वे परमेश्वर को प्रसन्न करने वाले होने के स्थान पर मनुष्यों को प्रसन्न करने वाले हो गए हैं।
उनकी इस प्रवृत्ति का एक अनंतकाल के लिए घातक प्रभाव उत्पन्न करने वाली बात है, उनके द्वारा प्रभु भोज में एक धार्मिक अनुष्ठान के समान उस रीति से भाग लेना जो उनके समुदाय अथवा डिनॉमिनेशन में पालन की जाती है, इस विश्वास के साथ कि भाग लेने के द्वारा वे परमेश्वर के लोग बन जाएंगे, परमेश्वर को स्वीकार्य हो जाएंगे, और स्वर्ग में प्रवेश करने के योग्य मान लिए जाएंगे - जो कि एक बिल्कुल गलत और बाइबल के सर्वथा विपरीत सिद्धांत है। इस शृंखला में हम यह अध्ययन कर रहे हैं कि परमेश्वर का वचन प्रभु की मेज़ में भाग लेने के विषय वास्तव में क्या कहता है, तथा इस और अन्य गलत और घातक धारणाओं को दूर करने का प्रयास कर रहे हैं। प्रभु यीशु ने प्रभु की मेज़ की स्थापना अपने शिष्यों के साथ फसह का भोज खाते हुए, उसी भोज की सामग्री को लेकर उपयोग करने के द्वारा स्थापित की थी। फसह से संबंधित परमेश्वर के निर्देश निर्गमन 12 तथा परमेश्वर द्वारा मूसा में होकर दी गई व्यवस्था में दिए गए हैं। ये निर्देश और उनके तात्पर्य आज भी उतने ही सत्य हैं जितने तब थे; और इनके द्वारा हमें प्रभु की मेज़ में परमेश्वर के निर्देशों के अनुसार भाग लेने के लिए बहुत सी बातें समझने तथा सीखने को मिलती हैं, न कि एक औपचारिकता के समान, जैसा आज सामान्यतः होता रहता है। हम इन बातों को निर्गमन 12 में से समझ और सीख रहे हैं, और पिछले लेख में हमने पद 8-10 में से सीखना आरंभ किया है; जिसमें हमने देखा है कि फसह के भोज में भाग लेने और मिस्र के दासत्व से छुड़ाए जाने के लिए एक कीमत चुकानी पड़ी थी। इसी प्रकार से योग्य रीति से प्रभु की मेज़ में भाग लेना उनके लिए है जिन्होंने अपने आप को संसार, साँसारिकता, और उसकी आरामदेह बातों से पृथक कर लिया है; वे प्रभु के लिए खड़े होने के लिए, तैयार हैं, तथा प्रभु के लोग होने के लिए पहचाने जाने के लिए कठिनाइयों, समस्याओं, और सताव सहन करने के लिए तैयार हैं। आज हम इसी खण्ड को आगे देखेंगे और इस खण्ड की कुछ अन्य शिक्षाओं और अभिप्रायों को देखेंगे तथा उनसे सीखेंगे।
बलि के मेमने के लहू को घर के दरवाज़े की चौखटों तथा अलंगों पर लगाने के बाद, इस्राएलियों को मेमने को आग पर भूनना था और फिर उसे अखमीरी रोटी तथा कड़वे साग-पात के साथ खाना था। इस बात को हम पिछले लेख में देख चुके हैं। इन आयतों को आगे देखने से पहले, हमें स्मरण कर लेना चाहिए कि प्रभु यीशु ने अपनी तोड़ी गई देह तथा बहाए गए लहू के चिह्न के रूप में अखमीरी रोटी तथा दाख-रस को उपयोग किया था। साथ ही, यूहन्ना 6:32-63 में प्रभु यीशु अपनी देह और लहू की बात करता है, जिन्हें उसके शिष्यों को नए जीवन के स्त्रोत के रूप में खाना और पीना था। अब, पुराने नियम में, परमेश्वर का वचन और व्यवस्था माँस को लहू के साथ खाने और लहू को खाने के लिए स्पष्ट मना करता है (उत्पत्ति 9:4; लैव्यव्यवस्था 3:17; 7:26; आदि)। इसलिए जब प्रभु यीशु उनकी देह के खाए जाने और लहू के पीए जाने की बात करता है तो यह सांकेतिक ही हो सकता है, न कि शब्दार्थ के समान, जिस प्रकार से जिस रोटी और दाखरस को उसने दिया था, उनके सांकेतिक अर्थ थे।
बहुत ही साधारण रीति से, हम जो कुछ भी खाते और पीते हैं, वह हमारे पेट में जाकर अपनी रचना के अवयवों में बँट जाता है, और फिर सोख लिए जाने के बाद, खून के साथ शरीर के विभिन्न भागों में जाता है, और अपने गुणों के अनुसार शरीर में प्रभाव उत्पन्न करता है। लगभग यही बात रोटी और दाखरस, अर्थात प्रभु यीशु की देह के खाने और लहू पीने के लिए भी होती है। प्रभु यीशु ने यूहन्ना 6:54-56 में कहा है, “जो मेरा मांस खाता, और मेरा लोहू पीता है, अनन्त जीवन उसी का है, और मैं अंतिम दिन फिर उसे जिला उठाऊंगा। क्योंकि मेरा मांस वास्तव में खाने की वस्तु है और मेरा लोहू वास्तव में पीने की वस्तु है। जो मेरा मांस खाता और मेरा लोहू पीता है, वह मुझ में स्थिर बना रहता है, और मैं उस में”; अर्थात, प्रभु की देह और लहू अनंत जीवन का स्त्रोत हैं, और उसमें बने रहने का कारण हैं। थोड़ा सा आगे, यूहन्ना 6:63 में प्रभु ने कहा, “आत्मा तो जीवनदायक है, शरीर से कुछ लाभ नहीं: जो बातें मैं ने तुम से कहीं हैं वे आत्मा है, और जीवन भी हैं”; अर्थात, उसने जिस अनंत जीवन के बारे में आयत 54 में बात की है, वह आत्मा के द्वारा, उसके शब्दों के द्वारा मिलता है। इसलिए तात्पर्य स्पष्ट है, कि प्रभु जिसे “खाने” की बात कर रहा है, वह उसका वचन है। और क्योंकि प्रभु यीशु स्वयं “जीवता वचन” है, जिसने देहधारी होकर हमारे मध्य में निवास किया (यूहन्ना 1:1, 14), उसके वचनों को “खाना” उसकी देह को खाने के समान है। इसकी पुष्टि 1 यूहन्ना 3:24 “और जो उस की आज्ञाओं को मानता है, वह उस में, और वह उन में बना रहता है: और इसी से, अर्थात उस आत्मा से जो उसने हमें दिया है, हम जानते हैं, कि वह हम में बना रहता है” से भी हो जाती है - प्रभु यीशु की आज्ञाओं को मानना ही उसमें बने रहना है। इसी प्रकार से यूहन्ना 4:34 में प्रभु यीशु परमेश्वर की आज्ञाकारिता को भोजन करने के समान बताता है। और प्रकाशितवाक्य 10:9 तथा यहेजकेल 2:8-3:3 में यूहन्ना तथा यहेजकेल को खा लेने के लिए पुस्तकें दी गईं और फिर उन पुस्तकों को खा लेने के बाद उन्होंने जो उन से सीखा उसे लोगों को बताना था। इसलिए चिह्न और प्रतीक स्पष्ट हैं; प्रभु यीशु की देह और लहू को खाने और पीने का अभिप्राय है कि उसके शब्दों अर्थात परमेश्वर के वचन बाइबल को खाएं, अच्छे से चबाएं, पचा लें और उन्हें आत्मसात कर लें, तथा उस वचन को उनके जीवनों में परिवर्तन लाने दें। जैसा कि यूहन्ना 14:21, 23 कहते हैं, कि व्यक्ति के परमेश्वर से प्रेम करने का प्रमाण (वास्तव में बाइबल में परमेश्वर द्वारा दिया गया इस बात का एकमात्र प्रमाण) यही है कि व्यक्ति परमेश्वर के वचन से प्रेम करता है, उसका पालन करता है। इसी प्रकार से 1 यूहन्ना 2:3-6 कहता है कि परमेश्वर को जानने, उससे प्रेम करने, और प्रभु में बने रहने का प्रमाण है उसकी आज्ञाओं को जानना और मानना, जो कि व्यक्ति के द्वारा प्रभु के समान जीने और चलने के द्वारा प्रमाणित होगा।
प्रभु की देह को “खाने” के चिह्न और प्रतीक को समझ लेने के बाद, हम वापस निर्गमन 12:8 को लौटते हैं - बलि किए हुए मेमने के माँस को समस्त परिवार ने साथ ही खाना था, अखमीरी रोटी तथा कड़वे साग-पात के साथ। हम पहले देख चुके हैं कि बलि किया हुआ फसह का मेमना, परमेश्वर के मेमने, प्रभु यीशु के समस्त मानव जाति के छुटकारे के लिए क्रूस पर दिए गए बलिदान को दिखाता है। “खाने” की सांकेतिक भाषा का उपयोग उस मेमने के खाए जाने के लिए उपयोग करने के द्वारा हम समझ सकते हैं कि प्रभु भोज के संदर्भ में, उसका अभिप्राय होता है कि उस “जीवते वचन को, जो देहधारी हुआ और हमारे मध्य में डेरा किया” का अध्ययन करना, अर्थात परमेश्वर के वचन का अध्ययन करना, उसे आत्मसात करना, और उसे हमारे जीवनों को आत्मिक जीवन में परिवर्तित कर लेने देना।
इसके साथ कुछ अन्य चिह्न और प्रतीक भी यहाँ निर्गमन 12:8 में दिए गए हैं। आयत 7 और 8 में हम देखते हैं कि पहले मेमने को बलि करना था, फिर उसके लहू को घर के चौखटों तथा अलंगों पर लगाना था। अर्थात, पहले उस घराने को प्रभु की आज्ञाकारिता और अधीनता में आना था, फिर बलि किए हुए मेमने को घर के अन्दर खाना था, जब तक कि छुटकारे के लिए कूच करने की पुकार न दी जाए। न केवल परिवार के मुख्या को, परंतु सारे परिवार को “मेमने को खाना” था। उन्हें यह बाहर के अंधकार तथा मौत के दूत के द्वारा काम किए जाने से विचलित और प्रभावित हुए बिना करना था। अर्थात, उन्हें बाहर लगाए गए लहू, और उसके अधीन हो जाने के कारण बचाए जाने पर भरोसा रखना था। फसह का पर्व उन्हें जीवन भर सालाना पर्व के रूप में मनाना था (निर्गमन 12:24); अर्थात जब तक वे जीवित रहें, उन्हें मेमने को “खाते” रहना, अर्थात अध्ययन करते रहना था।
“खाने” के विषय में इस चिह्न और प्रतीक से हम अपने संदर्भ, प्रभु भोज में भाग लेने के बारे में क्या सीख सकते हैं? जिस प्रकार से बलि किए गए मेमने को सारे घराने को खाना था, उसी रीति से प्रभु की मेज़ में भाग उन्हें ही लेना चाहिए जो अपने परिवार के साथ परमेश्वर के वचन का आदर करते हैं, ध्यान देकर और प्रयास के साथ उसका अध्ययन करते हैं; अर्थात, उनके अपने और पारिवारिक जीवन में परमेश्वर के वचन का अध्ययन करना एक आदरणीय प्राथमिकता होनी चाहिए, न कि मात्र औपचारिकता को पूरा करने के लिए वचन का कोई भी खण्ड पढ़ लेना, और समझना कि जिसकी आवश्यकता थी, उसे पूरा कर लिया गया है। इसका यह भी अर्थ है कि संसार की मांगो और परमेश्वर के प्रति उत्तरदायित्व और उसे आदर देने के मध्य में एक का चुनाव करना होगा, और सही निर्णय का पालन करना होगा। इस बाइबल अध्ययन को बाहर संसार में पाप और मृत्यु की अंधकार की शक्तियों के हो रहे काम से बिना विचलित हुए निरंतर करते रहना है। वरन यह बाइबल अध्ययन में लौलीन रहने का और भी अधिक प्रबल कारण होना चाहिए, जिससे शैतान के द्वारा मसीही विश्वासियों पर किए गए हमलों का सामना कर सकें और स्थिर खड़े रह सकें (प्रकाशितवाक्य 3:10)। यह व्यक्ति द्वारा वास्तविक और प्रभावी रीति से तभी किया जा सकता है जब व्यक्ति और उसका घराना पहले प्रभु के लहू अर्थात प्रभु यीशु के द्वारा बचाए जाने की सामर्थ्य की अधीनता में आ गया हो। क्योंकि व्यक्ति जैसे ही उद्धार पाता है, परमेश्वर पवित्र आत्मा उसमें आकर निवास करने लगता है (इफिसियों 1:13-14), और पवित्र आत्मा के कार्यों में से एक है मसीही विश्वासियों को परमेश्वर के वचन को सिखाना (यूहन्ना 14:26)। क्योंकि यह भाग लेना हर साल, जीवन भर करते रहना है, इसलिए मसीही विश्वासी को भी निरंतर वचन का अध्ययन करते रहना चाहिए, और अपनी आत्मिक उन्नति की बढ़ोतरी का आँकलन करते रहना चाहिए - जैसा कि हम आगे के लेखों में देखेंगे।
इसलिए हम यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि प्रभु भोज में भाग लेना उनके लिए है जो न केवल प्रभु के उद्धार देने वाले लहू की अधीनता में आ गए हैं, किन्तु साथ ही वचन के अध्ययन करने और उसकी शिक्षाओं और निर्देशों को अपने जीवन में प्राथमिक स्थान देते हैं। जिनके पास परमेश्वर के वचन के अध्ययन के लिए, उसके निर्देशों का पालन करने के लिए, उसे अपने जीवन में लागू करने के लिए समय और रुचि नहीं है, उनके लिए धार्मिक रीति के समान इस मेज़ में भाग लेना व्यर्थ है, निष्फल है, और अनुचित रीति से भाग लेने के कारण कोई लाभ मिलने के स्थान पर वे ताड़ना के भागी होंगे (1 कुरिन्थियों 11:28-31), जैसा कि हम बाद के लेखों में देखेंगे।
ये सभी बातें स्पष्ट दिखाती हैं कि प्रभु भोज में भाग लेना उनके लिए नहीं है जो इसे एक धार्मिक रीति या औपचारिकता के समान लेते हैं, किन्तु उनके लिए है जिन्होंने स्वेच्छा से प्रभु के योग्य जीवन बिताने उसकी आज्ञाकारिता में चलने का निर्णय लिया है, और इसके लिए कीमत चुकाने के लिए भी तैयार है। अगले लेख में हम निर्गमन 12 में से यहीं से आगे देखेंगे। यदि आप एक मसीही विश्वासी हैं, और प्रभु की मेज़ में भाग लेते रहे हैं, तो कृपया अपने जीवन को जाँच कर देख लें कि आप वास्तव में पापों से छुड़ाए गए हैं कि नहीं? क्या आप ने अपना जीवन प्रभु की आज्ञाकारिता में जीने के लिए उस को समर्पित किया है कि नहीं? तथा क्या आप प्रभु में एक नई सृष्टि बन गए हैं कि नहीं? क्या आप कलीसिया में विभाजनों और गुटों में बांटने में नहीं किन्तु एकता के साथ रहने में प्रयासरत रहते हैं कि नहीं? तथा क्या आप प्रभु की मेज़ में उसी प्रकार से भाग ले रहे हैं जैसे परमेश्वर ने निर्देश दिये हैं, प्रभु के प्रति पूर्ण समर्पण और प्रतिबद्धता के साथ, बड़ी गंभीरता से मेज़ के महत्व पर मनन करते हुए; या फिर आप किसी डिनॉमिनेशन की परंपरा अथवा किसी के मनमाने विचारों के अनुसार भाग ले रहे हैं? अपने आप को जांच कर देखें कि क्या आप प्रभु के सामने खड़े होकर अपने जीवन का हिसाब देने के लिए तैयार हैं कि नहीं? आपके लिए यह अनिवार्य है कि आप परमेश्वर के वचन की सही शिक्षाओं को जानने के द्वारा एक परिपक्व विश्वासी बनें, तथा निरंतर परिपक्वता में बढ़ते जाएं। साथ ही सभी शिक्षाओं को वचन की कसौटी पर परखने, और बेरिया के विश्वासियों के समान, लोगों की बातों को पहले वचन से जाँचने और उनकी सत्यता को निश्चित करने के बाद ही उनको स्वीकार करने और मानने वाले बनें (प्रेरितों 17:11; 1 थिस्सलुनीकियों 5:21)। अन्यथा शैतान द्वारा छोड़े हुए झूठे प्रेरित और भविष्यद्वक्ता मसीह के सेवक बन कर (2 कुरिन्थियों 11:13-15) अपनी ठग विद्या और चतुराई से आपको प्रभु के लिए अप्रभावी कर देंगे और आप के मसीही जीवन एवं आशीषों का नाश कर देंगे।
यदि आपने प्रभु की शिष्यता को अभी तक स्वीकार नहीं किया है, तो अपने अनन्त जीवन और स्वर्गीय आशीषों को सुनिश्चित करने के लिए अभी प्रभु यीशु के पक्ष में अपना निर्णय कर लीजिए। जहाँ प्रभु की आज्ञाकारिता है, उसके वचन की बातों का आदर और पालन है, वहाँ प्रभु की आशीष और सुरक्षा भी है। प्रभु यीशु से अपने पापों के लिए क्षमा माँगकर, स्वेच्छा से तथा सच्चे मन से अपने आप को उसकी अधीनता में समर्पित कर दीजिए - उद्धार और स्वर्गीय जीवन का यही एकमात्र मार्ग है। आपको स्वेच्छा और सच्चे मन से प्रभु यीशु मसीह से केवल एक छोटी प्रार्थना करनी है, और साथ ही अपना जीवन उसे पूर्णतः समर्पित करना है। आप यह प्रार्थना और समर्पण कुछ इस प्रकार से भी कर सकते हैं, “प्रभु यीशु मैं आपका धन्यवाद करता हूँ कि आपने मेरे पापों की क्षमा और समाधान के लिए उन पापों को अपने ऊपर लिया, उनके कारण मेरे स्थान पर क्रूस की मृत्यु सही, गाड़े गए, और मेरे उद्धार के लिए आप तीसरे दिन जी भी उठे, और आज जीवित प्रभु परमेश्वर हैं। कृपया मेरे पापों को क्षमा करें, मुझे अपनी शरण में लें, और मुझे अपना शिष्य बना लें। मैं अपना जीवन आप के हाथों में समर्पित करता हूँ।” सच्चे और समर्पित मन से की गई आपकी एक प्रार्थना आपके वर्तमान तथा भविष्य को, इस लोक के और परलोक के जीवन को, अनन्तकाल के लिए स्वर्गीय एवं आशीषित बना देगी।
एक साल में बाइबल पढ़ें:
दानिय्येल 8-10
3 यूहन्ना 1
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Exodus 12:8-10 (2) - The Lord’s Table - For Those Who Honor, Study, and Obey God’s Word
The Bible says in 2 Corinthians 11:3 that to cause Eve to sin, Satan beguiled her through his craftiness, and similarly, he tries to corrupt the minds of the Christian Believers and lead them away from the simplicity in Christ. Eve could be beguiled by Satan, because instead of trusting in God’s Word, she chose to trust in things extraneous to God’s instructions being said to her by a created, earthly creature. The second error she made was to not discuss it with her husband Adam, nor wait to ask God when He would visit them, as God used to do. But on hearing what Satan had to say, since what Satan said appealed to her understanding, intellect, and eyes, she immediately acted upon it, and also made Adam do the same. Their disobedience to God’s Word and instructions given to them, opened the door for sin to enter their lives and the creation, and we are still suffering the consequences of their disobeying God and ignoring His Word.
Much the same situation prevails regarding the Holy Communion, or, the Lord’s Table, and other instructions that God has given in His Word the Bible. Since people have scant, or, no interest in studying and learning God’s Word and obeying its instructions. Instead, they are quite content with accepting and believing whatever another person tells them, in God’s name in an attractive and seemingly logical manner from the pulpit, without bothering to cross-check and verify it from the Bible, before accepting it and following or obeying it. The consequence is that Satan has brought in and firmly established his wrong teachings and false doctrines, has corrupted God’s Word through his devious misinterpretations. Thereby, like he beguiled Eve, he has beguiled most of Christendom into following unBiblical, i.e., devious misinterpretations of God’s Word cleverly mixed with worldly things and teachings outside of the Bible. Therefore, the prevailing situation in Christendom is that people are more interested and willing to listen to men and obey them, rather than bother to learn and find out God’s will, and obey God; i.e., people would rather be “men-pleasers” than be “God-pleasers.”
One of the eternally disastrous consequences of this tendency is believing that partaking of the Holy Communion, as a religious ritual, in the manner practised in their sect or denomination, will make them God’s people, acceptable to God and entitle them to enter heaven - a patently false and unBiblical notion. Through this series we have been studying what God’s Word actually has to say and teach about the Holy Communion and participating in it, and dispel this and other erroneous, disastrous notions. The Lord Jesus established the Lord’s Table while eating the Passover meal with His disciples, using the elements of the Passover meal. God’s instructions related to the Passover are given in Exodus 12 and in the Law given by God through Moses. These instructions and their implications are just as true today, and teach us many things about understanding and participating in the Lord’s Table in the manner God wants it to be done, and not perfunctorily, as is usually being done. We have been studying this from Exodus 12, and reached the section of verses 8-10 in the last study, where we saw that participating in the Passover and being delivered from the bondage of Egypt called for paying a price. So too worthily participating in the Lord’s Table is for those who have detached themselves from the world, worldliness, and its comforts, are willing to stand up for the Lord and face difficulties, problems, and persecution for being counted as people of the Lord Jesus. Today, we will continue ahead with the same section and explore some other teachings and implications of this section.
After applying the blood of the sacrificial lamb of the Passover to the door-posts and lintel of their houses, the Israelites then had to roast the lamb on fire, and eat it with unleavened bread and bitter herbs - which we have considered in the last article. Before proceeding further with these verses, we should recall that in establishing the Holy Communion, the Lord Jesus gave the unleavened bread and the cup of grape-juice, as symbols of His broken body and shed blood, for His disciples to eat and drink. Also, in John 6:32-63, the Lord Jesus speaks of His body and blood, that have to be eaten and drunk as source of life. Now, in the OT, the Word of God even before the Law and even in the Law expressly forbade eating meat with blood, or using blood as food (Genesis 9:4; Leviticus 3:17; 7:26; etc.). Therefore, when the Lord speaks of eating and drinking His body and blood, it has to be, not literally, but with a symbolic meaning, just as the bread and grape-juice that He gave to eat and drink had symbolic meanings.
Very simply stated, after we eat or drink something, it is broken down into its components in our gut, then is absorbed and circulates with the blood to various parts of the body, and produces the various effects in the body, according to its characteristics. Much the same is implied in eating the bread and grape-juice, i.e., the body and blood of the Lord Jesus. In John 6:54-56, the Lord Jesus says, “Whoever eats My flesh and drinks My blood has eternal life, and I will raise him up at the last day. For My flesh is food indeed, and My blood is drink indeed. He who eats My flesh and drinks My blood abides in Me, and I in him”; i.e., the body and blood of the Lord are the source of eternal life, and cause of abiding in Him. A little later, in John 6:63 He says, “It is the Spirit who gives life; the flesh profits nothing. The words that I speak to you are spirit, and they are life”; i.e., this eternal life that He has spoken of in verse 54 comes through the Spirit, through His Words. Therefore, the implication is apparent, that what the Lord is asking to be “eaten” are His Words; and since the Lord Jesus is “the living Word” that became flesh and dwelt amongst us (John 1:1, 14), “eating” His Words is the same as eating His body. This is further corroborated by 1 John 3:24 “Now he who keeps His commandments abides in Him, and He in him. And by this we know that He abides in us, by the Spirit whom He has given us” - obeying the commandments of the Lord is to abide in Him. Similarly in John 4:34 the Lord Jesus calls obeying God to be the same as eating food. Also in Revelation 10:9 and Ezekiel 2:8-3:3 books are given to John and Ezekiel to “eat” and then they have to speak out what they learnt from “eating” those books. So, the symbolism and implication are clear, to eat and drink the body and blood of the Lord implies to eat, chew, digest, and imbibe His Words, i.e., the Bible - the Word of God, and let the Word of God bring changes in a person’s life. As John 14:21, 23 says, the proof (actually, the only God-given proof in the Bible) of a person loving God is that he will keep God’s Word and obey His Commandments. Similarly, 1 John 2:3-6 says that the proof of knowing God, loving God, and abiding in the Lord is knowing and keeping His commandments, which will be manifested by the person living and walking as the Lord did.
Having seen and understood the symbolism of “eating” the Lord’s body, let us return back to Exodus 12:8 - the flesh of the sacrificed lamb had to be eaten by the whole family, with unleavened bread and bitter herbs. We have seen earlier that the Passover sacrificial lamb symbolised the Lamb of God sacrificed on the cross for the deliverance of mankind. Applying the symbolism of “eating” to the eating of the lamb, we can understand, that in context of the Holy Communion it means to study and learn about the “Living Word that became flesh and dwelt amongst us”, i.e., study the Word of God, imbibe it, and let it bring godly changes in our lives.
There are some other important symbolisms associated with this, given in Exodus 12:8. Through verses 7 and 8 we see that first the lamb had to be sacrificed, and then the blood of the sacrificed lamb had to applied to the door posts and lintel of the house. In other words, first the household had to come under the blood, and then this household that was under the saving cover of the blood, had to “eat” the lamb, inside the house, till the call to move out and be delivered from the bondage was sounded. Not just the elder of the family, but the whole household had to “eat the lamb.” They were to do it unperturbed by the night, and the Angel of death moving outside; i.e., had to do it trusting the saving power of the blood they had applied outside, and come under. The Passover was meant to be repeated as an annual event (Exodus 12:24), they had to keep “eating” the lamb as long as they lived.
What can we learn and derive for our context of participating in the Holy Communion from this symbolism about eating? As the sacrificed lamb was to be eaten by the whole household, those partaking of the Lord’s Table should be the ones that honor and diligently, laboriously study God’s Word, they and their families; i.e., the study of God’s Word has to be given a primary and exalted honorable place in their family life, not just a perfunctory reading of a random passage and believing that they have done what was necessary. This also means making a choice between the demands of the world and honoring God, and doing accordingly. This Bible study has to be done unperturbed by the darkness of sin and death outside in the world; rather this should all the more be a reason to study and learn God’s Word, to be able to withstand Satan’s attacking and shaking up of the Believers (Revelation 3:10). This can only be done actually and effectively, if the person, the household has first come under the blood, i.e., the saving power of the Lord Jesus. Because, the moment a person is saved, is Born-Again, the Spirit of God comes to reside in him (Ephesians 1:13-14) and one of the functions of the Holy Spirit is to teach God’s Word to the Christian Believers (John 14:26). Since this was to be done year by year, lifelong, the Christian Believer too has to remain studying God’s Word continually, and keep assessing his spiritual growth - as we will see in later articles.
Therefore, we can infer that participating in the Holy Communion is for those who not only have come under the saving blood of the Lord, but also give Bible study and obedience to its instructions and teachings a primary place in their lives. Those who have no place or time for God’s Word and studying it, obeying it, applying it in their lives, for them ritually partaking in the Lord’s table is vain, inconsequential and doing it unworthily; and will lead to adverse effects (1 Corinthians 11:28-31) than any benefits.
All these things show that participating in the Holy Communion is not for those who take it as a religious ritual or formality to be carried out perfunctorily, but is for those who willingly have chosen to live worthy of the Lord, in obedience to His Word, and are willing to pay the price for doing so. In the next article we will carry on from here and see more from these verse, Exodus 12:8-10. If you are a Christian Believer, and have been participating in the Lord’s Table, then please examine your life and make sure that you are actually redeemed from your sins, have submitted and surrendered your life to the Lord Jesus to live in obedience to Him and His Word, are a new creation for the Lord. That you strive for unity, not divisions and factionalism in the Church, and have been participating as the Lord has instructed to be done, participating with full allegiance to the Lord, in all seriousness, and pondering over its significance; instead of doing it in any presumptive manner, or simply as a denominational ritual; and are ready and prepared to stand before the Lord and answer for your life. It is also necessary for you to be spiritually mature, learn the right teachings of God’s Word. You should also always, like the Berean Believers first check and test all teachings you receive from the Word of God, and only after ascertaining the truth and veracity of the teachings brought to you by men, should you accept and obey them (Acts 17:11; 1 Thessalonians 5:21). If you do not do this, the false apostles and prophets sent by Satan as ministers of Christ (2 Corinthians 11:13-15), will by their trickery, cunningness, and craftiness render you ineffective for the Lord and cause severe damage to your Christian life and your rewards.
If you have not yet accepted the discipleship of the Lord Jesus, then to ensure your eternal life and heavenly rewards, take a decision in favour of the Lord Jesus now. Wherever there is surrender and obedience towards the Lord Jesus, the Lord’s blessings and safety are also there. If you are still not Born Again, have not obtained salvation, or have not asked the Lord Jesus for forgiveness for your sins, then you have the opportunity to do so right now. A short prayer said voluntarily with a sincere heart, with heartfelt repentance for your sins, and a fully submissive attitude, “Lord Jesus, I confess that I have disobeyed You, and have knowingly or unknowingly, in mind, in thought, in attitude, and in deeds, committed sins. I believe that you have fully borne the punishment of my sins by your sacrifice on the cross, and have paid the full price of those sins for all eternity. Please forgive my sins, change my heart and mind towards you, and make me your disciple, take me with you." God longs for your company and wants to see you blessed, but to make this possible, is your personal decision. Will you not say this prayer now, while you have the time and opportunity to do so - the decision is yours.
Through the Bible in a Year:
Daniel 8-10
3 John 1